समकालीन जनमत
कहानी

उत्पीड़न के विरुद्ध उम्मीदों की ‘सुलगन’

आलोक रंजन


कैलाश वानखेड़े की किताब ; सुलगन ! नौ कहानियों वाले इस संग्रह में इस नाम की कोई कहानी नहीं है लेकिन ‘सुलगन’ हर कहानी में मौज़ूद है ।

तेज़ लपट से पहले की तैयारी वाली सुलगन ! इन कहानियों में से सबसे पहली बात उभर कर आती है – शहरी अस्पृश्यता । इस सूत्र से बंधी कहानियाँ बड़े ही खुले रूप में मौजूद नियमित रूप से होने वाले शोषण को पाठक के सामने रखती हुई चलती है ।

हर कहानी में यह पक्ष बहुत से स्तरों पर उभरता है । आए दिन शहरी शिक्षित समाज की ओर से कोई न कोई ऐसा घोषित करता हुआ देखा जाता है कि अब परिस्थितियाँ बदली हैं छूआछूत खत्म हो गया है लेकिन जुबानी जमाख़र्च से परे हटकर देखें तो स्थिति स्पष्ट होते देर नहीं लगती ।

इस संकलन की कहानियाँ अपनी गहरी सामाजिक संवेदना की समझ से प्रभावित करती हैं । इस समझ से लेखक प्रगतिशीलता और आधुनिकता की असलियत जाँचते हुए चलते हैं और सीधे सीधे कहा जाये तो ये कहानियाँ समाज के तमाम मुखौटों में छेद करते हुए उसे जातिवादी रूप को उजागर करती चलती हैं ।

सम्पूर्ण संग्रह को पढ़ते हुए एक बात खटक सकती है कि जब जब तर्क –वितर्क या बहस की स्थितियाँ आती हैं लेखक के विमर्श-समर्पित तर्क कमजोर से लगते हैं और एकाध स्थान पर थोपे हुए से भी ।

‘गोलमेज़’ कहानी के अंत में एक दृश्य आता है जब आम ले जाने से रोकने वाले बूढ़े को लड़की डाँटती है “चार नहीं हायर सेकेन्डरी में हूँ । जानती हूँ सब । सब आप जानते हैं । तब दया की थी हमारे बाबा ने और आपने धोखा । तब आपने बेजा जिद न की होती तो आज हम यहाँ खड़े नहीं होते । अपने घर में पढ़ रहे होते …” । यह एक असहज संवाद लगता है ।

निश्चित रूप से लेखक ‘गोलमेज़’ सम्मेलन और ‘पूना पेक्ट’ के समय की गांधी की चालाकी की बात कर रहे हैं और अंबेडकर के साथ हुए छल को सामने रख रहे हैं लेकिन वह कहानी का हिस्सा कतई नहीं लगता है । यदि कहानी दो अलग अलग स्तरों पर शुरू से चल रही होती तो यह बात मानी भी जा सकती थी ।ऐसी स्थिति कहानी की बारीक बुनावट में सलवटें पैदा करती हैं और वहाँ स्थितियों और घटनाओं की सहजता प्रभावित होती है ।

कहानीकार अपनी इन कहानियों में एक खास स्तर पर जहाँ से उन्हें कहानियों को अंत की ओर ले जाना होता है, वहाँ आकर कहानी को हृदय-परिवर्तन के ऊपर छोड़ देते हैं ।

हृदय परिवर्तन की इस शैली को स्वीकार करने में भी एक दिक्कत आ जाती है । वह दिक्कत है उन परिवर्तनों को उद्दीपित करने वाले बिंदु का बहुत हल्का होना या कई बार न होना ! ‘खापा’ कहानी के अंत को देखना यहाँ जरूरी रहेगा ।

कहानी की सारी परिस्थिति यह कहती है कि ‘समर’ को पहले ही विरोध करना चाहिए और उसे पता होना चाहिए कि बड़े स्कूल में उसके बेटे के नामांकन को रोका जा सकता है । क्योंकि जातिवादी लोग ऐसा करते आए हैं उसके साथ भी हुआ ही होगा । लेकिन उन सबसे अंजान और अबोध की तरह वह बड़े स्कूल पहुँचता है । जबकि उसके विद्रोह कर देने की संभावना पहले ही रहती है लेकिन उसे बिल्कुल अंत में लगता है कि ऐसा करना चाहिए । “हमें कहीं का नहीं रखा है । अगले जनम की चिंता का डर दिखा- दिखाकर सदियों से पूजा – पाठ की मिठास से बेसुध कर रखा है । हमें होश कब आएगा ? कब खुद पर भरोसा कर हकीकत समझेंगे … कब” ?

इन कहानियों में लेखक कथा को बहू – स्तरीय बनाने की ज़िद में लगे प्रतीत होते हैं । इससे उन कहानियों की बहू स्तरीयता सहजता से आने और कहानी के भाग लगने के बजाय आरोपित लगती है । उसमें जब विमर्श की गंभीर बातें आती है तो लगता है जैसे लेखक को जबरन हर कहानी में ऐसी स्थिति लानी है जो कई स्तर पर चलती हुई लगे ।

कैलाश इन कहानियों में कुछ ढँककर या छिपाकर नहीं कहते यह इस संग्रह की सबसे बड़ी सफलता है । एक सजग रचनाकार के रूप में वे उन सवर्ण मक्कारियों को क्रमवार रखते चलते हैं जो रोज़ ब रोज़ के जीवन में होती रहती हैं । उन्हें इतना सामान्य मान लिया जाता है कि उनका होना चुभता नहीं । सुलगन की कहानियाँ वह चुभाने वाला एहसास भरती हुई चलती हैं ।

वर्तमान भारतीय परिप्रेक्ष्य में देखें तो ये कहानियाँ जरूरी ठहरती हैं । आज चारों ओर से अच्छा अच्छा दिखाने का उपक्रम लगातार चल रहा है , वाग्जाल में फँसा कर केवल सुखद दृश्यों तक ही रहने दिया जा रहा रहा है ।

जातिवाद को भी इसी तरह से ‘आर्थिक आधार पर आरक्षण’ के मुखौटे के भीतर रखकर अस्वीकार कर देने का उपक्रम हो रहा है । ऐसे में ये कहानियाँ इस झूठ को सामने रखती हैं और हर पन्ने पर बताती हुई चलती हैं कि जातीय विभेद बहुत ही गहराई से भारतीय समाज की हरेक गतिविधि में प्रकट होता है और हर जगह प्रकट होता है ।

भारत में कण कण में ईश्वर नहीं है लेकिन जातिवाद की व्याप्ति अवश्य है । कैलाश की ये कहानियाँ इसलिए भी प्रशंसनीय हैं कि वे अपने समय को साफ साफ देख पा रही हैं और उन्हें पाठकों तक पहुँचा रही हैं । एक ओर जहाँ सब छिपाया जा रहा है वहाँ इस तरह की अभिव्यक्ति प्रशंसनीय है ।

हर कहानी में जातिगत भेदभाव केंद्र में है और यह समूची किताब को एकसूत्र में जोड़ता है । तभी पढ़ते हुए लगता है कि किसी उपन्यास के अलग अलग हिस्सों को पढ़ा जा रहा हो । ये कहानियाँ बताती हैं कि स्कूल में बच्चे का दाख़िला हो कि , बस्ती से सड़क का जाना या फिर प्यास लगने पर पानी मांगने जैसी सामान्य बात या दोस्ती अथवा प्रेम हर जगह जाति के कारण जो उत्पीड़न झेला जाता है वह कई बार मुखर हो सकती है लेकिन ज़्यादातर बार बहुत बारीकी से काम करती है ।

यह सब इतना बारीक है कि हर घटना एक बड़ी साज़िश के परिणाम के रूप में सामने आती है । ‘जस्ट डांस’ कहानी के एक संवाद से यह बात और स्पष्ट होगी “फरक तो बड़ा पड़े । आपने मेरी जाति , भाषा , धर्म , व्यवसाय कुछ भी नहीं पूछा । आपने सब अपने मन से लिखा” ।

मजरे से होकर गुजरने वाली सड़क प्रयोग में होने और लंबी यात्रा का शॉर्टकट होने के बावजूद सवर्ण अधिकारी –इंजीनियर-ठेकेदार गठजोड़ के कारण बनने नहीं दी जाती और दूर एक सड़क बना दी जाती है ।

‘कंटीले तार’ कहानी के अग्रवाल नामक चरित्र का सवर्ण -मर्दवादी -लोलुप चरित्र उस लंबे समय से चली आ रही साजिश को सीधे तौर पर जीता हुआ दिखाई पड़ता है । कहानियों से बाहर आकर देखें तो यही हाल सामने पसरा हुआ मिलता है ।

सवर्ण एकाधिकार को धक्का लगते देख हर जगह इसे बचाने की साज़िश रहती है इसके लिए नियमों को बदला जाता है , तोड़ा मरोड़ा जाता है और कई बार हिंसा भी की जाती है । कैलाश इस संग्रह के माध्यम से सदियों से चले आ रहे उत्पीड़न , साजिश आदि को आज होने वाली घटनाओं के माध्यम से समझाने में सफल रहे हैं ।

इन कहानियों में केवल वे परिस्थितियाँ ही नहीं हैं जिनमें उलझाकर बहुजन हितों को दरकिनार किया जाता है बल्कि ये कहानियाँ अंत तक जाते जाते उम्मीद की बात करने लगती हैं । हर कहानी में उम्मीद की आग की सुलगन है जो बिना किसी लाग लपेट के प्रकट होती रहती हैं ।

हर कहानी में पुरानी सह लेने की आदत के प्रति विद्रोह है । सुलगन की कहानियों में परिस्थितियों का दास बनकर सदियों से झेलते और जीते रहने के दब्बूपन के खिलाफ खड़े होने की उम्मीद है । यह किताब दलित अस्मिता की उम्मीद को नए सिरे से मजबूत करती है ।

इन कहानियों का परिवेश एकाध स्थान को छोडकर कस्बाई या फिर शहरी है । लेकिन जिस पक्ष से कहानियाँ कही है वह शहर में भी हाशिये का समाज ही है । हाशिये पर जी रहे लोगों की जातीय पहचान के माध्यम से चलने वाली ये कहानियाँ उस नव –उदारवादी मिथक को तोड़ती हैं जिसमें यह मान लिया गया है कि भारत के शहरों से , कस्बों से यहाँ तक कि गाँवों से भी जातिवाद समाप्त हो चुका है ।

लेखक परिवेश के माध्यम से अपनी बात बखूबी समझा जाते हैं । ‘हल्केराम’ कहानी में एक स्थान पर लेखक द्वारा किए गए वर्णन को देखिए – घर बंद है । जिसकी दीवार पर पंचर और है का रूप बदल गया कि शब्द पोलियोग्रस्त हो गए । यहाँ बिजली नहीं होने से हवा भरने की मशीन बंद है इसलिए इस झोपड़ी उर्फ दुकान में वक्त बिताया जा रहा है … ।

इस किताब में प्रयुक्त भाषा बहुत आकर्षक है । भाषा से लेखक ऐसा परिवेश रचते हैं कि एक एक डिटेल काफी स्पष्ट नज़र आता है । कहानी कहते हुए वे किसी जल्दबाज़ी में नहीं दिखते । वे जिस बात को कहानी में कहना चाहते हैं पाठक को उसमें देर तक बनाए रखते हैं । उन्हें मुद्दे के कोने कोने में ले जाकर बारीक पहलुओं से रु ब रु कराते हैं ।

अद्भुत भाषिक संरचना के माध्यम से रचनाकार कहानियों की इस बुनावट में पाठक लगातार उन बातों में बनाए रखते हैं जिनसे पात्र संघर्ष कर रहे होते हैं । यह भाषा ही है जिसके मार्फत संवेदना के स्तर पर ये कहानियाँ बहुत गहन भाव संकुल निर्मित करती हैं तभी ये विमर्श के समकालीन गंभीर संदर्भों को सामने रखने में सफल भी हुई हैं । भाषा के लोच के कारण ही इस संग्रह की कहानियों में हम एक पाठक के रूप में पात्रों के साथ साथ प्राकृतिक और सामान्य जन – जीवन जीवंत चरित्र की ही भाँति सामने आते हैं ।

समग्र रूप से कहा जाये तो आकर्षक और प्रभावशाली भाषा के माध्यम से सुलगन की कहानियाँ अपने समय में भारतीय समाज में व्याप्त जातिवाद के चिर – उत्पीड़क रूप को सामने लाती है जिसे ढँके जाने के प्रयास निरंतर हो रहे हैं ।

किताब: सुलगन( कहानी संग्रह)
लेखक : कैलाश वानखेड़े, प्रकाशक : राजकमल पेपरबैक्स कीमत : 125 रुपए

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