डॉ. अली इमाम खाँ
बलभद्र का कविता-संग्रह ” समय की ठनक ” को पढ़ने, समझने और महसूस करने का मौक़ा मिला। इन कविताओं से गुज़रते हुए ऐसा लगा कि ‘समय की ठनक’ सत्ता और श्रम की ठनक से उपजी झंकार है जो बहरे कानों से भी टकराती है और परिवर्तन की सिर्फ आहट ही नहीं बल्कि उसका अलार्म बन जाती है।
संकलन की कविताओं का सामाजिक सरोकार ग्रामीण जीवन, ख़ासकर खेत- खलिहान में दिन- रात मेहनत कर सृजन, निर्माण और उत्पादन करने वालों के जीवन-संघर्ष, उनके सपने,उनके जीवन की हलचल और उठापटक से जुड़ा हुआ है। ये कविताएँ केवल उनके जीवन का बखान नहीं हैं, ये उससे बहुत आगे जाती हैं।
ये उनकी आशा, आकांक्षा, जिजीविषा और बेहतर जीवन के सपनों को आकार और गति प्रदान करती हैं, उनके संघर्ष में उनके साथ खड़ी नज़र आती हैं, उन्हें प्रेरित करती हैं ज़ुल्म एवं अन्याय से टकराने के लिए, अपने हक़ और इंसाफ़ की ख़ातिर लड़ने के लिए।
ये कविताएँ ग्रामीण-जीवन तक ठिठकी और ठहरी हुई नहीं हैं बल्कि शहरी-जीवन तक विस्तार पाती हैं और वहाँ भी मेहनतकश के पक्ष में डट कर खड़ी होती हैं। उनकी प्रतिबद्धता और पक्षधरता मेहनतकश जनता के साथ है। ये कविताएँ प्रकृति-प्रेम, जीवों के प्रति सहअस्तित्व की समझ एवं भावना में भी व्यक्त हुई हैं। यहाँ जीवन की निरंतरता के साथ सम्बन्धों और संघर्ष की भी निरंतरता है।
इनमें सच सीधे आ खड़ा होता है, किसी दर्शन या विचार के पीछे नहीं छुपता, इसलिए पाठक को समझने में कोई उलझन नहीं, कोई अड़चन नहीं होती। बहुत कुछ अनकहा और अनछुआ इन कविताओं में आकर लेता हुआ नज़र आता है:
पीढ़ी दर पीढ़ी पारिवारिक रिश्तों की फैलती बेल, उसकी ऊष्मा, उसके बदलते आयाम, उनको सहेजने- समेटने की कसक, ज़िम्मेदारियों को निभाने का एहसास और आगे बढ़ाने की चाहत, सभी कुछ बेबाक ढंग से इन कविताओं में व्यक्त हुआ है। ये कविताएँ हैं – ‘ अन्न हैं कलपेंगे’, ‘वह तो चिरई है बाबा की’, ‘माँ’, ‘चलती जाए बाबूजी की साइकिल’, ‘ तुम ओ माँ’, ‘गाँव जाना चाहती थी माँ’, ‘ गिरवी’, ‘ पिता’, ‘नेम प्लेट’, ‘अगोरने से ही’, ‘उम्मीदों के धागे’, और ‘ बड़की माई’। इन कविताओं में ‘चिरई’ और ‘ साइकिल’ का बिंब कई अर्थों में इस्तेमाल हुआ है, कहीं जीवन-चक्र है ,तो कहीं जीवन की निरंतरता, कहीं आज़ादी है तो कहीं गति तथा कभी उन्मुक्त जीवन है तो कभी संघर्ष :
“आया कि
अन्न हैं, कलपेंगे पड़े-पड़े
ठीक नहीं इनका ” (अन्न हैं, कलपेंगे)
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” पर, उनकी वह चिरई
मैं जहाँ- जहाँ जाता हूँ
वहाँ- वहाँ जाती है
शिव- शिव गुहराती है
जगाती है रोज
मैं देखना चाहता हूँ उसे।” (वह तो चिरई है बाबा की)
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“माँ को पता नहीं
समय के किस मोड़ पर
झुँझला उठता है पिता का मूड
उसे कहना है जैसे कहती है रोज
जैसे रोज- रोज काटती है सब्जी।” (माँ)
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“वह सोच रही है
जैसे सोचती है फुटहे तसले के बारे में
जैसे सोचती है फटी साड़ियों के बारे में।” (माँ)
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“पाॅकेट की गर्मी का ग्राफ
और बाबूजी के मुड का दबाव
जितना जानती है यह पैडल
क्या जानेगा कोई और!” (चलती जाए है बाबूजी की साइकिल)
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चलती जाए है बाबूजी की साइकिल
सधे भाव से
रेलवे लाइन के किनारे- किनारे।” (चलती जाए है बाबु जी की साइकिल)
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“तुम समझाती हुई कहती-‘ जा जिनगी बन जाई’
और मैं छूकर तेरे पाँव
जिन्दगी बनाने सिसकते हुए निकल पड़ता था।” (तुम ओ माँ!)
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“डटकर खड़ी हुई हिस्सा- बखरा के लिए
जहाँ उसके होने का अपना मतलब था
जहाँ से जुड़ी थीं स्मृतियाँ तमाम
जीवन के शेष दिनों में
वह वहाँ रहना चाहती थी
वह वहाँ जाना चाहती थी
जहाँ के चप्पे- चप्पे पर दर्ज थी उसकी पहचान।” (गाँव जाना चाहती थी माँ)
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” जब तुम थे तो कहाँ था ऐसा
कि तुम्हारे बिना मुश्किल हुआ हो कभी रह पाना।” (पिता)
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“पुत्र की तरह मैं नहीं रहा
या कि पिता की तरह तुम्हें रहने नहीं आया।” (पिता) —————————-
तुम थे तो एक भरोसा था
माँ थी तो हर काम का
अपना एक मतलब था।” (पिता)
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“इस नेमप्लेट के भीतर
मैं अपने को पाता हूँ खेतों के बीच…..
खेत मजदूरों के संग
उनके सवालों के साथ होता हूँ बैठकों में
और सड़कों पर जुलूसों में
यह नेमप्लेट केवल मेरा ही नहीं हो सकता।” (नेमप्लेट)
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“तुम्हारे बक्से का वह कुंडी-ताला एक झटके में टूट गया
उस बक्से में पड़ी थी चन्द मूरतें देवी- देवताओं की
कुछ बताशे, कुछ बिस्कुट
खुली एक दियासलाई, अगरबत्ती का खुला एक पैकेट
लाइफबाॅय, सनलाइट साबुन
कुछ पुराने-धुराने कपड़े
एक तड़प
गीत की वह पँक्ति –
‘सामी के सुरतिया मनवा में रखतीं’
जिसको उस वक्त शायद ही किसी ने सुना हो।” (बड़की माई)
इन कविताओं में परिवार निजता से परे सामूहिक और सार्वजनिक हो जाता है। अपना दर्द ज़माने का दर्द और ज़माने का अपना। इस तरह इनकी अपील सार्वभौमिक है।
खेतों की हराइयाँ, बीज का डालना, अंकुरों का फूटना, रोपनहारियों की मेहनत, पौधों का झूमना, फसलों का लहलहाना, फिर उनका कटना, खेतों से खलिहान होते हुए घरों को पहुंचना और घरों के लिए ईंट का पाथना– यह सब श्रम के कारण है और मजूरन-मेठ, रोपनहारिनें, हलवाहे, आदिवासी औरतें, अनाज कूटने वाली दलित महिलाएँ, फसल काटने वाले –ये सभी अपनी मेहनत से जीवन-संगीत रचते हैं, इनका हुनर, इनकी कारीगरी जीवन में रंग भरती हैं, ये हैं तो जीवन है फिर भी ये हैं ज़माने भर के ठुकराये हुए।पर ये पूँजी का खेल समझने लगे हैं और हैं अपने हक़ के लिए लड़ने को तैयार :
” रात
सोने से पहले
अँगुलियों पर आजमाती है
हँसुए की धार
सपने सँवारती है
सोने से पहले
काटती है फसल।” (फसल काटती है)
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“मन में घर किए
एक घर की साध लिए
हर अगले दिन कटती है
दुगने उत्साह से।” (मजूरन-मेठ).
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” लाल ईंटों में इनके पसीने हैं
इनके अपने दुःख
इनकी अस्त-व्यस्तता
इनके गीत और हुनर और न जाने क्या- क्या!” (पथेरे)
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“कभी पेड़ की लचकती किसी टहनी पर
आसपास किसी कौवे को आते देख
हो उठते हैं बेचैन
बदल जाते हैं इनके स्वर
पुकार और प्रतिरोध में।” (यह खाली जमीन)
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“छोड़ तो आई है सब
पर कहाँ छूट पाया है पीछा
सीमेंट की कुर्सी पर
केश बुहारती आदिवासी औरत
कितनी भीर में है।” (वह आदिवासी औरत)
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” अन्न कूटती
मुसहरिनों के मूसल से कभी
ठेक-ठेक जाता था आकाश
ओछी पड़ जाती थी चोट
झुंझला उठतीं वे बार-बार
आकाश को ऊपर जाने को कहती हुई।” (लोककथा)
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“कैसा लगा इस जीत का एहसास
पहिल- पहिल मतपत्र को छूकर कैसा लगा।” (कैसा लगा)
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” धूप में धधकती है देह
हल के मूठ पर उतरता दबाव
धरती की छाती पर
गहरे उतरती हराइयाँ
और गूँजती टिटकारियाँ
आव आँतर!
जा बाँए!” (हराइयाँ)
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“धरती के पिछड़े हिस्से पर ही सही
जहाँ जमीन और मर्यादा एक मकसद है
जहाँ आकार ले रहा है बदलाव
अपने गीतों से धरती को जगाती
फुफकारते विषधरों के
हर फन का माकूल प्रतिरोध करती हैं रोपनहारिनें।” (रोपनहारिनें)
ये कविताएँ केवल श्रम की प्रतिष्ठा की बात नहीं करती हैं, ये देती हैं संभावना और विस्तार जीवन को, परिवर्तन के लिए प्रतिरोध और संघर्ष को, इज़्ज़त भरी ज़िन्दगी को।
संग्रह की कविताएँ ‘रोपूँगा एक मेंहदी’, ‘ईख’, ‘चोंच में तिनका’, और ‘ढूंढने चला सूरज को’ प्रकृति-प्रेम की कविताएँ हैं. यहाँ मेंहदी का बिंब सर्वत्र फैली प्रेम की खुशबू के तौर पर सृजित किया गया है
” मेंहदी फुलाएगी
हवा उड़ा ले जाएगी मेंहदी की महक
महकेगी दिशाएँ
महक उठेगा मेरा प्रेम ।” (रोपूँगा एक मेंहदी)
ईख प्रतीक है जीवन के रस का, मिठास का, अपनेपन का और औरों के लिए ख़ुद को मिटाने का –
” तुझे तोड़ना जो चाहा
रह गई मसक- मसक कर कई बार
तुम्हारी हर मसकन पर
रससिक्त हुई धरती
और मेरा मन-मिजाज।” (ईख)
संग्रह की कविताएँ केवल ग्रामीण परिवेश तक सीमित नहीं, इनका विस्तार शहरी मज़दूरों चाहे वे रिक्शा चलाने वाले हों या साइकिल पर कोयला ढोते मज़दूर हों। उनकी ज़िन्दगी एक बड़ा सवाल है हमारे लोकतंत्र पर, हमारी व्यवस्था पर।
‘अभी सुस्ता रहे हैं’ और ‘फारूख से बातचीत’ इसी प्रकार की कविताएँ हैं, उनका दर्द ब्यान करती, उनकी जिजीविषा को प्रदर्शित करती –
“साइकिलों को पीछे से ठेलते हैं इनके बच्चे
इनकी घरवालियाँ, भाई- भतीजे
सहते हुए नौ नौ नतीजे
लोकतंत्र की छाती पर
उठते हुए प्रश्न की तरह हैं इनके कदम।” (अभी सुस्ता रहे हैं)
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” लेकिन, साहब कोई इज्जत नहीं इस काम में
कोई इज्जत नहीं
जिसको जो मन में आता है बक देता है
पुलिस वाले तो रोज माँ -बहन करते हैं
डंडा भी चलाते हैं
पैसे भी वसूलते हैं।” (फारूख से बातचीत)
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लोग यह भी तो नहीं समझते
हम रिक्शा नहीं, आदमी हैं हम
उनकी ही तरह।” (फारूख से बातचीत).
मज़दूर गाँव के हों या शहर के, उनका यही संघर्ष है, आदमी माने जाने का, आदमी के तौर पर बराबरी का दर्जा पाने का।
संग्रह की कविताएँ यथास्थिति के नकार, विरोध और संघर्ष तथा प्रतिरोध और परिवर्तन के पक्ष में खड़ी हैं। ये लोकतंत्र, अधिकार, न्याय, समानता और स्वतंत्रता के सवाल से टकराती हैं। इसलिए जनपक्षीय हैं। वैश्वीकरण ने लोगों की मुश्किलें बढाई हैं, दिलों के बीच दूरियाँ बढ़ी हैं, अमीर और ग़रीब की खाई और भी चौड़ी तथा गहरी हुई है। कविताएँ ‘सभ्य मुस्कान’, ‘तुम को जगह-जगह से तोड़ा’, ‘राष्ट्रभक्तों के राज में’, ‘वे सैनिक थे कारगिल के मोर्चे पर’, ‘वे इतने आधुनिक’, ‘ठनक रहा है समय का माथा’, और ‘कैथरकला प्रतीक नहीं’ इतिहास के उत्तर आधुनिक और उत्तर सत्य पड़ाव को नकारती भी हैं और उनसे संघर्ष भी करती हैं।
” अपनी धूल, अपनी धूप
अपने हवा- पानी के साथ
हँसते- बतियाते आए ग्रुप के ग्रुप। ” (राष्ट्रभक्तों के राज में)
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“हिमालय उनके आकर्षण और उत्तरदायित्व के केन्द्र में था
जमीन के जर्रे- जर्रे को जान से भी अधिक समझना
उनके खून में शुमार था
वे कृषक- पुत्र थे
वे रोक सकते थे घुसपैठियों को समय रहते
वे सैनिक थे
कारगिल के मोर्चे पर।” (वे सैनिक थे कारगिल के मोर्चे पर)
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” वे इतने आधुनिक हैं कि
ऐरे- गैरों का आधुनिक होना उन्हें पसंद नहीं
स्वतंत्रता और लोकतंत्र की उनकी अपनी परिभाषा है
और समता और समाजवाद सुनते ही
रूस और चीन पर लेने लगते हैं चुस्कियां
चेहरे पर उनके उभरने लगती हैं नाना आकृतियाँ ।” (वे इतने आधुनिक हैं)
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“विषमताओं की कोख से जन्मी
जटिलताओं की धूप- छाँही में पली बढ़ी
ओ मेरी उद्दण्डताओ!
तुझे उछालना चाहता हूँ आकाश की ओर।” (ओ उद्दण्डताओ!)
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” इन्हीं के बल जीवन है टिका हुआ
धरती है टिकी हुई
बादल हैं बरसते हुए
हरियाली है फूल हैं फल हैं
फलों के बीज हैं
इन्हीं के बल हम हैं
तुम हो
रहो इन्हीं के संग
मैं भी रहूँ
तुम भी रहो।” (कविता मेरी).
कविता हो कि जीवन, इन्हीं मेहनतकशों के दम पर है, इन्हीं की सृजनशीलता, निर्माण करने की क्षमता और इनका हुनर, इन्हीं से दुनिया चलती है, सजती और सँवरती है।
मार्क्सवादी चिंतक गोपाल प्रधान ने इस संग्रह की कविताओं के बारे में लिखा है।वह काफी गम्भीर और विचारपरक है।
पुस्तक: समय की ठनक
कवि: बलभद्र
प्रकाशक: लोकायत प्रकाशन,वाराणसी
मूल्य:Rs.90.
(कवि बलभद्र हिंदी और भोजपुरी के कवि हैं, गिरिडीह कॉलेज, गिरिडीह ,झारखंड में शिक्षक हैं
एवं समीक्षक डॉ. अली इमाम खाँ, पूर्व प्राचार्य, आदर्श कॉलेज, राजधनवार, झारखण्ड, और जनवादी लेखक संघ, झारखंड के अध्यक्ष हैंं)