अब जम्मू कश्मीर राज्य नहीं केंद्र शासित प्रदेश है। क्यों है ? उसके टुकड़े कर दिये गये हैं और लद्दाख को बिना विधानसभा का केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया है। जम्मू कश्मीर का विशेष दर्जा केंद्र की राजग सरकार, भाजपा सरकार और मोदी सरकार ने समाप्त कर दिया है।
5 अगस्त 2019 को केंद्र की मोदी सरकार ने 4 बड़े फैसले किए। अनुच्छेद 370 समाप्त किया। जम्मू कश्मीर से लद्दाख को अलग किया। लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश बनाया और जम्मू कश्मीर को दिल्ली की तरह एक केंद्र शासित राज्य बनाया जहां विधानसभा भी होगी। यह सब क्यों हुआ ? कैसे हुआ ? पहले कश्मीर में दोहरी नागरिकता थी जो खत्म कर दी गई। जम्मू कश्मीर का अपना संविधान था और अलग ध्वज था जो अब नहीं रहेगा। अब वहां आपातकालीन अनुच्छेद 356 लागू नहीं किया जाएगा। केवल अनुच्छेद 356 यानी राष्ट्रपति शासन लागू होगा। पहले कीतरह अब वहां न तो विधान सभा का छ साल का कार्यकाल रहेगा, न राज्यपाल का पद। राज्यपाल के पद की जगह अब उपराज्यपाल का पद होगा और विधान सभा का कार्यकाल अन्य राज्यों की तरह पांच साल का होगा।
पहले बाहर के लोग जम्मू-कश्मीर में न तो जमीन-सम्पति खरीद सकते थे और न नौकरी कर सकते थे। अब देश का कोई भी नागरिक वहां जमीन खरीद सकेगा और नौकरी भी कर सकेगा। अब पहले की तरह जो वहां दूसरे राज्य के लोगों को मताधिकार और चुनाव लड़ने का अधिकार नहीं था वह समाप्त हुआ है और बाहर के लोग भी वहां चुनाव लड़ सकते हैं। आरंभ से जम्मू कश्मीर एक संपूर्ण राज्य था जिसकी अपनी विधानसभा थी और उसमें लद्दाख भी था। अब ऐसा कुछ भी नहीं रहा। जम्मू कश्मीर अब विधानसभा वाला केंद्र शासित प्रदेश रहेगा और लद्दाख केंद्र शासित रहेगा। पहले जम्मू कश्मीर में तिरंगा के अपमान पर दंड नहीं था, आरटीआई और सीएजी कानून लागू नहीं होता था। अब ऐसा कुछ नहीं रहेगा। राष्ट्रीय ध्वज के अपमान पर दंड दिया जाएगा और आरटीआई कानून लागू होगा।
यह सारा परिवर्तन किसके पक्ष में है ? जम्मू कश्मीर को विशेषाधिकार सामान्य परिस्थितियों में नहीं दिए गए थे। यह राज्य के हित में है या केंद्र के हित में ? यह कश्मीरियों के हित में है या संघ भाजपा के हित में ? अब सब कुछ बदल दिया गया। क्षेत्रफल 2 लाख 22 हजार 236 वर्ग किलोमीटर से घटकर 1 लाख 63 हजार 40 वर्ग किलोमीटर हुआ। नक्शा बदला, इतिहास बदला। 5 अगस्त 2019 के दिन को ‘ऐतिहासिक दिन’ कहा गया है। इसे ‘भारतीय लोकतंत्र का एक स्याह’ दिन भी कहा जा रहा है। सवाल यह भी है कि अटल बिहारी बाजपेई की ‘इंसानियत जम्हूरियत कश्मीरियत’ का क्या हुआ ? अटल बिहारी बाजपेई भाजपा के ही थे। प्रधानमंत्री थे। अटल जी और मोदी जी में फर्क है। आज देश में उमंग और उत्साह है। क्या उसके पीछे जम्मू कश्मीर से हमारा प्रेम है या भाजपा संघ से ? पहले इतिहास के कुछ पन्ने उलटे।
अंग्रेजों और महाराजा दिलीप सिंह के बीच की लाहौर संधि, 9 मार्च 1846 और अमृतसर संधि, 16 मार्च 1846 को छोड़ें और 15 अगस्त 1947 की तिथि को ही याद रखें जब भारत को राजनीतिक आजादी मिली थी। उस समय 562 रियासतों के सामने यह विकल्प था कि वे अपनी रियासत का विलय पाकिस्तान और भारत में जहां चाहे करें । कई पाकिस्तान के साथ हुए। कई भारत के साथ आए। उस समय जूनागढ, हैदराबाद और जम्मू कश्मीर की रियासतें अधिक ‘संवेदनशील’ थीं। जूनागढ़ और हैदराबाद की स्थिति जम्मू कश्मीर से भिन्न थी। जूनागढ़ की जनता ने जन शुमारी के बाद भारत में रहने का फैसला लिया था। हैदराबाद में नेहरू की सरकार ने फौज भेजी थी। जम्मू कश्मीर में न तो सरकार ने अपनी इच्छा से भारत में विलय के लिए फौज भेजी और न वहां की जनता की भारत और पाकिस्तान में विलय को लेकर कभी कोई राय ली गई।
15 अगस्त 1947 के समय ही नहीं, उसके दो ढाई महीने बाद तक जम्मू कश्मीर भारत में नहीं था। वह एक आजाद रियासत थी जहां के राजा महाराजा हरि सिंह थे। वे असमंजस और उधेड़बुन में थे। जम्मू कश्मीर स्वतंत्र था। वह न पाकिस्तान का अंग था, न भारत का। आरंभ में महाराजा हरि सिंह अपनी रियासत को आजाद रखने के पक्ष में थे। वे 1925 में राजा बने थे और शेख अब्दुल्ला ने उनके खिलाफ आवाज उठाई। 1932 में उन्होंने ‘ऑल जम्मू कश्मीर मुस्लिम कॉन्फ्रेंस’ का गठन किया जो बाद में नेशनल कांफ्रेंस हुआ। यह पार्टी राज्य में जनता के प्रतिनिधित्व वाली सरकार के गठन के पक्ष में थी। महाराजा हरि सिंह की मुश्किल यह थी कि वे पाकिस्तान में जम्मू-कश्मीर का विलय नहीं कर सकते थे क्योंकि जम्मू कश्मीर में हिंदू राजवंश था। कांग्रेस से हरिसिंह नफरत करते थे। ऐसी स्थिति में उनके सामने एकमात्र विकल्प कश्मीर को आजाद मुल्क बनाए रखना था जो लंबे समय तक संभव नहीं था।
महाराजा हरि सिंह ने पाकिस्तान और भारत दोनों देशों से ‘यथास्थिति समझौता’ -स्टैड स्टिल एग्रीमेंट – की बात की। पाकिस्तान ने यह समझौता कर लिया और भारत ने प्रतीक्षा की। कश्मीर को लेकर आरंभ में नेहरू और पटेल के विचार समान नहीं थे। नेहरू भारत में कश्मीर के विलय के पक्ष में थे और पटेल कश्मीर के पाकिस्तान के विलय के खिलाफ नहीं थे। जूनागढ़ हिंदू बहुल मुस्लिम शासित राज्य था और कश्मीर मुस्लिम बहुल हिंदू शासक रियासत थी। उस समय माउंटबेटन ने रियासतों की हालत को ‘बिना पतवार की नाव’ कहा था। उन्होंने आजादी से 2 सप्ताह पहले ‘चेंबर ऑफ प्रिंसेज’ के राजाओं और नवाबों को के संबोधन में यह बात कही थी। उनके इस संबोधन के बाद ही सभी राजाओं और नवाबों ने विलय की संधि पर हस्ताक्षर किए थे। 20 फरवरी 1948 के पहले जूनागढ़ भारत का हिस्सा नहीं था। पटेल भारत में कश्मीर के विलय के पक्ष में बाद में आए। 15 अगस्त 1947 के पहले लॉर्ड माउंटबेटन और महात्मा गांधी दोनों ने कश्मीर जाकर महाराजा हरी सिंह को भारत में विलय करने को कहा था पर हरि सिंह ने उनकी नहीं सुनी।
पाकिस्तान की नजर कश्मीर पर थी। वह घुसपैठिए भेजकर कश्मीर में हमला कराना चाहता था। नेहरू को यह भनक मिली थी। उन्होंने हरि सिंह को शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा करने और नेशनल कॉन्फ्रेंस से मैत्री करने की सलाह दी जिससे पाकिस्तान के विरुद्ध कश्मीर में जनसमर्थन बने और कश्मीर का भारत में विलय हो। जिन्हें इतिहास का ज्ञान नहीं है और जो अपने मनोनुकूल इतिहास की व्याख्या करते हैं वे यह नहीं जानते कि भारत में कश्मीर के विलय में नेहरू की कितनी बड़ी भूमिका थी और शेख अब्दुल्लाह कैसे व्यक्ति थे। शेख अब्दुल्ला को जेल से रिहा करने के बाद भी हरि सिंह आजाद कश्मीर का स्वप्न देख रहे थे पर वे पाकिस्तान के हमले को झेलने में असमर्थ थे। 12 अक्टूबर 1947 को हरि सिंह के उप प्रधानमंत्री ने दिल्ली में यह कहा था कि उनका इरादा भारत या पाकिस्तान में शामिल होने का नहीं है। केवल एक ही स्थिति में यह राय बदल सकती है जब दोनों में से कोई एक देश उन पर हमला करें। भारत के हमला करने का कोई सवाल नहीं था। 10 दिन बाद 22 अक्टूबर को कश्मीर में पाकिस्तानी कबाइलियों ने जम्मू कश्मीर पर हमला किया। 24 अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह ने भारत से मदद मांगी। कश्मीर को पूर्व का स्विट्जरलैंड बनाने का उनका सपना अधूरा रहा।
26 अक्टूबर को महाराजा हरि सिंह ने ‘राज्य प्राप्ति दस्तावेज’ – इंस्ट्रूमेंट आफ एक्सेशन – पर हस्ताक्षर किया और अगले दिन 27 अक्टूबर को 28 विमान कश्मीर के लिए उड़े। 2 वर्ष लड़ाई चली। जम्मू कश्मीर का भारत में विलय हुआ।
कुछ पुराने और जरूरी पन्ने हमें उलटने चाहिए। कश्मीर को भारत द्वारा लंबे समय तक सैन्य बल के जरिए अपने अधीन नहीं रखा जा सकता था। कश्मीरियों को यह भरोसा दिलाना जरूरी था कि वे भारत में रहकर फायदे में रहेंगे। कश्मीर की जनता की रजामंदी के बिना कश्मीर का भारत में रहना संभव नहीं था। जूनागढ़ की जनता से राय ली गई थी। उसने भारत में रहना स्वीकार किया था। कश्मीर की जनता से कभी राय नहीं ली गई। लॉर्ड माउंटबेटन की सलाह पर 1 जनवरी 1948 को संयुक्त राष्ट्र संघ में कश्मीर का सवाल रखा गया। उस समय वहां कबायली हमले को पाकिस्तान के जफरुल्ला खान ने उत्तर भारत में हुए सांप्रदायिक दंगों की एक स्वाभाविक प्रक्रिया कहा था और कश्मीर को ‘बंटवारे की अधूरी प्रक्रिया’ कहकर सुरक्षा परिषद में ‘जम्मू-कश्मीर प्रश्न’ को ‘भारत-पाकिस्तान प्रश्न’ बना डाला। उस समय से आज तक भारत को कभी कश्मीरियों का विश्वास प्राप्त नहीं हुआ।
विडंबना यह है कि 72 वर्ष पहले महाराजा हरि सिंह की चिंता कश्मीर में भारतीय फौज के न आने से जुड़ी थी और आज कश्मीरियों की चिंता यह है कि यहां से भारतीय फौज कब जाएगी। जो कुछ लोग जम्मू कश्मीर संबंधी सरकार के इस निर्णय को फाइनल सलूशन कह रहे हैं, उन्हें यह नहीं मालूम कि यह पद नाजियों द्वारा यहूदियों के सर्वनाश से जुड़ा एक ‘कोड नाम’ था और 20 जनवरी 1942 में बर्लिन के नजदीक वांसी कॉन्फ्रेंस में नाजियों ने ‘यहूदी विनाश’ की नीति बनाई थी। राष्ट्रपति ने जम्मू कश्मीर को विशेष राज्य का दर्जा दिलवाने वाले अनुच्छेद 370 के प्रावधानों को निरस्त कर दिया है। उन्होंने यह घोषणा कर दी है कि 6 अगस्त 2019 से इस अनुच्छेद के खंड एक के अलावा सभी खंड लागू नहीं होंगे। सरकार ने निर्णय लेने से पहले जम्मू कश्मीर के नेताओं से कोई बात नहीं की। वह नजरबंद हुए। जम्मू कश्मीर के सारे संपर्क सूत्र तार काट दिए गए।
सरकार के जम्मू कश्मीर संबंधी निर्णय को किस नजरिए से देखा जाए ? सरकारी, संघी, भाजपाई नजरिए से या संविधान व लोकतंत्र के नजरिए से ? सरकार का यह निर्णय मनमाना निर्णय है। जम्मू कश्मीर के राज्यपाल तक को इस निर्णय का पता नहीं था। भाजपा ने जब पीडीपी से संबंध विच्छेद किया उस समय गृह मंत्री को भनक तक नहीं लगी थी। यह सवाल स्वाभाविक है कि सरकार जो कह रही है उस पर कैसे विश्वास किया जाए। यह तरीका अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक है। अलोकतांत्रिक और असंवैधानिक तरीकों से लोकतंत्र और संविधान की रक्षा नहीं की जा सकती। क्या सरकार ने एक साथ लोकतंत्र, संविधान, कश्मीर के नेताओं और जनप्रतिनिधियों को किनारे नहीं कर दिया।
संसद के नियमानुसार 2 दिन पहले बिल पेश किए जाने का प्रावधान है पर जम्मू कश्मीर संबंधी बिल एक ही दिन पेश हुआ और 5 अगस्त को राज्यसभा और 6 अगस्त को लोकसभा से पास हो गया। जम्मू कश्मीर के नेताओं और किसी भी राजनीतिक दल ने कभी इसकी कल्पना नहीं की थी। वे मोदी-शाह की राजनीतिक शैली से अभी तक पूर्णतः परिचित नहीं है। कई अंदेशे हैं। क्या कभी भविष्य में पश्चिम बंगाल और तमिलनाडु के टुकड़े किए जाएंगे ? ‘टुकड़े टुकड़े गैंग’ की बात की जाती रही है पर जम्मू कश्मीर के टुकड़े सरकार ने किया। क्या यह सचमुच जम्मू कश्मीर के विकास के लिए है ? क्या ऐसा कहा जा रहा है कि ‘भारत का सिर’ काट दिया गया है ? क्या कुछ नेता इसे कोसोव – दक्षिण पूर्वी यूरोप का एक विवादित हिस्सा – की तरह देख रहे हैं ? क्यों इसे फिलिस्तीन की तरह देखा जा रहा है ? क्यों इसे ‘पूर्वी तिमूर’ और ‘दक्षिण सूडान’ से जोडकर देखा जा रहा है ? क्यो इसे ‘संवैधानिक इतिहास का काला दिन’ कहा जा रहा है ? और क्यों सुप्रीम काोर्ट में चुनौती देकर अधिसूचना रद्द करने की मांग की गयी है ? क्यों आशंकाओं के इतने घने बादल इक्ट्ठे हो गये हैं ?
संघ और भाजपा के ‘होम वर्क’ और ‘फील्ड वर्क’ का सचमुच में कोई जवाब नहीं है। गृहमंत्री ने जो भी कहा है – धारा 370 विकास को रोकने वाली, पर्यटन को रोकने वाली है। वह दलित, महिला, आदिवासी विरोधी है। गरीबी बढ़ाने वाली है। लोकतंत्र के लिए बाधा है। इसकी वजह से वहां अल्पसंख्यक आयोग नही बन सका। 106 कानून नहीं लागू हुए। अर्थात 370 सभी आफतों की जड़ है। यह क्या सचमुच आतंकवाद को खाद पानी देती है ? नोटबन्दी के बाद भी आतंकवाद में कमी नहीं आयी। क्या धारा 370 खत्म कर देनने से आतंकवाद समाप्त हो जाएगा ? सेना वहां से लौट जाएगी ? कश्मीरी जनता खुशहाल हो जाएगी ? गृहमंत्री ने यह भी कहा कि ‘वोट बैंक, विचारधारा को केन्द्र में रखकर कब तक सोचते रहोगे ? हकीकत है कि विचारधारा को केन्द्र में रखकर संघ-भाजपा सदैव सोचती ही नही कार्य भी करती रही है। विचारधारा से वह कभी अलग नहीं हुई है।
भारतीय जनसंघ के संस्थापक श्यामा प्रसाद मुखर्जी हिन्दू राष्ट्र के सिद्धान्त के समर्थक थे। भारतीय जनसंघ में वे ‘कश्मीर लिगैसी’ के पहले व्यक्ति थे। उनकी मृत्यु के बाद यह एक प्रसिद्ध ‘स्लोगन’ था – ‘जहां हुए बलिदान मुखर्जी/वह कश्मीर हमारा है’। मुखर्जी का प्रसिद्ध स्लोगन था ‘एक देश में दो विधान/एक देश में दो निशान/एक देश में दो प्रधान/नहीं चाहिए, नहीं चाहिए’। धनंजय कीर ने सावरकर की जीवनी में लिखा है – ‘डा मुखर्जी सावरकर की बंगाल यात्रा की खोज थे – 1939 में।’ 1940 मुखर्जी को आर एस एस ने लाहौर की एक सभा-बौद्ध में आमंत्रित किया था जहां उन्होंने यह कहा था कि आर एस एस के अलावा ‘भारत के मेघाछन्न आकाश’ में कोई रजत रेखा नहीं है। संघ, भारतीय जनसंघ और भाजपा के एजेण्डे पर आरम्भ से कश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य रहा है। संघ और भाजपा का एजेण्डा पूरा हो चुका है। क्या सचमुच भारत का आकाश एकदम साफ है या मेघाछन्न है ?