समकालीन जनमत
पुस्तक

आरिफा एविस का उपन्यास “नाकाबन्दी” कश्मीर के हाथ-पाँव में बँधी अदृश्य बेड़ि़यों को दृश्यमान करता है

 

आरिफा एविस की औपन्यासिक कृति है “नाकाबन्दी”। यह कश्मीर की जमीनी हकीकत को सामने लाती है। इसमें कल्पना की उड़ान नहीं बल्कि यहाँ का क्रूर यथार्थ है। इसकी कथा.वस्तु इसी के आधार पर  बुनी गई है। यह कश्मीरी अवाम के अपनी जमीन पर ही गुलाम बन जाने या बना दिए जाने तथा कश्मीर जो अपनी कश्मीरियत के लिए ख्यात रहा हैए उसके लुटने.पिटने की कथा है। भारतीय मीडिया की सारी कोशिश कश्मीर की तस्वीर ऐसी पेश करने की रही है जो सरकार के अनुकूल हो। वह देश के मानस में यह बिठाता रहा है कि कश्मीर और वहां के आम अवाम गुनाहगार है। वे आतंकवादियों व अलगावादियों के साथ हैं और भारत विरोधी हैं। इसका नतीजा यह हुआ कि देश में कश्मीरियों के प्रति आमतौर पर नफरत का भाव बना है। दरअस्लए मीडिया की भूमिका वहाँ की कड़़वी वास्तविकता पर परदा डालने की रही है और है। आरिफा इसी को बेपर्द करती हैं और कश्मीर के हाथ.पांव में बँधी अदृश्य बेड़ियों को दृश्यमान करती हैं।

आरिफा एविस कश्मीर के  हालात को वहाँ के आम.अवाम के नजरिये से देखती हैं और यही उनकी कहानी के केन्द्र में है। कश्मीरियों में प्रेम, सद्भाव, भाईचारा और मेहमाननवाजी में कोई कमी नहीं है। उनका भरोसा सरकार पर नहीं है। उनके साथ जो सुलूक किया गया, उससे यह भरोसा लगातार खण्डित हुआ है। फिर भी इंसानियत पर उनका भरोसा डिगा नहीं है। आरिफा एविस स्वयं पत्रकार हैं और उनकी कोशिश थी कि सरकार द्वारा धारा 370 खत्म करने के बाद की ग्राउण्ड रियलिटी को कश्मीर के  बाहर लोंगों  तक पहुँचायें। लेकिन  इसके हालात नहीं थे। ऐसे में उन्होंने सच्चाई को लोगों तक लाने के लिए उपन्यास का माध्यम चुना जो “नाकाबंदी” के रूप में सामने है। लेखिका के पत्रकार होने का असर कहन की शैली में दिखता है। इसकी भाषा सहज.सरल है और अभिव्यक्ति में प्रवाह है। इसे पढ़ना शुरू करें तो खत्म किये बिना नहीं रहेंगे। वैसे इसके पाठ को खत्म  करने के बाद भी खत्म नहीं होता है। वह मन.मस्तिष्क में उथल.पुथल मचाता है। उपन्यास में हालात का वर्णन, घटनाक्रम का विकास, सरकार और उसके द्वारा लागू की गई व्यवस्था की भूमिका आदि को लेकर कई महत्वपूण पहलु सामने आते हैं। उपन्यास की कथा.भूमि इसी से निर्मित है।

उपन्यास का केन्द्रीय  चरित्र श्रीनगर (कश्मीर) की रहने वाली सोफिया है। वह दिल्ली में पत्रकारिता की पढ़ाई करती है। रवीश उसका दोस्त है जिसे वह पसन्द करती है। यह पसन्द मुहब्बत में बदलती है। उसका कुनबा जिसमें अम्मी, भाई, बड़े अब्बू, चाचा आदि शामिल हैं, श्रीनगर में रहते हैं। सोफिया मौके की तलाश में है कि वह अपनी मुहब्बत की बात अम्मी को बता दे और उन्हें इस रिश्ते के लिए राजी कर ले। ऐसा मौका आता है जब वह अपने दोस्तों के साथ श्रीनगर आती है। पर हालात ऐसे बने  कि मौका हाथ से फिसल जाता है। सोफिया की दोस्त जूही है जो कश्मीरी पण्डित है। जूही भी विनय को पसन्द करती है। पहले तो विनय कश्मीर जाने को तैयार नहीं होता। उसके मन में कश्मीर को लेकर मीडिया द्वारा बनाया गया डर और पूर्वाग्रह है। लेकिन बाद में चारो दोस्त प्रोग्राम बना लेते हैं। वे श्रीनगर पहुँचते हैं। सोफिया के परिवार का प्रेम, आत्मीयता और मेहमाननवाजी को देखकर सभी बहुत प्रभावित होते हैं। कश्मीरियों को लेकर विनय की धारणा बदल जाती है जो बाद में “सेव कश्मीर” अभियान में उसके सक्रिय होने  के रूप में मूर्त होती है।

सोफिया के दोस्त उसके परिवार यानी अम्मी, दोनो भाई इरफान व अली, बड़े अब्बू और उनके बेटे जीशान और जफर, चाचा अकबर आदि से मिलते हैं। इनके मुहब्ब्त भरे व्यवहार और  मेहमाननवाजी के कायल हो जाते हैं। डल झील, हाउसबोट, शिकारा — यह सब उनके लिए नया अनुभव था। सभी सोफिया के परिवार से इस तरह घुल.मिल जाते हैं जिससे लगता है  कि उनकी जान.पहचान बहुत पुरानी है। पर दोस्तों  को कदम कदम पर पुलिस, फौज, अवरोध का होना अचंभित करता है। उनकी जिज्ञासा को शांत करते हुए सोफिया बताती है कि कश्मीर की पहचान बदल चुकी है। यह कश्मीरियत के लिए नही अब फौज और आतंक के लिए जाना जाता है। यहां का “मौसम” कब बदल जाये कहा नहीं जा सकता। सोफिया जिस “मौसम” की बात कर रही थी, वह प्राकृतिक नहीं राजनीतिक मौसम था। दूसरे दिन सुबह ही ‘मौसम’ बदल चुका था।

सरकार द्वारा कश्मीर में जारी एडवाइजरी के तहत पर्यटकों को कश्मीर खाली कर देने का फरमान  था। क्या होने वाला है? कश्मीर में कुछ बुरा तो नहीं होने वाला है? आशंका सच बन गई। घटनाक्रम में गुणात्मक परिवर्तन हो  गया। सरकार ने 370 खत्म  कर दिया। उपन्यास के मुख्य कथानक का  आरम्भ यहीं से होता है जब सरकार कश्मीर से 370 और 35 ए हटाती है। देश में कुछ ने पटाखे  फोड़ खुशियों का इजहार किया पर कश्मीर में आम जिन्दगी जल उठी। कश्मीर में सबकुछ बन्द कर दिया गया। भीड़ भरी सड़कों और बाजारों में सन्नाटा पसर गया। चप्पे.चप्पे पर पुलिस व सैन्य बल गन ताने तैनात। स्कूल.कालेज बन्द। रोजी,.रोजगार, धंधे, पर्यटन सब खत्म। आम अवाम अपने घरों में कैद। सड़कों पर कँटीले तार बिछाकर आवागमन अवरुद्ध। सारे संपर्क काट दिए गए। सूचनाओं का आदन.प्रदान बन्द अर्थात फोन, मोबाइल, नेट आदि की सुविधाएँ ठप कर दी गई। कोई किसी से संपर्क न कर सके, ऐसे हालात बने। लोग अपने घरों में बीमारी, भूख आदि से मरते रहें तो मरे। यह सरकार द्वारा लगाई गई नाकाबन्दी थी। सत्ता ने इसके द्वारा जो कहर ढ़ाया, वह गुलामी के दिनों की याद को ताजा कर दिया। आरिफा अपने उपन्यास “नाकाबन्दी” में सत्ता की बर्बरता और आम अवाम की दशा-दुर्दशा का जैसा सजीव चित्रण किया है, वह किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को भाव विह्वल कर देने वाला है। सोफिया ऐसे में एक पत्रकार की भूमिका में आकर वास्तविकता को कश्मीर से बाहर पहुँचाना चाहती थी। पर फोन.नेट बन्द होने से यह संभव नहीं था। ऐसे में उसने  हालात, लोगों की परेशानी और अपने अनुभव को डायरी में दर्ज  करना शुरू  किया।

सोफिया के परिवार के साथ जो घटा, वह कश्मीर को समझने का आइना है। इस परिवार पर जो जुल्म ढ़ाया गया, इसकी दास्तां न सिर्फ एक परिवार का है बल्कि कश्मीर का है। सबके जैसे सपने होते हैं, वैसे ही सपने हैं। सोफिया का भाई इरफान क्रिकेटर बनना चाहता है। सचिन तेंदुलकर उसका आदर्श है। वह  डॉक्टर बनकर लोगों की सेवा करना चाहता है। अम्मी के मना करने के बावजूद वह भाई अली के साथ क्रिकेट खेलने पास की गली में निकल जाता है। कुछ लोग नाकाबन्दी में बाहर निकल प्रदर्शन कर रहे  थे। पुलिस बल को यह बर्दाश्त कहां! आंसू गैस, पैलेट गन से सैन्य बल उन पर टूट पड़ता है। क्रिकेट खेल रहा इरफान भी इसकी चपेट में आता है। वह घायल होकर अस्पताल पहुँच जाता है। बड़े अब्बू अख्तर, जीशान, अली आदि को पुलिस पकड़ ले जाती है। फिर शुरू  होता है बर्बर यातनाओं का सिलसिला। नौजवानों  की जिन्दगी को कैसे बर्बाद किया जाता है, इसका उदाहरण है  अली और जीशान। सैन्य बलों की नजर में कश्मीर में नौजवान होने का मतलब है पत्थरबाज या आतंकवादी होना। उनके साथ जो सुलूक है, उसमें वे आगे पढ़ने लायक न रहें, नौकरी पाने के योग्य न हों बल्कि जिन्दगी बचे ही नहीं और वह  बच भी जाए तो जीने लायक न रहे।

सोफिया ने साहस कर पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराई। इसका नतीजा यह हुआ कि जीशान और अली को रिहा कर दिया गया। पुलिस के खिलाफ रिपोर्ट करने का मतलब है आगे पुलिसिया दमन के लिए रास्ता खोल देना। फर्जी केस में फँसा कर जेल में डाल देना आम बात है। इंसाफ का दरवाज़ा खटखटाना भी अपराध है। यही देखने में आया। पुलिस ने फर्जी केस बनाकर ज़ीशान को पकड़ने के लिए उसके घर पर दबिश दी। जीशान पुलिस यातना झेल चुका था। गिरफ्तारी का मतलब था एक और यातना से गुजरना। उसने खुदकुशी का रास्ता चुना। इसी समय इरफान जो पायलट गन का शिकार था, उसकी जान भी चली गई। इधर एक ही दिन घर में दो जनाजा .–  इरफान और जीशान का निकलता है तो उधर बड़े अब्बू अख्तर जेल में हैं। कहां हैं, जिंदा भी हैं या नहीं, पता नहीं । आतंकवादी, पत्थरबाज आदि बताकर लोगों को सैन्य बलों द्वारा घर से उठा लिया जाना कश्मीर में सामान्य बात है। ऐसे हजारों लोग उठा लिए गए। जिंदा हैं या मार दिए गए, उनका कोई अता.पता नहीं है। इसी को केन्द्र करते हुए कवयित्री शोभा सिंह ने “अर्ध विधवा” कविता लिखी है। इसी नाम से उनका कविता संग्रह है। जिन औरतों के मर्द सैन्य बल द्वारा उठाए गए, वे नहीं लौटे, उनकी हालत अर्ध विधवा जैसी ही तो है। अब ऐसे में सरकार और कानून पर कोई कैसे भरोसा कर सकता है ?

उपन्यास में स्त्रियों से जुड़े प्रसंगों की भी भरमार है। मर्दों की तलाशी करने आए और नहीं मिलने पर फौज द्वारा घर की महिलाओं को उठा लिया गया। उनके साथ बदसलूकी की गई। इन घटनाओं को देखते हुए मणिपुर की मनोरमा के साथ हुई घटना की याद हो आती है। मणिपुर व पूर्वोत्तर भारत हो या कश्मीर, सैन्यबलों का आम अवाम से निपटने के तरीके में बहुत अंतर नहीं है। विशेष शस्त्र बल कानून (आफ्सफा) उन्हें विशेषाधिकार देता है। लेकिन इन सबका प्रतिरोध भी है। असम राइफल्स के हेडक्वार्टर कांग्ला फोर्ट पर महिलाओं ने नग्न होकर प्रदर्शन किया था। उन्होंने जो बैनर ले रखा था, उस पर लिखा था “इंडियन आर्मी रेप अस”। यही भयावह स्थिति है जिसमें कश्मीरियों को जीने के लिए बाध्य किया गया है। यदि 16 साल की रुबीना कहती है कि जिहादी बन जाओ या मुझे बना दो। जब मरना है तो जिहादी बनकर ही क्यों ना मरा जाए। इसी की प्रतिक्रिया है। यह अलग बात है कि घर के बुजुर्ग समझाते हैं कि यह समस्या का कोई हल नहीं है। मर जाऊँगा परन्तु जिहादी नहीं बनूँगा।

एक बात यह जरूर देखने में आई कि सोफिया के परिवार पर मुसीबतों का पहाड़ टूटा। उसके साथ जो घटा, वह किसी को भी विचलित करने व तोड़ देने के लिए काफी था। लेकिन सोफिया अपने अन्दर के धैर्य और जज़्बे को बनाये रखती है। वह टूटती नहीं है। वरन आगे बढ़ने का रास्ता निकालती है। यही कश्मीर की हकीकत है। भारी दमन.उत्पीड़न झेलने और सहने के बावजूद भी सरकार कश्मीरी आवाम को तोड़ नहीं सकी है। उनकी समझ है कि कश्मीर की लड़ाई कश्मीरियों की है। उसे उन्हें ही लड़नी पड़ेगी। आज आजादी का नारा वहां की फिजाओं में इस संकल्प की तरह गूंज रहा है “कैद  होकर मरने से अच्छा है  आजादी से आजादी के लिए मरें।”

सोफिया एक पत्रकार के रूप में जो करना चाहती थी, वैसा संभव नहीं था। वह अपनी सामााजिक भूमिका बढ़ा देती है। उसने बच्चों को पढ़ाना और अम्मी सहित अन्य महिलाओं को एकजुट करना शुरू किया। चाचा अकबर के हाउसबोट पर उनकी क्लास और मीटिंग होने लगी। सूचना मिली कि विदेशी टीम कश्मीर के हालात का जायजा लेने आ रही है। जानते हुए कि यह मात्र औपचारिकता है फिर भी इस अवसर का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। यह संदेश दुनिया में पहुंचे कि “कश्मीर की जनता  अभी जिन्दा है। कश्मीरियत अभी जिन्दा है। कश्मीरियत कोई मुर्दा कौम नहीं है। वह फिर से उठ खड़ी होगी।” और सचमुच ऐसा ही हुआ। लाल चौक का सन्नाटा टूटा। “हम क्या मांगे, आजादी” का नारा गूंज उठा। उस दिन सोफिया अपने डायरी में लिखती है “श्रीनगर में शायद पहली बार सबसे बड़ा शंतिपूर्ण प्रदर्शन हुआ जिसकी बागडोर महिलाओं के हाथ थी।”

सरकार ने टुकड़ों में फोन और नेट की सुविधा को बहाल किया। पहले पोस्टपेड शुरू हुआ। देश की राजधानी में भी कश्मीर को लेकर लोकतांत्रिक समाज की सक्रियता बढ़ चुकी थी। सोफिया के दोस्त रवीश, विनय और जूही की पहल पर “सेव कश्मीर” बन गया था। इसकी ओर से फैक्ट फाइन्डिंग टीम कश्मीर भेजी गई जो सोफिया से  मिली और वहाँ की असलियत से रूबरू हुई। “सेव कश्मीर” के राष्ट्रीय अधिवेशन में सोफिया को कश्मीर के हालात पर अपनी बात रखने के  लिए बुलाया गया। उसके द्वारा उन सवालों पर बात रखी गई जो आम भारतीयों के मन में कश्मीर को लेकर है। उन क्रूर स्थितियों को भी उसने बयां किया जिनसे कश्मीरी आम अवाम को इस दौर में गुजरना पड़ा है या वे गुजर रहे हैं। जोर देकर  उसने कहा कि “उम्मीद ! मैंने उम्मीद नहीं छोड़ी”। आरिफा के इस उपन्यास का यह मूल या केन्द्रीय तत्व है।

उपन्यास को लेकर कुछ बातें। कश्मीर की पहचान आमतौर पर आतंकवाद और अलगाववाद से जोड़ दी गई है। कोई यह सवाल कर सकता है कि उपन्यास सीधे इस पर बात नहीं करता है। हां, उन कारकों को जरूर  सामने लाता है जिनकी वजह से आतंकवाद और अलगाववाद वहाँ फल फूल रहा है और आम अवाम में उसे आधार मिलता है। सरकार राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय मंचों पर आतंकवाद को जोर शोर से उठाती है और इसे लेकर पाकिस्तान को  जिम्मेदार बनाते हुए उस पर हमले करती है, उसे कठघरे में खड़ा करती है। मीडिया का प्रचार भी इसी दिशा में है। दरअसल एक और आतंकवाद है, जिसकी गिरफ्त में कश्मीर है। वह वास्तव में चर्चा से बाहर है। उस पर बात करने का मतलब “देशद्रोही” घोषित होना है। यह है राज्य आतंकवाद। कश्मीर में राज्य आतंकवाद किस तरह ऑपरेट करता है, उस के क्या नतीजे हैं, आम अवाम की जिंदगी पर क्या बुरा असर पड़ा है, इस पहलू को तथ्यों के साथ आरिफा सामने ले आती हैं। हालत यह है कि अफ्सफा और पीएसए सैन्य बलों को इतना अधिकार दे देता है कि वे कानून से ऊपर हो जाते हैं। वहीं, आम जनता की सुरक्षा के लिए कोई कानून नहीं है। वह है भी तो उसका इस्तेमाल करना संभव नहीं है। इसकी चर्चा जीशान व अली के प्रसंग में ऊपर की जा चुकी है। सच्चाई यही है कि कश्मीर की जनता इन्हीं दो पाटों में पिस गई है।

दूसरी बात, 370 हटाने के पीछे आर्थिक कारण भी है। कश्मीर के संसाधनों, जल, जंगल, जमीन को कारपोरेट लूट के दायरे में ले आना है। इसलिए कश्मीरी जनता की लड़ाई को सापेक्षता में देखा जाना चाहिए जैसा कि सोफिया “सेव  कश्मीर” के अधिवेशन में कहती है .” कश्मीर के इतिहास में लोग जानकारी रखें। यह जो मुद्दा है वह देश में चल रहे जल, जंगल व जमीन के आंदोलन से अलग नहीं है। आपका भूमि अधिकार का मुद्दा है, कोयला खदान का मुद्दा है तो कश्मीर की जमीन भी कब्जे में है।…… यह वक्त की पुकार है कि हम एक साथ चले। कश्मीर बचाओ ही नहीं देश बचाओ, संविधान बचाओं का आंदोलन एक साथ होना चाहिए। हमलोग एक साथ खड़े होंगे और एक साथ लड़ेंगे।” सोफिया के इस आहवान और संकल्प के साथ उपन्यास समाप्त होता है। वास्तव में, सोफिया की अपील जनता के भारत बनाने की लोकतांत्रिक अपील है।

आरिफा एविस इस उपन्यास के द्वारा यह कहना चाहती हैं कि कश्मीर की लड़ाई हिंदुस्तान की लड़ाई से अलग नहीं है। कश्मीरियत को बचाना हिंदुस्तानियत को बचाना है। सरकार द्वारा 370 हटाये जाने के बाद कश्मीरी अवाम को किन मुसीबतों से गुजरना पड़ा, उसका यह दस्तावेज है। हमें जानना चाहिए कि जनता द्वारा चुनी गई सरकार ने अपने लोगों के साथ क्या बर्ताव किया। अपने को “लोकतान्त्रिक” और दुनिया में इसका ढ़िंढ़ोरा पीटने वाली सरकार के हाथ अपने ही नागरिकों के खून से रंगे हैं। इस मायने में यह जरूरी और महत्वपूर्ण कृति है। इसे पढ़ा जाना चाहिए और दूसरों को पढ़ने के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए।
 
उपन्यास : नाकाबन्दी
प्रकाशक : डायमंड बुक्सए नई दिल्ली . 110020
मूल्य : रुपये 150/–

{आरिफा एविस पत्रकार हैं और युवा रचनाकरों में विशिष्ट स्थान रखती हैं। इनकी कविता, कहानी, लेख, समीक्षा, व्यंग्य आदि का विभिन्न पत्र.पत्रिकाओं में प्रकाशन होता रहा है। “नाकाबन्दी” से पहले “मास्टर प्लान” उपन्यास के अतिरिक्त दो व्ययंग्य संग्रह  “शिकारी का अधिकार” और “जांच जारी है” प्रकाशित हो चुका है। }

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