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‘गीली मिट्टी पर पंजों के निशान’: विडंबनाओं को कविता की ताकत बनाता कवि

 कुमार मुकुल


‘गंगा सहला रही है मस्जिद को आहिस्ते आहिस्ते ।
सरकार ने अब वुजू के लिए
साफ़ पानी की सप्लाई करवा दी है’

‘एक दंगाई हाथ जोड़े खड़ा है।
दंगे में मारे गये लोग हाथ जोड़े खड़े हैं’

‘इतना खुला संकेत पहले कभी किसी सरकार ने नहीं दिया था
कि आप अगर आत्महत्या नहीं कर सकते तो हम आपकी
हत्या कर देंगे’

एक्टिंग पोएट के आज के धमगिज्‍जर में फ़रीद ख़ाँ के कविता संग्रह ‘गीली मिट्टी पर पंजों के निशान’ से गुजरना एक बीइंग पोएट को जानना है। कविताओं से गुजरे बगैर एकाध मुलाकात में केवल हाव-भाव या रोने-गाने से पहचाने जाने वाले कवि नहीं हैं फरीद। विकास की तथाकथित सभ्यता को प्रश्‍नांकित करती हैं उनकी कविताएँ। यह जीवन व संघर्ष की वह कविताएँ हैं जिन्हें लिखना भूलता जा रहा नया कवि पर जिनके बिना उसकी कोई जीवित छवि बननी मुश्किल है। अरबों की भीड़ में अकेले पड़ते जाते आदमी की कविताएँ हैं ये। फ़रीद के यहाँ गंगा पुत्र बनने की एक प्राकृतिक चेतना है, जो राही मासूम रजा की परंपरा में है – ‘गंगा और महादेव’।

बाघ इंसान थोड़े ही है,
उसे क्या मालूम कि उसकी आड़ में कोई अपनी
सरकार चला रहा है।
या उसकी सरकार उसके जंगल का सौदा कर रही है।
बाघ तो जानवर है।
ईश्वर ने जैसा पैदा किया वैसा ही, बिल्कुल ठेठ।

फँस जाएगा पर मर मिटेगा अपने जंगल पर’

बाघ को लेकर कई कविताएँ हैं संग्रह के आरंभ में जो इंसान होने की विडंबना को दर्शाती हैं। फरीद का बाघ केदार जी का बाघ नहीं है, ट्रैक्टर और मटर के दाने में बदलता हुआ, यहाँ तीर-धनुष लिए आदिवासियों की आँखें हैं बाघ जैसी – लक्ष्यभेदी, अविचल। आदिवासी संघर्ष और उनकी जमीनी ताकत इस तरह अब तक अभिव्यक्त नहीं हो पाई थी कविता में। बाघ सीरीज की कविताओं में यहां जो भय है वह शक्ति देने वाला है, वरिष्‍ठ कवि लीलाधर जगूड़ी का एक संकलन ही है, ‘भय भी शक्ति देता है’।

‘आज़ान की आवाज़ नहीं थी मेरे कान में पहली आवाज़।
वह माँ की चीख़ थी।
उसकी मनःस्थिति का द्रव्य चिपका रहा मेरी त्वचा से।
इस तरह मैं काफ़िर बना’

यूं देखा जाए तो भय नहीं बल्कि मार्मिकता में गुंथे जीवन के मूल स्वर को अभिव्‍यक्‍त करता है कवि। मानव मन की उधेड़बुन को जिस तरह कवि अभिव्यक्त कर पाता है वह हर अगली कविता के लिए पाठकों को जिज्ञासा के भाव से भरता जाता है।

‘वो सरकार की लाज बचाने के लिए
ट्रेन की पटरी पर सो गये और कट गये।
अब कोई भी ये कह सकता है
कि सरकार का इसमें क्या दोष है ?
प्रधानमन्त्री अकेला क्या-क्या करेगा ?

कुछ रोटियाँ और चटनी
उन्होंने प्रधानमन्त्री के खाने के लिए वहीं छोड़ दीं।
“अगर प्रधानमन्त्री खाएगा नहीं तो काम कैसे करेगा?”
ऐसा उन्होंने सोचा था’

इस समय की क्रूरता को इतनी मार्मिकता से कम ही लोग दर्ज कर पा रहे। कविता के तमाम फॉर्म को तोड़ती कविताएँ हैं यह, मनुष्यता के मर्म को ज़ाहिर करतीं।

मनुष्यता की साझा स्मृतियों का कोलाज हैं फ़रीद की कुछ कविताएँ। ‘छठ की याद में’ आदि ऐसी ही कविताएँ हैं। विसंगतियों को इतने मार्मिक ढंग से आज कहां कोई देख पा रहा, ऐसे समय में जब तेरा-मेरा की पाशविकता को संस्कृति‍ का मूल बताया जा रहा, साझेपन का राग जिस तनमय्यता से इन कविताओं में बजता दिखता है वह चकित करने वाला है।

‘मैं धोखे से जिंदा बच गया।
क्योंकि मैं अपनी वेशभूषा से
किसी भी हत्यारे की तरह ही सीधा-सादा
और शरीफ़ सा दिखता हूँ’

यह जीवन से व जीने के तौर-तरीकों से अर्जित कविताएँ हैं ना कि चलन में आए बौद्धिक व्यायाम से निकली। जैसे बच्चों के लिए यह दुनिया एक कौतूहल की तरह सामने आती है और बच्चा आंखें फाड़े उसे देखने-समझने में व्यस्त हो जाता है, यह कविताएँ ऐसा ही सहज कौतूहल रचती हैं। यह ऐसा अनोखा कवि है जो आदमी का देखना ही नहीं बकरी का देखना भी देखता है। कवि का आकलन और आकलन की दृष्टि की दाद देनी होगी।

‘सोने की खान’ कविता को पढ़ते हुए लगा कि इस पर कुछ और काम होना चाहिए, कहानी अभी मुकम्‍मल नहीं हुई।
पिछले दिनों अमिताभ बच्चन की कविताएँ हवा के नए झोंके की तरह आईं, हाल में हरे प्रकाश उपाध्याय की नई शैली ने भी आश्वस्त किया, इस कड़ी में फ़रीद ख़ान की कविताएँ भी एक नई खिड़की खोलती हैं, मानव मन के नए स्तरों को सामने लाती हैं। विचार कवि की ताकत हैं, वह अपनी इस ताकत को समझता है –

‘शायद हम एक ऐसी दुनिया से विदा लेंगे जहाँ,
कातिल ख़ुद से ही बरी कर लेता है ख़ुद को।
जज ख़ुद को ही बर्खास्त कर लेता है’

विडंबनाओं को कवि जिस तरह विचारों की ताकत बना पाता है, वह प्रेरक है। आतंक किस तरह एक राष्ट्रीय विचार बनता जा रहा उसे यह कविताएँ दर्शाती हैं!

‘मुझे पत्नी की बातें सुनाई नहीं देतीं।
अपनी याददाश्त पर थोड़ा जोर लगाकर सोचा
कि मुझे माँ की बात कब-कब सुनाई दी है?
मुझे नानी-दादी की बात ही कब सुनाई दी ?
जिनके पलंग में घुसकर अक्सर सो जाता था।
मुझे ठीक से याद नहीं कि अपनी बहन की कोई बात सुनी हो।’

आत्‍म-विश्लेषण का ऐसा तल्‍ख रवैया नहीं दिखता कविता में या जीवन में, इसकी परंपरा बननी चाहिए।

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