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पटना फिल्मोत्सव : फिल्मों ने मानवीय सौहार्द, संवेदना और जीवन रक्षा के गंभीर सवालों को उठाया

पटना। सवालों से घिरे हुए हमारे समाज और देश में सत्ताधारी राजनीति प्रायः उनके हल नहीं तलाशती, बल्कि उन्हें और उलझाती है। समस्याओं को और अधिक जटिल बनाती है। लेकिन छोटे प्रयासों से बनने वाली फिल्में अल्पसंख्यकों के राज्य प्रायोजित दमन, मानवीय त्रासदी, स्त्रियों की अंतहीन पीड़ा और आदिवासियों की आजीविका आदि से संबंधित प्र्रश्नों और समस्याओं को संवेदनशील तरीके से समझने और समाधान तलाशने की कोशिश करती हैं। प्रतिरोध का सिनेमा : पटना फिल्मोत्सव के दूसरे दिन प्रदर्शित तीनों फिल्मों ने इसे सिद्ध किया। यह कला की राजनीति है, जो इंसानियत के समक्ष मौजूद संकटों का समाधान खोजती है।

इन द नेम ऑफ काऊ : गाय के नाम पर की जाने वाली नृशंस राजनीति का विरोध

फिल्मोत्सव के दूसरे दिन प्रदर्शित पहली फिल्म ‘इन द नेम ऑफ काऊ’ एक शार्ट फिल्म थी, जिसे शाहिद कबीर और प्रवीण सिंह ने निर्देशित किया था। कम अवधि की होने के बावजूद यह अत्यंत प्रभावी फिल्म थी, जो गाय के नाम पर की जाने वाली नृशंस राजनीति को उजागर करती है। फिल्म में एक मुस्लिम परिवार शुद्ध दूध के लिए एक गाय खरीदता है। जैसे हिन्दू घर-परिवारों में गाय के प्रति परिवार वालों की आत्मीयता होती है, वैसा ही उस मुस्लिम परिवार में भी है। लेकिन हिंदुत्ववादी राजनीति के जहर से ग्रस्त भगवाधारी गमछों वाले युवा उस गाय को जबरन खोलकर गौशाले में रख देते हैं और वहां वह गाय भूख से मर जाती है। यह सुनते ही आक्रोश से भरी उस घर की मालकिन हंसिया हाथ में लिए उन हिंदुत्ववादी नौजवानों के पास पहुंचती है। ऐसा लगता है कि उसने उनके नेता के गले पर हंसिया चला दिया, पर हंसिया सामने मेज में धंसकर रह जाता है। लेकिन बड़ा बदलाव यह होता है कि स्तब्ध नेता गले से भगवा गमछा उतारकर रख देता है और फिल्म एक जबर्दरत सांकेतिक संदेश के साथ खत्म हो जाती है।

फिल्म का निर्देशन काफी चुस्त-दुरुस्त था। महिला की भूमिका में सोनल झा का अभिनय बेहद प्रभावशाली था। ‘कोर्ट’ फिल्म में अपने अभिनय के लिए चर्चित स्मृतिशेष वीरा साथीदार ने भी इस फिल्म में जीवंत अभिनय किया है।

आई एम नॉट द रिवर झेलम : कश्मीरी जनता की दर्दभरी सच्चाइयों का बयान

हाजीपुर, बिहार के निर्देशक प्रभाष चंद्रा जो भौतिकी से स्नातक हैं तथा एमटेक करने के बाद तारापुर परमाणु ऊर्जा संयंत्र में जिनकी तैनाती हुई, लेकिन जो भारतीय रंगमंच, कविता, शायरी और कथा-साहित्य में गहरी दिलचस्पी तथा जनसरोकारों के कारण थिएटर और सिनेमा के क्षेत्र में सक्रिय हो गए। उनके द्वारा निर्देशत फिल्म ‘आई एम नॉट द रिवर झेलम’ इस बार के फिल्मोत्सव की एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण फिल्म थी।

इस फिल्म में शासकवर्गीय राजनीति के कश्मीर संबंधी विमर्श से इतर वहां के लोगों के दमन, अंतहीन यातना, पीडा की सच्चाई का बयान था। वहां की बाशिंदों की आवाजें मानो शांत कर दी गयी हैं। घुटन, भय और उदासी की छाया लगातार बनी रहती है। फिल्म की नायिका के हवाले से प्रसिद्ध फिल्म आलोचक नम्रता जोशी ने ठीक ही लिखा है कि ‘‘इतिहास में कहीं भी, किसी भी संघर्ष की स्थिति में भुगतती हमेशा स्त्री ही है, वह चाहे अफगनिस्तान हो, फिलस्तीन, सीरिया या फिर यूक्रेन। चंद्रा अफीफा और उनके निकट परिजनों द्वारा अनुभूत सच, व्यक्तिगत आघात के जरिये कश्मीर में व्याप्त सतत अनिश्चितता, भय और चिंता को जिस तरह उभारते हैं, वह अद्भुत है।’ फिल्म का स्पष्ट संदेश है कि जो अन्याय है, जो शोक है, उसे लोगों की स्मृतियों से मिटाया नहीं जा सकता। फिल्म के निर्देशक का यह कहना भी है कि वे सच को दिखाना चाहते थे।

फिल्म प्रदर्शन के बाद कवि मुसाफिर बैठा ने फिल्म के निर्देशक प्रभाष चंद्रा को फिल्मोत्सव आयोजन समिति की ओर से स्मृति चिह्न प्रदान किया। आरंभ में सौरभ कुमार ने फिल्म का परिचय कराया। फिल्मोत्सव के बाद दर्शकों की फिल्म निर्देशक से विचारोत्तेजक विचार-विमर्श हुआ।

रैट ट्रैप : जीविका की लिए जाल में फंसने की नियति और उसके समाधान की तलाश

‘रैट ट्रैप’ फिल्म झारखंड में कोयला ढोकर और उसे बेचकर अपना जीवन-यापन करने वाले आदिवासी लोगों के जीवन पर केंद्रित थी। जाने-माने फिल्मकार मेघनाथ और बिज्जू टोपो इसके प्रोड्यूसर हैं। फिल्म का निर्देशन युवा फिल्मकार रूपेश कुमार साहू ने किया है। फिल्म दिखाती है कि आजीविका के लिए आदिवासी उन खदानों से कोयला निकालने का काम करने को विवश होते हैं, जहां कोई सुरक्षा नहीं है, जिनके धंस जाने का खतरा रहता है और उसमें मृत्यु हो जाने पर उन्हें कोई मुआवजा नहीं मिलता। फिल्म इस पर भी सवाल उठाती है कि आदिवासियों की जमीनें तो इस वादे के साथ कोयला खनन के लिए ली गयीं कि खनन के बाद गड्ढो को भरकर उन्हें वापस कर दिया जाएगा। लेकिन उन्हें अपनी जमीनें नहीं मिलीं। सरकारें उन पर गैरकानूनी ढंग से खनन का आरोप लगाती हैं, जबकि सच्चाई यह है कि खनन के इस पूरे धंधे का नियंत्रण कोयला-माफियाओं के हाथों में है। फिल्म निर्देशक रूपेश का कहना था कि वे चाहते हैं कि इस विषय के साथ आदिवासियों के जीवन से जुड़ी अन्य समस्याओं पर चर्चा हो। वे आदिवासियों की आजीविका, उनके भूख-प्यास से संबंधित समस्याओं का समाधान चाहते हैं। वे चाहते हैं कि सहकारी कोयला खदानों का संचालन हो। खनन से बने गड्ढों को भरकर जमीन मालिकों को वापस दिया जाए। जीविका के अन्य साधनों को विकसित किया जाए।

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