कल देर तक 24 दिसंबर को देहरादून में हुई “मूल निवास भू-कानून लागू करो” रैली में आए नेताओं और लोगों के वक्तव्य सोशल मीडिया पर सुनता रहा. उत्तराखंड राज्य की अवधारणा के साथ सन् 2000 और उसके बाद के 23 वर्षों में जो साजिशाना बर्ताव हमारी सरकारों ने किया, उसके खिलाफ लोगों में उपजे असंतोष की इस अभिव्यक्ति के साथ उन सब लोगों की उम्मीदें भी जुड़ी हैं, जिन्होंने इस राज्य के निर्माण की लड़ाई लड़ी और राज्य बनने के बाद मरती हर उम्मीद पर अपना विरोध दर्ज करते रहे हैं. लेकिन इस रैली मैं जुटी भारी भीड़ और एसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर यहाँ जुटे ज्यादातर लोगों की समझ ने मुझे फिर उसी चिंता में डाल दिया, जो 2 अक्टूबर 1994 की दिल्ली रैली की तैयारी के दौरान हम जैसे लोगों के मन में उपजी थी. उत्तराखंड आन्दोलन और इस आन्दोलन में एक फर्क साफ़ दिखा, उत्तराखंड आन्दोलन में पहाड़ के आम ग्रामीण बड़ी संख्या में उतर रहे थे, जबकि 24 दिसम्बर 2023 की देहरादून रैली में पहाड़ के गाँवों से पलायन किए शहरी और कस्बाई मध्य वर्ग की ही बहुतायत थी.
ऐसा होना स्वाभाविक भी है, पहाड़ के गाँवों में बचे ग़रीबों जिनका जुड़ाव अभी भी अपनी जमीनों या गाँव से बचा है, सारी उम्मीदें छोड़ चुके हैं और वहाँ से बाहर निकलने की प्रार्थना कर रहे हैं. इनमें एक अच्छी संख्या वहां के उन मूल निवासी दलितों की है, जिनकी 95 प्रतिशत आबादी के पास नया घर बनाने को आधा नाली जमीन भी नहीं है. दूसरी उन गरीब किसानों की है जिनके पास अब मात्र 4-6 नाली जमीन बची है जिसमें उनके परिवार का गुजारा हो ही नहीं सकता है. ऊपर से जंगली जानवरों का आतंक, गो रक्षा कानून से पैदा आवारा गायें तथा कड़े वन और बृक्ष संरक्षण कानून ने उनकी बची खुची उम्मीदों पर पानी फेर दिया है. उन्हें पहाड़ पर मनरेगा में वर्ष भर 40 दिन भी काम नहीं मिल रहा है, ऊपर से मजदूरी नाम मात्र की. विकास के नाम पर पहाड़ में खड़ी की गयी ठेकेदारों (यही अब राजनीतिक कार्यकर्ता भी हैं) की फ़ौज योजनाओं में काम करा कर उनकी मजदूरी का एक हिस्सा मार कर चली जा रही हैं. जिन परिवारों के पास पहाड़ में नौकरी, व्यवसाय से आजीविका का साधन है वे गाँव छोड़ शहरों, छोटे कस्बों में चले गए हैं. क्या भू कानून की बात करने वाले हमारे मित्रों के एजेंडे में आज गांव में बचे इन लोगों के सवाल मौजूद है?
(तस्वीर गूगल से साभार)
कल की देहरादून रैली में कुछ अपवाद को छोड़कर बाक़ी सबकी लगभग एक ही बात थी कि यह आन्दोलन उत्तराखंड आन्दोलन की तरह का हो गया है. इसी खतरे के बारे में तो दो दिनों से मैं आगाह कर रहा था. नारों में भी देखिये “मूल निवास भू कानून लागू करो!” – “बोल पहाड़ी हल्ला बोल” ज्यादा चल रहा था. दिल्ली से लेकर देहरादून तक इस आन्दोलन को शुरू करने वाले ज्यादातर लोग भू कानून लागू करो कह रहे हैं. भू कानून तो आज भी लागू है और हर सरकार में लागू रहे हैं. पर उत्तराखंड राज्य का आज भी अपना कोई भूमि सुधार कानून नहीं है. असल लड़ाई तो उत्तराखंड राज्य के लिए एक नए भूमि सुधार कानून को लाने की है. उत्तराखंड के पहाड़ में खाली होते गाँवों और बंजर होती खेती को आबाद करना है तो एक ऐसा नया भूमि सुधार कानून लाना होगा जो कृषि भूमि के विस्तार का रास्ता खोले. ताकि पहाड़ में खेती से आजीविका चलाने के इच्छुक गरीब किसानों और भूमिहीन दलितों को कम से कम 50 नाली जमीन की व्यवस्था हो. कृषि को रोजगारपरक बनाने, उत्पादित सभी फसलों की सी 2+50% एमएसपी पर सरकारी खरीद की गारंटी हो और जंगली जानवरों से खेती की सुरक्षा हो. इसके लिए बड़े पैमाने पर पहाड़ की कृषि में सरकारी निवेश हो.
आज गंभीर भूमि संकट से गुजर रहे उत्तराखंड और खासकर पहाड़ में खेती की जमीन का कानूनी संरक्षण जरूरी है. इसके लिए जब उस जमीन की बिक्री पर रोक की मांग होती है तो यह जायज है. पर जब ये मांग करने वाले 95 प्रतिशत से ज्यादा लोग कश्मीरी लोगों की जमीन लूटने के लिए भाजपा सरकार द्वारा खत्म किए गए धारा 370 के प्रावधानों के लिए जश्न मनाते है, तब उनकी असली मनसा पर शक होता है. अपने राज्य में रोजगार के अधिकार में प्राथमिकता के लिए मूल निवास प्रमाणपत्र की मांग जायज है. पर जब यह मांग उत्तराखंड में स्थाई रूप से रह रहे अन्य राज्य के लोगों के स्थाई निवास प्रमाण पत्र के खिलाफ होता है, और अपने लिए देश भर में स्थाई निवास प्रमाणपत्र की छूट चाहता है तब उनकी मनसा पर शक होता है. जब यह आंदोलनकारी अपने लिए संवैधानिक अधिकारों की बात करते हैं और उसी संविधान में दलितों, पिछड़ों को मिले आरक्षण का विरोध करते हैं तो उनकी मनसा पर शक होता है.
हमारा एक भाई पहाड़ के गाँवों में पीड़ा और अभाव भरी जिन्दगी में अपने बच्चे पाल रहा है. उसके बरक्स तीन लोग पलायन कर अन्य राज्यों के स्थाई निवासी बन कर वहां नौकरी व अन्य सुविधा लेकर अपने बच्चों को अच्छा पढ़ा लिखा रहे हैं. उनका मूल निवास प्रमाण पत्र उत्तराखंड से बनाना जायज है. पर अगर वह अब पहाड़ का स्थाई निवासी नहीं है तो उसे वही हक़ क्यों मिलना चाहिए जो पहाड़ की पीड़ा और अभाव भरी जिन्दगी जीने वाले के लिए सुरक्षित रहने चाहिए? अगर मूल निवास और भू कानून की मांग के साथ आप इन बुनियादी और न्यायपूर्ण सवालों को जोड़ दें तो शर्तिया बात है कि 24 दिसंबर को देहरादून में जुटे हजारों लोगों में से अगली बार आयोजकों को 100 लोग जुटाने भी भारी पड़ जाएंगे. पहाड़ के लोगों की जमीन बचाने के लिए जब हम लोग अल्मोड़ा के नैनीसार गए, जब हैलंग की महिलाओं ने अपनी जमीन बचाने के लिए लड़ाई लड़ीं, जब जोशीमठ और उर्गम घाटी के लोग अपनी जमीन और अस्तित्व बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं, तब उत्तराखंड के वही उंगुलियों में गिने जाने वाले लोग ही मैदान में दिखे. 24 दिसंबर को देहरादून में जुटी भीड़ के 90 प्रतिशत लोगों ने तब इन लड़ने वालों को विकास विरोधी की श्रेणी में रखा होगा. इसी लिए तो मैं पूछ रहा हूँ कि “भुला, क्या हमारे लोग इतने भोले हैं!” जितना आप समझ रहे हैं.