समकालीन जनमत
पुस्तक

प्रिया वर्मा के काव्य संग्रह ‘स्वप्न के बाहर पाँव’ की पुस्तक समीक्षा

पवन करण


●गिनती में रहने के लिए दुर्घटनाओं में शरीक़ होना क्यों है ज़रूरी?

●यह भी क्या मामूली सुख है, कि गए हुए की परछाईं को संभाले रखती है, आंख की पुतली

●यहाँ एक खाली जंगल उगता है, जिसके भीतर भटकता है, भटकने का सुख

●ठहरो, रुको मत, जाओ जुलाहे बुनते रहो मेरे लिए यह रात बिना स्वप्न की, बिना चंद्रमा की, बिना आंख की

●शरीर ही उनकी पहचान की जगह है, जहां वे रह सकते हैं बेरोक-टोक, अचानक पूरे नक्शे को आग लग जाये पहचान ही नहीं सारे रिकार्ड्स जलाकर उनकी राख से बर्तन मांज लिए जाएं

●पाई-पाई लिखता एक व्यापारी ब्याज की बृद्धि देखता है
लेकिन नष्ट हो रहे जीवन को कहीं नष्ट नहीं करता

●क्या इस फर्श की देह को आती होगी हिचकी, इन पांवो से दूर होने के बाद

●जितनी बार प्रवेश किया प्रेम में, लगा परिचय का रंग सबसे धोखेबाज रंग

●वहीं एक चोर दरवाजा भी था, हर बार प्रेम के पक्ष में खुलता था जो-वापसी के लिए

प्रिया वर्मा के कविता संग्रह ‘स्वप्न के बाहर पाँव’ में शामिल कविताओं की ये कुछ पंक्तियाँ हैं, ऐसी कितनी ही जादुई पंक्तियाँ इस संग्रह की कविताओं को धार देती हैं, मगर कविताओं में सलमा-सितारों सी दमकतीं ये पंक्तियाँ किसी भी कविता के पूर्ण-प्रभाव को चिढ़ाते हुए अपने असर में ले लेने का दुस्साहस भी करती हैं, आप इन पंक्तियों के प्रभाव की गिरफ़्त आने से बच नहीं सकते। आम-भाषा में इसे मजमा लूट लेना भी कहा जा सकता है।

संग्रह की कविताओं में वह सब है जो हमें समकालीन कविता में देखने-सुनने-पढ़ने को मिलता है। मगर उस सब को देखने-परखने-लिखने की प्रिया वर्मा की दृष्टि विरल और अनूठी है और जीवन को देखने की यही नूतन-परिपक्वता उन्हें समकालीन कवियों में विशिष्ट बनाती है। किसी धारणा या जुड़ाव के चलते उनकी इस दृष्टि को कला-दृष्टि कहकर भी सीमित नहीं किया जा सकता। इसे प्रथमतया प्रतिरोध-पोषक कला-दृष्टि की एक तात्कालिक उपमा से उल्लेखित किया जा सकता है।

संग्रह की कविताओं में प्रेम है, मगर निशाने पर, किसके खुद प्रेम के। सामाजिकता के दायरे को चुनौति देता नहीं अपने विस्तार भर दायरे का फैलाव चुनता। संग्रह पढ़ने के दौरान इस निशाने की व्याख्या आप अपनी दृष्टिनुसार कर सकते हैं। आप खुद निशाने पर हो सकते हैं, निशाना लगा सकते हैं। यह यहाँ दृष्टि की सामर्थ्य अन्वेषण-क्षमता और लोकतांत्रिकता है।

●कविता लिखने की कला जानते हुए भी, निरे प्रेम के दुख में लिथड़ी पड़ी हूं

●जबकि मेरे आधुनिक होने होते हुए भी, एक यही बात मुझे मध्ययुगीन बना रही थी, और मैं सारा कमरा छोड़कर
केवल दर्पण में किसी बेहतर को खोज रही थी
मैं खुल कर एक कली से पूर्ण विकसित फूल हो सकती हूं, एक शर्त पर कि मुझे कभी विसर्जित न किया जाये

कवि प्रिया वर्मा की कविताओं को पढ़ना कविता के कोमल हाथों को अपने हाथों में देर तक लिए रहना है। उनकी कविता के साथ ठीक उस प्रेमी जोड़े तरह बैठना और बतियाना है जिसे अपने प्रेम की सघनता के बाहर भी नजर आता हो।

सावधान। नये कवियों को न पढ़ने का अपराध मत कीजिए। कविता की इतनी दमदार उपस्थिति अचरज पैदा कर रही है।

 

पुस्तक: स्वप्न के भीतर पाँव (काव्य संग्रह)

प्रकाशक: बोधि प्रकाशन

मूल्य: 120 रुपये (पेपर बैक)


 

समीक्षक पवन करण का जन्म 18 जून, 1964 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ। उन्होंने पी-एच.डी. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त की। जनसंचार एवं मानव संसाधन विकास में स्नातकोत्तर पत्रोपाधि।

उनके प्रकाशित कविता-संग्रह हैं-‘ इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाजू पर बटन’, ‘कल की थकान’, ‘स्त्रीशतक’ (दो खंड) और ‘तुम्हें प्यार करते हुए’। अंग्रेजी, रूसी, नेपाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, असमिया, बांग्ला, पंजाबी, उड़िया तथा उर्दू में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं और कई कविताएँ विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में भी शामिल हैं।

‘स्त्री मेरे भीतर’ मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, उर्दू तथा बांग्ला में प्रकाशित है। इस संग्रह की कविताओं के नाट्य-मंचन भी हुए। इसका मराठी अनुवाद ‘स्त्री माझ्या आत’ नांदेड महाराष्ट्र विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल और इसी अनुवाद को गांधी स्मारक निधि नागपुर का ‘अनुवाद पुरस्कार’ प्राप्त। ‘स्त्री मेरे भीतर’ के पंजाबी अनुवाद को 2016 के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया।

उन्हें ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, ‘रजा पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’, ‘शीला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘स्पंदन सम्मान’ से भी सम्मानित किया जा चुका है।

सम्प्रति : ‘नवभारत’ एवं ‘नई दुनिया’, ग्वालियर में साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ का सम्पादन तथा साप्ताहिक-साहित्यिक स्तम्भ ‘शब्द-प्रसंग’ का लेखन।

ई-मेल : pawankaran64@rediffmail.com

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