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संगीत के बहाने युवा मुक्ति की तलाश है बन्दिश बैण्डिट्स

बंदिश बैंडिट्स वेब श्रृंंखला अमेज़न प्राइम वीडियो पर प्रसारित हुई है। इसके पहले सीजन में  दस कड़ियां हैं। हिंदी में आयी संभवतः यह पहली वेब श्रृंखला है, जो संगीत पर आधारित है।

लेकिन, इस श्रृंखला में संगीत कथावस्तु नहीं है, बल्कि कथानक है। कथावस्तु तो है, पारिवारिक, सामाजिक संबंधों के भीतर  हुआ बदलाव और उससे उपजा द्वंद्व और तनाव।

संगीत के मैदान में यह सब घटित होता है। अलग-अलग दृश्य और प्रसंग  के माध्यम से।

कथा के केंद्र में हैं पंडित राधे मोहन राठौड़, उनका घर और उनका संगीत घराना । घर भी संकट में है और घराना भी। घर बचाने के लिए उनका बेटा राजेंद्र जूझता है और घराना बचाने के लिए उनका पौत्र राधे।

पंडित राधे मोहन घर और घराना दोनों के ऊपर अपने सामंती पितृसत्तावादी मूल्यों और नैतिकता को लेकर बैठे हैं। यही वह तत्व है, जिससे पूरी श्रृंखला में संघर्ष, तनाव और द्वन्द्व बना रहता है। और इसी से कथानक गति भी पाता है।

पंडित राधे मोहन की अवस्था उतनी है लगभग, जितनी हिंदुस्तान की आजादी।

पंडित राधे मोहन बीकानेर घराने में संगीत की शिक्षा लेते हैं और अपने गुरु की बेटी से शादी कर लेते हैं। इनसे एक पुत्र दिग्विजय राठौड़ है।

पंडित राधेमोहन  जोधपुर के राजा द्वारा आयोजित संगीत सम्राट की प्रतियोगिता में भाग लेने आते हैं। वहाँ एक महिला  प्रतियोगी से मेल बढ़ता है, फिर उससे शादी कर लेते हैं तथा जोधपुर में रहकर राठौड़ घराना शुरु करते हैं।

इसी प्रतियोगिता में आगे चलकर वे एक युवती  मोहिनी से हार जाते हैं,  जो उनकी पहली पत्नी से हुए पुत्र की प्रेमिका है। मोहिनी, एक स्त्री का जीतना पंडित राधेमोहन को बर्दाश्त नहीं होता।

वे छल करते हैं। मोहिनी के पिता के कर्ज और गरीबी का फायदा उठाकर, उसे अपनी दूसरी पत्नी से हुए बड़े पुत्र राजेन्द्र  की बहू बना लेते हैं।

जैसे ही वह घर में प्रवेश करती है, उसे संगीत छोड़ने का वचन ले लेते हैं। मोहिनी अब एक बच्चे, पति, देवर, ससुर से युक्त घर की सेवा, चिंता, देखभाल करने वाली गृहणी बन कर रहने लगती है तथा  अपने संगीत को विलीन कर देती है।

पंडित राधेमोहन  पूरी तरह से सामन्ती पितृसत्तावादी नैतिकता और मूल्य से बने चरित्र हैं। उनके भीतर अहम है, हेठी है, अनुदारता है, अगतिक, निरपेक्ष, शाश्वत  अनुशासन है और अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए हद दर्जे की धूर्तता भी है।

दिग्विजय  राठौड़ भी ऐसा ही चरित्र है, लेकिन उसने बाजार के साथ तालमेल भी विकसित कर लिया है। वह कला को पंडित राधे मोहन की तरह पवित्र  संपत्ति की घेराबंदी में  नहीं रखता, बल्कि उसे बाजार में लाभ के लिए उतारता है और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर ख्याति प्राप्त करता है।

पंडित राधे मोहन संगीत कला को शुद्ध, पवित्र बनाए रखते हैं और इसके लिए वे निर्मम, अमानवीय व्यवहार से तनिक भी नहीं बचते।  दिग्विजय राठौड़  संगीत कला को बाजार के हिसाब से मुक्त करता है। वह ख्याति और सफलता के रास्ते में बस आगे बढ़ना चाहता है। उसकी इच्छाएं अनंत हैं और वह उन इच्छाओं को पूरा करने के लिए  निर्मम और विनम्र दोनों है। सामंती अहम के साथ आधुनिक उदारता भी है उसमें।

श्रृंखला में इन दोनों चरित्रों को औपन्यासिक  दर्जे के कौशल और खूबी  के साथ रचा गया है।

इस वेब श्रृंखला में तीसरी पीढ़ी या नब्बे के बाद की पीढ़ी के तीन प्रतिनिधि हैं- राधे, तमन्ना और संध्या। तीनों एक साथ अलग-अलग समयों में रह रहे हैं।

तमन्ना है, जिसे अपने को साबित करना है बाजार के बनाए सफलता के स्वप्नलोक में और उसी में सुर संगीत की अपनी कुशलता के साथ दौड़ में शामिल है। यह दौड़ ही उसके लिए सत्य है।

उदारीकरण ने यही किया। उसने 1990 के बाद आयी पीढ़ी के सामने स्वप्न और सफलता का एक विभ्रम रचा, जिसमें जाने वाले को वही सर्वेसर्वा, ब्रह्म लगता है और उसकी जानकारी परम शाश्वत सत्य।

तमन्ना इसी दौड़  की प्रतिभागी, इसी समय की वासी है। लेकिन जब वह राधे से मिलती है, उसके जीवन से जुड़ती है तब धीरे-धीरे उसके इस जगत का झूठ उसे चुभने लगता है, डराने लगता है। उसे अपना पूरा व्यक्तित्व मीडियाकर लगने लगता है। वह खीझ, अवसाद और व्यर्थताबोध से घिरने लगती है और अंत में खुद को पाने की मौलिक तलाश शुरू करती है।

राधे के लिए बाजार एक दानव है, अपवित्र जगह है। यह विचार उसने अपने बाबा से पाया है। लेकिन, बाजार का आकर्षण भी है और जरूरत थी।

उसमें वह जाता है लेकिन मास्कमैन बनकर। यह मास्क उन सभी युवाओं के चेहरे पर है, जो छोटे कस्बाई शहर हो या गांव से आकर बाजार की दौड़ में या तकनीक आधारित नये बाजार के प्रतियोगी हैं।

नये का आकर्षण और पुराने की जकड़न उन्हें एक नया पाखंड रचने पर मजबूर कर देती है। मास्क वही पाखंड है।

लेकिन, राधे अपने बाबा की तरह संगीत को एक कला की तरह ही लेता है। उसमें प्रवीणता हासिल करना चाहता है। उसमें अनुशासन को वह नैतिक नहीं बनाता। उसकी नैतिकता उसका मनुष्यपन तय करता है।

इसीलिए वह मानवीय, विनम्र, सहृदय परदुखकातर है। अर्थात वह व्यवहार में अपने बाबा के सामंती आचरण से बिल्कुल भिन्न है। वह अपने चाचा दिग्विजय की तरह बाजार के आगे समर्पण करने वाला भी नहीं है।

वह बाजार का इस्तेमाल तो करता है, लेकिन बाजार से गठजोड़ कायम कर निर्मम, नंगी, गलाकाट  दौड़ का प्रतिभागी नहीं बनता। यही उसके भीतर द्वन्द्व और तनाव  का कारण बनता है।

तीसरा चरित्र है संध्या का। वह  राजा जोधपुर की भतीजी है। बेल्जियम में रहती है। संध्या के लिए मूल्य कोई मायने नहीं रखता। वह अल्ट्रा मॉडर्न है, लेकिन है वह एक औरत, जो हर समय और समाज में भुक्तभोगी होती है। सारी स्वतंत्रता के बावजूद। दूसरी सीमा उसकी है पारिवारिक पृष्ठभूमि। वह सामंती मूल्य बंधन से मुक्त नहीं है।

जब उसका प्रेमी उसके साथ संसर्ग  के पलों को पोर्न साइट पर बेच देता है, तो वह उस तथाकथित अति आधुनिक पश्चिमी समाज की नैतिकता के झूठ में छली जाती है।

अब उसके लिए उपस्थित समय में, समाज में, संस्कृति में कोई ऐसा विकल्प नहीं दिखता, जहां वह एक स्त्री के रूप में अपनी मुक्ति को खोज सके।

इसलिए वह एक बच्चे पैदा करने वाली और बिस्तर पर पति को खुश करने वाली सामंती नैतिकता वाली स्त्री के पारंपरिक जीवन में लौटने का निर्णय ले लेती है। यहां भी राधे की मदद से वह खुद की मुक्ति की खोज  में निकल जाती है।

उसका आखिरी संवाद है, कि अब मैं लिबरेटेड स्त्री हूँ।

सांस्कृतिक हलके में भी बौद्धिकों के बीच यह बात चिंतन का विषय बनने लगी है, कि मूल्य और नैतिकता के स्तर पर क्या किसी समाज व्यवस्था को पूरी तरह से खारिज किया जा सकता है या उस व्यवस्था को अंतिम माना जा सकता है या उसके भीतर के मानवीय और उदात्त तत्वों को लेकर आगे बढ़ा जा सकता है? क्या पीछे के किसी समाज व्यवस्था का कोई मानवीय हासिल होता है या उसमें कुछ भी ऐसा नहीं होता जिसे ग्रहण किया जा सके?

पंडित राधे मोहन सामंती मूल्यों को धारण करते हैं। दिग्विजय सामंती अपशिष्ट  और पूंजीवादी लोभ-लाभ के मूल्यों से बने जीवन को अपनाता है, जो कोढ़  में खाज जैसा है।

जबकि राधे बाजार के द्वार पर खड़ा है। वह  मानवीय मूल्यों को अपने से अलग करने को तैयार नहीं होता। यह  उसके व्यक्तित्व में शामिल है, जो उसे अपनी मां से मिला है और, जिसे वह छोड़ता नहीं।

नवीं कड़ी  में इसे देखा जा सकता है। राधे, राठौड़ घराने का प्रतिभाशाली गायक, की प्रतिभा देखकर उसके दादा राधे मोहन राठौड़  हर साल होने वाली संगीत सम्राट की प्रतियोगिता के लिए उसे तैयार कर रहे हैं, लेकिन एक दुर्घटना के चलते वे खुद को इस पूरी तैयारी से अलग कर लेते हैं और राधे से अपना उत्तराधिकारी होने का हक भी छीन लेते हैं। इस सबके बाद राधे को प्रशिक्षित करने का दायित्व उसकी माँ मोहनी लेती है।

मोहिनी का अपना एक इतिहास है। यहाँ दर्शक एक पुरुष और स्त्री के प्रशिक्षण के तरीकों  को देखकर दंग हो सकता है।

राधे जब तक अपने दादा यानी एक पुरुष की संगत में रहकर प्रशिक्षण ले रहा होता है तो वह एक पुरुष बनकर ही प्रशिक्षण ग्रहण कर रहा होता है लेकिन अपनी  माँ के सानिध्य में आते ही वह सांगीतिक लयों के अतिरिक्त रोजमर्रा के जीवन में जो लय है, उससे परिचित होता है।

अपने दादा के साथ वह जहाँ अमूर्त ढंग से कला की साधना करता है जहाँ एक कलाकार के लिए माकूल परिस्थितियाँ, उचित और तय समय तक रियाज, प्रतिद्वंद्वी के बारे में जानकारी आदि पर ही जोर होता है लेकिन माँ उसे अपना खयाल विकसित करने के साथ-साथ हर परिस्थिति में स्थिर रहने के गुण के साथ-साथ संगीत के लय को समझने के लिए नृत्य, सब्जी काटने, कपड़े धोने, फर्श साफ करने में जो लय है उससे परिचित कराती है और इस तरह उसे कला के मूर्त्तन के ज्यादा नजदीक ले जाती है।

उसे सिखाती है कि किसी भी क्षेत्र में महारत हासिल करने के लिए जीवन से दूर होने की नहीं बल्कि जीवन के ज्यादा नजदीक जाने की जरूरत होती है। कोई भी कला हमें हर तरह की जकड़बंदी से दूर करती है, हमारे मन में बैठे किसी भी तरह के भेद से मुक्त करती है। राधे की माँ मोहिनी जैसे यहाँ कला के इसी रूप का प्रतीक बन जाती है। हम यहाँ एक स्त्री के प्रति पुरुष नजरिए को बदलते हुये भी देखते हैं।

कला उत्पाद और मानवीय संबंध के धरातल पर मूल्य और नैतिकता में आये बदलाव, द्वन्द्व और तनाव  को बंदिश बैंडिट्स में  बहुत ही कुशलता से दृश्य और प्रसंगों में पिरोकर पेश किया गया है। इसके साथ ही इसमें स्त्री जीवन के चार रंग भी हैं।

मोहिनी है, जो पितृसत्ता के आगे समर्पण कर देती है। तमन्ना और उसकी मां है, जो अपनी पहचान  को लेकर सचेत हैं, लेकिन यह पहचान बाजार के हिसाब से है। वे कहीं भी समर्पण नहीं करतीं। उनको अपनी सफलता को साधना आता है, जिसमें उनके लिए देह जरूरत और हथियार दोनों है।

चौथा रंग संध्या का है, जिसे बहुत चलताऊ ढंग से बुना गया है। जबकि वह दो तथाकथित सभ्यताओं के भीतरी संकट को उघाड़ती है।

तमन्ना की मां और दिग्विजय एक जगह खड़े हैं। इनके चरित्र में कोई द्वन्द्व  नहीं है।  इनके लिए बाजार के मूल्य ही परम लक्ष्य हैं।

लेकिन, तमन्ना और राधे बाजार के मूल्य के नकलीपन को समझ जाते हैं। वे अपने को बाजार से अलग नहीं करते, लेकिन बाजार में अलग दिखने की तड़प है।

यह अलग दिखना कैसे संभव हो? तो वे इसी की तलाश में परंपरागत कला कौशल को साधने की तरफ बढ़ते हैं।

एक अन्य बात, जो इस वेब श्रृंखला  से उभरती है, वह कि संगीत के क्षेत्र  में जितने घराने हैं, उसमें किसी स्त्री का नाम नहीं आता। अर्थात,  पितृसत्ता और सामंती जकड़न की जद में  कलाएं भी हैं। संगीत कला भी वहां संपत्ति की तरह रही, जिस पर सिर्फ पुरुषों का अधिकार हो सकता था, स्त्रियों का नहीं!

जो बाजार व्यक्ति की स्वतंत्रता का ढिंढोरा पीटता है, उसका सच भी तब सामने आ जाता है, जब म्यूजिक कम्पनी राधे के मिलते ही तमन्ना को बाहर या किनारे या दोयम दर्जे का व्यवहार दिखाने, करने लगता है।  उसमें भी पितृसत्ता ही प्रधान है।

अर्थात, सिद्धांत में जो व्यक्ति की स्वतंत्रता है, व्यवहार में वह पुरुषों की स्वतंत्रता है।

इतना ही नहीं, आज तक फिल्म उद्योग  तक में महिला संगीतकारों और गीतकारों की जगह नहीं बन पायी। अभी भी स्त्रियों के प्रेम, रति आदि भावों को पुरुष ही अपनी कल्पना की स्त्री के हिसाब से शब्दबद्ध और लयबद्ध करता है। अजीब बात है! खैैर

कुल मिलाकर, इन्हीं सब वास्तविकताओं को ताजगी और जाने-पहचाने परिवेश के साथ बखूबी प्रस्तुत करती- एक अच्छी, देखने लायक वेब श्रृंखला है, बंदिश बैन्डिट्स।

शास्त्रीय संगीत की पृष्ठभूमि वाले कथानक की ताजगी, कहानी में खूबसूरत ढंग से बुने गये पारिवारिक रहस्य, राजस्थान के रेगिस्तान और महलों की खूबसूरती, जोधपुर जैसे छोटे शहर के जीवन स्पंदन और अभिनेताओं की अदायगी जब अपनी गिरफ़्त में जकड़ती है तो उससे छूटने का मन नहीं होता।
कलाकारों में नसीरुद्दीन शाह के अतिरिक्त अतुल कुलकर्णी , शीबा चड्ढा, अमित मिस्त्री, राजेश तैलंग का काम प्रभावशाली है। आनंद तिवारी, जो इसके निर्देशक हैं; उनकी उपस्थिति हमेशा खुशगवार होती है। शंकर एहसान लॉय अपने बनाये संगीत से कई जगहों पर चमत्कृत करते हैं।

शिवम महादेवन, जोनिता गाँधी, प्रतिभा सिंह बघेल, अरमान मलिक, जावेद अली ने अपनी गायकी से संगीतमय  श्रृंखला को यादगार बना दिया है। खासकर शिवम महादेवन ने ‘सजन बिन’ के बोल को अमिट सा कर दिया है।

साथ ही, ‘गरज-गरज’ गाने की जुगलबंदी में फरीद हसन और मोहम्मद अमान ने ऐसी जान डाली है, जिसकी खुमारी जल्दी नहीं उतरती। खुद शंकर महादेवन ‘विरह’ गाने में अपनी गायकी के अलग रंग से परिचित कराते हैं।

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