समकालीन जनमत
पुस्तक

श्रुति कुशवाहा के कविता संग्रह ‘सुख को भी दुःख होता है’ की पुस्तक समीक्षा

पवन करण


इन दिनों मर्जियों का शासन है….. मेरा भोजन, मेरे कपड़े
मेरी आस्था पर भारी है ….उनकी मर्जी

कवि श्रुति कुशवाहा के कविता संग्रह ‘सुख को भी दुख होता है’ को पढ़कर अपनी प्रतिक्रिया की शुरुआत श्रुति की सामाजिक-राजनैतिक चेतना की संपन्नता के उल्लेख से करना चाहता था। मगर क्या करुं संग्रह की कविताएँ पढ़कर, मेरे भीतर कब से चुपचाप सोया प्रेमी, अपनी आँखें मीड़ता उठकर बैठ गया। वह बहुत पीछे पहुंचकर अपनी प्रेमिका से पूछना चाह रहा है कि तुमने मुझे इन कविताओं के प्रेमी की तरह क्यों नहीं देखा। देखा तो मुझसे कहा क्यों नहीं। क्या मैं ऐसा नहीं था या तुम ऐसी नहीं थीं। श्रुति ने प्रेम को केंद्र में रखकर, प्रेमियों को उछाल देने वाली कविताएं लिखी हैं। प्रेमी को इतने (मां जैसे) रस भरे लाड़ और मर-मिटने वाले भाव से कितनी स्त्री-कवियों ने देखा है?

लड़कियाँ अपने पिता में अपने भविष्य के प्रेमियों/पतियों को देखती हैं। तब क्या वे माँएँ भी अपने पुत्रों में अपने देखे-अ-देखे, मिले-न मिले, प्रेमियों को देखती हैं। क्या वे अपने पुत्रों को प्रेमियों तरह पालती हैं? क्या इसीलिए माँएँ जब बेटों को छोड़ देना चाहिए तब भी इसीलिए उनका पीछा नहीं छोड़तीं। प्रेमी को लेकर लिखीं श्रुति की कविताओं में ‘कृष्ण को लेकर लिखीं सूरदास की कविताओं’ जैसी भावभूमि श्रुति की कविता की होनी भी नहीं चाहिए मगर उनमें साम्य यह है कि सूरदास ने मन की आंखों से अपने प्रेमी को देखा श्रुति नें आँखें खोलकर प्रेमी को देखा। श्रुति आँखें बंद करके प्रेमी को देखने वाली कवयित्री नहीं। आँखों में आँखें डालकर प्रेम रचने वाली कवि हैं। क्या सूफियाना और लुट जाने वाला भाव है? प्रेमियों, श्रुति की लिखी इन कविताओं को पढ़िये और खुद को उतना खास, जितना किसी से प्रेम करने के दौरान भी तुमने महसूस नहीं किया, उतना महसूस कीजिए। प्रेम करने वाले ‘खास’ ही तो होते हैं।

श्रुति की कविताओं प्रेम में गँवा देने को लेकर कोई रुदन अथवा पश्चाताप का भाव नहीं, ना ही वे इसमें होने वाले अलगाव, टूटन और बिखराव को लेकर पुरुष को कोसने और शाप देनें पर उतरतीं हैं। मगर इसका आशय यह भी नहीं कि वह खुद को प्रेम से बाहर रखकर प्रेम करती और प्रेम के विषय में बस सोचती हैं, नहीं वे खुद भी अपनी प्रेम कविताओं में आवेग के साथ उपस्थित हैं और अपनी प्रेम-कामनाएँ बेझिझक कविता में लिखती हैं। वे हिंदी कविता की नई बिंबकार भी है। जो एक अनजाने स्थान से या प्रतीक से अपनी कविता की शुरुआत कर उसमें जीवन का आश्चर्य भर देती हैं। एक शब्द जो अनेक घटनाओं और बातों से चलता बढ़ता हुआ अंतत: खुद को कविता में बदला अथवा लिखा हुआ पाता है।

उनकी कविता और उनके स्त्री होने की मूल ताकत (समझ) भी यही है कि वह पुरुष अथवा पितृसता से आक्रांत नहीं हैं। वे पुरुष के साथ बराबर हैं न कम न ज़्यादा। स्त्री-विमर्श की एक स्वस्थ धारा यह भी है। बराबरी। संभवतया उनकी राजनैतिक-सामाजिक चेतना के प्रमुख-प्रतिनिधि होने का कारण भी यही है। वे ऐसी स्त्री कवि हैं जो खुद अपने संग्रह में न्यूनतम उपस्थित रहकर कविता रचतीं और तड़पा देने वाले प्रहार करती हैं। श्रुति की कविताओं में स्त्री उपस्थिति ‘मैं स्त्री’ की प्रवृति में नहीं, हम स्त्रियाँ के विस्तार और विश्वास में है। दिखाई देता है कि वह अपनी कविताओं में अपनी कविता से बाहर रहकर हैं। यह हिंदी कविता की समृद्धि-सूचक आत्मविश्वासी दृष्टि और उसका आश्वस्तिकारक वैविध्य है।

श्रुति अपनी कविता में निर्भीक होने के साथ-साथ अनूठीं तंजवान हैं। सामाजिक-राजनैतिक क्षरण पर उनके तंज उनकी कविता को धार तो देते ही हैं वर्तमान दौर में उन्हें आवश्यक भी बनाते हैं और निशाने पर भी लेते हैं। वे एक संग्रह में ही विचार से लेकर वस्तुओं, कहावतों से लेकर स्मृतियों, कथनों से लेकर घटनाओं तक की दीर्घयात्रा तय करती हैं। शायद हिंदी कविता का यह स्त्रीकाल है जिसमें स्त्री कवि चुनौती की तरह साहित्य, समाज और राजनीति के समक्ष अपनी कविताएँ रख रही हैं। –

◆किसी को देखने, छूने, चूमने की कामना
जिस दिन खत्म हो जायेगी, उस दिन हम मर जायेंगे

◆हृदय को चीर देने की कला है उसकी मुस्कान
एक जादूगर जो कबूतर बनाकर कर ले कैद
और मैं उड़ना भूल जाऊं

◆हंसता है तो जादू-सा हुआ जाता है
देखता है तो सीना चाक कर देता है कमबख्त

◆लौट आना, इससे पहले कि मैं कहूं
अब तुम्हारे लौटने न लौटने से कोई फर्क नहीं पड़ता

◆उसे वैसा सुनना जैसे वो देखती है तुम्हें
सुनने के बाद फिर देखना सीखना

◆जो सीखना हो बरसना तो बादलों से नहीं
किसी रूठी प्रेमिका से सीखना
उसके आगे पानी भर्ती हैं सारी बारिशें

◆मैं एक दिन जादू से मिट्टी हो जाऊंगी

◆उदासियां कभी फूटकर नहीं रोईं वो बड़ा शातिराना मुस्कुराती थीं
खूबसूरती की आड़ में उदासी खुद को बचाने का हुनर जानती है

◆मेरे जूड़े में सेवंती के फूल सा-बंधा है शोक
जिसकी पत्तियां कभी झरती नहीं

◆प्यार वो चिड़िया तो नहीं
जो सोने के पिंजरे में गाती है आजादी के गीत

◆प्रेमिका सुख की सबसे आखिरी हिस्सेदार होती है
दुख की पहली

◆उम्र एक बेवफा प्रेमी है जो लड़की को छलकर भाग चुका है

◆कितना उबाऊ है प्रेमी का लहजा और प्यार का तरीका बोझिल
बताएं कि बो आज भी हैं प्रेमी से बेहतर

◆आजकल अच्छा लगना संवैधानिक अधिकारों पर भारी हो रहा है

◆जब सुख राजप्रासाद की सीमाओं में कैद हुआ
कविता ने शुरु की सिंहासन की चिरौरी

◆आइए दो मिनट का मौन रखिए सड़कों पर निकले लोगों के लिए..
ये किसी भी क्षण मारे जा सकते हैं, दो मिनट का मौन
घरों में बंद लोगों के लिए ये पहले ही मारे जा चुके हैं

◆उन्हें बताया गया मंदिर बन गया, बस इसी भरोसे युवाओं ने
दानपेटी में डाल दिया अपना भविष्य

◆सोकर अंधेरा तो काट सकते हैं, मिटा नहीं सकते
अंधेरे समय में सबसे जरूरी था जागना
हमने नींद को ढाल बना लिया अंधेरे को आदत

◆कुछ लोगों के पास मखमल की भाषा थी,
उन्होंने थोड़ी खादी मिलाकर इसे राजनीति की भाषा बना दिया
खद्दर की भाषा में बात करते-करते
कुछ लोग कुर्सी की भाषा तक

छ लोग कुर्सी की भाषा तक जा पहुंचे

एक दिन रात बंद ताले सी न होगी स्त्री के लिए
उसी के पास होंगी उसकी सारी चाबियां

भाषा कवि श्रुति की सखी है जिसकी रोशनी में वह अंधेरे की पहचान करती है, यहउसकी सामर्थ्य है, जिसके बूते वह कविता
के तेज को बखूबी साधती हैं।

 


समीक्षक पवन करण का जन्म 18 जून, 1964 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ। उन्होंने पी-एच.डी. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त की। जनसंचार एवं मानव संसाधन विकास में स्नातकोत्तर पत्रोपाधि।

उनके प्रकाशित कविता-संग्रह हैं-‘ इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाजू पर बटन’, ‘कल की थकान’, ‘स्त्रीशतक’ (दो खंड) और ‘तुम्हें प्यार करते हुए’। अंग्रेजी, रूसी, नेपाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, असमिया, बांग्ला, पंजाबी, उड़िया तथा उर्दू में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं और कई कविताएँ विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में भी शामिल हैं।

‘स्त्री मेरे भीतर’ मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, उर्दू तथा बांग्ला में प्रकाशित है। इस संग्रह की कविताओं के नाट्य-मंचन भी हुए। इसका मराठी अनुवाद ‘स्त्री माझ्या आत’ नांदेड महाराष्ट्र विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल और इसी अनुवाद को गांधी स्मारक निधि नागपुर का ‘अनुवाद पुरस्कार’ प्राप्त। ‘स्त्री मेरे भीतर’ के पंजाबी अनुवाद को 2016 के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया।

उन्हें ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, ‘रजा पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’, ‘शीला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘स्पंदन सम्मान’ से भी सम्मानित किया जा चुका है।

सम्प्रति : ‘नवभारत’ एवं ‘नई दुनिया’, ग्वालियर में साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ का सम्पादन तथा साप्ताहिक-साहित्यिक स्तम्भ ‘शब्द-प्रसंग’ का लेखन।

ई-मेल : pawankaran64@rediffmail.com

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