समकालीन जनमत
पुस्तक

पार्वती: कवि-कहानीकार शेखर जोशी की अपनी धरती और अपने लोगों से बहुत गहरे प्यार की कविताएँ हैं

सदाशिव श्रोत्रिय


मैं देखता हूं कि हमारे अधिकांश लेखक “ नौस्टाल्जिया” शब्द का प्रयोग अक्सर इसके नकारात्मक अर्थ में ही करते हैं । मेरे ख्याल से यह ठीक नहीं है । नौस्टाल्जिया का अनुभव उसी शख़्स को हो सकता है जिसे अपने परिवेश से , अपने सगों से गहरा लगाव रहा हो । आज के समय में, जबकि लोगों का अपनी ज़मीन और अपने रिश्तेदारों से लगाव लगभग समाप्त होता जा रहा है , नौस्टाल्जिया को हमें किसी व्यक्ति की संवेदनशीलता और प्रेम करने की क्षमता से जोड़ कर देखने की ज़रूरत है । जिस व्यक्ति को एक तीव्र भावनात्मक ज्वार भीतर तक आंदोलित नहीं कर सकता वह न तो किसी से प्रेम कर सकता है और न ही वह कोई क्रांतिकारी या कोई कवि हो सकता है । जो हर समय हिसाब-किताब लगाता रहता है , जिसके मन में हर समय नफ़े-नुकसान का बनियापन समा गया है , वह भला क्या नौस्टाल्जिया अनुभव करेगा । जिस कवि ने युद्धोपरांत नवनिर्माण का कोई सपना देखा हो वही आज इस बात की भी इच्छा कर सकता है कि कोई रेलवे लाइन ऐसी भी होती जो उसके प्रिय कस्बों सरवाड शरीफ़ , केकड़ी और देवली को जोड़ते हुए कोटा तक जा रही होती जिसकी कि उसने अपने स्कूल के दिनों में कभी कल्पना की थी ।

शेखर जोशी की कविताओं को पढ़ते हुए मुझे लगा कि इस कवि-कहानीकार को अपनी धरती और अपने लोगों से बहुत गहरा प्यार रहा है । अपने बचपन के दिनों को याद करते हुए यह कवि बार-बार उन अनुभवों की स्मृति में खो जाता है जो उसे एक गहरे भावनात्मक आनंद से भर देते थे । “मितवा” कविता में यह कवि एक ऐसे ही अनुभव का वर्णन करता है जबकि चैत की एक दुपहर में किसी चीड़ वन की सर्पिल डगर पर अकेले जाते हुए उसने यों ही दो बार ’सुन मेरे मितवाSSS’ अलाप दिया था और तब उसे अचानक किसी कोमल कंठ से निकले ‘ सुणा म्यारा मितवाSSS’ के बोल सुनाई दिए । कवि आगे कहता है :
मैं चलता रहा
सोचता रहा
शायद यह मेरे स्वरों की अनुगूंज हो
पर यह सुकोमल स्वर मेरा तो नहीं था

उस सर्पिल डगर पर कई पल बीते
अगले मोड़ दिखी वह सुहागिन
रोली से माथा सजाये
बड़ी सी नथ झुलाती
सर पर भेटौई की डलिया सम्भाले
मायके से मुदित मन लौटती

वह तनिक मुस्कुरायी
सिर झुकाया
शायद नमन की मुद्रा रही हो
फिर अपनी राह चल दी

किस जनम की रही मेरी तुम मीता ?
सहसा इतना नेह देकर
मेरा अकेलापन तिरोहित कर गयी

संग्रह के इसी प्रथम भाग ( पार्वती ) की एक और कविता “ छोरमुया ( मातृहीन) “ भी है जिसे वही कवि लिख सकता था जिसने अपने शैशवकाल में मातृप्रेम के अभाव को अपनी सांसों में झेला हो । इसमें एक लोटा और बाल्टी वाला मातृविहीन बालक एक कम उम्र में मां बन चुकी एक प्यास से बेकल स्त्री को देखता है जो उसे पानी पिलाने को कहती है । फिर :
गटागट पी गई भरा लोटा
कि जैसे प्राण लौटे
बोल फूटे
‘ लला ! एक लोटा और ‘

इस बार
तनिक अपनी कुरती उठाई
दो नन्हे सफेदा आम झलके
उन्हें छपछपाकर खूब नहलाया
फिर पेट पोंछा
चिपचिपाहट से मुक्ति पाई

बुदबुदाई :
‘ न रो भव्वा , मैं अब्भी आई ‘
ये बोल लक्षित थे उस रुदन को
जिसे केवल वह सुन पा रही थी

और तब इस मातृविहीन शिशु का वह ‘ नोस्टाल्जिया’ अचानक सक्रिय हो उठता है- जिसके मूल में उस गोद की याद है जो अब उससे सदा के लिए छिन चुकी है – और कहता है :
कैशोर्य की देहरी लांघते ही जननी बनी
ओ माँ ! मुझे अपना शिशु बना ले !

पुस्तक के इस अनुभाग की ‘ ओखल नृत्य’ और ‘धान रोपाई’ जैसी अन्य कविताएं हमें उस गहरे प्रशंसा भाव का आभास देती हैं जो इस कवि के मन में श्रमिकों के प्रति हमेशा रहा है । हाथ से काम करने वालों के प्रति करुणा और सहानुभूति कवि की अनेक रचनाओं में परिलक्षित होती है । ललुवा राजगीर को वृद्धावस्था में अभावग्रस्त और बेसहारा देखकर कवि का मन विचलित हो उठता है ( ‘ आँगन में ललुवा ओड़ ‘ , पेज 42 ) । उसका मन उस समय भी गहरी हमदर्दी से भर उठता है जब एक मंदिर में अपनी गोद के बच्चे के रुदन स्वर के पीछे उसे उन विधवाओं की सिसकियाँ भी सुनाई दे जातीं हैं युद्धके कारण ही आज वैधव्य भोग रही हैं । शहादत और राजभक्ति जैसे शब्दों की असलियत यह कवि तब भली भाँति प्रकट करता हैं जब वह कहता है :
इस शहादत में केवल राजभक्ति नहीं थी
केवल देशभक्ति नहीं थी
इसमें शामिल थी
इन पिछड़े पहाड़ों की पेट की आग भी , भुला !

‘ पहाड़ों की बर्फ़ ‘ जैसी कविता ( पेज 43) लिखने के पीछे भी इस कवि का उद्देश्य उन रूमानी लोगों को पर्वतीय प्रदेशों के उस यथार्थ से परिचित करवाना ही है जो प्रकृति के हिंसक और खूनी रूप से अपरिचित हैं ।
अपनी वृद्धावस्था में संतानों के साथ एक महानगर की बहुमंजिला इमारत के किसी फ़्लैट में निवास करते हुए जिस जीवन के लिए यह कवि सर्वाधिक नौस्टाल्जिया अनुभव करता है वह वह सामुदायिक जीवन है जिसे उसने कभी अपने बचपन में जिया था । ‘ बाखई वाला गाँव ‘ शीर्षक गद्य कविता उस सामुदायिक जीवन का चित्ताकर्षक वर्णन करती है जिसमें ‘बाखई’ का हर निवासी उसके हर अन्य निवासी के सुख-दु:ख का भागीदार होता था । कवि याद करता है :
वे त्यौहारों के दिन
दीवाली में दीयों की लम्बी कतार
बीच-बीच में लटकी रंगीन कंदीलें
पूरी बाखई जगमग हो जाती
……………
वह किसी ब्याह की तैयारियाँ
लाल मिट्टी से लिपी सारी देहरियाँ
पूरे आँगन में छाई रंगीन झंडियाँ
वह दमुआ और तुरही का शोर
बारातियों का सामूहिक स्वागत
बेटी की विदाई पर
अगले मोड़ तक महिलाओं का जाना
वह घूंघटों के भीतर बहते आँसू
पूरी बाखई में उदासी का आलम

सांप्रदायिक सद्भाव को जीवित रखने के लिए हर व्यक्ति का छोटे-मोटे मतभेद भुला कर नए पुल बनाते रहना नितांत ज़रूरी होता है । ‘ विश्वकर्मा पूजा- एक रिपोर्ताज ’ में कवि बड़ी कुशलता से अपने पाठकों के लिए वे संकेत छोड़ता है जो इस तरह के पुल-निर्माण में सहायक होते हैं । इसमें जब शरीयत के पाबंद शमीउल्ला तबर्रुक के बारे में अपना संदेह ज़ाहिर करते हैं तो नचनिया ओमप्रसाद तुरंत विश्वकर्मा की तुलना ‘अपने मोईन भाई’ से कर देता है जिससे यह बात आई- गई हो जाती है और अंतत:
जैकारा लगा , बोल विश्वकर्मा महाराज की जै !
कुछ आवाज़ें उठीं रैंप पर से भी
सब आये
पाया प्रसाद
लिया पंचामृत भक्तिभाव से

इस पुस्तक के “ अस्पताल डायरी “ शीर्षक अनुभाग की कविताएं भी अपने आप में विशिष्ट हैं क्योंकि उनका रचनाकाल कवि का उनकी अस्वस्थता के दौरान अस्पताल में बिताया समय है । इसे पढ़ते समय मुझे डबल्यू.एच. ऑडन की कविता “ सर्जिकल वॉर्ड “ का अचानक स्मरण हो आया जिसमें ऑडन इस वॉर्ड में दाखिल मरीज़ों के बारे में कहता है कि वे हम सामान्य लोगों की तरह बातचीत में वक़्त बिताने के बजाय हर क्षण अपनी कराहों को दबाए रखने की कोशिश में लगे रहते हैं । एक दूसरे से भी वे इस तरह अलग-थलग पड़े रहते हैं जैसे पौधे एक दूसरे से अलग रहते हैं । हम स्वस्थ लोगों की दुनिया तो उन लोगों की दुनिया से बिल्कुल ही अलग होती है जिनका समूचा अस्तित्व उनके रुग्णताकाल में केवल उनके दर्द करते हुए अंग तक सिमटकर रह जाता है । एक स्वस्थ व्यक्ति भला महज एक पाँव कैसे हो सकता है ? एक बार पुन: स्वस्थ हो जाने पर हम अपनी एक खरोंच तक को याद नहीं रख पाते और फ़िर से उसी स्वस्थ लोगों की सामान्य दुनिया का हिस्सा बन कर पहले की तरह ही इतराने लगते हैं । अकेलेपन की कल्पना सरल नहीं है । हमारी भागीदारी केवल लोगों की खुशी, क्रोध और प्रेम के भावों तक सीमित रहती है :
It is not talk like ours, but groans they smother –
And are remote as plants; we stand elsewhere.
For who when healthy can become a foot?
Even a scratch we can’t recall when cured,
But are boist’rous in a moment and believe
In the common world of the uninjured, and cannot
Imagine isolation. Only happiness is shared,
And anger, and the idea of love.

इस अनुभाग की चौथी कविता ‘ भुक्तभोगी ‘ के अंत में जब कवि कहता है कि :
खिड़की से दिख रही है बाहर की दुनिया
पुल पर दौड़ रही हैं कारें , गाड़ियाँ
बेतहाशा भाग रहे हैं नंगे सिर स्कूटर सवार
.
अरे सिरफिरो ,चेतो !
ऐसी भी क्या जल्दी है ?
हमें देखो , भुगत रहे हैं यहाँ पड़े –पड़े ।

तब वह उसी अलगाव की ओर पाठक का ध्यान खींचता है जो एक मरीज़ को स्वस्थ लोगों की दुनिया से बिल्कुल बाहर कर देता है ।
किंतु अन्य लोगों से जुड़ने की इस कवि की आकांक्षा इतनी तीव्र है कि अपनी बगल में लेटे मरीज़ से बतियाने का वह कोई न कोई रास्ता निकाल ही लेता है ( ‘ अस्पताल डायरी -3 : आभार , अन्नप्रसवा ‘ पेज 66 ) । वह उस अन्नप्रसवा धरती के प्रति आभार व्यक्त करता है जिस पर उगाये जाने वाले धानों के किस्मों की चर्चा से :
हम दोनों बतिया रहे थे ।
अपनी हारी-बीमारी भूल कर
अपने दु:ख और अपनी चिंताएं बिसराकर ।

आपसी जुड़ाव के प्रयत्न की प्रशंसा में यह कवि उन बालकों को भी शामिल कर लेता है जो अपने रोगी स्वजनों के साथ अस्पताल में आए हैं किंतु जिन्होंने :
सयानों की झिड़कियों , वर्जनाओं के बावजूद
…………….
बना ली है … दोस्तों की एक नई दुनिया
नित नए बनते जाते दोस्तों के बीच
अनाम संबोधन से शुरू होकर
घरेलू पुकार नामों तक सेंध लगा चुके हैं वे ।
अंकल और आण्टी के वार्ड और बैड नम्बर

उनके लिए मुहल्ले और मकान नं. का पर्याय हो गए हैं ।
कहना न होगा कि आज के इस निराश करने वाले समय में भी जीवट और सतत आशावादिता शेखर जोशी के चरित्र का एक स्थाई गुण है । यह आशावादिता उनकी कविता ‘ नन्ही परी के लिए एक स्वागत गान’ ( पेज 97) में भलीभाँति देखी जा सकती है जिसमें मंदिर के प्रांगण में लावारिस छोड़ दी गई एक नवजात बालिका के लिए स्वागत में वे कहते हैं :
हम तब इस दुनिया में नहीं रहेंगे बेटी
जब वर्षों बाद तुम फिर एक बार
अख़बार की सुर्खियों में , टी . वी. के परदे पर छायी होगी
कला , साहित्य , विज्ञान और खेल के क्षेत्र में किसी बड़ी उपलब्धि के लिए
स्वागत है तुम्हारा इस सतरंगी दुनिया में ।

अपनी आशावादिता और जीवट से संचालित यह कवि अधिक उम्र में भी नए नए ख़्वाब देखना बंद नहीं करता । उसके सकारात्मक नौस्टाल्जिया की झलक ‘ ख़्वाहिश एक सपने की ‘ ( पेज 88 ) में भली भाँति देखी जा सकती है ।
मेरे अजमेर वाले मौला
मेरा वह सपना पूरा हो जाए
जो हमने अपने स्कूली दिनों में देखा था
…………
केकड़ी के तेजाजी मेले में उस साल
टाउन हॉल में प्रदर्शनी लगी थी
हम स्कूली बच्चों ने पोस्टरों में
अपने सपने सजाए थे
………
हमने कागज़ों पर रेल चलाई थी
अजमेर से कोटा तक
नसीराबाद , सरवाड़ शरीफ़ , केकड़ी , देवली होते हुए कोटा तक
……….
……..
मैं आज भी
उस पोस्टर वाली ट्रेन के डिब्बे से उतर कर
सरवाड़ शरीफ़ के लजीज़ परांठे खाना चाहता हूं
………..
मैं अलगोजे की धुन पर झूमती
लल ,नीली , हरी, पीली पगड़ियों के सैलाब में
डूब जाना चाहता हूँ
मैं तेजाजी के विरुद गाती
घाघरा ओढ़नी वाली महिलाओं के सुर में खो जाना चाहता हूँ
मैं उस पोस्टर वाली ट्रेन से एक बार केकड़ी जाना ही चाहता हूँ
नागार्जुन और केदार जी जैसे जनकवियों के लिए जोशी जी के मन में विशेष आदर है जिन्होंने कभी सातों समुद्रों की परिक्रमा का ख़्वाब नहीं सँजोया किंतु जो :
अपने ही अंचल से
उन्मत्त बागमती
और चंचल केन के तल से
खोज लाए मोती
टटके
ताज़े
आबदार !
सदाबहार
सदाबहार !!

जोशी जी मोटे तौर पर तार्किकता को महत्व देने वाले और वैज्ञानिक दृष्टि सम्पन्न प्रगतिशील कवि हैं । वे हमारी सदी को उसकी छोटी-मोटी विफलताओं के बवजूद कुल मिला कर प्रशंसा-भाव से देखते हैं :
धन्य हो हमारी विज्ञान सम्पन्न सदी
तूने कितना भर दिया हममें आत्मविश्वास !
कितनी शक्ति !
लेकिन साथ ही बनाया कितना निरीह
ये चेर्नोबिल , ये फुकोशिमा और ये अपना भोपाल

किंतु लगता है उम्र के इस पड़ाव तक आते आते इस कवि ने शायद थोड़ी कीट्स द्वारा वर्णित वह नकारात्मक क्षमता ( negative capability ) भी विकसित कर ली है जो किसी व्यक्ति को रहस्य और प्रश्नाकुलता की स्थिति में बने रहने देकर उसकी काव्य-सृजन क्षमता में वृद्धि करती है । हम देखते हैं कि सामान्यत: मूर्त और यथार्थ से जुड़ा रहने वाला यह कवि भी कभी -कभी उस अमूर्त सृष्टा की कल्पना में खो जाना पसंद करता है जिसने हमारी इस दुनिया को इतनी अनूठी सुंदरता से भर दिया :
किन अदीखी अँगुलियों ने वर्तुल सप्तरंगी अल्पना लिख दी !
कहाँ हैं वे हाथ
कितने सुघड़ होंगे ?
( अल्पना के रंग साक्षी )
…………
शायद ये वही हों हाथ
जो धानों की हरी मखमल के किनारे
पीली गोट सरसों की लगाते
जो धरा पर सप्तवर्णी बीज-रंगों अल्पना लिखते
जो धरा पर सप्तरंगी फूल-रंगों अल्पना लिखते
जो धरा पर सप्तगंधी अन्न-रंगों अल्पना लिखते
……….
नयन-माथे से लगा लूँ
उन सृष्टा अँगुलियों को चूम लूँ ।

निर्विवाद रूप से जो गुण किसी कवि को दूसरे बहुत से लोगों से अलग करता है वह उसकी अतिरिक्त संवेदनशीलता ही है और कहना न होगा कि मानव मात्र के प्रति इस कवि की सहानुभूति का दायरा काफ़ी व्यापक है । वह गाँव के उस गबरू जवान जगतार के लिए दु:ख अनुभव करता है जो उसकी माँ, बहनों और हमजोली कुड़ियों की आंख का तारा था और जो
कभी कड़क फौजी वर्दी का सपना सँजोये
घर के आँगन में
सधे कदमों से लेफ्टराइट करता
जन-गण की धुन पर सलामी देता था
पर जिसे
खेल –खेल में
साहों ने बनाया चोर …
बाँध दी पट्टि याँ आँखों में
आप छिप गए ओट में

इस कविता के रचनाकाल का विवरण यह संकेत देने के लिए पर्याप्त है कि जगतार भी खालिस्तान आंदोलन से जुड़े उन बारहा होनहार नौजवानों में से एक था जिनके कंधों पर बंदूक रख कर इस आंदोलन को उसके अप्रकट संचालकों ने हवा दी थी और जो इस आंदोलन के परिणामस्वरूप एक दिन महज अखबारों की सुर्खी बन कर रह गया :
अपनी दहकती आग लिए
वह दिशाहारा
खण्डित नक्षत्र
जला गया झोंपड़ों ,मकानों को
खेतों , खलिहानों को ।

चला गया
अखबार की सुर्खियों में
एक अनाम गिनती बन कर । ( ‘अखबार की सुर्खियों में’ , पेज 80)

यह कवि रेडियो पर उन लोगों से संबंधित समाचारों को सुन कर भी व्यथित हो उठता है जो अपनी अवसादग्रस्तता , बहकावे या नासमझी के कारण घर छोड़ कर चले गए हैं और जिनक्री वजह से उनके परिजन गहरी चिंता में डूब गए हैं । अपनी कल्पना में यह कवि इन सभी भगोड़ों को तरह-तरह से समझाने की कोशिश करता है और अंत में दु:खी होकर कहता है :
लौट आओ कुलसूम !
लौट आओ रामप्रसाद !
लौट आओ प्यारे मुन्ना !
सब लौट जाओ , अपने-अपने घर
मैं सुकून से समाचार सुन सकूं !

अपने इस काव्य-संग्रह के अंत में कवि अपने युवा-काल के उस जुनून को याद करना भी आवश्यक समझता है हिससे प्रेरित होकर उसने कभी अपने ट्रेनिंग सुपरवाइज़र क्वात्रा सहब की आलोचक निगाहों के बावजूद इच्छुक श्रोताओं की ख़ातिर अपना प्रगतिवादी काव्य-पाठ जारी रखने का साहस किया था ।
…………………………….

 

शेखर जोशी, जन्म : 10 सितम्बर 1932, अल्मोड़ा जनपद, उत्तराखंड के ओलियागाँव नामक स्थान में एक किसान परिवार में.

इंटरमीडिएट की पढ़ाई के दौरान ही सुरक्षा विभाग की चार वर्षीय ई एम ई अपरेंटशिप (सिविलियन) के लिए चयन.

1955 से 1986 तक आर्मी बेस वर्कशॉप, इलाहाबाद में कार्यरत फिर वर्कशॉप ऑफिसर के पद से स्वैच्छिक अवकाश लेकर स्वतंत्र लेखन.

1958 में पहला कहानी संग्रह ‘कोसी का घटवार’ प्रकाशित हुआ. उसके बाद प्रकाशित कृतियाँ – ‘साथ के लोग’, ‘हलवाहा’, ‘नौरंगी बीमार है’, ‘आदमी का डर’, ‘डांगरी वाले’, ‘संकलित कहानियाँ’, ‘मेरा पहाड़’ इत्यादि कहानी संग्रह.

‘एक पेड़ की याद’ (शब्दचित्र और रिपोतार्ज़), ‘स्मृति में रहे वें’ (संस्मरण), ‘न रोको उन्हें शुभा’ (कविता संग्रह) तथा ‘मेरा ओलियागांव’ शीर्षक  (आत्मवृत्त).

‘दाज्यू’ कहानी पर चिल्ड्रन फ़िल्म सोसाइटी द्वारा और ‘कोसी का घटवार’ पर प्रसार भारती द्वारा मार्डन क्लासिक सिरीज़ में फ़िल्म निर्माण.

कई कहानियों का प्रसिद्ध रंगकर्मियों द्वारा मंचन. बम्बई टाकिंग बुक सेंटर द्वारा दो कहानी संग्रहों का छः कैसेट्स में ध्वन्यांकन.

प्रमुख पुरस्कार व सम्मान:

महावीर प्रसाद द्विवेदी तथा साहित्य भूषण सम्मान ( उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान), पहल सम्मान, इफ़्को श्रीलाल शुक्ल स्मृति सम्मान, अखिल भारतीय मैथिली शरण गुप्त सम्मान (मध्य प्रदेश शासन), अखिल भारतीय जनवाणी सम्मान (इटावा हिंदी सेवा निधि), अयोध्या प्रसाद खत्री सम्मान (मुज्ज़फरपुर, बिहार), पहाड़ रजत सम्मान, राही मासूम रजा अकादमी सम्मान (लखनऊ, उत्तर प्रदेश) तथा अन्य.

प्राय: सभी भारतीय भाषाओं के अतिरिक्त अंग्रेज़ी, रूसी, जापानी, पोलिश और चेक भाषाओं में अनेकों कहानियों का अनुवाद प्रकाशित व प्रसारित.)

 

समीक्षक सदाशिव श्रोत्रिय                                      जन्म: 12 दिसम्बर 1941 को बिजयनगर (ज़िला अजमेर) में । बचपन नाथद्वारा में बीता । 1956 में यहीं से हाइस्कूल परीक्षा पास की। कॉलेज शिक्षा महाराणा भूपाल कॉलेज , उदयपुर में। यहां से 1961 में बी. एससी. (1961) तथा अंग्रेजी़ साहित्य में एम.ए.(1964) परीक्षाएं पास कीं। आजीविका के लिए 1964 से विभिन्न महाविद्यालयों में अंग्रेजी भाषा और साहित्य शिक्षण।

1981 से 1985 तक राजस्थान विश्वविद्यालय,जयपुर में रह कर समकालीन एंग्लो-वेल्श कवि आर. एस.टॉमस  के लेखन पर पीएच.डी. के लिए शोध कार्य।1994 से 1999 तक राजस्थान के राजकीय महाविद्यालयों में प्रशासकीय पदों पर नियुक्त।दिसम्बर 1999 में राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय, नाथद्वारा के प्राचार्य पद से सेवा-निवृत्त। तब से सपत्नीक 1918 तक  नाथद्वारा में  निवास ।अप्रैल 1918 से उदयपुर में निवास ।

अधिकांश लेखन का कारण अंतःप्रेरणा ही रहा। पहली कविता लहर में 1965 में प्रकाशित। पहला अनुवाद बिन्दु के लिए 1969 मे किया।पहला लेख नया शिक्षक के लिए 1971 में लिखा। पहली कहानी कहानी में 1972 में छपी।

1994 से राजस्थान पत्रिका  के लिए कई सामाजिक व सांस्कृतिक सरोकारों पर लेख। हिन्दी में अन्य कई पत्र-पत्रिकाओं के लिए इन सभी विधाओं में लेखन। आकाशवाणी व दूरदर्शन पर काव्य-पाठ।

1976 में कहानी द्वारा आयोजित ’कहानी पुरस्कार योजना’ में ’प्रथम वर्ष’ शीर्षक कहानी पुरस्कृत। 1989 में प्रथम काव्य-संग्रह  प्रथमा  प्रकाशित ।

सन् 2003-04 में नाथद्वारा में हो रहे परिवर्तनों के बारे में द हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए लिखा। 2004 से अपना अधिकांश वैचारिक लेखन जनसत्ता के लिए किया।

पहला निबंध-संग्रह मूल्य संक्रमण के दौर में 2011 में प्रकाशित। दूसरा निबंध संग्रह सतत विचार की ज़रूरत  2013 में प्रकाशित।1915 में दूसरा काव्य-संग्रह बावन कविताएं प्रकाशित ।दिसम्बर 1918 में कविता का पार्श्व  प्रकाशित । युवाओं के सांस्कृतिक परिष्कार के लिए प्रतिबद्ध स्वैच्छिक संस्था स्पिक मैके के लिए लगभग 15 वर्ष कार्य किया। 2014 में आचार्य निरंजननाथ विशिष्ट साहित्यकार सम्मान ।

 सदाशिव श्रोत्रिय का वर्तमान  पता है :

5/126 गोवर्द्धन विलास हाउसिंग बोर्ड कॉलोनी , हिरन मगरी सेक्टर -14 , उदयपुर – 313001 ( राजस्थान )

मोबाइल : 8290479063                                                     ईमेल : sadashivshrotriya1941@gmail.com

 

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