आलोक कुमार श्रीवास्तव
एंड्रॉएड फोन पास न होने का दर्द इन दिनों अक्सर ही सतह पर आ जाता है। मन में एक कचोट-सी उठती है। जो ही मिलता है किसी न किसी मोबाइल ऐप की चर्चा छेड़ देता है। मैं उस चर्चा से अलग-थलग पड़ जाता हूँ। मेरी सामाजिकता इस एक कमी के चलते खतरे में पड़ती हुई नज़र आती है। बहरहाल, मैं अपने आपको इस स्थिति में भी जैसे-तैसे सामाजिक बनाए हुए हूँ और लगभग दस रुपए रोज़ का इंटरनेट डेटा कार्ड का खर्चा उठाते हुए अपने कम्प्यूटर के जरिए ब्लॉग, फेसबुक, ट्विटर आदि से जुड़कर सोशल मीडिया पर अपनी मौजूदगी दर्ज़ कराता रहता हूँ।
अपने इस मोबाइल ऐप ज्ञान की कमी को शिद्दत से महसूस करता हुआ मैं चर्चगेट स्टेशन पर 6.14 की फास्ट लोकल के सेकंड क्लास डिब्बे के एक कोने में किसी तरह सिमटा था। दिन भर की थकान और ऊब के कारण मैं सोना ही चाहता था कि आशीष की आवाज़ कान में पड़ी। आशीष के बगल की जगह अभी-अभी आश्चर्यजनक रूप से खाली हो गयी थी क्योंकि वहां बैठे यात्री की कोई ज़रूरी चीज़ शायद प्लेटफॉर्म पर गिर गयी थी, जिसे ढूँढ़ने के लिए उसे उतरना पड़ा। उसके उठने से खाली हुई जगह को आशीष ने बड़ी फुर्ती और मुस्तैदी के साथ अपना बैग वहां रख कर कैप्चर कर लिया था। मैंने लपककर बड़े आदरपूर्वक आशीष का बैग उठाकर अपनी गोद में रखा और खुद उस जगह पर बैठा।
मुम्बई की लोकल ट्रेनों में किसी मित्र के बगल में बैठना बड़ा दुर्लभ और सुकूनदेह अनुभव है। आज यह सौगात किसी अजनबी की कोई चीज़ प्लेटफॉर्म पर गिर जाने की वजह से मुझे अनायास ही मिल गयी। हालांकि आशीष की फुर्ती और प्रत्युत्पन्नमति का भी इसमें बड़ा रोल था जिसने उस यात्री के उठने की मंशा और मेरी असुविधा; दोनों को एक साथ भांपते हुए खाली हुई सीट पर अपने बैग का राज्याभिषेक किया था। मानना होगा आशीष की नज़र की तेज़ी को, क्योंकि मैंने तो अब तक उसे भी नहीं देखा था।
ऐसे ही आशीष हमारी कम्पनी का ब्रांड एम्प्लॉयी नहीं है। उसकी प्रतिभा और तेज़ी जीवन के हर क्षेत्र में दिखायी देती है। सब कुछ पूर्वनियोजित। शादी-ब्याह, नौकरी-चाकरी, बाल-बच्चे, खान-पान, रहन-सहन, घूमना-फिरना, लिखना-पढ़ना, शान-शौक…. कोई भी क्षेत्र नहीं जिसके लिए उसके पास पूर्वयोजना न हो। हर क्षेत्र का अध्ययन भी खूब। मोबाइल के डेटा प्लान से लेकर रसोई की भाजी-तरकारी के भाव तक के विषयों पर लगभग रिसर्च के स्तर का ज्ञान उसके पास रहता है। आज आशीष के इस ज्ञान का कुछ लाभ उठाने का मौका मेरे पास था। बिना देरी किए मैंने अपनी ऊब और नींद को एक तरफ झटकते हुए अपनी जिज्ञासाएं एक-एक कर आशीष के सामने रखनी शुरू कीं और वह बिल्कुल किसी विषय-विशेषज्ञ की तरह मेरे सवालों के नपे-तुले, संतुलित जवाब देता गया। दफ्तर के दांव-पेंच, प्रमोशन, ट्रांसफर, इंक्रीमेंट आदि से जुड़े सवाल-जवाब खत्म होने के बाद घरेलू ज़िंदगी के दायरे की बातें शुरू हुईं। इसी समय एक ज़ोरदार बदबू नाक में घुसी। मन हुआ सांस रोक रखी जाए। मगर सफलता न मिली। वही बदबूदार हवा भीतर लेनी पड़ी। मन का पिछड़ापन एक अंधविश्वास से घिर गया। घर-गृहस्थी की चर्चा शुरू होते ही बदबू !….. नहीं, यह वेस्टर्न रेलवे का मुम्बई सेंट्रल स्टेशन था।
“अगर एंड्रॉएड फोन नहीं है तब तो कम ही ऑप्शंस हैं, लेकिन फ्रेशताज़ा डॉट कॉम ने अभी तक ऐप नहीं चलाया है। उस पर पीसी से ऑर्डर कर सकते हो। फर्स्ट ऑर्डर पर डिस्काउंट भी रहेगा और तुम्हारे फूड कूपन भी चल जाएंगे।” यह मेरे इस सवाल का जवाब था कि कम्पनी की ओर से मिलने वाले फूड कूपनों का क्या किया जाए क्योंकि वे कैफे कॉफी डे और पिज़्ज़ा हट वगैरह में ही चलते हैं और मैं इन जगहों पर जाता नहीं। दूसरी चीज़ यह कि 31 दिसम्बर को ये कूपन एक्सपायर हो जाएंगे और ऑनलाइन खरीद पर ऑफर्स के लिए मोबाइल ऐप्लिकेशन डाउनलोड करना पड़ेगा। बिल्कुल परफेक्ट समाधान दिया आशीष ने। कूपनों का इस्तेमाल हो जाएगा और वह भी मुनाफे के साथ। दिल खुश हो गया मेरा। मन हुआ आशीष को गले लगा लूँ लेकिन गाड़ी में बैठे हुए ऐसा करना बिल्कुल मुमकिन नहीं था। हम केवल एक दूसरे को देखकर मुस्कुरा सकते थे।
यात्रियों की चिल्ल-पों और गाली-गलौज़ से पता चला कि दादर आ गया है। मेरे पास चूंकि देखने की फुर्सत थी इसलिए मैं देख रहा था जबकि आशीष अपने एंड्रॉएड फोन पर कोई नया ऐप्लिकेशन डाउनलोड करने में व्यस्त था। दिन भर के थके हुए लोग बैठे-बैठे सो रहे थे। जो जाग रहे थे उनकी नज़रें अपने-अपने मोबाइल के स्क्रीन पर थीं। कुछेक ऐसे भी थे जो ताक-झांककर दूसरे के मोबाइल स्क्रीन पर चल रहे दृश्यों से रोमांचित हो रहे थे। एकाध का दिमाग मराठी या गुजराती अखबार के ‘शब्दखेळ’ या ‘सुडोकू’ में उलझा था। शेष लोग दरवाज़ों पर खड़े रहकर गाली-गलौज़ और धक्का-मुक्की से अपना मन बहला रहे थे। दादर से ट्रेन में चढ़ी बेतहाशा भीड़ के चलते अब कुछ देख पाना भी मुश्किल हो रहा था। केवल ऊँची आवाज़ें सुनी जा सकती थीं। जो कुछ सुनाई दे रहा था उसने सिगमंड फ्रायड की सैद्धांतिकी से लेकर मनोविकृत इलाहाबादी वैचारिकी तक की याद दिला दी। गाड़ी में खड़े-खड़े गालियों की सरस फुहार छोड़ता हुआ बंदा अपने इस काम का भरपूर आनंद ले रहा था। कोई झगड़ा, कोई विवाद नहीं। कोई सीधा कारण नहीं। झगड़े-तनाव की कोई बात भी नहीं। बस मानों मूड फ्रेश करने के लिए वह गालियां बक रहा था। शायद यह उसकी ईमानदारी और रचनात्मकता का असर रहा हो कि आशीष-जैसे एंड्रॉयड-सेवी भी उसकी ओर आकर्षित हो गए और उनके तनावग्रस्त चेहरों पर मुस्कुराहटें उतर आयीं। जो कुछ मैं मन ही मन सोच रहा था, आशीष ने प्रकटत: वही चर्चा छेड़ दी। “तनाव से मुक्ति और दुख के विरेचन के लिए अश्लील भाषा, गालियां। बाजार के दैत्यों से न लड़ पाने और जीत पाने की कचोट से उपजा भाव। फगुआ, बारहमासा, जोगीरा, बिरहा के अभाव की पूर्ति करने वाली सुलभ स्वयम्भू चीज़।” इन्हीं कुछ संकेतपूर्ण वाक्यों में हमारे बीच विचारों का आदान-प्रदान होता रहा जब तक कि बांद्रा की खाड़ी की असहनीय बदबू ने हमें मुँह-नाक बंद करने पर मजबूर नहीं कर दिया।
जिन लोगों को बांद्रा उतरना होता है उनके लिए यह बदबू ही उनका गंतव्य आने का सिग्नल है। आशीष उन्हीं लोगों में से एक है। देखा जाए तो यह भी जुदा नज़रिए का ही मामला बनता है क्योंकि जहाँ मुझे बदबू याद रहती है वहीं आशीष को शहर याद रहता है। कितनी ही बार सुन चुका हूँ कि ‘बांद्रा के बाद तो सब गाँव है। मुम्बई शहर तो बांद्रा तक ही है।’ इस लिहाज से शहरी लोग गाड़ी से उतर रहे थे। गँवई अब भी विले पार्ले, जोगेश्वरी, गोरेगाँव, मालाड, कांदिवली आदि गाँवों को जाने के लिए मजबूती से ट्रेन को थामे हुए थे। एक शहरी को नफासत के साथ उतरता देखकर एक गँवई मानुस को चुहल सूझ गयी। बिल्कुल क्लासिकल अंदाज़ में गरियाया उसने। शहरी ने जवाबी कार्रवाई की कोशिश की, मगर तब तक ट्रेन ने चलना शुरू कर दिया था। गँवई मानुस के लिए सुनहरा मौका था। न जाने कितने सालों से दबा गुबार निकाल लिया उसने उस चलती ट्रेन से उतर चुके शहरी को भर पेट गरियाते हुए। यह शहर और गाँव के द्वंद्व का अद्भुत नज़ारा था। अफसोस यह कि इसे देखने के लिए आशीष मेरे साथ नहीं था।
***
दूसरे रोज़ दफ्तर पहुंचकर हाजिरी का कार्ड पंच करने के बाद का पहला काम था कम्प्यूटर पर आशीष द्वारा बतायी गयी ई-कॉमर्स साइट को खोजना। इंटरनेट बहुत धीमा था। करीब दस मिनट के धैर्य के बाद साइट तो मिली लेकिन पूरा पेज लोड होने में समस्या आ रही थी। कई कोशिशें नाकाम हुईं। नाश्ते का समय निकल गया। बैग में अंकुरित चने रखे हैं, उनके अंकुर और बड़े हो जाएंगे तो फाइबर बढ़ जाएगा, दिल को तसल्ली देने के लिए नाश्ता छूटने पर हमेशा मैं इसी तरह पॉज़िटिव सोचता हूँ। इस पॉजिटिव सोच के बीच कई निगेटिव चीज़ों से मुठभेड़ जारी रहती है। फाइलों को आलमारी से निकालने और डेस्क को साफ करने से लेकर बोतल में पानी भरने तक के काम बिल्कुल रोबोट की तरह होते रहे और नज़र कम्प्यूटर के स्क्रीन पर भी बनी रही। घंटे भर की जद्दोजहद के बीच एक बोतल पानी उम्मीद बनाए रखने में मदद करता है। आज ही निपटाए जाने वाले मामलों वाली फाइलों की गिनती बढ़ती जा रही है। माइक्रोसॉफ्ट आउटलुक के इनबॉक्स में इन मामलों से जुड़े ई-मेल और स्कैन डॉक्युमेंट्स भी आ-आकर जमा होते जा रहे हैं। दिमाग घूमता है। आखिर जब ई-मेल चल रहा है तो इंटरनेट क्यों नहीं चल रहा? नेट-कनेक्शन के बिना भी ई-मेल चलता है क्या? मैनेजमेंट के काइयांपन का एक नमूना यह भी है। सिर्फ कम्पनी के काम वाली साइटों को चलने दो, दूसरी साइटों को या तो ब्लॉक कर दो या फिर इतना धीमा कि उनका खुलना, न खुलना बराबर हो जाए। अब रात को दस बजे के बाद घर के कम्प्यूटर पर मौका मिल पाएगा। सोने में देर होगी और देर होने पर ठीक से नींद भी नहीं आएगी। फिर भी, अगर कूपन चलाने हैं और इधर-उधर आने-जाने में समय भी नहीं बर्बाद करना है तब नींद की ही कुर्बानी सही।
रात आयी। रात की बात आयी। ‘रात की बात’ से कोई यौन-रोमांचक कल्पना करने की ज़रूरत नहीं, यहाँ रात की बात करने के लिए दो-दो बेटियाँ हैं। एक साल भर की सिया है जो भिन्न-भिन्न इतनी लयों में ‘पाप्पा-पाप्पा’ रटती है कि आप अगर प्रति मिनट नोटेशंस लेते रहें तो संगीत-शास्त्र में हर मिनट एक नया राग जुड़ता जाए और छह साल की होने जा रही दूसरी चिया है जिसे अगर मुकाबले का मौका मिले तो देश के पीएम सरीखे बड़बोले को भी भाषण-प्रतियोगिता में हरा दे। इन दोनों की दुलार भरी आवाज़ों के बीच मैंने कम्प्यूटर भी चालू कर दिया। इंटरनेट से जुड़ने के लिए डाटा कार्ड लगाया। डोंगल की बत्ती बहुत देर तक लाल ही बनी रही। एकाध बार थोड़ा ग्रीन ब्लिंक हुआ भी लेकिन इंटरनेट का चक्का उतनी रफ्तार से नहीं घूमा जितनी मुझे दरकार थी। सिस्टम में जितने भी ब्राउज़र मौजूद थे, सबको बारी-बारी से आजमा रहा था। इंटरनेट एक्स्प्लोरर और गूगल क्रोम की सतत विफलता की हताशा के बावजूद मैंने अभी धैर्य नहीं खोया था और शायद मेरे इसी सकारात्मक ऐटिट्यूड के कारण आखिरकार इस बार मोज़िला फायर फॉक्स ने मुझ पर रहमतों की बारिश कर दी। पूरा पेज सनसना कर खुला। गजब अजूबा, गजब अचम्भा। हरी-हरी मेथी-पालक का साग और काजू-बादाम-किशमिश जैसे ड्राई फ्रूट्स एक साथ मॉनिटर पर झलक रहे थे। डेयरी मिल्क का सिल्क चाकलेट भी कुछ-कुछ देर में लहरा-ललचा रहा था। उस पर ख़ास ऑफर था। सिल्क के आकर्षण से खिंचकर ऑफर ज़ोन में घुसा तो ऑफरों की हकीकत जानकर उत्साह ज़रा कम हुआ। फिर भी ग्रोसरी सेक्शन के तहत एक ऐसा ऑफर था कि मैंने बिना देर किए वहां लिखे ‘ऑर्डर नाऊ’ पर क्लिक कर ही दिया। पता चला ऑर्डर करने के लिए साइन-अप करना ज़रूरी है। पहले ई-मेल आईडी और मोबाइल नम्बर भरिए, उसके बाद पता। मोबाइल पर एस.एम.एस. आने के बाद लॉग इन करिए। बहरहाल, एक-एक कर सारे स्टेप पूरे किए और फिर पत्नी प्रिया को भी यह अजूबा बाज़ार दिखाने के लिए बुलाया। सर्दी-ज़ुकाम से परेशान छोटी बेटी सिया की सरसों के तेल से मालिश चल रही थी। माँ-बेटी दोनों सर्दी के कारण बेसुरी हो गयी आवाज़ में भी कुछ गा-गुनगुना रही थीं। मेरी पुकार ने उनकी जुगलबंदी में खलल डाला था लेकिन मेरी आवाज़ पर दोनों के सिर एक साथ उठे थे। कभी-कभी मुझे भ्रम हो जाता है कि मैं कहीं तीन बेटियों का बाप तो नहीं हूँ – चिया, सिया और प्रिया। नहीं, मुझे मालूम है कि चिया और सिया मेरी और प्रिया की बेटियां हैं। मगर इन दिनों, खासकर सिया के जन्म के बाद से प्रिया डार्लिंग भी बिल्कुल बच्ची-सी हो गयी हैं। अलबत्ता चिया बड़ों की तरह मेच्योर व्यवहार करने लगी है। भूमिकाएं बदलने वाला कोई चक्र चल रहा है क्या?…
रात के पौने ग्यारह बज गए थे जब चिया, सिया और प्रिया के साथ मैंने उस आभासी दुकान में प्रवेश किया और मेरे कम्प्यूटर स्क्रीन पर आए पहले ही ऑफर ने मुझे और प्रिया को जैसे रिझा ही लिया। अविश्वसनीय। अरहर की एक किलो दाल सिर्फ एक सौ दस रुपए में ! जादू-जैसा रोमांचक अनुभव होना शुरू ही हुआ था मुझे कि प्रिया ने अपने अनुभव से अर्जित आशंका जाहिर कर के मुझे सचेत किया। प्रिया का कहना था कि यह अरहर से मिलती-जुलती कोई दूसरी दाल होगी। मुझे भी बात ठीक लगी लेकिन यह सोचकर कि ऑनलाइन बाज़ार में ऐसी धोखाधड़ी करने वाले कितने दिन चलेंगे, मैंने वेबसाइट के दावे पर यकीन कर लिया। प्रिया भी अपनी बात पर बहुत देर तक अडिग नहीं रही और अक्सर की तरह मेरे साथ इत्तफाक ज़ाहिर करने लगी। इतना समर्थन मेरे मन को मजबूत करने के लिए काफी था। तब तक टर्म्स ऐंड कंडीशंस भी दिखने लगी थीं। एक ऑर्डर पर सिर्फ एक किलो दाल ही ली जा सकती थी। यह पढ़कर तो हमने पक्का ही मान लिया कि यह बिल्कुल असली अरहर की दाल है, अन्यथा एक किलो वाली शर्त भला क्यों होती ! इस तरह हमारे पहले ऑनलाइन ऑर्डर की शुरुआत एक किलो दाल से हुई और पारले-जी जैसे सस्ते बिस्कुट से लेकर आलू-प्याज-टमाटर के अपरिहार्य कॉम्बो ऑफर के साथ पूरी हुई। कुछ भी अनावश्यक हमने ऑर्डर नहीं किया था। डिलीवरी की तारीख और समय शुक्रवार की शाम सात बजे का दिया गया। इसके पीछे की सोच यह थी कि शुक्रवार की शाम को सामान आ जाएगा तो शनिवार और रविवार की छुट्टी में उसे देख-परख लिया जाएगा और खाने-पीने में फौरन इस्तेमाल भी हो जाएगा।
शुक्रवार की शाम सवा आठ बजे तक जब मैं घर पहुँचा तो प्रिया से पहला सवाल यही पूछा कि ‘सामान आया?’ प्रिया की नज़रें शरारत और अविश्वास से भरी लग रही थीं। छोटी मगर तिरछी मुस्कान अलग से मेरी जान ले रही थी। उसी तिरछी मुस्कान में लपेट कर प्रिया ने जवाब दिया, “हाँ जी, आ ही गया। और नहीं आया तो आ जाएगा। नहीं आएगा तो जाएगा कहाँ?” यह शरारती खिलवाड़ मुझे अजीब लगा क्योंकि मेरा दिमाग वीकेंड के लिए अब तक सक्रिय नहीं हुआ था। पत्नी की रोमांटिक निगाह से घायल मेरा दिल अपनी तेज़ रफ्तार पर ब्रेक लगाना ही चाहता था कि बिटिया चिया मेरे सवाल के जवाब के साथ आ टपकी।
“पापा ! आपने जो ऑनलाइन ऑर्डर किया था वो सामान अभी तक आया नहीं।”
“सामान वाले अंकल ट्रैफिक में फँस गए होंगे। मैं भी कभी-कभी ट्रैफिक में फँसने के कारण ऑफिस लेट पहुँचता हूँ।”
“ये हमारा घर है कि सामान वाले अंकल का ऑफिस पापा ?”
“…………………..”
“अच्छा, सामान लेकर कोई आंटी क्यों नहीं आ सकतीं पापा ?”
चिया के ये दोनों सवाल रोचक और प्रासंगिक थे, फिर भी मुझे खिझा रहे थे। लगातार चुप भी नहीं रह सकता था क्योंकि चिया मेरी चुप्पी का अर्थ नाराज़गी के रूप में लगाती है। लिहाज़ा दोनों सवालों को मिलाकर एक ही बार में जवाब देने की कोशिश की।
“देखो चिया, ऑफिस मीन्स काम करने की जगह। और काम तो कोई भी कर सकता है – अंकल हों या आंटी। हमारा घर उनके लिए ऑफिस जैसा ही है क्योंकि यहाँ वो अपना काम करने आ रहे हैं – उनका काम ही है ऑनलाइन ऑर्डर किए गए सामान की होम-डिलीवरी करना। ….कोई आंटी भी आ सकती हैं चिया…” अपनी बात का अंत मैंने हालांकि चिया को सम्बोधित करते हुए किया था लेकिन मेरी शरारत भरी निगाह प्रिया के चेहरे पर थी। और प्रिया ने भी बेहद तरल और तिरछी मुस्कान के साथ बस ‘अय-हय’ कह कर मेरा साथ दिया।
थोड़ी देर में दरवाज़े की घंटी बजी। जिसका इंतज़ार था, वही था – डिलीवरीमैन। चिया चहक उठी। प्रिया ने अपने चेहरे की चमक छुपाने की कोशिश की। लेकिन मेरे दिमाग की बत्ती जैसे बिल्कुल बुझ गयी थी। ज्यों-ज्यों डिलीवरीमैन सामान निकालकर रख रहा था, मेरा मस्तिष्क भी मानों उसी अनुपात में चैतन्य हो रहा था। डिलीवरीमैन ने आते ही मेरे एक हाथ में लम्बे-पतले कागज़ पर छपा बिल थमा दिया था और खुद उसी बिल की दूसरी कॉपी को पढ़ते हुए एक-एक सामान निकाल कर देता जा रहा था। उसे उम्मीद रही होगी कि मैं एक-एक सामान की जाँच करूँगा लेकिन मुझे निर्विकार देखकर उसका हौसला बढ़ा था। मैं तो मानों दान में प्राप्त वस्तुएं स्वीकार कर रहा था। दफ्तर से इंसेटिव के तौर पर मिलने वाले जो कूपन अब तक मुझे एक झंझट प्रतीत होते थे, आज अपने नकदी होने का एहसास करा रहे थे। हालांकि मेरे चेहरे पर कोई विकार नहीं दिख रहा था लेकिन मेरी आँखें अरहर की दाल के पैकेट पर और दिमाग उसकी असलियत और गुणवत्ता पर लगा हुआ था। जब डिलीवरीमैन सारा सामान निकाल चुका तो मैंने पहले से ही जेब में तैयार रखे कूपन उसकी ओर बढ़ा दिए। सौदा पूरा हुआ। उसने पीठ फेरी और हमने अपने सूखते होंठों पर गीली ज़बान। उसके पीठ फेरते और मेरे दरवाज़ा बंद करते ही सामान का ढेर मानों हमारे लिए मूर्त और सजीव हो उठा।
प्रिया ने आये हुए सामान को किचेन की तरफ समेटा मगर दाल के पैकेट को ख़ास तौर पर निकाल कर ऊपर रखा। रात में बिजली की रोशनी में थोड़ा-बहुत परख के बाद दाल की असली परीक्षा अगले दिन यानि शनिवार की सुबह तक के लिए स्थगित कर दी गयी। मोटे तौर पर हम दोनों इस बात पर सहमत हुए कि दाल खाने लायक है और हम किसी धोखाधड़ी का शिकार नहीं हुए हैं।
***
शनिवार सुबह की शुरुआत एफ.एम. रेडियो पर सैटर्डे-सैटर-डे गाने के साथ हुई। पौने आठ बजे तक घर के सभी सदस्य जग चुके थे और मैं प्रिया के उठने की आहट के साथ ही फ्रिज़ से दूध निकालकर चाय बनाने की तैयारी में लग गया था। मैंने ‘लव मैरिज’ के ‘लव’ को अभिव्यक्त करने के लिए किचेन को एक मंच की तरह इस्तेमाल करने का हुनर कैसे सीखा, खुद मुझे भी नहीं पता। शायद इस तरह कि जानेमन की नज़रों में आने का इससे आसान और सस्ता कोई दूसरा तरीका मुझे मिला न हो। ‘किचेन रोमांस’ का एक कॉन्सेप्ट भी सामने आया है और मुझे उससे इनकार भी नहीं। सुबह का समय हमेशा ही मुझे आकर्षित करता रहा है। एक रोमांटिक ब्लॉग पोस्ट पढ़ने के बाद मैंने कभी-कभी सुबह किचेन में जानेमन को गोद में उठा लेने की कोशिश भी की है। शादी से पहले वाले प्यार के दिनों में कितनी ही बार जानेमन को फोन पर बताया है कि सुबह के समय तुम्हारी याद सबसे ज्यादा आती है।….. और शादी का फैसला होने के बाद एक बार यही कहने पर उनसे सुनने को मिला है कि ‘फिर तो गए काम से’….। बहरहाल, रोमांस के लिए ही सही, शनिवार-रविवार का ज्यादातर समय किचेन में ही बिताने की कोशिश करता हूँ। और इस शनिवार तो ऑनलाइन खरीदे गए सामानों की आजमाइश भी करनी थी, इसलिए पूरा ध्यान सिर्फ रसोई पर ही केंद्रित किया। किचेन-रोमांस का ध्यान भी नहीं आया।
सब्ज़ियां फ्रिज़ से बाहर निकाल कर रखा और तब तक उबल कर तैयार हो चुकी चाय का कप लेकर प्रिया के बिस्तर के पास हाजिर हुआ। चेहरे पर कृतज्ञता के भाव के साथ प्रिया ने चाय का कप थामा, मेज पर ढक कर रखा और ब्रश करने वाश-बेसिन की तरफ बढ़ गयी। इस बीच चिया और सिया भी हरकत में आ गयी थीं, जिनके बीच में लेटकर दुलार करने का आनंद इसी बीच मुझे उठा लेना था। बेटियों के साथ वात्सल्य रस का आनंद लेने के साथ ही मुझे जीवन के दूसरे रसों की भी चिंता थी इसलिए दिन भर के कामकाज की योजना दिमाग में ही बनती-बिगड़ती रही। प्रिया के चाय पीकर वापस चिया-सिया के पास आने तक दिन के पूर्वार्ध की योजना काफी कुछ मेरे मन में स्थिर हो चुकी थी। इधर प्रिया ने चिया का मुँह धुलाया और तेल लेकर सिया की मालिश करने बैठी, उधर मैंने बेडरूम के सिवा बाकी घर में झाड़ू लगा कर किचेन में खाना पकाने की तैयारी शुरू की।
पिछले कई दिनों से मूँग-मसूर-मटर और नाममात्र अरहर की दालों को मिलाने-जुलाने के बाद भी पतली दाल घर में पकती आ रही थी लेकिन सिर्फ एक सौ दस रुपए में एक किलो अरहर की दाल मिल जाने और वीकेंड की छुट्टी की दोहरी खुशी में मेरा मन हुआ कि अरहर की गाढ़ी-पीली दाल देखने और खाने का सुख आज उठा ही लिया जाए। मन के भीतरी द्वंद्व से निपटने में खुद के ही तमाम दार्शनिक तर्क काम आये। वैराग्य से लेकर क्रांति तक के विचार…. जिनके बारे में अब सोचकर भी हँसी आती है। मगर यह स्वीकार करने में भी कोई शर्म नहीं कि उस समय मुझे उन तर्कों की सख़्त दरकार थी। एक सौ दस रुपए में आयी एक किलो दाल, सस्ते में मिल गयी कोई लग्ज़री लग रही थी जिसे हम अन्यथा अफोर्ड कर पाने की स्थिति में नहीं थे। पॉलीथीन के पैकेट से निकालकर प्लास्टिक के डिब्बे में रखते हुए दाल के दाने-दाने पर मेरी सतर्क निगाह बनी रही। पहली बार ऐसी सफाई से मैंने यह काम किया था कि एक भी दाना डिब्बे के बाहर नहीं गिरा। जिस सतर्कता से दाल डिब्बे में भरी, उसी सतर्कता से फिर नापकर एक कप वापस निकाली। किसी उत्सव की तैयारी-जैसी सजगता के साथ दाल चूल्हे पर चढ़ाने के सुख को यहाँ शब्दबद्ध नहीं किया जा सकता। शनिवार को वीकेंड फेस्टिवल में तब्दील करने की चिर-अभिलाषा मानों आज पूरी हो रही थी।
सधे हाथों से दाल पकाने के अलावा चावल और सब्ज़ी भी मैंने ही बनायी। दाल को छौंककर और भी ज्यादा स्वादिष्ट बनाने का जतन भी मैं कर ही रहा था कि प्रिया ने आकर रसोई संभाल लेने की ज़िद की क्योंकि अब तक मालिश कराने और दूध पीने के बाद सिया सो चुकी थी। रसोई में भी अब रोटी सेंकने का काम बाकी था, इसलिए मैंने अब खुद नहा लेने और चिया को नहलाने के लिए किचेन से बाहर आना मंज़ूर कर लिया। अन्यथा किचेन-रोमांस का एक और मौका बिल्कुल सामने ही था। रोल-शिफ्टिंग की इस घटना का एक लाभ यह हुआ कि दाल और रोटियाँ कहीं ज्यादा बेहतरीन बनीं (प्रिया के हाथ का जादू !) और चिया ने भी बगैर आना-कानी किए खुशी-खुशी नहा लिया जो कि माँ के हाथ से पिटे बिना कभी बाथरूम से बाहर नहीं निकलती।
खाना पकाने की धुन में मुझे सुबह के नाश्ते का ध्यान नहीं रहा था। नहाने के बाद घड़ी पर नज़र गयी तो देखा कि पौने बारह बज रहे थे। यह नाश्ते और खाने के बीच का समय था – यानि घर पर ब्रंच ! और ब्रंच के बाद दिन में एक झपकी सो लेने का मौका भी। इस महानगरीय कामकाजी जीवन में स्थितियाँ इतनी अनुकूल भी हो सकती हैं, कभी सोचा न था। मैं और चिया नहाने के बाद कपड़े पहन रहे थे, रसोई में प्रिया जानेमन रोटियाँ सेंक रही थीं। सिया अपने बिस्तर पर शांतचित्त सो रही थी। बालकनी से पीली चमकीली धूप आकर मेरे कमरे के फर्श को मानों दर्पण बना रही थी। कुल मिलाकर एक गुनगुना और सम्मोहक एहसास था जिसे ठीक तरह से अभिव्यक्त करने की सिर्फ कोशिश ही की जा सकती है, कोई दावा नहीं। एक खुशनुमा दिन – शनिवार।
खुशनुमा एहसास ज़िंदगी के स्थायी भाव नहीं बन पाते। वे सभी अनुभव जिन्हें हम भर पेट भोग लेना चाहते हैं, हमेशा क्षणिक साबित होते हैं। उनकी एक झलक मात्र से संतोष करना पड़ता है। इतने अच्छे और अनुकूल दिन में भी इसके बाद जो अप्रिय घटना घटी, वह इसी बात की तस्दीक करती है।
पूरा खाना लगभग बन चुका था। मैं और चिया दोनों ही नहा चुके थे। काम में लगे रहने के कारण जिस भूख का अब तक ध्यान नहीं आया था, नहाने के बाद अब वह ज़ोर मार रही थी। अपने लिए खाना निकालते समय मैंने चिया की प्लेट भी लगा दी। खाने के शुरू में भरपूर सलाद खाने की मेरी आदत को चिया ने खूब अपनाया है। कच्ची सब्ज़ियाँ भी बड़े चाव से खाती है। उसके दुबले-पतले शरीर को देखकर हम दोनों अब उसे सलाद और कच्ची सब्ज़ियाँ खाने से अक्सर रोकने लगे हैं मगर वह उतना ही इन चीज़ों के प्रति दीवानी हुई रहती है। सलाद की प्लेट रखते ही चिया ने शुरुआत कर दी। गाजर, मूली और खीरा के टुकड़ों से प्लेट में उत्पन्न हुए तिरंगे लुक को भी उसने नोटिस किया था। मैं भी शुरू में सलाद पर ही एकाग्र रहा। हालांकि बहुत ज्यादा देर तक खुद को इस पर नहीं रोके रखा जा सकता था। मैंने अब रोटी के छोटे टुकड़ों के साथ सूखी सब्जी का रुख किया। धनिया-टमाटर की चटनी भी बीच-बीच में चाटता रहा। सलाद से ही पेट भर रही चिया को भी बाकी खाने के लिए चेताया। उसकी प्लेट में रखे चावल के साथ चम्मच से दाल मिला भी दी। बढ़ते बच्चों की सेहत के लिए मैं मानता हूँ कि उनके खाने में प्रोटीन होना ही चाहिए, और दाल तो प्रोटीन का स्रोत है ही। इसलिए बच्चों को जितना हो सके दाल पीनी चाहिए। इसी फलसफे के आधार पर मैंने थोड़े चावल में ज्यादा दाल मिलाई, या शायद दाल पतली होने के कारण ज्यादा लग रही थी। बहरहाल, चिया ने बहुत धीरे-धीरे और थोड़ा ही दाल-चावल खाया। खाना खाते समय के उसके इस नखरे को प्रिया तो किसी खेल में बदल लेती है लेकिन मुझे अक्सर ही गुस्सा आ जाता है। अब जब मैंने अपने हाथ से चम्मच पकड़कर खिलाना शुरू किया है तब यह बार-बार मुँह फेर ले रही है। जैसे-तैसे दाल-चावल का मिक्स्चर खत्म होने को आया है, लेकिन चिया की कटोरी की दाल अब भी बची है। सोच रहा हूँ कि चम्मच से इसे भी पिला दूँ। अंत में अब गाढ़ी दाल है, इसकी पौष्टिकता भी ज्यादा होगी। एक हाथ में दाल की कटोरी और एक हाथ में चम्मच पकड़कर दोनों हाथों को चिया के चेहरे की ऊँचाई पर ले आया ताकि आसानी से उसे दाल पिलाई जा सके। मेरे हाथ के चम्मच में दाल भरी थी, इसलिए उसे सँभालते हुए चिया के मुँह तक ले गया। उसने मुँह एक ओर को घुमाया और अपना हाथ मेरे दूसरे हाथ की कटोरी पर दे मारा। चम्मच और कटोरी दोनों मेरे हाथ से छूट गए। चमचमाते फर्श पर कटोरी-चम्मच के गिरने की आवाज़ के साथ गाढ़ी-पीली अरहर की दाल फैल गई थी। मेरे गुस्से का कोई ठिकाना न रहा। चम्मच गिरने के कारण खाली हुए दाहिने हाथ का इस्तेमाल तुरंत चिया को थप्पड़ मारने में हुआ। यह तो हाथ की भूमिका थी, अभी ज़बान को भी अपना कुछ काम करना था। जब तक प्रिया मुझे रोकने के लिए आती तब तक मेरे मुँह से चिया के लिए गालियां और धमकी भरे शब्द झर चुके थे। मैंने चिया को आइंदा फिर ऐसी हरकत करने पर जूते से मारने की धमकी दी थी। चिया के गालों पर आँसू फैल रहे थे, फर्श पर अरहर की दाल फैल रही थी और प्रिया अपने मौन से इस पूरी दुर्घटना के दृश्य को मानो फ्रीज करने की कोशिश कर रही थीं।
****
(हमारे यहाँ आम तौर पर ऐसे किसी बिम्ब के साथ कहानी खत्म कर देने की परम्परा रही है। लेकिन मैं इसके आगे की थोड़ी-सी बात भी बताना ज़रूरी समझता हूँ। बिना यह बात कहे मुझे कहानी अधूरी मालूम होगी।)
रात को जब मैं और चिया सोने के लिए बिस्तर पर लेटे तब चिया ने मुझसे कुछ बात करने की अनुमति माँगी।
“पापा, मैं आप से कुछ बात करना चाहती हूँ। कैन आई से समथिंग? इस समय मारपीट तो नहीं करोगे?”
“नहीं बेटा। करो बात, लेकिन ज्यादा नहीं। जल्दी सोना है।” अँधेरे में भी मैंने नज़रें बचाते हुए कहा।
“ओके। थैंक यू पापा।” बेहद परिपक्व विनम्रता के साथ चिया ने शुरुआत की। “तो देखो, टेंथ जैनरी को मेरा बड्डे है। उस दिन मैं सिक्स इयर्ज़ की हो जाऊंगी। बच्चों का बड्डे स्पेशल डे होता है। उस दिन उनको मारना नहीं चाहिए। उस दिन आपकी मर्ज़ी नहीं चलेगी। मेरी मर्ज़ी चलेगी। मेरी बात मानोगे? आँ?”
“हाँ बेटा। ज़रूर मानूंगा।” अब तक मेरा गला भी जवाब देने लगा था लेकिन चिया बहुत गम्भीरता और सावधानी के साथ अपनी बात आगे बढ़ा रही थी।
“ओके। थैंक यू।” मैं चुप। गले से आवाज़ ही नहीं निकल रही है। चाहता हूँ कि उसे दुलारूँ, चूमूँ, प्यार करूँ और दिन की अपनी घटिया हरकत के लिए माफी मांगूँ। मगर गला चोक है। इस चुप्पी को फिर से चिया ही तोड़ती है।
“अब वेलकम कौन बोलेगा? मैंने दो बार थैंक यू बोला और आप ने एक भी बार वेलकम नहीं बोला। कितने गंदे होते जा रहे हो। छी।”
“सॉरी।” बिना रोये हुए और अपनी आवाज़ को संभालने की पूरी कोशिश करके मैंने सिर्फ इतना ही कहा।
“इट्स ओके। डोंट माइंड। तो टेंथ जैनरी को क्या होगा, जानना चाहोगे?”
“बोलो।”
“उस दिन मैं आपका दिया हुआ कुछ भी नहीं खाऊंगी।”
“तो फिर क्या करोगी?”
“मैं चाहती हूँ कि उस दिन आपको मारूँ। पहले मैं आपको झाड़ू से मारूंगी। उसके बाद आपके ब्लैक वाले जूते से, जिसको आज आप पॉलिश कर रहे थे।” यह सुनते हुए मेरा शरीर ठंडा पड़ने लगा। फिर लगा कि बच्ची की यह अभिलाषा तो जायज़ है। इसे जितनी जल्दी हो सके पूरा करना चाहिए। अपने को चैतन्य करते हुए मैंने चिया से कहा –
“लेकिन चिया, हैपी बड्डे पर मारपीट करना अच्छी बात नहीं होगी। तुम आज ही मुझे जूते से मार लो। अभी।”
“ओके।” मैं ठीक से समझा नहीं कि वह फिलहाल क्या चाहती है। उसने फिर कहा –
“पापा, ज़रा लाइट ऑन कर दोगे?”
“हाँ।” मैंने लाइट ऑन कर दी। चिया धीरे से सरकते हुए बिस्तर से नीचे उतरी। सीधे शू-रैक के पास गयी। उसे धीरे-से खोला और मेरा भारी-भरकम जूता अपने दो नन्हें हाथों में लेकर चल पड़ी।
मैं बिस्तर से उतर कर नीचे फर्श पर बैठ गया। चिया ने शायद दोनों हाथों से जूता मुझ पर मारा हो, ठीक से याद नहीं पड़ता। क्योंकि मैंने सिर नीचे झुका रखा था और फर्श के टाइल्स पर पड़ रही ट्यूबलाइट की सफेद रोशनी से फर्श पर पड़ा अरहर की दाल का पीला दाग ही मुझे नज़र आ रहा था।
…एक अनुभव ज़रूर हो रहा था कि कितनी कोमल, समझदार और प्यारी है मेरी बच्ची जो सब कुछ अपने ही अनुभवों से सीखती है और अपने ही जीवन पर लागू करके उसके परिणाम देखती है। चिया ने इसका परिणाम भी देखा। यह काम उसे अच्छा नहीं लगा था। हंसती हुई और ‘नहीं, नहीं, नहीं’ चिल्लाती हुई भागकर जूते वापस रख कर आयी और बोली –
“देखा पापा ? कितना गंदा लगता है शूज़ से मार-पीट करना! आपको लड़ाई करनी है तो मम्मा से करो। मम्मा विल टीच यू अ लेसन। अ वेरी गुड लेसन यू वुड लर्न।”
“………………….”
“अब आप सो सकते हो। मेरी बात हो चुकी। जब मैं ऑफिस जाने लगूँगी तब आप की अरहर की दाल खरीदकर आपको दे दूंगी जो आज मुझसे गिर गयी थी। सॉरी !” इतना कहकर चिया ने अपनी दो नन्हीं बाहें मेरे गले में कस लीं और इस तरह मुझसे चिपक गयी जैसे वह छह साल की नहीं अभी छह महीने की ही हो।
———————–
(आलोक कुमार श्रीवास्तव, इलाहाबाद विश्वविद्यालय से डी. फिल हैं। आरबीआई में नौकरी करते हैं। ‘सपने में दलईपुर’ प्रकाशित कविता संग्रह है। छात्र जीवन में ‘अवसर’ नाम से एक पत्रिका भी निकालते थे)