समकालीन जनमत
पुस्तक

भाषा सिंह के कविता संग्रह योनि-सत्ता संवाद की पुस्तक समीक्षा

पवन करण


मेरे आदमी नहीं हो तुम, मेरे आंसू नहीं ढलकते हैं तुम्हारे गालों पर….

भाषा सिंह की कविताएँ पढ़ने की प्रक्रिया में मन में यह प्रश्न सहज ही जन्म लेता है..क्या ज़ुलमतों के दौर में कविता अपना घर छोड़कर वहाँ रहने-कहने चली जाती है, जहाँ उसके रहने को मुमकिन नहीं माना जाता अथवा वहाँ जिसे कविता की शक्ल में नहीं पहचाना जाता। मगर टटोलकर देखें तो वहाँ भी उसकी नब्ज़ वैसी ही धड़कती है। जिनमें कवि की पहचान पा लेने की बेचैनी नहीं मगर वे कविताएँ लिखकर समय की विद्रूपता को उजागर करने की कोई कसर नहीं छोड़ते, भाषा सिंह उन्हीं में से एक कवि हैं

यह कविता की इच्छा पर निर्भर करता है कि वह अपना घोषला बनाकर कहाँ रहना चाहती है। यह कोई नहीं बता सकता कि उड़ते हुए पक्षी जैसी वह उगने के लिए कहाँ बीज बिखेरेगी। क्या कोई कवि कविता को बंधक बना सकता है? नहीं। हाँ उसे रचने और पढ़ने के क्रम में वह कविता से प्रेम करते हुए अपना जीवन अवश्य सुंदर बना और जी सकता है। कविता-फिनिक्स ने ऐसे ही कुछ बीज भाषा सिंह के भीतर जमीन पर बिखेरे-बोये जो सुर्ख रंग लिए उनके कविता संग्रह ‘योनि-सत्ता संवाद पलकों से चुनना वासना के मोती’ की शक्ल हमारे लिए उगे हैं।

कवि भाषा सिंह अपने भीतर कम भटकती हैं, वे अपने से बाहर ज्यादा बिचरती हैं इसीलिए उनकी कविताओं में हमें एकालाप से अधिक वार्तालाप मिलता है। जैसे किसी कवि की दृष्टि अपने भीतर गहरे और गहरे उतरती है, भाषा सिंह की निगाह दूर तक और दूर तक जाती है। इसलिए उनकी कविताओं में दूर तक का देखा बेधड़क चला आता है। यहाँ उनकी पत्रकार-प्रतिभा उनका सहयोग करती है, जो उनकी कविता को कभी आक्रोश से भरती है कभी धिक्कार से। प्रेम और प्रतिरोध, उनकी कविता का भी स्थायी भाव है। ज़ुलमतों का दौर कब नहीं रहा, कविता प्रतिरोध करने में कब पीछे हटी।

कविता विविध रूपों में, बिंब, गठन, कहन में पाठक से मिलती है पढ़ने के क्रम में पाठक जिससे मिलता है। क्या इस मांग ने कवियों के बीच जन्म लिया कि उनके साथ सजी-संवरी शृंगारित कविता को ही चलना चाहिए। जिसकी भद्रता की प्रशंसा सब करें, बल्कि उसे पाना चाहें। जिसकी भाषा-चितवन मोहित करने में न चूके। कवि के साथ-साथ समाज को नोचने-टोकने जगाने-चेताने वाली कविता ने कहने-लिखने के लिए खुद अपने कवि चुने। उसने ऊबड़-खाबड़ सड़कों- टूटी-फूटी गलियों फिसलन भरी पगडंडियों को बोलने-बसने के स्वयं चुना। हाँ शायद-

●हम बगावती औरतें हैं, जब हम अपने बाल काट रही हैं
तो समझो हमारी कैंची को
हर जुल्म को खत्म करने का हुनर आता है

●हमारी चोटी से बंधी है तुम्हारी सत्ता
आजाद मर्द बिना आजाद औरत के मुमकिन नहीं

●तुम मेरे चरम सुख से खौफ खाते हो
मेरे चुनने की आजादी से डरते हो
जाति ही मेरी माहवारी है, पीरियड्स ही मेरी जाति है

●उनकी राह मैं सबसे बड़ी अड़चन है मेरी कजरारी आंखें
जिनमें लगा है बेखौफ आजादी की सुरमा

●याद रखना तुम, तुम्हारे नये घरों की दीवारों पर
छाप होगी मृतकों के हाथों की
हम भारत के लोग मरघट बनते देश के हैं साक्षी

●याद रखो हम अमन की बेटियां हैं
और इस वतन में तुम्हारा मुकाबला हमसे है
जमापूंजी है हमारी आताताई के खिलाफ हमारी नफरत

●मेरा चुंबक अधूरा… तो मेरा भूगोल रह गया अधूरा
तुम अपनी मां की नहीं
अपने बाप की… बस बाप की हो औलाद

●देह और मन को सिलबट्टे पर पीसकर ही
गढ़ना पड़ता है हर औरत को अपना प्रेमी

●हम सर पे कफन बांधकर पैदा हुए हैं
कोई अंगूठी पहनकर नहीं जिसे तुम चोरी कर लोगे

●मेरी जांघो से रिस रहे खून, स्तनों में चुभी कीलों पर
मरहम लगाते हैं जब तुम्हारे हाथ, तब मेरी सूजी-झुलसी बंद आंखों में खिल जाता है सदाबहार

नश्तर बहुत गहरे करता है वार…..।

(गुलमोहर से प्रकाशित भाषा सिंह के इस संग्रह की कविताओं से मैं मिल लिया, पढ़ लिया। आप भी मिलिये, पढ़िये।)

Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion