‘दलित लेखक संघ’ के तत्वावधान में 23 जून 2021 को ‘कबीर जयंती’ के अवसर पर “कबीर की सामाजिक चेतना” विषय पर विचार गोष्ठी और काव्यपाठ का आयोजन किया गया। कार्यक्रम के आरंभ में दलित साहित्यकार सिद्धलिंग्यय और सूरज पाल चौहान को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए किया गया।
कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहीं चन्द्रकान्ता सिवाल ने अध्यक्षीय वक्तव्य में कहा कि चुनौतियों से लड़ने और समाज को एक समन्वयकारी दिशा देने में कबीर हमारी मदद कर सकते हैं। कर्मकांड, अंधविश्वास, अति आस्था, जातिवाद, साम्प्रदायिकता, ऊंच-नीच, व्यक्तिवाद आदि सामाजिक कुरीतियों से कबीर लगातार एक लड़ाई लड़ते रहे। हमें भी इस लड़ाई को आगे बढाने की ज़रूरत है। चन्द्रकान्ता जी ने स्वरचित दोहे भी पढ़े-
ताना-बाना सूत का, निर्मित करके चीर।
खूब कबीरा ने कही, आम जनन की पीर।।
रूढ़िवादी सोच पर, किया कुठाराघात।
तब जाकर चंद्रेश जी, बदले हैं हालात।।
सार संदर्भ के अपने वक्तव्य में हीरालाल राजस्थानी ने कहा कि कबीर-वाणी आमजन में रची बसी है। आज हमें सख्त जरूरत है कि कबीर के सन्देश को कबीर के तरीकों से समाज के सामूहिक मस्तिष्क तक पहुंचाया जाए क्योंकि कबीर की वाणी को समाज ने याद तो कर लिया लेकिन समझा नहीं है। यह बड़ी समस्या है। हमें देखना होगा कि ऐसी कौन सी शक्तियां हैं जो कबीर को समझने में बाधा उत्पन्न कर रही हैं। समाज निर्माण की लड़ाई के लिए हम सबको एक साथ नायक बनने के बजाए जागरूक नागरिक बनने की प्रक्रिया में आगे बढ़ना होगा। यही कबीर की वाणी का मूल सन्देश है।
कार्यक्रम की विषयवस्तु ‘कबीर की सामाजिक चेतना’ पर वक्ताओं में डॉ. बजरंग बिहारी तिवारी ने अपने वक्तव्य में कहा कि शब्द गुरु परंपरा पर बात रखी। राज्यसत्ता और समाज के बीच अन्तर्सम्बन्धों की पड़ताल करते हुए किसान आंदोलन को याद किया। जिसमें कबीर के दोहे का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि “काल दरवाजे खड़ा तो नींद कैसे आए।” समकालीन परिस्थितियों में साम्प्रदायिकता विरोधी कबीर के दोहों का हवाला देते हुए कहा कि
“देवालय ऐसा हो, जिसकी कोई नींव न हो।
देव ऐसा हो जिसकी कोई प्रतिमा न हो।।”
कबीर वाणी का यह मूल स्वर जितना भौतिकवादी है। उतना ही समाज में समन्वय की भावना को बल देने वाला भी है। कबीर की चिंताएं समाज के पुनर्निर्माण की हैं। इस लिए बहुत बार हमें कबीर बहुत सी चीजें तोड़ते हुए नज़र आते हैं।
इस क्रम में आशुतोष कुमार ने कहा कि कबीर का साहित्य मशाल की तरह है। जिसकी चमक आज भी समाज को मार्गदर्शन और रोशनी दे रही है। अनुभव की भट्टी में पका हुआ कबीर का चिंतन सही मायनों में भौतिकवाद के अधिक निकट है, क्रांतिकारी है। लेकिन कबीर को एक भक्त के रूप में अधिक समझा गया यह हमारी समझ की एक सीमा भी है और कबीर को समग्रता में समझने में बाधा भी।
रवि निर्मला सिंह ने सामाजिक पुनर्निर्माण में सबसे बड़ी बाधा सांप्रदायिकता और जातिवाद का हवाला देते हुए कबीर के वैचारिक सत्य से साहित्यिक सत्य तक के सफर को पेश करते हुए कहा कि कबीर अतिवाद से दूर थे बल्कि अतिवाद के घोर विरोधी थे। जैसे कि “साईं इतना दीजिये जामें कुटुम्ब समाय।” लेकिन आज हम सब उसी अतिवाद को जीवन के लिए महत्वपूर्ण मान बैठे हैं। कबीर की भाषा में सहजता और साहित्य में क्रांतिकारी समन्वय के मूल्य को पेश करते हुए कहा कि कबीर की वाणी मेहनतकश दलितों का प्रतिनिधित्व करती है।
डॉ. अमित धर्मसिंह ने कबीर साहित्य में दर्ज समाज की जटिलताओं के मद्देनजर अपनी बात रखते हुए कहा कि कबीर को समग्रता में पढ़ने की ज़रूरत है। कबीर साहित्य के अंतर्विरोधों को समझे बिना कबीर को समझना दुष्कर होगा।
कार्यक्रम की शुरूआत में जावेद आलम ने बीज वक्तव्य रखते हुए कहा कि कोई कबीर को पढ़े या न पढ़े, पर वह कबीर के साहित्य को जानता है। कबीर के जीवन और कला क्षेत्र पर प्रकाश डालते हुए जावेद ने कहा कि कबीर का लेखन, जीवन को लेकर है। कबीर की वाणी निर्मल नीर की तरह है। जो सामाजिक जीवन की विभिन्न समस्याओं को सुलझाती है। इसलिए यह ज़रूरी है कि बदलते समय के साथ कबीर साहित्य के भिन्नभिन्न आयामों पर नए सिरे से, समग्रता से बात की जाए। कबीर को समझना एक सम्पूर्ण समाज को समझने जैसा है।
बीज वक्तव्य के बाद काव्यपाठ के माध्यम से कार्यक्रम आगे बढ़ा जिसमें कबीर के दोहों की विशेष प्रस्तुति सुश्री अर्चना सिंह बौद्ध ने अपने गायन के साथ की। तत्पश्चात आमंत्रित कवियों द्वारा कविता पाठ में बलविंदर सिंह बली ने “झूठ की सच्चाई, चक्र का चौकोरी करण, राम नाम सत्य है।” श्रीलाल बौद्ध- “तब से मैं पढ़ता हूं बुद्ध” “चार आखर नफरत के।” डॉ. राजेश पाल ने अपनी कविता- हां! मैं लोहा हूं, धुरी का पहिया बनकर, दुनिया की धमनियों में बिछा हूं।” में सर्वहारा वर्ग के, श्रम के महत्व को सामने रखा। संजीव कौशल ने “हमने युद्ध नहीं बुद्ध दिए हैं।” कविता के माध्यम से अहिँसा पर ज़ोर दिया। हरपाल भारती ने “ये मुश्किलों का दौर है, संभल -संभल कर चल जरा।” कविता द्वारा कबीर के साहित्य लेखन को उजागर किया। सरिता संधू ने सांप्रदायिकता, प्रेम आधारित रचनाओं का पाठ किया। दामोदर मोरे ने “कबीर साहब से मैनें कहा, दोहे से महकते बोल, बंजर ज़मीन पर करुणा की बारिश।” सुंदर सूक्तियों द्वारा कबीर के साहित्य सौंदर्य को बखूबी उजागर किया। मंजीत सिंह अवतार- “कबीर अक्षर शब्द संसार है, गजब देश है मेरा भारत।” सुरेश मूले ने सिद्धलिंग्यय की कविता “मेरे लोग कैसी भक्त है मेरी जनता” कविता का पाठ अपने द्वारा हिंदी अनुवाद में किया।
कार्यक्रम का संचालन डॉ. राजकुमारी ने किया तथा ऑनलाइन मीटिंग की व्यवस्था कुसुम सबलानिया ने संभाली। कार्यक्रम में विशेष उपस्तिथि बतौर – डॉ. जय प्रकाश कर्दम, डॉ. इंगोले, भावना शुक्ल, ममता जयंत आदि की रही।
कार्यक्रम के अंत में श्रीमती सरिता संधू ने सभी आमंत्रित महानुभावों एवम श्रोताओं का आभार व्यक्त करते हुए धन्यवाद ज्ञापन दिया।
रिपोर्ट
– रवि निर्मला सिंह