अंकित पाठक
(वाम छात्र संगठन ‘आइसा’ 9 अगस्त को अपनी स्थापना के तीस वर्ष पूरा कर रहा है। इस मौके पर अंकित पाठक ने आइसा के साथ अपने अनुभव को कलमबद्ध किया है। अंकित इलाहाबाद विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान विभाग के शोधार्थी हैं और विश्वविद्यालय के ही एक संघटक काॅलेज में अतिथि प्रवक्ता हैं। अंकित प्रतिष्ठित दामोदरश्री निबंध प्रतियोगिता के विजेता भी रहे हैं।)
हमें हमारे शिक्षकों ने ही नहीं पढ़ाया, अकेले उन्होंने ही हमें नहीं गढ़ा, हमें गढ़ने वालों में हमारे उच्च शिक्षा के दिनों में कैंपस में मौजूद छात्र संगठन भी रहे। कैंपस में सक्रिय छात्र संगठन छात्रों के व्यक्तित्व को गढ़ते हैं, उनके सोचने-समझने की दिशा तय करते हैं, उन्हें स्थानीय, राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय सरोकारों से जोड़ते भी हैं। सभी संगठन अपनी विचारधारा के तहत ऐसा काम कैंपसों में करते मिलेंगे।
मेरे पास भी एक छात्र संगठन और उसकी सक्रियता से जुड़े होने का अनुभव है, जिसको लेकर मैं हाज़िर हूँ। तो, कहानी शुरू होती है आज के बारह बरस पहले से, जब इसी अगस्त के महीने में हमने पहले पहल इलाहाबाद विश्वविद्यालय जाना शुरू किया था। उन दिनों राष्ट्रीय हालात कुछ यूं थे, कि देश जॉर्ज बुश की छाया में था, उस जमाने के प्रधानमंत्री बोलते भले कम थे लेकिन काम करने में तेज थे, और काम जब अमेरिका से हो तो तेजी और लाज़मी है। मनमोहन-बुश परमाणु करार का मसला उन दिनों विश्वविद्यालय परिसर से लेकर संसद तक में गरमाया हुआ था। इलाहाबाद विश्वविद्यालय में ‘ऑल इंडिया स्टूडेंट एसोसिएशन – आइसा’ इस परमाणु करार के ख़िलाफ़ पर्चे बांट कर अपना अभियान चला रही थी। यही कोई दोपहर के बारह बजे होंगे कि मैंने छात्रसंघ भवन से होते हुए परिसर में प्रवेश किया, उर्दू विभाग से आगे बढ़ते ही मेरी मुलाकात दिनेश सर (आजकल दिल्ली विश्वविद्यालय में हिंदी विषय से शोधार्थी हैं) से हुई। उन्होंने मुझे पर्चा पकड़ाया और पूछा आपकी इस परमाणु करार पर क्या राय है? मैंने कहा कि करार होना चाहिए। यकीन मानिए कि उस समय तक मुझे इस करार के बारे में कुछ नहीं पता था, मुझे थोड़ा ताज्जुब भी था कि ये लोग इसका विरोध क्यों कर रहे हैं। फिर दिनेश सर ने मेरा फोन नंबर लिया और मुझसे बाद में मिलकर बात करने का वादा किया।
यहीं से कैंपस के भीतर एक छात्र संगठन की अहमियत का पता चलता है। अपनी तमाम आदिम पहचानों को धारण किये हुए मैंने विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया था- यानी अपनी जाति, अपने धर्म, अपनी लैंगिक पहचान, अपनी अचेतन श्रेष्ठता आदि-आदि के साथ। अभी तक मैंने सिर्फ कार्ल मार्क्स का नाम केवल इसलिए सुना था, कि उन्होंने कम्युनिस्ट मेनिफेस्टो और दास कैपिटल की रचना की है, इन दोनों किताबों में क्या है इसका विज्ञान से बारहवीं पास कर विश्वविद्यालय में आईएएस बनने का ख़्वाब लेकर आए मुझ जैसे छात्र को नहीं पता था। मैंने बहुत कभी जोर डाला होगा या अनुमान लगाया होगा तो दास कैपिटल को दासों से जुड़ी कोई पुस्तक भर समझा होगा। मैंने अंबेडकर का नाम भी इसलिए सुना था कि वे भारतीय संविधान के जनक कहे जाते हैं, हालांकि उन दिनों तक गांधी की आत्मकथा मैंने पढ़ रखी थी, और प्रेमचंद के कुछ उपन्यास भी। भारतीय समाज की जातीय संरचना में मौजूद शोषण से तो परिचित था ही, लेकिन सवर्णों से दोस्ती करने की आदत बारहवीं तक पड़ चुकी थी, तो हुआ यह कि फर्स्ट ईयर के शुरुआती दो महीनों में कई सवर्ण और कुछ गैर सवर्ण दोस्त बन गये। गैर सवर्ण दोस्त वही बन सके, जो मेरी जेड सेक्शन की कक्षाओं में मौजूद होते थे। फिर भी सितंबर बीतते-बीतते मेरी मुलाकातें दिनेश सर से बढ़ने लगीं। फिर शुरू हुआ परिवर्तन का वह दौर जिसने मुझे गढ़ने में काफी मदद की। अपनी आदिम पहचानों से मैं जितना भी मुक्त हो सका हूँ, उसमें दिनेश सर से शुरू हुए संवाद और आइसा संगठन के साथ शुरू हुई सक्रियता का बड़ा योगदान रहा।
परमाणु ऊर्जा के खतरों पर जब मैंने पढ़ने की कोशिश की, तब हिरोशिमा और नागासाकी से लेकर थ्री माइल द्वीप, चर्नोबिल जैसी त्रासदियां खुलती गयीं, और तीन-चार साल बाद फुकुशिमा दायची ने तो परमाणु ऊर्जा की प्रासंगिकता पर अंतिम सवाल खड़ा कर दिया, कि ऊर्जा का भविष्य परमाणु ऊर्जा नहीं है। बेरूत, लेबनान में इसी हफ्ते हुए यूरेनियम विस्फोट ने इसे फिर से जाहिर कर दिया है। ख़ैर, इस करार के बहाने पढ़ने की जो आदत पड़ी, वह आगे समृद्ध होती गयी, चूंकि, दिनेश सर हिंदी साहित्य के विद्यार्थी थे, इसलिए एक दिन उन्होंने मेरे हाथ में ‘गुनाहों का देवता’ देख, कहा कि इसे पढ़कर थोड़ा और आगे बढ़िए, कुछ और अच्छा पढ़िए। वे मुझे एक से एक रचनाएं सुझाते चले गये। ‘आदि विद्रोही’ से शुरू करके, मैक्सिम गोर्की की ‘माँ’ और फिर, ‘शेखरः एक जीवनी’ से लेकर ‘नदी के द्वीप’, ‘मुझे चांद चाहिए’ और ‘कसप’ आदि। राहुल सांकृत्यायन की कई रचनाएं उन्होंने सुझायी। हम एक के बाद एक पढ़ते गये, और इसी बीच छात्र आंदोलनों में भी शामिल होते रहे। उधर सिविल की कोचिंग भी जारी थी, लेकिन व्यवस्था का चरित्र यहीं से समझ में आने लगा था। व्यवस्था के लिए खुद का फिट न होना भी। लेकिन यह द्वंद कम से कम परास्नातक के अंतिम दिनों तक तो बना ही रहा। अन्ततः शोध में प्रवेश पाने के बाद यह ख़त्म हो पाया।
इस तरह आइसा, जिसकी स्थापना के तीस बरस पूरे हो रहे हैं, ने न केवल कैंपस के भीतर राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय तमाम मसलों पर छात्रों को जागरूक करने का काम किया, बल्कि छात्रों को चेतना के स्तर पर भी तैयार किया। हमारे अचेतन ‘स्व’ को चेतन ‘स्व’ में बदलने का कार्य किया। आप अनुमान लगाइए कि इसी तरह कितनों की सोच को एक नया आयाम मिला होगा। कितने-कितने लोग अपनी संकीर्णताओं से मुक्त हुए होंगे, कितने-कितने लोगों को आवाज मिली होगी। कितने-कितने लोगों को समूह के बीच खड़े होकर बोलने की हिम्मत मिली होगी। एक वाक़या याद आता है, जब एक बड़े कार्यक्रम में मुझसे आइसा के पुराने साथियों ने बोलने को कह दिया। रामायण राम सर ने मुझे हौसला दिया, लेकिन बिना किसी पूर्व तैयारी के मेरी जबान लड़खड़ाने लगी। ये बीए फर्स्ट ईयर के अंतिम या सेकंड ईयर के शुरुआती दिन थे। उसके बाद धीरे-धीरे अपने साथियों को सुनते-सुनते हौसला बढ़ता गया। खासकर, अजीत मद्धेशिया, सुनील मौर्य, रामायण राम और मेरे मार्गदर्शक दिनेश सर को। मैंने जब विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया तो उस समय आइसा में छात्रनेताओं की यही पीढ़ी थी। हम नवप्रवेशी हुआ करते थे। बोलने से अधिक सुनने में यकीन रखते थे, लेकिन धीरे-धीरे गला खुलने लगा, नारे लगाते-लगाते भाषण देने की कला भी आ गयी। परास्नातक के अंतिम दिनों तक हमने कैंपस आइसा से जुड़कर सक्रिय राजनीति की, बाद में अध्ययन-अध्यापन का दायित्व बढ़ गया तो छात्र राजनीति परोक्ष रूप से होने लगी।
अपनी सक्रियता के पांच सालों में हमने इलाहाबाद शहर की लगभग डेलीगेसियों में छात्रों की ज़िंदगी की ख़बर ली। केंद्रीय विश्वविद्यालय बनने के बाद जब पहली बार 2012 में चुनाव हुए थे, तो ऐसी व्यस्तता थी, कि सुबह 9 बजे कमरे से निकलते थे और रात नौ-दस बजे के पहले वापसी नहीं होती थी। हमने आइसा से जुड़कर संघर्ष करना तो सीखा ही, समाज की सच्चाई को भी बेहद स्पष्ट तौर पर देखा। हमने छात्रों की बदतर स्थितियां देखी, तो प्रशासन की लापरवाही भी। हमारी वैचारिकी को एक दिशा देने में आइसा की बड़ी भूमिका रही। यूँ तो, हमें कुछ ऐसे शिक्षक भी मिले, जो बुनियादी तौर पर जन सरोकार रखते थे और समतामूलक समाज निर्माण में उनका यकीन था। मार्क्सवाद का दर्शन उनके लिए इस दुनिया को समझने का सूत्र था। हमने उसी को पकड़ने की कोशिश भर की और इस दुनिया की गुत्थियां हमारे सामने खुलती चली गयीं।
आज सोचता हूँ, कि कैंपसों के भीतर यदि ऐसे वैचारिक छात्र संगठन न रहेंगे, तो किस तरह के छात्रों का निर्माण होगा। यकीन मानिए, आइसा जैसे संगठन का ही प्रभाव था, कि हमारी बातें सुनी जाती थी। एक बार अंग्रेजी विभाग के केंद्रीय हाल में हमने तकरीबन दो-ढाई सौ छात्रों को संबोधित किया, सबने बड़े ध्यान से हमारी बातें सुनी, कुछ सवाल-जवाब भी हुए, लेकिन धनबल-बाहुबल और जातीय समीकरणों के आगे हमारा वैचारिक छात्र आंदोलन छात्र संघ चुनावों में बहुत जगह बनाने में असफल रहा। धनबल, बाहुबल और जातिगत समीकरणों के छात्र संघ चुनावों में प्रभावी होने का दबाव वाम छात्र संगठनों पर भी कभी-कभी देखा जाता है। लेकिन, ऐसे संगठनों में आप संवाद कर सकते हैं, इनमें कुछ भी ऐसा नहीं होता है, जो आपके सवाल से बाहर का विषय हो। आइसा जैसे प्रगतिशील संगठनों और कुछ अन्य वाम छात्र-संगठनों में छात्राएं ठीक-ठाक संख्या में थी, लेकिन अब तो उनकी संख्या वाम छात्र-संगठनों में भी कम होती जा रही है, हमें इस दिशा में भी सोचना चाहिए। फिलहाल आज जब आइसा की स्थापना के तीस बरस पूरे हो रहे हैं, तब इसकी इकाइयों को विश्वविद्यालय, कॉलेजों सहित अन्य उच्च शिक्षा के केंद्रों में ले जाने की जरूरत है। याद रहे मेरा निजी अनुभव यही कहता है, कि ‘आइसा महज एक छात्र संगठन ही नहीं, एक आंदोलन का नाम है’। यह विश्वविद्यालय में केवल चुनावी राजनीति के लिए नहीं, बल्कि एक वैचारिक परिवर्तन के लिए आया है। ऐसा परिवर्तन जो भगत सिंह के सपनों का हिंदुस्तान रचता हो, जो अंबेडकर के सपनों का शोषणमुक्त भारत बनाता हो, और जो मार्क्स के सपनों के मुक्ति की अवधारणा को सार्थक करता हो!