‘ मट्टों की साइकिल’ के प्रदर्शन के साथ तेरहवें पटना फिल्मोत्सव का पर्दा गिरा
पटना। ‘प्रतिरोध का सिनेमा : पटना फिल्मोत्सव’ फिल्म के क्षेत्र में सक्रिय नई पीढी के स्थानीय फिल्मकारों और अभिनेताओं की कला को प्रोत्साहित करने का एक मंच भी बनता जा रहा है। हालांकि हर तरह की फिल्म का इसके लिए चुनाव नहीं किया जाता। फिल्म के कंटेट और उसके शिल्प को ध्यान में रखकर ही उनका चयन किया जाता है। इस फिल्मोत्सव में कई फिल्में पहली बार दिखायी गयी हैं यानी यहीं इनका प्रीमियर हुआ है। इस बार वीरा साथीदार और सोनल झा द्वारा अभिनीत ‘इन द नेम ऑफ काऊ’ का प्रीमियर हुआ। वीरा साथीदार महाराष्ट्र के एक जानेमाने एक्टिविस्ट थे। आज फिल्मोत्सव के आखिरी दिन की शुरुआत दो स्थानीय फिल्म निर्देशकों प्रियस्वरा भारती की ‘ट्रान्सफार्मेशन और शफा बारी की फिल्म ‘शी’ के प्रदर्शन से हुई।
‘ट्रान्सफार्मेशन’: ‘ट्रान्सजेंडर्स के जीवन-संघर्ष की कहानी
‘ट्रान्सफार्मेशन’ ऐसे ट्रान्सजेंडर्स पर केंद्रित फिल्म है, जिन्होंने तमाम उपेक्षाओं और चुनौतियों का सामना करते हुए जीवन में गरिमापूर्ण मुकाम हासिल किया है और जो इस बात के प्रतीक हैं कि तमाम जड़ताओं और सामंती भावबोध के बावजूद समाज में बदलाव हो रहा है।
‘शी’: बलात्कार पीड़िताओं के जीवन के यक्ष प्रश्न
यह भारतीय समाज में यौन हिंसा और बलात्कार की पीड़िताओं के जीवन के मर्मबेधक प्रश्नों को उठाने वाली फिल्म थी। इस फिल्म की अवधि मात्र तेरह मिनट थी, पर पीड़िताओं की ओर से फिल्मकार द्वारा उठाये गए सवाल पहाड़ से भी भारी और दीर्घकाल से चले आने वाले थे। सवाल है कि कुछ सहानुभूति, कैंडल मार्च, कुछ विरोध, कुछ रोष ही पर्याप्त है? क्या समाज पीड़िताओं को दोषी मानना बंद कर देता है? क्या उन्हें न्याय मिलता है? यदि किसी को मिलता भी तो कितने दशक लग जाते हैं? बलात्कारियों को सजा मिल जाने के बावजूद पीड़िता को सवालों, नफरत और परेशानियों से भरा जीवन क्यों जीना पड़ता है? जाहिर है ऐसे मुश्किल सवालों के समाधान से भविष्य का जनतांत्रिक मानवीय समाज बन सकता है।
न्यू मीडिया के क्षेत्र में लैंगिक समानता के प्रयासों की चर्चा
स्त्रियों के संदर्भ में ही समाज को बदलने के प्रयास से जुड़ा था फिल्मकार और रिसर्चर फातिमा एन. और प्रतिरोध का सिनेमा अभियान से जुड़े सौरभ कुमार द्वारा दर्शकों से किया गया संवाद- न्यू मीडिया इन्सिएटिव एंड जेंडर’। इन लोगों ने लैंगिक समानता और संवेदनशीलता को लेकर न्यू मीडिया के क्षेत्र हो रहे प्रयासों का विस्तार से जिक्र किया और पटना के दर्शकों से इस क्षेत्र में पहलकदमी की अपील की।
कत्लेआम और विध्वंस की तस्वीरों के साथ पीड़ितों के दर्द की आवाज
आम तौर पर सांप्रदायिक कत्लेआम और विध्वंस के बाद की तस्वीरें तो बार-बार दिखायी पड़ती हैं, पर पीड़ित लोगों के दर्दनाक अनुभव उनके साथ कम सुनायी पड़ते हैं। ऐश्वर्या ग्रोवर निर्देशित फिल्म ‘मेमावर्यस ऑफ सायरा एंड सलीम’ गुजरात के गुलबर्ग सोसायटी में राज्यप्रायोजित कत्लेआम की पृष्ठभूमि पर आधारित थी। पर्दे पर कत्लेआम और विध्वंस के बाद की तस्वीरें चलती रहती हैं और साथ-साथ सायरा और सलीम की आवाजें आती रहती हैं और उनके दर्दनाक अहसास दर्शकों के हृदय को झकझोरते रहते हैं।
मट्टों की साइकिल : करोड़ों मजदूर किसानों के जीवन की सच्चाई का बयान
गहरे राजनीतिक-आर्थिक संदर्भों वाली फिल्म ‘मट्टो की साइकिल’ से तेरहवें पटना फिल्मोत्सव का पर्दा गिरा। इस फिल्म का प्रीमियर बुशान अंतर्राष्ट्रीय फिल्मोत्सव में हुआ था। ‘मट्टो की साइकिल’ फिल्म निर्देशक प्रकाश झा के जीवंत यथार्थपरक अभिनय के लिए तो चर्चा में है ही, यह अपने कंटेट के कारण भी मौजूद है। एम. गनी निर्देशित यह फिल्म ‘अच्छे दिन’ और तथाकथित विकास की राजनीति के शोर के विरोध में गरीब-अभावग्रस्त-मेहनतकश लोगों के कष्टों को अभिव्यक्ति देने की कोशिश है। यह फिल्म शासन-प्रशासन के झूठे दावों का एक सशक्त राजनीतिक प्रतिवाद लगी। मौजूदा तंत्र और उसके आर्थिक विकास का मॉडल किसानों और मजदूरों का जीवन में त्रासदी पैदा करने वाला है, इसे फिल्म ने बखूबी स्पष्ट किया।
फिल्म में मट्टो की पुरानी साइकिल मानो उसके साथ करोड़ों मजदूरों के मुश्किलों भरे जीवन का रूपक है। कभी उसके पहिये का रिम टेढ़ा हो जाता है, कभी उसकी धुरी असंतुलित होने लगती हैख् कभी मडगार्ड उखड़ जाता है। मट्टो एक दिहाड़ी मजदूर है और उसके परिवार में अक्सर बीमार हो जाने वाली उसकी बेटियां नीरज और लिम्का है। नीरज की शादी की उम्र हो चुकी है। दहेज में मोटरसाइकिल की मांग है, जिसे पूरा कर पाना मट्टो के लिए बहुत कठिन है। सूचना साम्राज्य के कंधे पर सवार समृद्ध और ताकतवर लोगों की दुनिया किस तरह गरीब-मेहनतकशों को रौंद रही है, इस फिल्म में ट्रैक्टर द्वारा साइकिल के कुचल जाने और उसे तीन सौ रुपये में बेच देने की विवशता बड़ी मार्मिक तरीके से व्यक्त करती है। इस फिल्म में जीवन की विभिन्न परिस्थितियों से संबंधित बड़े ही शार्प कमेंट लोगों की जुबान से सुनाई पड़ते हैं। फिल्म के अंत में मट्टो की छोटी बेटी लिम्का उसकी बची हुई घंटी को बजाती है। घंटी की यह आवाज बहुत अर्थपूर्ण लगती है। किसी तरह वह नयी साइकिल खरीदता है, तो उसे भी बदमाश छीन लेते हैं।
इस मौके पर ‘मट्टो की साइकिल’ के निर्देशक एम. गनी को वरिष्ठ पत्रकार कन्हैया भेलारी ने फिल्मोत्सव का स्मृति चिह्न देकर सम्मानित किया।
अंत में फिल्मोत्सव तैयारी टीम के सदस्यों का परिचय करवाया गया। फिल्मोत्सव आयोजन समिति की ओर से संतोष झा ने पटना के प्रबुद्ध दर्शकों, पत्रकारों और नागरिकों को धन्यवाद दिया।