समकालीन जनमत
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जनमत

सांस्कृतिक योद्धा भिखारी ठाकुर

आशीष त्रिवेदी

…….और अब यह बहस तो चलती ही रहेगी

कि नाच का आज़ादी से

रिश्ता क्या है

और अपने राष्ट्र गान की लय में
वह ऐसा क्या है

जहाँ रात – बिरात जाकर टकराती है

बिदेसिया की लय

– केदारनाथ सिंह

बहुत कम ऐसे रचनाकार होते हैं जो जीवित रहते मिथक बन जाए. भिखारी ठाकुर अपने जीवन काल में ही भोजपुरी समाज के मिथक बन चुके थे. पूर्वी उत्तर प्रदेश और बिहार की लोक संस्कृति की पहचान भिखारी ठाकुर से होती है.

18 दिसंबर 1887 में बिहार के सारन जिले के कुतुबपुर गांव में पैदा हुए इस असाधारण लोककवि, गायक, नाटककार, निर्देशक, लोक अभिनेता का समूचा जीवन एक लोक कलाकार के सच्चे खरे आत्म संघर्ष और सामाजिक संघर्ष का जीवन्त साक्ष्य है. भिखारी ठाकुर उस दौर की उपज थे जब राजनीतिक गुलामी के साथ आर्थिक विषमताओं और सामंती संस्कृति से जकड़े ग्रामीण समाज में एक तीव्र बेचैनी और छटपटाहट थी. भिखारी ठाकुर के नाटक इस छटपटाहट की आवाज बने और उस समय की तमाम सामाजिक , सांस्कृतिक विद्रुपताओं के विरुद्ध तन कर खड़े हुए.

भिखारी ठाकुर प्रेमचंद की तरह जिंदगी के छोटे-मोटे अनुभवों के सहारे एक बड़ी दुनिया रचते हैं.  फर्क सिर्फ इतना है कि प्रेमचंद जहां प्रगतिशील विचारधाराओं के सहारे अपने लेखन को सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक एवं आर्थिक मुक्ति के सवालों से जोड़ देते हैं , वहीं भिखारी ठाकुर अपनी कला और लोक को उत्पीड़ित जनता से जोड़ते हुए उसे सामाजिक परिवर्तन और विकास का हिस्सा बना देते हैं. इसीलिए भिखारी ठाकुर विशिष्ट समाज के बदले लोक समाज का हिस्सा बनते हैं.

दर्जनों नाटक और सैकड़ों गीतों के रचयिता भिखारी ठाकुर सच्चे अर्थों में एक सांस्कृतिक योद्धा थे जो जीवन पर्यन्त अपने कला को हथियार बनाकर सामाजिक सांस्कृतिक विडम्बनाओं के खिलाफ लड़ते रहे. उनके नाटकों की चर्चा करें तो बिदेसिया का नाम प्रमुख रूप से आता है जिसका मंचन देश की सैकड़ों रंगमंडलियों ने की है और लगातार कर रही हैं.  रोजगार के अभाव में युवाओं का गांव से शहर की ओर पलायन और उस पलायन का दंश झेल रही स्त्री की पीड़ा को केन्द्र में रखकर लिखा गया यह नाटक अपने कथ्य और शिल्प दोनों ही स्तरों पर बेजोड़ है.

उनके अन्य प्रमुख नाटकों में ‘गबरघिचोर’ स्त्री यौन स्वतंत्रता की बात जोरदार तरीके से उठाता है.’बेटी वियोग’ में लड़कियों की शादी अपने उम्र से कई गुना बड़े आदमियों से किए जाने की समस्या को सामने लाता है और इस समस्या से लड़ने के लिए समाज को प्रेरित भी करता है. वहीं ‘ भाईविरोध ‘ , ‘गंगा स्नान ‘,’ राधे श्याम बहार ‘इत्यादि नाटकों में धार्मिक आडम्बर, सामाजिक बन्धन और टूट रहे मानवीय मूल्यों की बात बहुत ही संवेदनशील तरीके से उठाते है.

भिखारी ठाकुर अपनी नाट्य प्रस्तुतियों के माध्यम से कला के चरमोत्कर्ष पर जाकर लोगों के मन मस्तिष्क को झकझोरते हैं और समाज में खत्म हो रही मानवीय संवेदना को जगाते हैं. लोगों को अपने सामाजिक सांस्कृतिक उत्तरदायित्व के प्रति सचेत करते हैं. उनके नाटकों में पूर्वी धुन बिरहा, लोरिकायन, कुंवर – विजय, आल्हा, कजरी, सोरठी आदि लोकगीत पर्याप्त मात्रा में पाए जाते हैं। इनमें से कुछ तो परंपरागत रूप में हैं और बहुतों की रचना भिखारी ठाकुर ने स्वयं की है.

‘संकल्प’ नाटक ‘ बिदेशिया ‘ का दृश्य

भिखारी ठाकुर अपने रचना के माध्यम से भोजपुरी समाज के सरल धर्म भीरु सत्य निष्ठा और जुझारू आंचलिक जीवन का वर्णन करते हैं. वे अपने नाटकों में नारी और दलित विमर्श के सवाल , निजी संपत्ति के लालच के सवाल, विस्थापन, अंधविश्वास, जुआ, शराब के सवाल एक साथ दर्शकों-श्रोताओं के सामने खड़ा करते हैं और उसका निदान भी करते हैं.

राहुल सांकृत्यायन ने भिखारी ठाकुर को भोजपुरी का अनगढ़ हीरा कहा. जगदीश चंद्र माथुर ने इन्हें भरतमुनि की परंपरा में रंगमंच के अनूठा नायक कहा और भरतमुनि का मानस वंशज तक कहा.  भिखारी ठाकुर की कला और जिंदगी के बारे में इस प्रकार के विचार उदय नारायण तिवारी, कृष्ण देव उपाध्याय, केदारनाथ सिंह, मैनेजर पांडे, पांडे कपिल जैसे भोजपुरी भाषा और साहित्य के विचारकों ने भी दिए हैं। भिखारी ठाकुर उन कलाकारों में से थे जिन्होंने कला और जिंदगी के बीच के फर्क को पाटा और कला को वास्तविक जिंदगी का हिस्सा बनाया तथा उसे प्रगतिशील परंपराओं से जोड़ते हुए सामाजिक विकास और परिवर्तन का जरूरी हिस्सा बनाया.

दुनिया के इतिहास में यह पहला मिसाल है कि लोक कलाकार के अद्भुत प्रयोग से प्रभावित होकर हजारों टीमें तैयार हो जाती हैं और सामाजिक आर्थिक विसंगतियों पर चोट करते हुए सामाजिक चेतना के आंदोलन का वाहक बन जाती हैं. उनके जीवनकाल में ही उनसे प्रभावित होकर सैकड़ों नाट्य दलों की स्थापना हो चुकी थी. ये सभी नाट्य दल उनके प्रख्यात नाटक बिदेसिया के नाम से प्रचलित हुए. विदेसिया अपने प्रयोग और शिल्प के कारण नाटक से शैली के रूप में परिवर्तित हो गया. लगभग 50 वर्ष तक की कला यात्रा सांस्कृतिक योद्धा भिखारी ठाकुर के ही बस की बात थी जो सामंती जकड़न के बीच सांस्कृतिक आंदोलन के मशाल को जलाते रहे.

उनके अद्भुत कला प्रयोग में सिर्फ मनोरंजन नहीं बल्कि समाज को बदलने की प्रेरणा भी थी. 1971 में यह सांस्कृतिक योद्धा हजारों लोगों को अपने पद चिन्हों पर चलने की प्रेरणा देकर हमेशा के लिए नेपथ्य में चला गया. वर्तमान संदर्भ में देखें तो आज भी सामाजिक,सांस्कृतिक संरचना में कुछ खास बदलाव नहीं आया है. जरूरत है भिखारी ठाकुर के सांस्कृतिक आंदोलन को नए सिरे से आगे बढ़ाने की.

(लेखक वरिष्ठ रंगकर्मी हैं. उनकी रंग संस्था ‘ संकल्प ‘ भिखारी ठाकुर के नाटक ‘ बिदेशिया ‘ की विभिन्न स्थानों पर सैकड़ों प्रस्तुतियां कर चुकी हैं. )

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