कलाकार बनना बहुत आसान है मगर पुरस्कार, प्रसिद्धि , पैसा कमाना बहुत मुश्किल और उससे भी अधिक मुश्किल है किसी सार्थक कलाकृति की रचना करना। सैकड़ों , हजारों कलाकार पुरस्कार, प्रसिद्धि और पैसे के लिए जीवन भर मेहनत और संघर्ष करते हैं | तरह-तरह के प्रयोग करते हैं तरह-तरह के जतन करते हैं | एक छटपटाहट एक बेचैनी लेकर आते हैं और उसी के साथ चले जाते हैं | इस यात्रा में कुछ कलाकार ऐसा कर जाते हैं जो याद रह जाता है बाकी इतिहास की धूल बन कर दिक् दिगान्तर में खो जाते हैं।
सच कहा जाए तो कला की दुनिया एक तिलस्म जैसी होती है | उस तिलस्म में जगह बनाने की आकांक्षा हर कलाकार की होती है | इस लिहाज से कलाकार महत्वकांक्षी होते हैं मगर वे अतिमहत्वकांक्षी ही क्यों न हों उसमें से अधिकांशतः , अपने शर्तों से इंच भर भी डिगने को तैयार नहीं होते हैं चाहे उम्र भर उन्हें गुमनामी व फाकामस्ती की जलावतनी ही क्यों न भुगतनी पडे़। वे अपने ख्वाबों के बियाबान में इस कदर मस्त रहते हैं कि ” कटूक निबौरी को मैदे की लेइ ” से बेहतर समझते हैं।
यह अकारण थोडे़ न है कि विदेश में तमाम अवसर को छोड़ कर कोई कलाकार अपने वतन में रहता है और जब उसके हुनर के जवाहर से एक रंग महल खडा़ हो जाता है अंतिम समय में बगैर कोई अधिकार जताए बिना एक शब्द कहे स्वयं को एकदम किनारे कर लेता है | खैर हुनर के उस अनमोल जवाहर को सलाम , गंगा-जमुनी तहज़ीब के उस महान कलाकार का किस्सा फिर कभी फिलहाल हम बात करेंगे मेरे शुरुआती दिनों के कलाकार मित्र अरबिन्द कुमार सिंह की जो इन दिनों देश की राजधानी में रहकर अपने नयाब हुनर के जवाहर बिखेर रहें हैं |
अरबिन्द कुमार सिंह पर बात करने से पहले यह गौर कर लेना जरुरी है कि अब कला का अनुशासन बिल्कुल बदल गया है | यह बदलाव हर स्तर पर हुआ है | परम्परागत विधा , माध्यम , विचार आदि सभी स्तर पर | अरबिन्द फिलहाल मूल रुप से इंस्टॉलेशन में काम करते हैं | माध्यम के रुप में वे बिल्कुल ही सामान्य सी चीजों का इस्तेमाल कर एक प्रभावशाली दृश्य लोक की रचना करते हैं | जो इस काल और परिस्थिति में महत्वपूर्ण हो उठता है | अरबिन्द दिखने में तो कठोर हैं मगर हृदय के नाज़ुक हैं | उनकी पसंदीदा कला सामग्री भी नाज़ुक होती है , वे कहते भी हैं ” मुझे नाज़ुक सामग्री में काम करना अच्छा लगता है | नाज़ुक सामग्री वैचारिक अभिव्यंजना के लिए अधिक कारगर होती है | ” आसपास दिख रही हर सामग्री चाहे वह स्क्रैप मैटिरियल ही हो उनके लिए एक कला सामग्री है |
अरबिन्द का जन्म 14 अगस्त 1978 को झारखंड में हुआ था | पिता श्री जयनाथ सिंह बोकारो में नौकरी करते थे | माता कुशुम देवी जी गृहणी थीं | दो भाई और दो बहन में सबसे छोटे अरबिन्द सिंह बचपन से ही कलाकार थे | अरबिन्द जब बहुत छोटे थे माता जी का स्वर्गवास हो गया | जिसके बाद अरबिन्द जैसे दुनिया में अकेले हो गये | यह अकेलापन उन्हें कला की तरफ ले गया | पांचवी छठी कक्षा में जाते जाते वे बोर्ड बैनर या गाडी़ का नम्बर वगैर लिखना सीख गये जिससे कभी कभी कुछ जेब खर्चे निकल जाता था | यह जेब खर्चे पुरस्कार की तरह होता |
अरबिन्द बताते हैं यह थोडे़ से पैसों ने मुझे कला के क्षेत्र में अनयास ही ला दिया | इस बीच उनका सम्पर्क बोकारो के बहुत ही सुप्रसिद्ध कला गुरु जयपाल प्रसाद से हुआ | जयपाल प्रसाद जितने अच्छे कलाकार थे उतने ही अच्छे इंसान थे | उन्होंने अरबिन्द को मुफ्त में कला की शिक्षा दी | उन्होंने ही पटना आर्ट कॉलेज के बारे में बताया | बोकारो के कला गुरु जयपाल प्रसाद के प्रति कृतज्ञता जताते हुए अरबिन्द कहते हैं कि ” शायद वे नहीं होते तो मैं स्ट्रीट पेंटर बन कर रह जाता ” | प्रारम्भिक पढाई पूरी करने के बाद अरबिन्द पटना आ गये और दूसरे प्रयास में कला एवं शिल्प महाविद्यालय पटना में दाखिला लिया | 2005 में वहां से ललित कला में स्नातक करने के उपरांत वे दिल्ली चले गए | दिल्ली कला महाविद्यालय से स्नातकोत्तर किया और उसके बाद कला की दुनिया में जोर अजमाइश शुरु की
2007 में उन्होंने दिल्ली कॉलेज ऑफ आर्ट्स से पास किया | यह वह दौर था जब हमारे देश का कला बाजार ध्वस्त हो चुका था । बचपन में ही विपरीत परिस्थिति ने अरबिन्द को कठोर बना दिया था | धाराशायी कला बाजार में भी उन्होंने अपने लगन , हुनर और प्रतिभा से एक जगह बनायी जो कि बहुत महत्वपूर्ण है |
वैसे तो किसी भी कलाकार के लिए कला महाविद्यालय में प्रवेश करने की कोशिश से ही जीवन संघर्ष की शुरुआत हो जाती है क्योंकि कैरियर के रुप में कलाकर्म का चयन अधिकतर कलाकारों के माता पिता की इच्छा के विरुद्ध होता है | अरबिन्द कला एवं शिल्प महाविद्यालय पटना में आये तो वहां एक अलग किस्म का आवेगपूर्ण संघर्ष था | उस दौर में महाविद्यालय प्रशासन और सन्यासी रेड के नेतृत्व में छात्रों का जूझारु आंदोलन चरम पर था| अरबिन्द जैसे युवा इससे अलग कैसे रह सकते थे|
छात्र आंदोलन के जुडा़व के साथ ही उन्होंने तपस्वियों की भांति कठोर कला साधना भी की | उन्होंने मूर्तिकला से पढा़ई की | मूर्तिकला की हर तकनीक को सीखा | सीखाने वालों में तत्कालीन प्राध्यापक मूर्तिकार अमरेश आदि प्रमुख थे | पटना से पास करने के तुरंत बाद दिल्ली चले आये वहां प्रख्यात इंस्टॉलेशन आर्टिस्ट सुबोध गुप्ता का सानिध्य मिला | उनके साथ ही दिल्ली आर्ट कॉलेज तो था ही | मतलब अरबिन्द कहीं भी रुके नहीं निरंतर आगे बढते हुए महत्पूर्ण उपलब्धियां हासिल करते गये |
समय का अमूर्त द्वंद व यर्थाथ चित्रण की सीमा
अरबिन्द मूल रुप से मूर्तिकार हैं जो फिलहाल मुख्य रुप से ‘इंस्टॉलेशन ‘ बेस काम करते हैं मगर कभी कभी वे चित्र भी बनाते हैं जिसे देखते हुए उनके चित्रण दक्षता का अभास होता है | मूर्तिकला या इंस्टॉलेशन काफी श्रम साध्य माध्यम होता है | कुछ ही कलाकार मूर्तिकला के साथ चित्रण भी करते हैं | वे चित्रण में यर्थाथ रुपक का इस्तेमाल करते हैं | यर्थाथ रुपक का इस्तेमाल करते हुए समय के अमूर्त द्वंद को अभिव्यंजित करना बहुत कठिन होता है जिसकी कोशिश अरबिन्द करते हैं|
पटना कलम जैसे लघु चित्रण शैली के एक या दो रुपक के रेखाचित्रण के साथ एक आधुनिक स्त्री का यर्थाथ चित्रण का संयोजन एक अलग तरह का दृश्य उपस्थित करता है | इसमें आधुनिक स्त्री का रुपक जलरंग में होता है तो अन्य रुपक का खूब बढ़िया रेखा चित्रण , पृष्ठभूमि में कहीं कहीं रंगों के इस्तेमाल से सुंदर संतुलन उपस्थित होता है | ये चित्र एक जिज्ञासा रचते हैं , जैसे थोडा़ ठहर कर देखने का मन करता है | यद्यपि तकनीकी तौर पर इसमें बहुत गहराई नहीं होती है ( दक्ष स्केच के अतिरिक्त ) | तथापि एक मनोहर व जिज्ञासा पैदा करने वाला दृश्य तो बनता ही है | जो कुछ सवाल कुछ कौतुहल पैदा करता है | चित्रण अरबिन्द के कलाकर्म का छोटा सा ही सही लेकिन एक जरुरी हिस्सा है |
जीवन का कठिन संघर्ष और मूर्तिकला का ठोस स्वरूप
कठिन विपरीत परिस्थितियों ने अरबिन्द कुमार सिंह को आत्म निर्भर बना दिया था। शायद मूर्तिकला के ठोस स्वरूप में उन्हें आत्म निर्भरता की अधिक संभावना दिखी। उन्होंने कठोर साधना शुरु की। कठिन अभ्यास से एक एक बारीकी को सीखा | उस दौर में पटना में बहुत सुविधा तो नहीं थी लेकिन प्रसिद्ध मूर्तिकार अमरेश जैसे योग्य कलागुरु जरुर थे | अरबिन्द ने अपने लगन से उनका विशेष स्नेह हासिल किया |
जिसके फलस्वरूप कॉलेज के अतिरिक्त उनके साथ अनेक अवसर पर बाजार का काम भी करने का अवसर मिला | जहां उनको बहुत सी तकनीकी बारीकी के साथ परिस्थिति जन्य चुनौतियों से निपटने का भी हुनर सीखने को मिला | उन्होने वहां फाइबर , मेटल , पत्थर आदि परम्परागत माध्यमों को बरतना सीखा |
अरबिन्द कुमार सिंह शुरु से ही बहुत प्रयोगधर्मी कलाकार रहे हैं | उनकी मूर्तियों में चमकीले रंगो का इस्तेमाल किया गया है | एक तो वे मिक्स माध्यम का चयन करते हैं जिसमें मेटल , फाइबर ग्लास आदि होता है और ऊपर से आकर्षित करने वाले रंग | उनकी कलाकृतियां जैसे सहज ही लुभा लेती हैं | असल में उनकी कलाकृतियाँ उनके अन्तर्मन की अभिलाषा और अन्तरविरोध को अभिव्यक्त करती है | एक तो यह कठोर दुनिया , इसकी निष्ठुरता और ऊपर से तरह तरह की जटिलता | इन सबके बीच आदमीयत की खुबसूरत ख्वाहिश की तरह अरबिन्द की कलाकृतियाँ दिखती है |
फाइबर ग्लास और मिश्रित माध्यम में बनी 72×30×20 इंच के आकार की ‘डिजायर’ शीर्षक की उनकी एक मूर्ति खास तौर पर गौर करने लायक है | मूर्ति में स्टूल ( आधुनिक किस्म के शोरुम में ग्राहक के लिए रखे हुए स्टूल की तरह ) पर बैठी हुई एक मानव आकृति है , जिसके हाथ किसी उलझी हुई वस्तु के साथ सुलझाने की मूद्रा में हैं | इस आकृति का पूरा ध्यान भी जैसे उसकी सुलाझाती हुई हाथों के साथ है | मूर्ति के सिर पर हैट जैसी कोई चीज है जो ऊपर में फ्लैग लाइट की तरह दिखती है | सिर पर रखी चीज सहित पूरा चेहरा गहरे मगर चमकीले निले रंग का है हाथ का और पैर का कुछ हिस्सा थोडे़ हल्के निले रंग का है और बाकी पूरा हिस्सा चमकीले सुनहले रंग का है जिसमें कहीं कहीं निले रंग की छिंट है|
यह मूर्ति पहली नजर में ही दर्शक को जैसे लुभा लेती है और फिर जैसे दर्शक उसी मूर्ति के साथ खो जाता है | एक अच्छी कलाकृति की यह खासियत है कि आप उसे देखें तो बस देखते रहें | रंग बिरंगे मुखौटों का तार के साथ प्रयोग करके भी अरबिन्द ने बहुत खूबसूरत मूर्तियां बनाई है | मूर्तिकला अरबिन्द के कलाकर्म का बहुत महत्पूर्ण हिस्सा है |
संस्थापन कला की चुनौती और अरबिन्द की रचनाशीलता
आज कला की दुनिया नायाब प्रयोगधर्मिता की दुनिया है | पुरानी चीजें उलट रही हैं नई चीजें खडी़ हो रही है | आज कला सामग्री के रुप में कुछ भी हो सकता है | बांस बल्ला , कोई एक ईंट या उसका टूकड़ , थोड़ा सा चावल , कोई फोटो का फिल्म , लाइट , कैलेंडर , पत्ता , फूल , लकड़ी का टूकडा़ , कागज , घास फूस कुछ भी | महत्वपूर्ण माध्यम नहीं महत्वपूर्ण है उसका कायदे से प्रदर्शन |
अरबिन्द यही करते हैं | दो तीन चीजें लेते हैं , कभी उसमें लाइट का इस्तेमाल भी करते हैं तो कभी पॉलिथिन में पानी भर कर एक अर्थपूर्ण तरीके से प्रदर्शित कर देते हैं | ये सामान्य सी दिखने वाली सामग्री जब अरबिन्द के हुनरमंद हाथों से प्रदर्शित होती है तो जैसे एक अलग ही लोक की निर्मिति होती है | बिल्कुल ही एक अलग चीज का |
जैसे उनकी एक कलाकृति है ‘ नेक्स्ट टारगेट ‘ | उसमें ठाकुर प्रसाद के कुछ कैलेंडर है , इसका आकार अनिश्चित है | एक जगह उन्होंने एक अनुशासन में चार चार की पंक्ति में बारह कैलेंडर को संयोजित किया है जैसे ये साल के बारह महीने हों और चार-चार महीने के तीन प्रमुख मौसम | अब इसे वे दूसरे रुप और अर्थ में भी किये हो सकते हैं या कर सकते हैं |
इसमें दिनांक वाले चौखटे को काट दिया गया है और पीछे रंगीन लाइट का इस्तेमाल किया गया है | दृश्य रुप में इस कलाकृति का अद्भुत प्रभाव है | जब अरबिन्द ने पहली बार इसे प्रदर्शित किया तो एक साथ कई संग्राहक की तरफ से इस काम की मांग शुरु हो गई | इस काम को उन्हें एडिशन में करना पडा़ |
अरबिन्द का एक अन्य काम है ‘ पेडस्ट्रिन क्रॉसिंग ‘ | इस काम का भी आकार उन्होने अनिश्चित रखा है | इसमें उन्होंने पांच खडे़ बांस और उनको एक आकार में जोड़ने के लिए दो दो बल्ले का इस्तेमाल किया है | आगे वाले दो बांस को केवल ऊपर की तरफ एक बल्ले से ही जोडा़ गया है जैसे उसके अंदर प्रवेश करने के लिए रास्ता छोडा़ गया हो | हर खडे़ बांस के बीच बीच में चार पांस श्वेत – श्याम तस्वीर की फिल्म लगाई गई है जिसके पीछे लाईट का इस्तेमाल किया गया है |
अब इस संस्थापन को देखने का एक अपुर्व आनंद है जिसकी अनुभूति दृश्य रुप में ही की जा सकती है | अरबिन्द सिंह की चिंता बहुत मानवीय और व्यापक होती है | उनकी चिंता में प्राकृत का अंधाधुन दोहन भी है और राजनैतिक आर्थिक जटिलता भी | इसके साथ ही आदमी की अनंत आकांक्षा के पीछे की अंधी दौड़ भी | उनकी अभिलाषा एक समरस सामाज की है जहां सब प्रेम से रहें | उन्होंने कुछ पत्तों को लेकर एक अद्भुत संस्थापन किया था | अनेक पत्तों को स्टेपल से पिन कर कर के एक प्रभावशाली दृश्य रचा था |
अरबिन्द बताते हैं कि आदमी ने अपने लालच के लिए कितने ही पत्तों की कुर्बानी दी है , कितने पेडो़ को काटा है इसका कोई हिसाब नहीं है | ये पत्तें जिस पीन से स्टेपल किये गयें हैं , इस छोटे से पिन के लोहे के लिए कितने पत्तों को दफनाया गया होगा | प्रकृति के हर अंग का निर्मम दोहन आदमी ने बुरी तरह किया है | वैसे ही वे कलैंडर को लेकर एक दूसरी बात कहते हैं | वे कहते हैं कि ” यह ठाकुर प्रसाद का कैलेन्डर जो इस देश में हर किसी के घर में देखा जा सकता है , हिन्दु , मुस्लिम , सिख , इसाई सभी के घर में | सामान्य तौर पर लोग इसी को देखकर पर्व त्योहार या खास अवसर तलाशते हैं | यह कैलेन्डर सबके के लिए खास है | “
बहरहाल अरबिन्द कुमार सिंह की कलाकृतियों को उत्पादित भावानुभूति के बजाए रचनाशीलता की धरातल पर देखना अधिक सारगर्भित होगा | संस्थापन कला में उनकी नायाब प्रयोगधर्मिता एक अलग किस्म का प्रभाव उत्पन्न करती है | यद्यपि अरबिन्द कुमार सिंह को अभी रचनात्मक संघर्ष करना है तथापि कला बाजार में आयी लंबी मंदी के बावजूद उनकी रचनाशीलता ने कला जगत में अपनी एक जगह बनाई है |