राजीव कुँवर
कुछ साल पहले जब आप दिल्ली विश्वविद्यालय आए होंगे तब मैट्रो स्टेशन का नाम था ‘विश्वविद्यालय’। अब उसका नाम बदले हुए रंग में दिखाई देगा – ‘हीरो होंडा विश्वविद्यालय’। विविध रंगों से सुसज्जित मैट्रो स्टेशन अब एक मात्र हीरो होंडा के रंग में रंगा दिखेगा। यही स्थिति आई टी ओ के मैट्रो स्टेशन पर आपको दिखेगी – ‘जे.के. टायर आई.टी.ओ. मैट्रो स्टेशन’। वह दिन दूर नहीं कि जब दिल्ली विश्वविद्यालय के गेट पर आपको ‘बिड़ला दिल्ली विश्वविद्यालय’ और मिरांडा हाउस के गेट पर ‘अडानी मिरांडा हाउस’ की तख्ती दिखाई दे। यह सरकार ‘आपदा’ में ‘अवसर’ की नीति की सरकार है। इस सरकार की इस अवसरवादी नीति को कोरोना संकट में परीक्षा के जरिये शिक्षा नीति में किए जाने वाले परिवर्तनों में पहचाना जा सकता है।
दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ ने अब तक के सबसे बड़े ऑनलाइन सर्वेक्षण जिसमें 51 हजार से भी ज्यादा छात्रों ने हिस्सेदारी की – एक ठोस और जमीनी हकीकत को सामने लाने का काम किया है। यह भी देखने की बात है कि दिल्ली विश्वविद्यालय जैसे साधन संपन्न संस्थान में नीति निर्माताओं की जो टीम बनाई गई उसमें जमीन से जुड़े लोगों का सर्वथा अभाव है। न तो इसमें शिक्षकों का प्रतिनिधित्व है और न ही छात्रों का। शारीरिक तौर पर चुनौती वाले लोगों को नीति निर्माण में लेने की तो बात ही दूर है। ऐसे में ये नीति निर्माता जमीन पर स्थित ठोस परिस्थितियों का आंकलन किए बिना जब ओपेन बुक एग्जाम का विकल्प देते हैं तो 50 हजार के सैंपल साइज वाले सर्वेक्षण में इस विकल्प को पूरी तरह से नकारना स्वाभाविक है। तब यह भी स्पष्ट हो जाता है कि नीति निर्माता सरकार के ‘आपदा में अवसर’ की नीति को ही आगे बढ़ा रहे हैं।
यह मात्र दिल्ली विश्वविद्यालय की स्थिति की हकीकत को ही नहीं, बल्कि देशभर के उच्च शिक्षण संस्थानों की हकीकत को भी सामने लाने का काम है। यह तथ्य है कि राज्यों की उच्च शिक्षा की स्थिति दिल्ली विश्वविद्यालय से किसी भी तरह से संसाधनों के मामले में बेहतर नहीं है। तब इस सर्वेक्षण के जरिए एक बार फिर से नीति निर्धारकों को देखना होगा कि उनका ओपेन बुक एग्जाम कितना कारगर कदम है!
एक शिक्षाविद के नाते हमें पता है कि शिक्षा के संदर्भ में दो बातों का ध्यान रखना सबसे जरूरी है। एक, योग्यता/क्षमता विकसित करने के लिए जो अवसर प्रदान किया गया है वह कितना इन्क्ल्युसिव है या वह एक्सक्लूड करने वाली तो नहीं है! दूसरी, क्षमता/योग्यता के परीक्षण की पद्धति ऐसी तो नहीं जो भेदभाव पर आधारित है ? इन दोनों के बिना जो भी परिणाम होंगे वह आधुनिक पैमाने – समानता और स्वतंत्रता के मूलभूत संवैधानिक मूल्यों के विरुद्ध होगा। इसे थोड़ा विस्तार में विश्लेषित करना जरूरी है।
जब हम इन्क्ल्युसिव एजुकेशन की बात करते हैं तो उसका अर्थ क्या है ? खासकर भारत जैसे देश में जहाँ भाषा, लिंग, जाति, क्षेत्र, धर्म और वर्ग के आधार पर इतनी विविधता है कि वहाँ थोड़ी भी असावधानी से शिक्षा का स्वरूप भेदभावपूर्ण हो जाना स्वाभाविक है। हम सबकी सामूहिक चेतना भाषा, लिंग, जाति, क्षेत्र,धर्म और वर्ग की चेतना के वर्चस्व से ग्रसित हो ही सकती है। हो ही सकती नहीं, होती ही है। सामाजिक नॉर्म के प्रभाव में हमारी चेतना होती है। ऐसे में शिक्षा का स्वरूप ऐसा हो जिससे सामाजीकरण की प्रक्रिया पूरी हो सके। भारत में सामाजीकरण की प्रक्रिया का जो संवैधानिक रूप है वह – ‘अनेकता में एकता’ का है। इस सामाजीकरण की प्रक्रिया के लिए सबसे अहम ट्रेनिंग सेंटर सार्वभौमिक शिक्षा की सार्वजनिक प्रणाली वाले स्कूल और कॉलेज ही हो सकते हैं। अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए छात्र अपने साथ अपने अपने सामाजिक नॉर्म लेकर जब एक साथ सार्वभौमिक शिक्षा ग्रहण करते हैं, तक जिस बंधुत्व का निर्माण होता है वहीं से भारतीयता का एक राष्ट्रीय स्वरूप भी बनता है।
देखना यह है कि कोरोना संक्रमण के बाद जिस तरह से नीति निर्माता ऑनलाइन टीचिंग को विकल्प की तरह थोप रहे हैं, क्या वह इस तरह के लक्ष्य को पूरा करने में सफल हो सकता है ? दूसरी बात है ऑनलाइन एग्जाम सिस्टम। इसी का एक रूप दिल्ली विश्वविद्यालय प्रशासन ने ओपेन बुक एग्जाम के तौर पर प्रस्तावित किया है। प्रस्तावित नहीं बल्कि इसकी घोषणा की है।
उसकी सच्चाई डूटा के सर्वेक्षण से सामने आ चुकी है। मात्र 10% छात्र ऐसे हैं जिनके पास ब्रॉडबैंड कनेक्शन है।15% हैं जिनके पास लेपटॉप है। 27% हैं जिन्होंने ऑनलाइन क्लास रेगुलर किया। मात्र 23% हैं जिनके पास ऑनलाइन पाठ्य सामग्री उपलब्ध है। बाकी इसे हासिल कर पाने में अक्षम हैं। इसी से देखिए कि मात्र 10% ऐसे छात्र हैं जो यूनिवर्सिटी परीक्षा के लिए खुद को तैयार पा रहे हैं। 85% छात्रों ने ओपेन बुक एग्जाम के खिलाफ अपना मत दिया है।
यहीं पर तब सवाल उठता है कि आखिर नीति निर्माता, शिक्षा मंत्री आदि सब ऑनलाइन के मात्र विकल्प को इतना बढ़ा-चढ़ा कर क्यों पेश कर रहे हैं ?
इस सर्वेक्षण से छात्रों के वर्गीय एवं सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि की असमानता बहुत साफ उभरकर सामने आई है। ऐसे भेदभाव पूर्ण पृष्टभूमि के छात्रों के बीच योग्यता/क्षमता विकसित करने एवं उनके मूल्यांकन की ऐसी कौन सी दृष्टि अपनानी चाहिए – यह नीति निर्माताओं के विजन से संबंधित सवाल नहीं है। उनके सामने सवाल बिड़ला-अम्बानी कमेटी के जरिए उठाए गए सवाल हैं जो अटलबिहारी बाजपेयी की सरकार के समय ही तय किए गए हैं। वह सवाल है सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था का निजीकरण एवं मुनाफा कमाने के लिए उनका व्यवसायीकरण। मॉडल एक्ट, ज्ञान आयोग से होते हुए यशपाल कमेटी – भाजपा से लेकर कांग्रेस तक उसी सवाल का जवाब बनी शिक्षा नीति। इसी के तहत शिक्षा के केन्द्रीयकरण की नीति अपनाई गई।
शिक्षा पहले राज्य के क्षेत्र में थी, जिसे आपातकाल के समय समवर्ती सूची में लाया गया। अब शिक्षा को पूरी तरह से केंद्र के अधीन किया जा रहा है। इसके लिए यूजीसी का इस्तेमाल कांग्रेस के समय से ही शुरू किया जा चुका था। सेमेस्टर सिस्टम, क्रेडिट सिस्टम और सी बी सी एस को पूरे देश में लागू करने के लिए शासनादेश का उपयोग किया गया। RUSA के जरिए राज्य सरकार को प्रलोभन देकर इस व्यवस्था को लागू करवाया गया। इसके पीछे मात्र एक ही मकसद था – पूरे देश में उच्च शिक्षा की एकमात्र संरचना। एक संरचना होगी तभी शिक्षा रूपी बाजार के सभी दुकानों में सजे माल को छात्र रूपी कंज्यूमर अपने हिसाब से क्रेडिट इकट्ठा कर डिग्री हासिल कर सकेंगे। इसके लिए क्रेडिट ट्रांसफर का फरमान देश के सभी संस्थानों को कोरोना संकट के समय भेजा गया है।
क्या है यह क्रेडिट ट्रांसफर सिस्टम ?
पहले छात्र किसी कोर्स में दाखिला लेते थे तो वह कोर्स उसका सिलेबस विश्वविद्यालय से लेकर यूजीसी तक से मान्यता प्राप्त होता था। अब सरकार इस यूजीसी को ही समाप्त कर रही है। इसके अनुदान के कार्य को हायर एजुकेशन फंडिंग एजेंसी (HEFA) को सुपुर्द किया जा रहा है जो अनुदान नहीं, बल्कि कर्ज आधारित होगा। दूसरी तरफ अब सभी शिक्षण संस्थानों को स्वायत्तता देने की बात की जा रही है। स्वायत्तता का अर्थ अब उस संस्थान का अपना बोर्ड ऑफ गवर्नर्स(BOG) ही तय करेगा कि उसकी संस्था का उद्देश्य क्या है और इसमें कौन-कौन सा कोर्स चलेगा। इन संस्थानों की रेटिंग एजेंसी से रेटिंग करवाई जाएगी जो उनके घोषित उद्देश्यों से तय होगा, न कि किसी राष्ट्रीय मानक के आधार पर। इन सभी संस्थानों के कोर्स के सभी पेपर छात्र पढ़े यह जरूरी नहीं। छात्र अपनी रुचि के अनुसार विभिन्न पेपर का एक मॉड्यूल अपने लिए बना सकता है। वह किसी एक संस्थान से हो यह जरूरी नहीं। इसके साथ ही अब तो सरकार ने कोरोना संकट के दौर में सभी रेगुलर कॉलेज एवं विश्वविद्यालय को सलाह जारी कर दिया है जिसमें ऑनलाइन शिक्षा का कार्यक्रम जिसे SWAYAM नाम दिया गया है – उसे भी क्रेडिट ट्रांसफर के लिए अनुमति देने की सलाह है। मजेदार यह कि इसके लिए न तो उस विश्वविद्यालय को एकेडमिक काउंसिल से पूर्व अनुमति लेनी है और न ही एक्सिक्यूटिव काउंसिल से। बस डीन की अनुमति से swayam के कोर्स को छात्रों के लिए क्रेडिट हासिल करने का विकल्प दिया जा सकता है।
कुलमिलाकर इस पूरे सिस्टम को देखें तो अब नागरिक निर्माण की राष्ट्रीय जिम्मेदारी से मुक्त शिक्षा नीति मुनाफा कमाने के लिए बाजार के हवाले कर दिया गया है। जहाँ छात्र उपभोक्ता है। उसे अपनी क्षमता/योग्यता में विकास चाहिए तो उसके लिए उसे ही खर्च करना होगा। या तो उसकी जेब में पैसा हो या वह कर्ज ले सके ! नहीं तो उसे उच्च शिक्षा का अधिकार नहीं।
ऑनलाइन Swayam को विकल्प के तौर पर बताया जा रहा है। जिसमें तकनीक के जरिए शिक्षा के लागत को कम किया जा सकता है। जैसे रेगुलर कॉलेज एवं यूनिवर्सिटी में लागत कम करने के लिए शिक्षकों की नियुक्ति से लेकर पदोन्नति तक की सेवा शर्तों पर असर देखा जा सकता है वैसे ही खर्च में कटौती का यह ऑनलाइन विकल्प भी सरकार आगे बढ़ा रही है। ठेकेदारी सिस्टम शिक्षकों एवं कर्मचारियों की भर्ती में देखा जा रहा है। अब उसमें भी और कटौती का तरीका रिकॉर्ड किए गए लेक्चर को ऑनलाइन उपलब्ध करवाकर शिक्षा की जिम्मेदारी को पूरा करना है। क्रेडिट ट्रांसफर इसके लिए जरूरी है। चाहे वह ऑनलाइन हो या ऑफ लाइन। छात्र किसी एक संस्थान से हो या कई संस्थान से – विभिन्न पेपर के चुनाव के जरिए क्रेडिट जमा करेगा और उन क्रेडिट के आधार पर उसे डिग्री हासिल हो जाएगी। इसे ही केफिटेरिया अप्रोच कहा जाता है।
इस ऑनलाइन के जरिये नई शिक्षा नीति को लागू करने का ही दूसरा फरमान अभी आपने सुना होगा कि अब छात्र एक साथ दो डिग्री कोर्स एक ही समय में कर सकेंगे। उसमें एक डिग्री ऑनलाइन होना चाहिए। यह खबर ‘आपदा में अवसरवाद’ का नमूना नहीं तो और क्या है ?
मकसद एक ही है कि कैसे रेगुलर एजुकेशन सिस्टम की गुणवत्ता को घटाते हुए, उससे समझौता करते हुए, उनकी फंडिंग को खत्म करते हुए, बाजार में शिक्षा के व्यापार की संभावनाओं को बढ़ावा दिया जाए। दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों ने अपनी राय स्पष्ट तौर पर दे दी है। उनके इस बेबाक मत को क्या नीति निर्धारक सुनेंगे ? मेरी राय है कि ऐसा नहीं होगा। क्योंकि नीति निर्धारक बिड़ला-अम्बानी के सवाल के जवाब में विकल्प की खोज में लगे हैं और आज इस कोरोना संक्रमण की विपदा में अवसर मिल गया है। उन्हें इस अवसर की पहचान है। इसे रोकने का एक मात्र उपाय है जन में आंदोलन। यह आंदोलन बिना चेतना के संभव नहीं। आज शिक्षा के सवाल पर जन-चेतना के निर्माण की जरूरत है। तभी शिक्षा को बाजार में बिकने से बचाया जा सकता है।
(लेखक राजीव कुँवर दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। दिल्ली विश्वविद्यालय शिक्षक संघ (DUTA) के जुझारू कार्यकर्ता हैं। उच्च शिक्षा के सवालों पर इनके लिखे कई लेख चर्चित हुए हैं।)