(महत्वपूर्ण राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय फिल्मों पर टिप्पणी के क्रम में आज प्रस्तुत है जाने माने निर्देशक प्रकाश झा की दामुल । समकालीन जनमत केेे लिए मुकेश आनंद द्वारा लिखी जा रही सिनेमा श्रृंखला की चौथी क़िस्त-सं)
दामुल आजादी के बाद जारी दलित उत्पीड़न की कहानी कहती है। यह प्रकाश झा निर्देशित पहली फ़िल्म है। कथाभूमि बिहार है। मूल कहानी, जिस पर फ़िल्म बनी है,कालसूत्र है, जिसके लेखक शैवाल हैं। इनकी कहानी पर ही प्रकाश झा की एक अन्य महत्त्वपूर्ण फ़िल्म मृत्युदंड बनी है। दामुल भारतीय गाँवों में बदस्तूर जारी उस शोषण चक्र का पर्दाफास करती है जिसे उच्च कही जाने वाली जातियां पंचायत, पुलिस, प्रशासन और सरकार तथा न्याय व्यवस्था की मदद से क़ायम रखे हुए हैं।
दामुल फ़िल्म में शोषण की पूरी प्रणाली गांव का मुखिया माधो पांडे चला रहा है। वह ब्राह्मण है।उसका प्रतिद्वंद्वी बच्चा सिंह है जो गांव के राजपूतों का नेता है। शोषण के शिकार दलित हैं जिनकी गांव से लगी अलग बस्ती है, जैसा कि शास्त्रीय विधानों के अनुरूप सदियों से होता आया है। इस प्रकार बिहार के गांव वैसे ही जाति आधारित दलों में बंटे हैं जैसा रेणु ने “मैला आँचल” लिखते हुये आजादी के समय देखा था।
बच्चा सिंह की ख्वाहिश गाँव का मुखिया बनने की है। जिसमें वह लगातार माधो पांडे से शिकस्त खा रहा है। हार कर वह एक दलित गोकुल को चुनाव में खड़ा करता है और राजपूत-दलित गठजोड़ बनाता है। किंतु ताक़त के दम पर माधो पांडे दलितों को वोट नहीं देने देता। इस तरह लोकतंत्र के जरिये आ सकने वाले किसी आधे अधूरे परिवर्तन की गुंजाइश भी समाप्त हो जाती है। इस घटना के बाद माधो पांडेय फर्जी कागज़ात और फर्जी मुकदमों के जरिये तीव्रता से दलितों का शोषण शुरू करता है जिसका शिकार संजीवन (अन्नू कपूर) बनता है।
इसी बीच मजदूरी को लेकर दलित मजदूरों एवं माधो पांडे के भाई राघो पांडे के बीच विवाद होता है। पेट पालने में भी असमर्थ मजदूर बच्चा सिंह के आर्थिक सहयोग से पंजाब जाने की कोशिश करते हैं। लिहाजा खूनी जातीय संघर्ष होता है जिसमें 17 दलित मारे जाते हैं और उनकी बस्ती जला दी जाती है। निचले स्तर के प्रशासन से लेकर मंत्री तक की मिलीभगत और हृदयहीनता से दर्शक रूबरू होता है।
दामुल में प्रदर्शित शोषण के स्वरूप को समझने के लिए हमें उस खतरनाक मिश्रण को समझना होगा जो ग्रामीण भारत में पूँजीवादी और सामंतवादी प्रवृत्तियों के गठजोड़ से बना है। ऐतिहासिक दृष्टि से भारत में पूंजीवाद सामंतवाद को समाप्त कर नहीं आया, वरन सामंती ढांचे पर ही उसे थोप दिया गया। साहित्यिक स्तर पर इस तथ्य की ओर प्रेमचंद गोदान में इशारा कर चुके थे। शाहिद अमीन और ज्ञानेंद्र पांडेय ने अपने जमीनी शोधों में भी इस बात की पुष्टि की है। दामुल में हम पूँजीवादी व्यवस्था के एक पहलू के रूप में लोकतंत्र को देखते हैं। लेकिन सामंती वातावरण में इसका हासिल बस इतना ही है कि 12 साल की उम्र से माधो पांडेय इसका मुखिया है। वह ताक़त और मशीनरी के सहयोग से दलित-राजपूत गठजोड़ की धज्जियाँ उड़ा देता है।
पूँजीवाद और सामंतवाद के गठजोड़ का अधिक कारुणिक उदाहरण नहर की मजदूरी के विवाद में सामने आता है। शुद्ध पूँजीवादी व्यवस्था में मजदूरी पर असहमति की स्थिति में करार टूट जाना चाहिए था। लेकिन आजादी के इतने वर्षों के बाद भी भारत मे स्वतंत्र श्रम बाजार नहीं विकसित हो सका। कारण पूंजीवाद के साथ घुली वर्णवादी-सामंतवादी प्रवृत्ति। ये दोनों व्यवस्थाएं एक दूसरे को मजबूती देती हैं। उनके द्वारा शोषण को बनाये रखने में सहयोग करती हैं।
राघो पांडे का अपने मजदूरों के साथ रिश्ता केवल मालिक और मजदूर का ही नहीं है; ब्राह्मण और दलित का भी है। जब माधो पांडे राघो से पूछता है कि दलितों की हत्या करने से क्या तुमको मजूर मिल जाएंगे, तो उसका जवाब है कि चाहे जो हो; वह यह सब बर्दास्त नहीं कर सकता है। राघो का जवाब महाभोज उपन्यास के पात्र जोरावर के कथन की याद दिलाता है-“इनके बाप-दादा हमारे बाप-दादा के आगे झुके रहते थे।झुके-झुके कमर कमानी की तरह टेढ़ी हो जाती थी और ये साले आंख दिखाते हैं। यह सब नहीं बर्दास्त होता मुझसे।”
माधो पांडेय का किरदार दामुल फ़िल्म के केंद्र हैं।देश के जाने-माने अभिनेता मनोहर सिंह ने अपने धारदार अभिनय से इस किरदार को अमर बना दिया है। वे साधारण कद-काठी और चेहरे-मोहरे के अभिनेता हैं। तगड़ी कद-काठी और दमदार आवाज के धनी अमरीश पुरी जब किसी शोषक जमीदार का किरदार निभाते हैं तो पहले ही दृश्य से वे दर्शक पर अपनी ताकत और दुर्जेयता की छाप छोड़ देते हैं। मनोहर सिंह के साथ यह सुविधा नहीं। लिहाजा माधो पांडेय की ताकत, उनका काइयाँपन और कुचक्र रचने की उनकी अकूत क्षमता धीरे-धीरे दर्शकों पर खुलती है। वह निरंतर झूठ, अन्याय और कुचक्र रचते हुए भी अपनी छवि दयालु, परोपकारी और धर्मात्मा की बनाये रखता है। अपने मातहतों और दलितों से वह संयत ढंग से और आत्मीयता से बात करता है। परिष्कृत भाषा और स्वच्छ पहनावे के साथ काफी शांत और स्थिर ढंग से रहता है। उसका यह घाघ चरित्र रागदरबारी के वैद्यजी और महाभोज के दा’साहब की याद दिलाता है।
इस शातिर चरित्र को हाईलाइट करने के लिए प्रकाश झा ने वही रास्ता अपनाया जो गौतम घोष ने पार में अपनाया है। दोनों फिल्में दलित उत्पीड़न पर केंद्रित हैं और दोनों का निर्माण काल भी एक ही है। पार में जमींदार उत्पल दत्त का छोटा भाई मोहन अगाशे वैसा ही गुस्सैल और उतावला अत्याचारी है जैसा दामुल में राघव पांडेय। मोहन अगाशे और राघो पांडे के किरदार में जातीय नफरत और हिंसा कूट कूट कर भरी है, किन्तु शोषण के चक्र को जारी रख पाने के लिए आवश्यक धीरज और दोगलापन इनमें नहीं दिखता ।ये ज्यादा से ज्यादा उपयोगी उपकरण हो सकते हैं। राघो के किरदार के आलोक में माधो पांडेय का किरदार और खिलकर सामने आता है जो यह बताता है कि दया, धर्म, न्याय और उपकार का ढोंग ही शोषण की व्यवस्था को मजबूती देता है। इसके बगैर न तो सामंती शोषण जारी रह सकता है न पूँजीवादी।
फ़िल्म शोषण के मजबूत तंत्र को भेदने के संकेत भी छोड़ती है। विद्रोह की चेतना सर्वप्रथम संजीवन में दिखती है जब वह मजिस्ट्रेट के सामने दलित हत्याकांड के अपराधियों पर बोलने की कोशिश करता है। लेकिन यह ज्यादा स्पष्ट रूप से महात्माइन (दीप्ति नवल) में दिखती है जो माधो पांडे के आर्थिक और शारीरिक शोषण का शिकार रही है। फ़िल्म के आखिरी दृश्य में संजीवन की पत्नी गड़ासे से माधो पांडे का गला यह कहकर काट देती है कि “संजीवन तू इसे मारकर फाँसी पे क्यों नही चढ़ा।”