(यह लेख भाकपा (माले) महासचिव कॉमरेड दीपंकर भट्टाचार्य द्वारा लिखित है जिसे अंग्रेज़ी में नेशनल हेराल्ड ने 30 मार्च 2020 को प्रकाशित किया है। समकालीन जनमत के पाठकों के लिए हम यहाँ इस लेख का हिंदी अनुवाद प्रस्तुत कर रहे हैं) – सम्पा.
लगभग तीन हफ्ते पहले जब विश्व स्वास्थ्य संगठन ने कोविड-19 को वैश्विक महामारी घोषित किया तब से ही इस हत्यारे वायरस का प्रकोप दिन ब दिन बढ़ता ही जा रहा है। इस महामारी का शुरुआती केन्द्र चीन था लेकिन अब चीन ने इस पर नियंत्रण हासिल कर लिया है। लेकिन अब भारी तबाही का दायरा यूरोप और अमेरिका में पहुंच गया है। इटली और स्पेन जैसे देशों में इस वायरस से मरने वालों की तादाद अनियंत्रित ढंग से बढ़ रही है। अब भारत और पाकिस्तान में भी चिंताजनक ढंग से मामले बढ़ रहे हैं।
शुरुआत में इस महामारी के प्रति चीन की प्रतिक्रिया धीमी थी। ऐसी भी खबरें हैं कि शुरुआत में इसे छिपाने की भी कोशिश की गई। लेकिन जब विनाश के विभिन्न पहलू सामने आने लगे तो चीन ने युद्धस्तर पर इसका मुकाबला किया और इस महामारी को वुहान से बाहर फैलने से रोक दिया। पूरी दुनिया के पास इस महामारी से निपटने की तैयारी करने का समय था। लेकिन कुछ अपवादों को छोड़ दें तो लगभग पूरे यूरोप, अमेरिका और यहां तक कि भारत ने भी इससे निपटने के लिए कोई गंभीर तैयारी नहीं की।
जब इस नये वायरस की न तो कोई वैक्सीन है और न ही इलाज तो सारी कोशिश इसी बात की करनी थी कि किसी भी तरह से इसे फैलने से रोका जाये, इसके फैलाव को नियंत्रित किया जाये। शुरुआती रोकथाम के लिए जरूरी था कि चीन और दूसरे प्रभावित देशों से भारत आ रहे लोगों को प्रभावी ढंग से अलगाव में रखा जाये और वायरस से संक्रमण की संभावना वाले लोगों की जांच की जाये। सिंगापुर, ताइवान और दक्षिण कोरिया जैसे देशों में यही रणनीति कारगर साबित हुई है।
लेकिन हमें पता है कि फरवरी के अंत तक भारत ट्रंप की भारत यात्रा में व्यस्त था और दिल्ली में पुलिस की मिलीभगत से मुसलमानों के खिलाफ हिंसा का दौर जारी था। ट्रंप खुद ही दुनिया को बता रहे थे कि हालात अमेरिका के नियंत्रण में हैं और शेयर बाजार अच्छी हालत में दिख रहा था। अब हमें पता है कि मार्च की शुरुआत तक कोरोना से बुरी तरह प्रभावित देशों से आने वाले लोगों की निगरानी या यात्रियों को अलगाव में रखने के कोई प्रभावी कदम नहीं उठाये गये। अगर जांच की बात करें तो हम दुनिया के उन देशों में हैं जहां सबसे कम जांच हुई है। शायद इसीलिए हमारे यहां कोरोना से प्रभावित लोगों की तादाद अपेक्षाकृत कम दिखाई पड़ रही है।
हकीकत यह है कि चिकित्सा समुदाय (डॉक्टर, नर्स, वार्ड ब्वाय, सफाई कर्मी आदि) को बुनियादी रक्षात्मक जरूरत की चीजों (मॉस्क, दस्ताने और निजी सुरक्षा ड्रेस आदि) की कमी से जूझना पड़ रहा है। गंभीर मरीजों के लिए आईसीयू और वेंटिलेटर आदि की उपलब्धता की बात की क्या की जाये। हमारे चिकित्साकर्मियों के पास मॉस्क तक नहीं है और इसी संकट के ठीक बीच में भारत सरकार ने इज्राइल से 800 करोड़ रूपये में 16,479 लाइट मशीन गन खरीदने का सौदा किया है। काफी देर से कोरोना मेडिकल मिशन के लिए दिया गया 15,000 करोड़ रुपया राष्ट्रपति भवन से इंडिया गेट तक के केन्द्रीय विस्टा को नये ढंग से तैयार करने के लिए दिये गये बजट से भी कम है।
रोकथाम के उपायों और जांच की सुविधाओं में विस्तार करने पर जोर देने की जगह मोदी सरकार ने अचानक से पूरे देश को बंद करने का निर्णय लिया है। शुरुआती रोकथाम में चूक जाने के बाद हो सकता है कि बंद जरूरी हो गया हो लेकिन लोगों को बिना तैयारी का मौका दिये जैसे मोदी सरकार ने इसे घोषित किया और जिस क्रूरता से इसे लागू कर रही है उसने गरीब मजदूरों की तकलीफों को कई गुना बढ़ा दिया है। इससे संकट घटने की जगह कई गुना बढ़ गया है।
रोजगार, आमदनी और जीने खाने के किसी भी जरिये के बिना अपने घरों की ओर पैदल ही लौट पड़े प्रवासी मजदूर और उन पर अत्याचार करती पुलिस की तस्वीरें इस बंदी की पहचान बन गई हैं। खाने और दवा के अभाव में कुपोषित और बीमार लोगों की मौत की खबरें आने लगी हैं। बिहार के आरा में सबसे गरीब मुसहर समुदाय के 11 साल के राकेश कुमार की मृत्यु बंदी के तीसरे दिन हो गई। यह डर अब सच्चाई में बदलने लगा है कि कोविड-19 से ज्यादा जानें तो यह बिना किसी योजना के लागू की गई यह बंदी ही ले लेगी।
प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के दोनों भाषणों ने लोगों में केवल घबराहट ही पैदा की क्योंकि उन्होंने यह बताया ही नहीं कि सरकार इस चुनौती से निपटने के लिए क्या करेगी। इसके उलट मोदी द्वारा लोगों से अपील की गई कि वे अपनी बालकनी से बाहर निकलकर ताली और थाली बजाकर चिकित्साकर्मियों और बुनियादी सेवाओं को बहाल करने में लगे लोगों की धन्यवाद दें। इससे हालात और खराब हुए क्योंकि लोगों ने, यहां तक कि जिला कुछ जगहों पर तो जिला प्रशासन के अधिकारियों तक ने जुलूस निकाले और ‘सामाजिक दूरी’ के सारे प्रयास को धूल चटा दी। इसी समय संघ-भाजपा का आईटी सेल झूठी खबरें और अंधविश्वास फैलाते हुए कोरोना के संकट को मोदी सरकार के पक्ष में प्रचार की तरह इस्तेमाल करने की कोशिश कर रहा है।
वित्तमंत्री द्वारा घोषित राहत पैकेज आंकड़ों की कलाबाजी का नमूना है। इसमें भारत से सबसे कमजोर और गरीब तबकों के लिए बुनियादी जरूरत के सामान और खाने को पहुंचाने के लिए कोई योजना नहीं है। बंदी के बीच में मनरेगा की मजदूरी में थोड़ी सी बढ़ोत्तरी का कोई मतलब नहीं है। सामुदायिक रसोई, रैन बसेरों, फीसों और किरायों की माफी, बुनियादी जरूरत के सामानों को लोगों तक पहुंचाने से लोगों को तत्काल राहत मिल सकती थी। सरकार यह सब करने की जगह बैंकों में पैसा भेजने की बात कर रही है। बंदी के दौरान बैंकों तक लोगों की पहुंच कैसे होगी?
कोविड-19 महामारी के संकट का अंत न तो भारत में दिखाई पड़ रहा है और न ही बाकी दुनिया में। बंदी के चलते अर्थव्यवस्था और आधारभूत ढांचे में जो रुकावट आई है उसके पूरे प्रभाव को तो अभी समझा भी नहीं जा सकता। इस महामारी ने भूमंडलीकरण और निजीकरण के मौजूदा रास्ते पर बड़ा प्रश्नचिह्न लगा दिया है। साफ है कि यह महामारी वैश्विक पूंजी के बहाव से साथ फैली है। जो देश वैश्विक पूंजीवादी ढांचे से जितना ज्यादा जुड़ा है वह इस महामारी से उतना ही ज्यादा प्रभावित है। औद्योगिक और मुनाफा आधारित खाद्य उत्पादन, जमीनों को हड़पने और जंगलों का विनाश करने के कारण लंबे समय से जंगल में मौजूद रोगाणुओं के फैलाव का रास्ता खोल दिया है। स्वास्थ्य सेवाओं के व्यापारीकरण और व्यापक रूप से सामाजिक प्रावधान के सभी रूपों पर हमले ने इस महामारी से लड़ने की हमारी क्षमता को और भी प्रभावित किया है।
कोरोना ने हमारे समय के बुनियादी सामाजिक और राजनीतिक अंतर्विरोधों को उघाड़ दिया है। इस संकट से निकलने का एक ही रास्ता दिखाई पड़ रहा है और वह है ‘सामाजिक दूरी’ (इसे शारीरिक दूरी कहना ज्यादा ठीक होगा)। लेकिन भारत और दुनिया भर की धुर दक्षिणपंथी सरकारें इसे जिस तरह से लागू कर रही हैं वह मजदूरों की काम और जीवन स्थितियों से एकदम मेल नहीं खाता। समाज में मौजूद असमानता की खाईं और भी गहरी होगी क्योंकि समाज के गरीब और वंचित समुदाय इस महामारी की सामाजिक, आर्थिक और शारीरिक मार सबसे ज्यादा झेलेंगे।
यूरोप और अमेरिका में उग्र दक्षिणपंथी एवं जातिवादी सरकारें फिर से युद्धोन्मादी, इस्लामोफोबिक और आप्रवासी विरोधी भावनायें भड़काने में लगी हैं। भारत में भी यहां की खास परिस्थितियों के अनुरूप जाति-वर्ग एवं नस्लवादी-भाषाई विभाजनों में हम भी यही देख रहे हैं। साथ ही कई आवाजें ऐसी भी सुनाई दे रही हैं जिनमें मानो कयामत के करीब पहुंच चुकी दुनियां को बचाने के लिए मानवीय संवेदनाओं को जगाने और एकजुट होने की गुहार लगाई जा रही हो. दूसरे विश्व युद्ध के बाद शायद पहली बार हमें जनता की भलाई और मुनाफाखोर वैश्विक पूंजी के बीच, मानवता और नस्लवाद के बीच, जीवन और मौत के बीच, अपने पक्ष का चुनाव पूरी शिद्दत के साथ करना है.