पवन करण
स्त्रियों को तो बिगड़ना ही था, स्त्रियों ने बिगड़ने में बहुत वक्त़ लगा दिया..
स्त्री कितनी दूर तक होती है? खुद को खुद की आंख से दिखाई देती, वहां से भी कितनी दूर? स्त्री ने खुद से खुद की इस दूरी को अब तक कितना कम नापा है? किसी-किसी ने और कभी-कभार। खुद को देखने अपनी निगाह से आगे गई ही नहीं और गई तो बमुश्किल? वह जहां तक खुद को नजर आती है वह उससे आगे है। अपने को अपनी निगाह से देखने की इच्छा उसके भीतर जन्म लेती रही है। निगाह के पार अपनी निगाह ले जाकर वह खुद को पकड़ने की कोशिश में जुटती है। उसकी निगाह अभी रास्ते में है। वह चल रही है। वह बढ़ रही है। वह अपनी निगाह के पीछे सलीब की तरह घिसट रही है। वह खुद को दूर ‘दिखती-न दिखती सी’ नजर आ रही है। ज्योति रीता ऐसी ही स्त्री निगाह से आगे जाकर उससे मिलने के प्रयास का प्रतिनिधित्व करती कवि हैं। वह कवि स्वयं भी हो सकती है और कोई अन्य भी।
दिखाई देने से दिखाई देने तक के इस अंतराल में अनेक स्त्रियां हैं। ऐसी स्त्रियां जो इन स्त्रीकवियों की पुरखन स्त्रियां हैं जिनकी कदकाठियां, आवाजें और चेहरे इन कवि स्त्रियों के चेहरों से मिलते हैं। वे इस अंतराल में जगह-जगह उपस्थित हैं। उल्लेखनीय यह कि वे रोती-धोती स्त्रियां नहीं हैं। न पुरुष के लिए न प्रेम के लिए। वह अपने पर हुए अन्याय और अमानवीयता की धूल झाड़कर खड़ी हैं। उन्हें अब इसके बदले पुरुषों से राहत नहीं चाहिए। हिंदी भाषा में कविता लिख रहीं नई स्त्री कवियों की इस खासियत को रेखांकित करते हुए लिखना होगा कि उनकी कविताओं की स्त्रियां वियोग में आंसू बहाती स्त्रियां नहीं हैं।
पुरुषो.. अब हिंदी कविता में तुम्हें, तुम्हारे लिए आंसू बहातीं स्त्रियां नहीं मिलेंगी। अब उन्होंनें बिना सुबके और गिड़गिड़ाए, तुम्हारे धोखे, स्वार्थ, कायरता और कमजोरियों को तुम्हारी ही कमीज पर बिल्ले की तरह टांक देना सीख लिया है। उनके पास तुम्हारे आगे रखने के लिए, तुम्हारा खीज और बेचैनी से भरा पश्चाताप और संभावनाओं से भरा धिक्कार है। अब उनकी पीड़ा व्यर्थ नहीं जाती अर्थ पाकर कविता बन जाती है। ज्योति स्त्री के इस अर्जित साहस की एक और प्रवक्ता कवि हैं।
ज्योति के कविता संग्रह ‘अतिरिक्त दरवाजा’ की अधिकतर कविताओं में स्त्रियों ने अपनी जगह बना रखी है। स्त्रियां अभी स्त्री कवियों को खुद से बाहर नहीं निकलने दे रही हैं। स्त्री कवि के पास लिखने के लिए फिलहाल स्त्री ही प्रमुख माध्यम, विचार, बिंब और प्रतीक की तरह मौजूद है। वह इन्हीं के जरिए दुनिया को देख और कह रही है। स्त्री कवियों की कविताओं में इसके उचित होने पर फिलहाल किसी को संदेह नहीं है। अब खुद पर लिखने के लिए खुद स्त्रियां सृजन के मैदान में है। स्त्रियों पर इतने लिखे गये के बावजूद, स्त्रियों पर लिखे जा रहे के बाद भी, स्त्रियों पर कितना लिखा जाना बाकी है। ये हमें इन कवियों को पढ़ने पर पता चल रहा है। इस नदी में तेज गर्मी में भी पानी घट नहीं रहा। किनारे बैठकर उसमें मछलियों जैसी तैरतीं इनकी बातों को हम डूबते-उबरते देख सकते हैं।
ज्योति रीता अपनी कविता में स्त्री-वंश-परंपरा का प्रतिनिधित्व करती हैं। एक ही समय में वे अपनी नानी, मां और खुद मौजूद हैं। उनका एक किरदार से निकलकर दूसरे में, दूसरे से तीसरे में प्रवेश करते जाना, अपनी कविता में आगे बढ़ते जाने जैसा है। उनकी कविताओं में कितनी घटनाएं और दृश्य मिलते हैं। जहां स्त्रियां प्रथम और अंतिम हैं। जहां उनका कथन-वैविध्य है। उनकी पीड़ा के तीक्ष्ण-अव्यक्त प्रकार हैं। उनकी उदासी का सघन मगर पारदर्शी विस्तार है। उनकी पथरीली दृढ़ता और धारदार मजबूती है। परिपक्वता उनकी प्रेम कविताओं में आधार की तरह है। प्रेमी अदृश्य है। उसे लेकर तल्ख-कथन और मार्मिक-स्मृति है। मगर उसे कोसने या शाप देने का भाव यहां नहीं है।
ज्योति के भीतर की कवि स्वयं के पुरुष (प्रेमी) के लिए और पुरुष के स्वयं के लिए होने में विश्वास करती हैं। मगर प्रेम में एक तरफा लुट जाने में उनका भरोसा नहीं, वे पुरुष प्रेम को भी साथ में लुटता हुआ देखना चाहती हैं। प्रेमी का श्यानापन उनके उपहास का पात्र है। ज्योति की कविता में प्रेम बराबरी लिए है। वे अब प्रेम के रास्ते पुरुष को अपनी उपस्थिति से खिलवाड़ करने देने को तैयार नहीं। खेल में बराबरी। ये प्रेम में बराबरी का एक परिपक्व प्रारंभ है। बीच में देह की दासता भी है मगर वह तो दोनो से अपने ऊपर पंखा झलवाती है। ऐसे में बस देह की समझ काम आती है। देह का गणित समझते ही प्रेम का गणित भी समझ आने लगता है।
देह से चलकर हृदय तक पहुंचीं खरोंचें नजर उभरने लगती हैं। उनकी खटास और मिठास कोंचने लगती हैं।
ज्योति की कविता में जिस तरह स्त्री का विचरण साफ-साफ दिखाई देता है, उस तरह पुरुष,जो अधिकांश में प्रेमी है, नजर नहीं आता, वह केवल कवि की आंखों में दिखाई देता है। बातों में सुनाई देता। यहां भी प्रेमी-कथन का भार प्रेमी द्वारा हर बार चूमे गये प्रेमिका के कंधों पर है। उनकी कविता में प्रेमी कहीं पीछे छूट गया अथवा चला गया है और अब यहां उसकी तीव्र स्मृति शेष हैं। उनकी प्रेम कविता अधिकांश में मार्मिक, संवेदनशील और परिपक्व पुरुष-स्मृति-कथन है। ओह प्रेमी… पढ़ कि तूने क्या-क्या खो दिया? ओह कि तुझे कितना कुछ हासिल था।
पितृसत्ता की राजनीति की शिकार ज्योति की कविताओं की स्त्रियां और पुरुष-सत्ता के मक्कार और मदहोश प्रेम की छानबीन जब उसे खुद से बाहर निकलने देती है। ज्योति की निगाह राज्य, देश और दुनिया को पहचानने-छानने-और कहने में जुट जाती है। उनकी गाजा के बच्चे श्रृंखला की कविताएं विचलित कर देने वाली कविताएं हैं। कवि ज्योति की राजनैतिक-सामाजिक दृष्टि स्पष्ट है। भाषा में टूटती-जुड़ती-छूटती प्रवाहमयी रवानगी है। साथ चलने को सजग करती शैलीगत मौलिकता भी है जो जगह जगह अपने अनूठेपन का अहसास कराती है। वे कहना शुरु करती हैं और तब जाकर रुकती हैं जब वे पूरा कह चुकी होती हैं। इस दौर की स्त्रीकवियों में कितना ‘अपना’ और अनूठापन है-
◆एक दिन एक स्त्री हंसती हुई रसोई से बाहर आ गई
बैठक के बीचो-बीच हाथ मारकर हंसते हुए बोली
तुम्हारी सत्ता हमारे हंसने से भी हिलती है क्या
◆संसद में बैठीं वे सभी औरतें नंगी होती हैं
जो खून के उबरने की बात पर भी
बर्फ की सिल्ली पर लाश की तरह बनी रहती हैं
◆जिन औरतों ने कुछ अलग सोचा, वे अकेली हो गई थीं
उनके लौट आने का इंतजार किसी ने नहीं किया
◆आफत थीं वे स्त्रियां
जो हजार कोड़ो के बाद भी सर उठाये खड़ी थीं
◆वे सभी स्त्रियां जिन्होंने एक-दूसरे से
प्रेम करना सीखा..ज्यादा ऊंची छलांग लगा पाईं
◆होठों पर रक्त के निशान हैं
यह निशान एक लंबी कहानी कहते हैं
◆खूबसूरत थीं वे स्त्रियां
जो उनके ठंडा होने तक बिस्तर को रखा गर्म
मांसल से अमांगलिक होने तक दिया भरपूर अपना शरीर
◆मां बचपन में ही बचपन भूल चुकी थी
◆मां के आंचल से हाथ-मुंह पोंछते हुए भी
हम अनभिज्ञ रहे
जबकि सदियों से आचल नम था
◆कितना जानते हो तुम स्त्रियों को
इतिहास में स्त्रियों को जितना लिखा गया उसमें आधा झूठ था
◆इतिहास में बहुतेरी औरतों ने
अपनी बली से दुनिया को रौनकदार दी हैं
◆किसी पुरुष की स्त्री होना पुरस्कार है
खारिज करती हूं इस पुरस्कार को
◆यह मत कि औरतों का संसार दु:खों से पूर्ण है
इस मत पर एक औरत गरिमा थापती है
◆तुम्हारे वक्ष को नाजुकी से चोटिल कर
तुम्हें चूमना चाहती हूं
परंतु
लज्जावश तुम्हें चूमती नहीं
◆तुम्हारी दीवानगी को देखे अरसा बीता
इन दिनों प्रेम का मर्तवान खाली पड़ा है
अब तुम त्यागपत्र में चाहते हो मेरा अंगूठा
◆तुम्हारा पता बदल गया है
बहुत दूर रहते हो कहीं
चिट्ठी लौट आती है मुझ तक
लौटती चिट्ठियों में तुम्हारे हाथों की छाप है
◆क़बूल के रस्म में तुमने तोहफ़े में दिए
कफ़न के वस्त्र
◆पलक झुकाकर केश खोल देने की परंपरा से मैं वाक़िफ़ थी
कितना कुछ बदलना बाकी था
बदलीं तो बस तारीखें
◆अब कुछ दिन लिखी जाएंगी दाह कविताएं
कविताओं से शवदाह-गृह की बू आएगी
◆धार्मिक कर्मकांडों से देश आगे नहीं बढ़ता
तुमने धर्म के ताले से उनका मुंह बंद कर रखा है
तुमने तिरंगे से ज़्यादा ऊंची कर रखी है गेरुए पताका।
(आधार प्रकाशन से प्रकाशित इस संग्रह को मैनें पढ़ लिया। आप भी पढ़िये)
काव्य संग्रह: अतिरिक्त दरवाज़ा
प्रकाशक: आधार प्रकाशन
मूल्य: 250 रुपए (पेपरबैक)
समीक्षक पवन करण का जन्म 18 जून, 1964 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ। उन्होंने पी-एच.डी. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त की। जनसंचार एवं मानव संसाधन विकास में स्नातकोत्तर पत्रोपाधि।
उनके प्रकाशित कविता-संग्रह हैं-‘ इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाजू पर बटन’, ‘कल की थकान’, ‘स्त्रीशतक’ (दो खंड) और ‘तुम्हें प्यार करते हुए’। अंग्रेजी, रूसी, नेपाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, असमिया, बांग्ला, पंजाबी, उड़िया तथा उर्दू में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं और कई कविताएँ विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में भी शामिल हैं।
‘स्त्री मेरे भीतर’ मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, उर्दू तथा बांग्ला में प्रकाशित है। इस संग्रह की कविताओं के नाट्य-मंचन भी हुए। इसका मराठी अनुवाद ‘स्त्री माझ्या आत’ नांदेड महाराष्ट्र विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल और इसी अनुवाद को गांधी स्मारक निधि नागपुर का ‘अनुवाद पुरस्कार’ प्राप्त। ‘स्त्री मेरे भीतर’ के पंजाबी अनुवाद को 2016 के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया।
उन्हें ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, ‘रजा पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’, ‘शीला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘स्पंदन सम्मान’ से भी सम्मानित किया जा चुका है।
सम्प्रति : ‘नवभारत’ एवं ‘नई दुनिया’, ग्वालियर में साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ का सम्पादन तथा साप्ताहिक-साहित्यिक स्तम्भ ‘शब्द-प्रसंग’ का लेखन।
ई-मेल : pawankaran64@rediffmail.com