आज रामविलास जी का जन्मदिन पड़ता है. इस अवसर पर प्रणय कृष्ण का लिखा आलेख ‘अपने अपने रामविलास’ समकालीन जनमत के पाठकों के लिए यहाँ दिया जा रहा है. यह लेख डेढ़ दशक पहले तब लिखा गया था जब रामविलास जी की मृत्यु के बाद उनपर हमले किए जा रहे थे और उनकी विरासत को लेकर तमाम तरह के भ्रम फैलाए जा रहे थे. यह लेख उन हमलों और फैलाए गए भ्रमों का जवाब है, जो आज भी प्रासंगिक है.
(आलोचना के रामविलास अंक पर अविनाश कुमार, आशुतोष कुमार, रमेश कुमार, पंकज चतुर्वेदी, उमाकांत और प्रणय कृष्ण की आरंभिक बातचीत के सूत्रों को विस्तार देते हुए प्रणय कृष्ण द्वारा प्रस्तुत आलेख.)
‘अक्षरपर्व’ नाम की पत्रिका ने रामविलास जी की मृत्यु के एक-डेढ़ वर्ष पहले तमाम लेखकों-बुद्धिजीवियों को एक प्रश्नतालिका भेज कर उत्तर मंगाए थे. रामविलास जी ने उत्तर न देकर दो-चार पंक्तियों का एक पत्र संपादकों को भेजा जिसमें उन्होंने उस प्रश्न पर एतराज जताया जिसमें भारत की एक हजार साल की गुलामी का जिक्र था. रामविलास जी ने साफ कहा था कि मध्यकाल को वे गुलामी का काल नहीं मानते. जाहिर है उन्होंने प्रश्नतालिका को जवाब देने योग्य न मानते हुए भी उक्त प्रश्न में निहित घातक और गलत इतिहासदृष्टि से एतराज जताना जरूरी समझा. सन् 1999 में ‘कल के लिए’ नामक पत्रिका में दिए गए इन्टरव्यू में रामविलास जी कहते हैं ‘‘मुख्य रूप से इस समय सबसे ज्यादा खतरा हिन्दू सम्प्रदायवाद से है. अमरीका भारत जैसे देश में तीसरी दुनिया के देशों में, सिर्फ योजनाओं और उद्योगों से आगे नहीं बढ़ सकता उसको सम्प्रदायवाद की छत्रछाया चाहिए. अमरीका भाजपा का ज़्यादा भरोसा करेगा कांग्रेस का कम करेगा… तो भारत में फासिज्म का खतरा किस रूप में आएगा, यह कहना तो बड़ा मुश्किल है, लेकिन जिस रूप में भी आएगा, वह अमरीका के इशारे के बिना नहीं आ सकता…. जो भारतीय फासिज्म है और जो यूरोप का फासिज्म है, हत्या आतंक के दांव पेंच में दोनों में कोई फर्क नहीं है. झूठ बोलने में दोनों में कोई फर्क नहीं है. जो अभियोग इन पर लगाया जा सकता है उससे पहले ही वो दूसरों पर लगा देते हैं. हमने ईसाइयों को मारा इसलिए कि तुमने ईसाइयों को बढ़ावा दिया. इस तरह के दांव-पेंच जैसा कि वहां उन्होंने निशाना यहूदियों को बनाया था कि यहूदी जर्मनी के पतन का मुख्य कारण हैं, जैसे यहां के ईसाइयों, मुसलमानों या गैर-हिन्दुओं को पतन का मुख्य कारण बताते हैं, यह दोनों में फर्क है…. भाजपा चाहे जितना मुसलमान का विरोध करे, ईसाई का विरोध करे, उसका मुख्य शत्रु वामपक्ष है, उन्हें समाजवादियों को समाप्त करना है, यह दोनों की समान धारणा है.’’(आज के सवाल और मार्क्सवाद) जाहिर है कि उपरोक्त लम्बा उद्धरण रामविलास जी के उन्हीं साक्षात्कारों में से एक से दिया गया है जो उन्होंने साम्प्रदायिकता और भाजपा के खिलाफ उसी ‘अन्तिम दशक’ में दिए थे जिसमें प्रकाशित उनकी “प्रायः सभी पुस्तकें ऋग्वेद से शुरू होती हैं.” (नामवर सिंह) यदि यह मान भी लिया जाए कि उनकी इन पुस्तकों की स्थापनाएं ‘‘संघ परिवार के फासिस्ट इरादों को एक हथियार प्रदान कर रही हैं’ (ना. सि.), तो भी यह मानने का कोई कारण नहीं है कि पाठकों के हाथ रामविलास जी की उक्त पुस्तकें ही लगेंगी और फासीवाद के बारे में उनके निभ्रांत साक्षात्कार किसी जादूगरी से गायब हो जाएंगे. बहरहाल यदि इस बात को भुला दिया जाए कि ऋग्वेद और आर्यों के बारे में रामविलास जी का अध्ययन इहलौकिक और भौतिकवादी दृष्टिकोण से किया गया है (और संसार में कोई प्राच्यवादी ऐसा नहीं करता), तो भी यह कैसे नजरअन्दाज किया जा सकता है कि उन्होंने आर्यों को नस्ल मानने से इनकार किया है. न केवल अपने विद्वतापूर्ण अध्ययन में बल्कि विकृत करके पांचजन्य (फरवरी सन् 2000) में छापे गए उनके ‘विवादास्पद’ साक्षात्कार में भी वे कहते हैं कि ‘‘वर्तमान कुरुक्षेत्र में, सरस्वती नदी के तट पर, प्राचीन काल में भरतजन रहते थे. इनके कवियों ने ऋग्वेद के सूत्र रचे थे. दासों से भिन्न उन्होंने स्वाधीन गृहस्थों के लिए आर्य शब्द का व्यवहार किया था. पाश्चात्य विद्वानों ने इस शब्द का व्यवहार विशेष रंग रूप और शारीरिक गठन वाले मानव समुदाय (Race- नस्ल) के लिए किया. ऐसा कोई मानव समुदाय भारत में नहीं था. महाकाव्यों के दो नायक राम और कृष्ण अपने श्याम वर्ण के लिए प्रसिद्ध थे. इससे गोरी आर्य नस्ल की धारणा खंडित हो जाती है.’’(आज के सवाल और मार्क्सवाद) जाहिर है कि रामविलास जी की उपरोक्त धारणा कोसाम्बी से लेकर रोमिला थापर तक सभी भौतिकवादी इतिहासकारों से मेल खाती है, जिन्होंने आर्यों को नस्ल न मानकर जन अथवा भाषाई समुदाय प्रमाणित किया है. रामविलास जी का यह कैसा ‘अन्धराष्ट्रवादी प्राच्यवाद’ है जो नस्लीय श्रेष्ठता और रक्त शुद्धता के उस मूलभूत विचार को ही पंगु बना देता है जिसके बगैर किसी भी जर्मन, इटैलियन अथवा भारतीय फासिस्ट के लिए आर्यों का मूलस्थान उनके देश में होना सारहीन अन्तर्वस्तु रहित तथ्य मात्र रह जाता है. यहां यह याद दिलाना अप्रासंगिक न होगा कि हेडगेवार के गुरु बी. एस. मुंजे, (जो मुसोलिनी से मिलकर भी आए थे), से लेकर एम. एस. गोलवरकर तक (जिन्होंने हिटलर के जातीय सफाए के माडल की महिमा गाई और उसे अपना एजेंडा भी बनाया) फासीवाद व नाजीवाद के नस्लीय श्रेष्ठता और रक्त-शुद्धता के प्रतिमानों के भारी प्रसंशक थे. उन्हें सिर्फ ऋग्वेद के प्राचीनतम होने और आर्यों का मूलस्थान भारत होने से संतोष न था. रामविलास जी के आर्य तो वैसे भी इस तरह रहते हैं कि “उनका पूरा समाज योगियों का ऐसा अखाड़ा मालूम होता है जो हर समय कविता करने, गीत गाने और आग जलाकर नाचने में मग्न रहता था. ‘‘(ना. सिं.) रामविलास जी का यह कैसा आक्रामक प्राच्यवाद है जिसके मूल प्रेरणास्त्रोत अर्थात आर्य इतने अनाक्रमक हैं कि ‘‘अश्वों के लिए प्रसिद्ध आर्यों की दुनिया में दिग्विजय के अश्व हिनहिनाते दिखें.’’(ना.सि.) ये कैसे सभ्यता प्रसारक हैं जो तलवार और घोड़ों को त्याग महज कविता करने और गीत गाने में मगन रहे और इनकी सभ्यता का प्रसार भाषा तत्वों के निर्यात की मार्फत व्यापार मार्गों से होता रहा. क्या हिटलर, मुसोलिनी, गोलवरकर ऐसे आर्यों, ऐसी सभ्यता और उसके प्रसार के ऐसे अहिंसक तरीकों को जरा भी बर्दाश्त कर पाते? क्या मैक्समूलर और दयानंद भी इस आर्य-मीमांसा से अपना तुक ताल बैठा पाते? क्या वे तमाम मूलतत्ववादी जो वेदों को अपौरुषेय मानते हैं वे रामविलास जी द्वारा वेदों को इंसानों की रचना बताए जाने से अधिक ताकतवर महसूस करेंगे? उपरोक्त प्रकरण में आर्यों को नस्ल न मानना, मध्यकाल को गुलामी का काल न मानना और आज की तारीख में अमरीकी साम्राज्यवाद की शह पर पनपते भाजपाई फासीवाद के बारे में रामविलास शर्मा के दो टूक विचारों का उल्लेख मात्र इसलिए किया गया है कि मोटे तौर पर संघ परिवार और रामविलास शर्मा की इतिहासदृष्टि के बुनियादी फर्क को रेखांकित किया जा सके, जिसे रामविलास जी के सामान्य पाठक भी ‘आलोचना के रामविलास अंक’ के बावजूद आसानी से समझते हैं. जाहिर है कि अब तक तो कुछ कहा गया, वह रामविलास जी की धारणाओं को वैध ठहराने के लिए अथवा विरासत के प्रति अंधश्रद्धा जगाने के लिए नहीं बल्कि अपनी विरासत के प्रति ज्यादा उत्तरदायित्वपूर्ण रवैया विकसित करने की मांग से प्रेरित है. इसके बावजूद भी यदि किसी को यह भय सता ही रहा हो कि रामविलास जी का कृतित्व संघ परिवार के फासिस्ट इरादों को हथियार प्रदान कर सकता है तो यह देखना चाहिए कि कहीं रामविलास के उत्तराधिकारी इतने नालायक, पुंसत्वहीन और बंजर तो नहीं है कि अपनी विरासत को खुद ही दुश्मनों को सौंपने को तैयार बैठे हों. जाहिर है कि ‘बंदर के हाथ उस्तरा देने से भी खतरनाक’ (ना. सिं.) यह नालायकियत ही होगी.
आलोचना का रामविलास शर्मा अंक रामविलास जी के कृतित्व का कितना भी तीखा पुनर्मूल्यांकन करता, उसमें एतराज की कोई बात न होती. लेकिन इस अंक में कहीं प्रत्यक्ष तो कहीं परोक्ष रूप से रामविलास शर्मा के उद्देश्य(Motive) को ही संदिग्ध बताया गया है. कहीं सीधे-सीधे ही उन्हें वर्णव्यवस्था का पोषक, प्रच्छन्न हिंदुत्ववादी, अंधराष्ट्रवादी प्राच्यवाद का प्रचारक अथवा फंडामेंटलिस्ट कहा गया है, तो कहीं यही बातें आरोपों की शक्ल में नहीं बल्कि इशारतन कही गई हैं जिसे अंग्रेजी में Insinuation कहते हैं. ऐसा नहीं कि रामविलास जी के जीते-जी उनकी आलोचना न होती रही हो, लेकिन तब उनकी आलोचना का दायरा बहुत स्पष्ट था. शायद ही कभी उनके सबसे तीखे आलोचकों ने भी उनके कृतित्व में कोई Hidden Agenda (गुप्त एजेंडा) खोजा हो. पहले भी उनकी इतिहासदृष्टि, हिंदी जाति की अवधारणा, परंपरा का मूल्यांकन, हिंदी नवजागरण संबंधी विचार और उनकी आलोचना पद्धति से लोग न केवल असहमत रहते आए हैं, बल्कि खुलकर उनकी आलोचना भी होती रही है. इतिहासकारों ने उनके इतिहास संबंधी लेखन को पहले भी गंभीरता से नहीं लिया है क्योंकि उनके अनुसार रामविलास जी उन उपकरणों का इस्तेमाल नहीं करते जो इतिहास के अनुशासन के लिए जरूरी हैं. इसी तरह उनके भाषा संबंधी अध्ययन भी विवादास्पद रहे हैं. उनके मार्क्सवाद पर आर्यसमाज और राष्ट्रवाद की छायाएं पहले भी देखी गईं थीं. लेकिन उनके अधिकांश आलोचकों ने उनसे यह मानकर ही वाद-विवाद चलाया कि वे एक मार्क्सवादी प्रस्थान बिंदु से काम कर रहे अध्येता से सही विचारों के लिए संघर्षरत हैं. कम्युनिस्ट पार्टी और वामपंथी विचारधारा से अपना लेखकीय कैरियर शुरू करने वाले नरेश मेहता से लेकर निर्मल वर्मा तक ऐसे बड़े हिंदी लेखकों की कोई कमी नहीं रही है जिन्होंने खुले तौर पर दक्षिणपंथ की ओर पाला बदल लिया. प्रसंगवश इन दो ज्ञानपीठ विजेताओं का ही उल्लेख काफी है. ऐसे में रामविलास शर्मा की क्या मजबूरी थी कि उन्हें अपने फंडामेंटलिज्म, अंधराष्ट्रवाद, प्राच्यवाद, हिंदुत्व, वर्णव्यवस्था के पोषण आदि के लिए मार्क्सवाद के आवरण की जरूरत अंत-अंत तक पड़ती रही, खासकर ऐसे समय में जब सोवियत संघ का पतन हो चुका था और भारत की केंद्रीय सत्ता हिंदुत्ववादियों के हाथ में उनके जीते जी आ चुकी थी? ‘आलोचना के रामविलास अंक’ में इतना जनतंत्र है कि हर तरह की विचारधारा रखने वाले और विचारधाराविहीन लोगों को भी खुली छूट है कि वे उस व्यक्ति के साथ जो चाहें सो करें जिसकी बरसी पर यह अंक निकाला गया. संपादकीय निरपेक्षता का ऐसा अनुपम उदाहरण भला और कहां मिलेगा? कहते हैं कि कबीर के फूल के लिए उनके हिंदू और मुस्लिम अनुनायियों में झगड़ा हुआ था लेकिन (कुछ लेखों को छोड़ दिया जाए तो) यहां शव के अंग-भंग के लिए एक सर्वानुमति है, मानो मूल चिंता यह हो कि साबुत और अविकृत देह कोई न देख पाए. सबके अपने-अपने रामविलास हैं जिन्हें सबने अपने-अपने एजेंडा को बढ़ाने के लिए नकारात्मक रूप से आविष्कृत किया है. विस्तार-भय से हम यहां ऐसे ही कुछ चुनिंदा लेखों पर विचार करेंगे जिनमें यह प्रवृत्ति घनीभूत हैं.
टीका-कुंकुमवादी आलोचक वागीश शुक्ल को इस बात का रंज है कि रामविलास शम्बूक वध पर नाराज क्यों हैं और क्यों ब्रह्मज्ञान पर द्विजों के अधिकार के समर्थक होने के कारण वे कालिदास को लताड़ते हैं. वागीश शम्बूक वध का औचित्य सिद्ध करते हुए बड़े परिश्रम से यह बताते हैं कि शम्बूक सशरीर स्वर्ग जाने की इच्छा के कारण दण्डित किया गया और राम के पूर्वज त्रिशंकु को भी इसी कारण दण्ड मिला था. यह अलग बात है कि जिस अपराध के लिए शबूक का वध किया गया,उसी अपराध के लिए त्रिशंकु को वही दण्ड क्यों नहीं मिला, यह बताना वागीश जरूरी नहीं समझते. पूरी नंगई के साथ जघन्यतम ब्राह्मणवाद का समर्थन करते हुए वागीश लिखते हैं ‘‘यहां किसी ऐसी अनाधिकार चेष्टा का दण्ड दिया गया है जिसके विचार और निर्णय में शम्बूक और त्रिशंकु का भेद नहीं है.’’ रामविलास पर आरोप यह है कि कलियुग में सभी वर्णों को तपश्चर्या की अनुमति देने वाली वर्ण-व्यवस्था के सामंतवाद को वे इतनी हिकारत से क्यों देखते हैं. भवभूति के उत्तररामचरित के प्रसंग में रामविलास जी ने एक उद्धरण दिया है जिसमें सीता-वनवास के बाद माता कौशल्या द्वारा 12 वर्ष तक पुत्र राम का मुंह न देखने का उल्लेख है. बाल की खाल निकालने की शैली में वागीश शुक्ल यह साबित करते हैं कि कौशल्या महज यह कहती हैं कि जिस अयोध्या में उनकी बहू नहीं है उसमें वे नहीं लौटेगी. जबकि वागीश स्वयं कंचुकी नामक पात्र के उस कथन को उद्धृत करते हैं जिसमें वह कहता है- ‘‘हे राजर्षि जनक! जिन कौशल्या देवी ने एक जमाने से राम का मुंह देखना बंद कर रखा है, उन बेहद दुःख में डूबी को ऐसे ही गुस्से से आप और दुखी न करिएगा.’’ शम्बूकवध की ही तरह सीता परित्याग के औचित्य की स्थापना में तत्पर वागीश बहुत परिश्रम करके भी यह नहीं बता पाते कि सीताविहीन अयोध्या में न जाने का कौशल्या का प्रण और राम का मुंह न देखने का प्रसंग असंबद्ध कैसे है? क्या अयोध्या के सीताविहीन हो जाने के पीछे राम के अलावा कोई अन्य जिम्मेदार था? यदि रामविलास जी कंचुकी के कथन से यह निष्कर्ष निकालते हैं कि जिस हृदयहीन व्यवस्था के तहत राम, सीता को वनवास देते हैं कौशल्या का प्रण उसी व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश है, तो यह असंगत व्याख्या कैसे है? वास्तव में वागीश शुक्ल को सीता परित्याग से लेकर शम्बूक वध तक, सबकुछ औचित्यपूर्ण प्रमाणित करना है और रामविलास की व्याख्या इसमें आड़े आती है. वागीश की विचारधारा को उन लोगों से कोई खतरा नहीं है जो वाल्मीकि, भवभूति अथवा कालिदास के साहित्य को पुराणपंथी समझकर खारिज कर देते हैं, न ही उनसे जिनके लिए वह पूज्य-पवित्र वस्तु है जिसे अंधे होकर ही पढ़ा जा सकता है. रामविलास शर्मा दरअसल उन क्षेत्रों में भी बेधड़क घुस जाते हैं, उन अंतर्विरोधों पर से भी पर्दा हटा देते हैं जिन्हें ढांकने में टीकावादियों को सदियों तक परिश्रम करना पड़ा है. इतना ही नहीं, बल्कि उनका द्वन्द्ववाद इन निषिद्ध क्षेत्रों से भी जो सार्थक है उसे खींच लाता है, हालांकि कभी-कभी अतिरिक्त भी. इसी तरह रामविलास परंपरा का इहलौकीकरण और विवेकीकरण करते हैं और इसीलिए वे वागीश जैसों के लिए खतरनाक भी हैं.
उधर तुलसीराम रामविलास शर्मा के प्रच्छन्न हिन्दुत्व का लम्बा विवेचन करते हुए इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि ‘‘ब्राम्हण होने की मजबूरी से वे (रामविलास) निरन्तर ग्रसित हैं, इसलिए तथ्यों को तोड़ना उनकी वैदिक विरासत है.’’ एक जमाने में हिन्दू धर्मशास्त्र, वैदिक व अन्य संस्कृत ग्रन्थों का पठन-पाठन और उनकी व्याख्या ब्राम्हणों का विशेषाधिकार था. आज एक उलट ब्राम्हणवाद दलितवाद के नाम पर बुद्ध, कबीर, फुले, अम्बेडकर तथा निम्न कही जाने वाली जातियों में पैदा हुए महापुरुषों की विरासत की व्याख्या विशेषाधिकार स्वरूप अपने पास सुरक्षित रखना चाहता है. डा. अम्बेडकर ने ब्राम्हणवाद के गढ़ में घुसकर पवित्र ग्रन्थों की पोल खोलना आजीवन जारी रखा था. ‘शूद्रों की खोज’ नामक ग्रन्थ की प्रस्तावना में उन्होंने लिखा ‘‘यदि यह मान लिया जाए कि शूद्रों का विषय अन्वेषणीय है तो क्या यह पूछा जा सकता है कि मुझको अन्वेषण का अधिकार है या नहीं? कुछ लोगों ने मुझे चेतावनी दी है कि मैं हिंदुओं के इतिहास और विधान में दखल न दूं. क्यों? यदि यह कहा जाय कि मैं संस्कृत का पण्डित नहीं तो मैं मानने को तैयार हूं परन्तु संस्कृत के पण्डित न होने से मैं इस विषय पर लिख क्यों नहीं सकता? संस्कृत का बहुत थोड़ा अंश है जो अंग्रेजी भाषा में उपलब्ध नहीं है.’’ इस उद्धरण को देने की आवश्यकता इसलिए पड़ी क्योंकि ज्ञान के क्षेत्र में विशेषाधिकार को चुनौती देने की जगह अम्बेडकर के बहुत से अनुयायी दलित-श्रमण परंपरा पर किसी भी जन्मना ब्राम्हण के अध्ययन को जन्मजात पूर्वाग्रही घोषित करने में ब्राम्हणवाद को भी मात दे रहे हैं. तुलसीराम जी यदि रामविलास शर्मा की आलोचना इस बात के लिए करते हैं कि वे आर्य-वैदिक-संस्कृत- शास्त्रीय परंपरा से अनार्य-अवैदिक-पालि-प्राकृत-लोक परंपरा को मूलतः परस्पर विरोधी न मानकर एक ही परंपरा की खोज की का द्वंद्वात्मक विकास मानते हैं, तो शायद तुलसीराम जी से सहमत होने वालों की तादाद काफी होगी, ज़ाहिर है की दूसरी परम्परा की खोज की मार्फत नामवर सिंह ने रामविलास जी से यह बहस दशकों पहले ही छेड़ दी थी. लेकिन इस निष्कर्ष तक वे नहीं पहुंचे थे कि रामविलास ने यह सब सचेत रूप से षड्यंत्रपूर्वक ब्राम्हणों के महिमामण्डन, वर्णव्यवस्था के औचित्य स्थापन और हिंदुत्व की श्रेष्ठता को स्थापित करने के लिए किया था. ऐसा नहीं है कि ब्राह्मण षड्यंत्र की इस नवब्राम्हणवादी-दलितवादी सैद्धान्तिकी की मार से दूसरी परंपरा वाले बच गए हों. आखिर कबीर के बहाने धर्मवीर के निशाने पर उसी दूसरी परंपरा के अनुयायी हजारी प्रसाद द्विवेदी ही तो हैं. इसके लिए उनका जन्मना ब्राह्मण होना पर्याप्त था, उनके सारे किए धरे की व्याख्या इस एक तथ्य से हो जाती है. तुलसीराम जी यदि तथ्यात्मक आधार पर रामविलास शर्मा की इस स्थापना को खारिज करते हैं कि अंग्रेजों के शासन काल में वर्णव्यवस्था ज्यादा सुदृढ़ हुई, तो बहुतेरे लोग उनकी बातों के वस्तुपरक विवेचन के लिए प्रस्तुत रहते. लेकिन जब उसी सांस में तुलसीराम जी यह निष्कर्ष निकाल बैठते हैं कि रामविलास जी की निगाह में ‘वर्णव्यवस्था की कट्टरता के लिए ब्राह्मण दोषी नहीं थे’ तब वे पढ़ने वालों को निपट मूर्ख ही मान रहे होते हैं. यदि रामविलास शर्मा जाति प्रथा को सामंतवाद की देन कहते हैं तो तुलसीराम इसमें ब्राह्मणों का दोष सामंतवाद के मत्थे मढ़ने की ब्राह्मणवादी साज़िश देखते हैं . तुलसीराम जी सर्वाधिक प्रसन्न तब होंगे जब वर्ण व्यवस्था ही नहीं बल्कि समूची सृष्टि को ही ब्राम्हणों की साजिश मान लिया जाए. कहना न होगा कि वर्णव्यवस्था संबंधी विवेचन में इतिहास, अर्थव्यवस्था और सत्ता विमर्श के सारे संदर्भों को त्याग करके महज षडयंत्र के सिद्धांत पर आश्रित हो जाने की सलाह अम्बेडकर ने किसी को न दी थी. तुलसीराम अच्छी तरह जानते हैं कि रामविलास के विपुल लेखन में एक भी पंक्ति ऐसी खोज पाना असंभव है जिसमें वर्ण व्यवस्था का समर्थन किया गया हो, उल्टे वर्णव्यवस्था और पुरोहित वर्ग के विरुद्ध सैकड़ों उद्धरण मिल जाएंगे. ऐसे उद्धरण तुलसीराम द्वारा रामविलास को किसी भी तरह से वर्णव्यवस्थावादी सिद्ध करने के मार्ग में भारी बाधा उत्पन्न करते हैं. रामविलास की वर्णव्यवस्था विरोधी, पुरोहितवाद विरोधी स्थापनाओं को भी तुलसीराम जी उनकी कुटिलता मानते हैं. रामविलास की उक्त स्थापनाओं के लम्बे उद्धरण देने की ईमानदारी बरतने के बाद वे कुछ इस शैली में उसकी व्याख्या करते हैं… “वे चाणक्य की शैली के ब्राम्हण हैं तथा उस पर प्रगतिशील. उन्होंने इस बात पर विशेष ध्यान दिया है कि कहीं इस ठप्पे की सुर्ख स्याही पुरोहितों के कमण्डल के गंगाजल से धुल न जाए, वे उनके विरुद्ध कुछ यथार्थ भी उगल देते हैं, वह भी विरोधाभास के साथ.” ‘महाभारत में विश्वामित्र द्वारा चाण्डाल के घर से भूख के कारण कुत्ते का मांस चुराने की घटना का उल्लेख यदि रामविलास जी करते हैं तो वहां भी तुलसीराम जी को षडयंत्र ही नजर आता है. तुलसीराम के अनुसार रामविलास इस घटना का उल्लेख महज इसलिए करते हैं ताकि यह साबित कर सकें कि वर्णव्यवस्था का क्रूर रूप नहीं था. रामविलास शर्मा लिखते हैं- ‘‘पुरोहित वर्ग ने भारतीय संस्कृति के स्रोत ग्रन्थों पर अधिकार किया, सामान्य जनता को उनके अध्ययन से वंचित रखा. वेदों को कर्मकांड का ग्रन्थ बनाकर उन्हें पैसा कमाने का साधन बनाया, समाज में ऊंच-नीच के भेदभाव को स्थाई बनाने के लिए उनका उपयोग किया.’’ रामविलास शर्मा यदि गौतम बुद्ध की विचारधारा को भारत और विश्व के लिए कोसल और मगध के प्राचीन जनपदों की महत्वपूर्ण देन बताते हैं तो इसमें भी तुलसीराम को ‘बौद्धिक धोखाधड़ी’ ही दिखाई पड़ती है, क्योंकि रामविलास इन जनपदों और सभी बौद्ध-स्थलों का संबंध उनके अनुसार ऋग्वेद से जोड़ते हैं. तुलसीराम को यह दुःख है कि गौतम बुद्ध की विचारधारा का श्रेय वे खुद गौतम बुद्ध को न देकर वैदिक जनपदों को देते हैं. तुलसीराम जी की इस महान अर्थमीमांसा पर यदि विश्वास करें तो बुद्ध ही नहीं तमाम महामानवों को किसी जनपद, किसी इतिहास अथवा किसी समाज की पैदाइश न मानकर उन्हें हवा से उत्पन्न स्वयंभू जीव मानना पड़ेगा. आश्चर्य की बात है कि बुद्ध और अम्बेडकर को रामविलास शर्मा जहां भी उद्धृत करते हैं वहां एकाध जगह को छोड़ कर तुलसीराम यह साबित नहीं कर पाते कि उन्होंने गलत उद्धरण दिए हैं. तुलसीराम इन उद्धरणों की अपनी व्याख्या करते हैं और रामविलास शर्मा को इस बात के लिए लताड़ते हैं कि उक्त प्रसंगों की उन्होंने तुलसीराम जैसी व्याख्या क्यों नहीं की जबकि रामविलास के यहां उद्धरण एक तर्कप्रणाली के अंगरूप में आते हैं जिनकी अलग से व्याख्या करने की जरूरत नहीं पड़ती. अम्बेडकर की लिखी ‘शूद्र तथा प्रतिक्रान्ति’ नामक 21 पृष्ठ की पाण्डुलिपि में की गई टिप्पणियों को यदि रामविलास आर्यों के मूलस्थान भारत में होने के अपने निष्कर्ष के समर्थन में उद्धृत करते हैं तो तुलसी राम जी को कोफ़्त होती है. वे अम्बेडकर की लिखी बातों को काट नहीं सकते, इसलिए सलाह देते हैं कि चूंकि आर्यों के मूलस्थान संबंधी प्रश्न अम्बेडकर की चिंता का केन्द्रीय प्रश्न नहीं था लिहाजा इस संदर्भ में अंबेडकर को उद्धृत करना ही रामविलास की धूर्तता है. आर्य कोई नस्ल नहीं थे बल्कि जनसमुदाय थे तथा आर्यों तथा दस्युओं का भेद नस्ल का न होकर आचार और संस्कृति का था- ऐसी बातें अम्बेडकर के लेखन से जब रामविलास जी निकालते हैं तो तुलसीराम के क्रोध की कोई सीमा नहीं रहती. ऐसे उद्धरणों को वे अम्बेडकर वाड्मय से तो निकलवा नहीं सकते लिहाजा रामविलास के साथ गाली-गलौज करना ही उनके लिए सुविधाजनक पड़ता है. आर्य कोई नस्ल नहीं थे- इस धारणा का जो उद्धरण रामविलास जी अम्बेडकर के हवाले से देते हैं कि उक्त बातें अम्बेडकर की न होकर सातवलेकर की हैं जिसके बारे में फुटनोट में अम्बेडकर ने इंगित करते हुए कहा है कि पूर्ण जानकारी के लिए सातवलेकर द्वारा की गई प्रतिभाशाली बहस को देखें. महत्वपूर्ण यह है कि अम्बेडकर यहां सातवलेकर से कोई असहमति व्यक्त नहीं करते बल्कि उक्त बहस को प्रतिभाशाली भी कहते हैं और तुलसीराम द्वारा तकनीकी मुद्दा उठाए जाने के बावजूद यह तथ्य रह जाता है कि आर्यों के नस्ल न होने की बात को अम्बेडकर विचारणीय मानकर अपने चिन्तन में स्थान देते हैं. तुलसीराम को यदि यह बात गलत लगती है तो उसे रामविलास की बौद्धिक धोखाधड़ी बताने की जगह बेहतर यह होता कि वे यह कहने का साहस जुटा पाते कि ‘यदि अम्बेडकर ने कहा है, तो भी गलत है’. आर्यों को नस्ल सिद्ध करने की हताश कोशिश में वे ‘रिडल्स आफ हिंदुइज्म’ से एक-दो वाक्य बड़ी मेहनत से निकालकर लाते हैं जहां अम्बेडकर ने आर्यों को नस्ल कहकर संबोधित किया है. संघ परिवार के कुत्सा अभियान की चिन्ता से दुबले हो रहे तुलसीराम यहां आसानी से भूल जाते हैं कि आर्यों को नस्ल साबित करना हर तरह के फासिस्टों और संघ परिवार के लिए जीवन-मरण का प्रश्न है. तुलसीराम के मनोगतवाद के सामने ऐतिहासिक तथ्यात्मकता और वस्तुपरक कथन साजिश मात्र हैं. कबीर साहित्य के प्रभूत अंतःसाक्ष्य यदि उन पर वैष्णव और वेदान्ती प्रभाव सूचित करते हैं तो यह अपराध कबीर का ही हो सकता है न कि उनके अध्येताओं का. लेकिन यहां भी तुलसीराम की जिद है कि कबीर खुद चाहे जो कहें, रामविलास को उन पर प्रत्यक्ष बौद्ध प्रभाव दिखलाना चाहिए था और ऐसा न करके उन्होंने ब्राम्हणवादी होने का परिचय दिया. यदि थोड़ी सी ऐतिहासिक चेतना का स्पर्श तुलसीराम जी को मिला होता तो खुद वेदांत और वैष्णव अहिंसा पर बौद्ध प्रभाव दिखलाकर वे कबीर को दूसरी परंपरा में अवस्थित कर सकते थे. डा. अम्बेडकर द्वारा बौद्ध धर्म ग्रहण करने के लिए धर्मपरिवर्तन शब्द का इस्तेमाल करने पर तुलसीराम बिगड़ खड़े होते हैं और तर्क देते हैं कि चूंकि बौद्ध धर्म भारतीय है, अतः इसे धर्म परिवर्तन नहीं कहा जा सकता. बौद्दिक उन्माद में वे भूल जाते हैं कि संघ परिवार भी ठीक यही कहता है तथा इसाइयत और इस्लाम की अभारतीयता को ही आधार बनाकर धर्म परिवर्तन के मुद्दे पर कुत्सा अभियान संचालित करता है. दूसरी ओर भारतीयता के तर्क से संघ परिवार बौद्ध धर्म को हिंदुत्व के भीतर ही अंतर्भुक्त कर लेता है. तुलसीराम को पुण्यभूमि और पितृभूमि वाली सावरकर की अवधारणाओं को याद कर लेना चाहिए था. अभी हाल ही में श्री रामराज द्वारा दलितों को सामूहिक तौर पर बौद्ध धर्म में दीक्षित करने के लिए दिल्ली में एक विराट सम्मेलन आयोजित किया गया था. शुरू में बौद्ध धर्म की भारतीयता के तर्क से संघ परिवार ने इसका कोई विरोध नहीं किया लेकिन जैसे ही उन्हें पता चला कि उस सम्मेलन को ईसाई मिशनरी भी संबोधित करेंगे, उन्होंने भारी हंगामा मचाकर इसे प्रतिबंधित करा दिया.
निष्कर्षतः तुलसीराम जी चले तो थे रामविलास के प्रच्छन्न हिंदुत्व और ब्राह्मणवाद की पोल खोलने लेकिन कुल मिलाकर उनकी द्वन्द्ववादी ऐतिहासिक पद्धति पर ही अनवरत प्रहार करते-करते अपने ही असमाधेय अंतर्विरोधों में फंसे दिखाई देते हैं.
पूरन चंद्र जोशी मार्क्सवादी विमर्श में गांधी का बड़े पैमाने पर, कहना चाहिए कि लगभग विचारधारा के स्तर पर पुनर्वास चाहते हैं. रामविलास जी की सन् 2000 में प्रकाशित पुस्तक ‘गांधी, अम्बेडकर, लोहिया और भारतीय इतिहास की समस्याएं’ में रामविलास शर्मा की कोशिश है कि इन तीनों की विरासत के प्रगतिशील तत्वों को मार्क्सवादी विमर्श में अपना लिया जाए. रामविलास जी गांधी की क्रांतिकारी विरासत का दावेदार मजदूर वर्ग के दलों को बताते हैं. जोशी जी यह कहते है कि दशकों से चले आ रहे गांधी के बारे में मार्क्सवादियों के मूल्यांकन के बारे में उल्लेख किए बगैर रामविलास जी ने मार्क्सवादी विवेचन द्वारा गांधी के बारे में संशोधन किया है. बेहतर होता कि मार्क्सवादियों द्वारा गांधी के मूल्यांकन की लम्बी परंपरा में जोशी जी स्वयं उतरते और खुद रामविलास जी द्वारा अतीत में गांधी के प्रति रुख का भी विवेचन करते. ऐसा करने से ही वास्तव में उन परिस्थितयों पर प्रकाश पड़ता जिनके कारण 90 के दशक में गांधी-गांधी की गुहार वामपंथी हलकों में भी जोर-शोर से सुनाई देने लगी. वास्तव में गांधी-वध के लिए उत्तरदायी सांप्रदायिक विचारधारा और राजनीति के तेजी से बढ़ने के चलते ही सेक्युलर राजनीति के लिए गांधी की प्रासंगिकता बढ़ गई. गांधी के साथ-साथ लोहिया और अम्बेडकर पर रामविलास जी ने समसामयिक राजनीति के इन्हीं दबावों के चलते ही विचार किया है क्योंकि साम्प्रदायिकता विरोधी राजनीति के विपक्ष में लोहिया और अम्बेडकर को मानने वाले दल ही हिन्दी क्षेत्र में अगुवाई कर रहे थे. राजनीति में संयुक्त मोर्चा स्थापित करने और निकट अतीत को बेहतर ढंग से समझने के लिए अवश्य ही गांधी, अम्बेडकर, लोहिया की विरासत मार्क्सवादियों के लिए विचारणीय है. लेकिन विचारधारा एक ही होती है और उसमें समझौते नहीं होते. रामविलास जी यदि गांधी के पूर्व मूल्यांकनों पर खामोश हैं तो कहीं न कहीं वे जानते हैं कि इनमें सत्य का अंश भी था. इसलिए वे यह कहना नहीं भूलते कि लोग जिसे गांधीवाद कहते हैं वह गांधी जी के चिंतन का बहुत छोटा सा हिस्सा है और उसके बाहर बहुत कुछ है जो मूल्यवान है. पूरन चंद्र जोशी की तरह रामविलास जी को मार्क्सवादियों द्वारा गांधीवाद के पिछले मूल्यांकनों से यह शिकायत नहीं है कि वे गलत थे, बल्कि शिकायत यह है कि गांधी में इससे इतर बहुत कुछ था, जो मूल्यवान है और जिस पर उनका ध्यान नहीं गया. इसी कारण जोशी जी की तरह से गांधी के मूल्यांकन में मार्क्सवादियों की कथित ‘हिमालयी भूलों’ को सही कर देने का वैसा विसर्जनवादी उत्साह रामविलास में नहीं दिखता. इसीलिए जोशी जी को यह स्वीकार करना पड़ा है कि रामविलास जी के गांधी-मूल्यांकन मे भी अपूर्णता रह गई है, जिसका संशोधन वे नेल्सन मंडेला, हो ची मिन्ह आदि के उद्धरणों से करते हैं. जोशी जी की गांधी-व्यग्रता हिंदी क्षेत्र में वामपंथ की उसी कमजोरी, पिछलग्गूपन और वर्गसहयोग का परिणाम है जिसके खिलाफ रामविलास ने अन्तिम दशक में भी बहुत कुछ कहा है. वास्तव में रामविलास की गांधी-समीक्षा परंपरा के मूल्यांकन का वैसा ही प्रयास है जैसा वे जीवन भर करते रहे और प्रायः अतिरेकपूर्ण ढंग से, जिसके चलते ही उनके अनुयायियों और विरोधियों दोनों के लिए उनका अन्यथाकरण सुलभ रहा.
रामविलास शर्मा के ‘लोहिया कांड’पर प्रकाश डालने वाले गिरीश मिश्र का भी अपना एजेंडा है. यदि राजनीतिक रूप से सजग पाठ न किया जाए तो यह समझना ही मुश्किल हो जाएगा कि लोहिया के बारे में रामविलास के मूल्यांकन से उनका विरोध कहां और क्यों है. लोहिया के चिंतन का एक बड़ा भाग संघ परिवार को मजबूत करता है, लोहिया ने भूमिसुधारों के लिए संघर्ष नहीं किया, लोहिया अराजकतावादी थे तथा ब्राम्हणवाद विरोध को मुख्य लक्ष्य बनाकर लोहिया ने साम्राज्यवाद और सामंतवाद विरोधी लड़ाई को रोका- रामविलास जी की इन सभी बातों से गिरीश मिश्र जी सहमत हैं. सवाल यह है कि उनकी असहमति कहां है? दरअसल रामविलास से यह बहस संचालित करने के भीतर कार्यनीतिक लाइन की एक अहम बहस संचालित करने के लिए लोहिया के बहाने की क्या जरूरत आन पड़ी. गिरीश मिश्र ने इन शब्दों में अपने अभीष्ठ का खुलासा किया है- ‘‘रामविलास शर्मा भाकपा में उस धारा के साथ थे जो कांग्रेस और साम्राज्यवाद दोनों से लड़ने की बात कहती रही. इसलिए जब लोहिया गैरकांग्रेसवाद को लेकर चलते हैं और पिछड़ी जातियों के नवधनाढ्यों के ऊपर आधारित अपनी नई पार्टी बनाते हैं तथा अंग्रेजी हटाओ, मूर्ति तोड़ो, और पिछड़ी जातियों के लिए नौकरियों में 60 प्रतिशत आरक्षण की बात करते हैं तो रामविलास जी का उनकी ओर आकर्षित होना स्वाभाविक है, मंडल का क्षणिक तूफान उन्हंन अभिभूत कर देता है जैसे ‘सम्पूर्ण क्रांति’ ने अनेक प्रगतिशील बुद्धिजीवियों के पैर उखाड़ दिए. उनका कांग्रेस विरोध जागा. चलो कांग्रेस गई अच्छा हुआ, मगर वे नहीं सोचते कि कौन आया उनकी जगह, और जो आया वह कहां ले जा रहा है देश को’’. कहना न होगा कि रामविलास के कांग्रेसविरोध से चिढ़कर उसे लोहिया के गैर-कांग्रेसवाद का समानार्थी सिद्ध करने के लिए गिरीश मिश्र ने रामविलास का बड़ा ही श्रमसाध्य अन्यथाकरण किया है. गिरीश मिश्र के कथन के उलट रामविलास ने बारंबार पिछड़ी जाति की नवधनाढ्य राजनीति पर चोट की है. आरक्षण और मंडल कमीशन का समर्थन न करने के लिए तथा वर्ग और जाति के अन्तर्संबंधों के बारे में सरलीकृत ढंग से सोचने के लिए उनकी आलोचना भी होती रही है. लेकिन गिरीश जी के लिए इन तथ्यों का कोई महत्व नहीं है क्योंकि उन्हें वामपंथ के कांग्रेस-मोह का औचित्य सिद्ध करना जरूरी है. आइए देखें कि वास्तव में रामविलास पिछड़ी जाति की नवधनाढ्य राजनीति, मंडल कमीशन आदि के बारे में क्या राय व्यक्त करते हैं, ” मंडल कमीशन ने जो रिपोर्ट बनाई, उसमें कुछ सामग्री टाटा इंस्टीट्यूट के शोधकर्ताओं की दी हुई थी. कमीशन ने इन शोधकर्ताओं को यह समस्या दी थी कि आरक्षण का इतना विरोध तमिलनाडु में नहीं हुआ जितना उत्तर भारत में, इसका कारण क्या है? तो उन्होंने एक बहुत खोजपूर्ण बात कही कि पिछड़ी जातियों के लोग ज्यादातर हरिजनों का शोषण करने वाले लोग हैं. इनमें ज्यादातर धनी किसान हैं. ये हरिजनों से बेगार कराते हैं. पुराने तरीकों से उनसे काम लेना चाहते हैं. और वे जब काम नहीं करते तो उन्हें मारते-पीटते हैं, उन्हें जिन्दा जला देते हैं. ये जो आए दिन अछूतों की कहानियां, सुनने को मिलती हैं- बलात्कार वगैरह की या जिन्दा जलाकर मार डालने की कहानियां तो ये अत्याचार करने वाले कौन हैं? ये ज्यादातर धनी किसान हैं जो उनकी मेहनत से फायदा तो उठाना चाहते हैं लेकिन उन्हें पगार नहीं देना चाहते.’’ (आज के सवाल और मार्क्सवाद पृष्ठ-179) रामविलास आगे कहते हैं ‘‘बहुत से लोग जो सामाजिक न्याय की बात करते हैं, धनी किसानों के वर्ग से आते हैं और उनका स्वार्थ इस बात में हैं कि जाति बिरादरी के नाम पर गरीब किसानों और खेत मजदूरों को विभाजित रखा जाए, इनमें एकता कायम न हो.’(वही, पृष्ठ 181)
रहा कांग्रेस के बारे में वामपंथ के रुख का सवाल तो रामविलास न तो अंधकांग्रेस विरोधी हैं और न ही कांग्रेस-भाजपा के प्रति समान दूरी के पैरोकार. रवींद्र त्रिपाठी को दिए एक साक्षात्कार में वे कहते हैं- ‘‘देश की राजनीति में दो ताकतवर सिद्धांत हैं. एक है कांग्रेस और भाजपा को समान शत्रु समझने का और दूसरा है कांग्रेस को मुख्य शत्रु मानकर भाजपा के पास जाने का. डा. लोहिया ने हिंदू धर्म और संस्कृति पर जो कुछ लिखा है, उसका निष्कर्ष यह है कि कांग्रेस को हराने के लिए परोक्ष रूप से साम्राज्यवाद और प्रत्यक्ष रूप से संप्रदायवाद का समर्थन करता है. इसी नीति का अनुकरण करते हुए जार्ज फर्नांडीज वहीं पहुंच गए जहां उन्हें पहुंचना चाहिए था और मुलायम यादव सचेत न रहे तो वे भी उसी मुकाम पर पहुंचेंगे.’’ (वही, पृष्ठ 260-61) उपरोक्त उद्धरणों के आलोक में गिरीश मिश्र की स्थापनाएं और भी अबूझ मालूम देती हैं. रामविलास संभवतः कांग्रेस को वैसी ‘क्लीन चिट’ नहीं देना चाहते जैसी बहुत से वामपंथियों को दरकार है, लेकिन आमतौर पर उनकी धारणा मुख्यधारा की कम्युनिस्ट पार्टियों विशेषकर सी.पी.एम. के कांगेस के प्रति रुख से नजदीक है. आइए देखें कि रामविलास इस बाबत क्या राय रखते हैं- ‘‘कांग्रेस मूलतः औद्योगिक पूंजीवाद की प्रतिनिधि है. यह देश का आर्थिक विकास चाहती है और उसके लिए बड़े पूंजीवादी देशों से आर्थिक सहायता भी लेना चाहती है. उसकी आर्थिक परनिर्भरता का पक्ष है. पहला पक्ष विदेशी पूंजी के विरोध का है और देश के लिए आर्थिक आत्मनिर्भरता चाहता है. दूसरा पक्ष विदेशी पूंजी से समझौता करने का पक्षधर है. यह आर्थिक परनिर्भरता का पक्ष है. कम्युनिस्ट पार्टियों को चाहिए कि कांग्रेस के पहले पक्ष को समर्थन दें और दूसरे पक्ष का विरोध करें… जिस तरह कांग्रेस कभी-कभार सांप्रदायिक ताकतों के साथ समझौता करती है पर वह मूलतः सांप्रदायिक पार्टी नहीं है. जिस तरह कांग्रेस कभी कभार साम्राज्यवाद से और कभी-कभार सामंतवाद से समझौता करती है उसी तरह कभी-कभार सांप्रदायिकता से.’(वही, पृष्ठ 259-60) कांग्रेस संबंधी रामविलास जी के मूल्यांकन की समीक्षा का यह अवसर नहीं है, लेकिन कम से कम वे इतना सब कुछ तो नहीं मानते जो गिरीश उनसे मनवाना चाहते हैं.
रामविलास जी के मूल्यांकन में भले ही दृष्टिकोण की अनेकान्तता और सारसंग्रहवाद आलोचना के रामविलास अंक में दिखाई देता हो लेकिन केन्द्रीय बात भी एक है- वह है उनका इतिहास लेखन और परंपरा का मूल्यांकन, जिसके आधार पर उनके उद्देश्यों को संदिग्ध बताया गया है. यह मानने में शायद बहुत आपत्ति नहीं है कि वे न तो पेशेवर इतिहासकार हैं और न ही इतिहासलेखन की अद्यतन प्रविधियों का वे इस्तेमाल ही करते हैं. देखना यह होगा कि जिन भी प्रविधियों का इस्तेमाल वे कर रहे हैं उनके पीछे की राजनीति क्या है. जैसा कि इस आलेख के आरंभ में ही उद्धृत किया गया, वे इस मामले में निर्भ्रांत हैं कि साम्राज्यवाद की शह के बगैर हिन्दुत्व की राजनीति और फासीवाद का उभार देश में संभव नहीं है, उनका मूल प्रस्थान बिंदु साम्राज्यवाद से बौद्धिक मोर्चे पर लड़ते हुए भारतीय इतिहास और परंपरा के उपनिवेशवादी भाष्य को ध्वस्त करना है. ‘इतिहास दर्शन’ नाम की पुस्तक के प्रथम अध्याय में वे अपने मूल प्रस्थान बिंदु को इन शब्दों में व्यक्त करते हैं- ‘‘भारत, पश्चिम एशिया और योरप के भाषाई और सांस्कृतिक इतिहास को समझने में सबसे बड़ी बाधा भारत पर आर्यों के आक्रमण का अवैज्ञानिक सिद्धांत है, यह सिद्धांत उस ऐतिहासिक भाषा विज्ञान की देन है जिसका विकास उन्नीसवीं सदी में योरोपियन जातियों के साम्राज्यवादी प्रसार के दौर में हुआ था… योरप की हमलावर जातियों ने उत्तरी, मध्य और दक्षिणी अमरीका की विकसित संस्कृतियों का नाश किया, मूल निवासियों का सामुदायिक संहार करके उनकी भूमि छीन ली, उस पर स्वयं बस गए, बचे हुए आदिवासियों को जंगलों और पहाड़ों में खदेड़ दिया. अपने कारनामों का यह नक्शा उन्होंने प्राचीन भारत के इतिहास पर चिपका दिया.’
जाहिर है कि उपरोक्त कथन में रामविलास जी की राजनीति स्पष्ट है. सवाल यह नहीं है कि रामविलास जी आर्य-वैदिक इतिहास के विषय में जो कुछ भी स्थापित करते हैं, वह कितना वैज्ञानिक है, बल्कि मुख्य बात यह है कि उपरोक्त प्रस्तावना में उन्होंने अपनी राजनीति और अपने पूर्वाग्रहों को जिस प्रकार व्यक्त किया है,उन्हें क्या किसी भी तरह से समकालीन हिन्दुत्ववादी फासीवादी राजनीति से संबद्ध किया जा सकता है? क्या जैसा कि इस लेख के आरंभ में ही कहा गया कि आर्यों की नस्लीय श्रेष्ठता, रक्तशुद्धता और विश्वविजेता आक्रान्ता छवि का निषेध किसी भी तरह से संघ परिवार बर्दाश्त कर पाएगा? क्या रामविलास का बहुजातीय बहुधर्मी, बहुभाषीय भारत कहीं से भी हिन्दुत्व के अभियान का सहयोगी हो सकता है? यों तो संघ परिवार भी कथित रूप से विदेशियों द्वारा अपने देश के इतिहास के विरूपण से देशवासियों को बचा ले जाने के लिए पाठ्यक्रम बदल रहा है लेकिन यहां विदेशियों में मध्यकाल के मुस्लिम इतिहासकार ही नहीं, बल्कि इतिहासपुरुष भी शामिल हैं. क्या संघ परिवार रामविलास द्वारा मध्यकाल को गुलामी का काल मानने से इन्कार करने से सहमत होगा?
जिस मध्यकाल में संघ वालों को मंदिर ध्वंस और मां-बहनों के अपमान के शिवा शायद ही कुछ सकारात्मक दिखता हो, वहां सही या गलत जातीय विकास और राजसत्ता के हस्तक्षेप से व्यापारिक पूंजीवाद की उन्नति देखने वाले रामविलास का क्या मेल हो सकता है? हिंदुत्व के पुनरुत्थान के हथियार के बतौर सभी भाषाओं की जननी के रूप में संस्कृत का इस्तेमाल इन दिनों संघ परिवार द्वारा जोर-शोर से जारी है. क्या ऐसे में यह याद कर लेना अप्रासंगिक होगा कि आद्य भाषा, जननी भाषा या मूल भाषा की अवधारणा को निरस्त करना भी रामविलास शर्मा ने अपना कार्यभार समझा था और अपने जीवन के अमूल्य डेढ़ दशक यों ही सर्फ नहीं कर दिए थे ?
बुनियादपरस्ती या मूलतत्ववाद जाहिरा तौर पर धार्मिक संदर्भों में ही अर्थवान प्रत्यय हैं. रामविलास शर्मा ने न तो सृष्टि का आरंभ आर्यों से माना है और न ही भाषा का आरंभ संस्कृत से. रामविलास शर्मा के इतिहास चिंतन और परंपरा के बोध में एक ही मूल का पल्लवन दिखलाकर उसे धार्मिक अभियान की तरह प्रस्तुत करना निःसंदेह एक भयानक अन्यथाकरण है, जो सही ढंग की पालिमिक्स के आगे ताश के महल की तरह ढह जाएगा. इतना ही याद कर लेना पर्याप्त होगा कि अनेक कबीलों द्वारा अनेक स्रोतों से प्राप्त भाषातत्व गणसमाज में जाकर स्थिरता प्राप्त करते हैं, आर्य और द्रविड़ समुदाय के भाषिक तत्व मूलतः किस समुदाय के हैं, यह तय करना मुश्किल है आदि बातें रामविलास के भाषा चिंतन के केन्द्र में है. भारतीय इतिहास में हजारों साल से जारी नृवंशीय, धार्मिक, सांस्कृतिक, तकनीकी सम्मिश्रण और संकरता का रामविलास ने कहां तिरस्कार किया है, यह बताए बगैर उन्हें मूलतत्ववादी कहकर किसी को निकल जाने नहीं दिया जा सकता. यदि एक ही आर्य-वैदिक मूल का पल्लवन ही उनका उद्देश्य होता तो मध्यकाल तो क्या, प्राचीन भारत का भी एक बड़ा हिस्सा उनके लिए अस्पृश्य हो जाता. क्या राष्ट्रीय अस्मिता या भारतीयता के संदर्भ में कहीं भी रामविलास शर्मा ने एक भाषा, एक धर्म, एक नस्ल के सिद्धांत को मान्यता दी? यदि नहीं, तो उनके मूलतत्ववाद का मूल तत्व क्या है?
रामविलास शर्मा की निःसंदेह एक राजनीति है और उसके पूर्वाग्रह भी हैं. पराधीन भारत में पैदा हुए पहली पीढ़ी के एक देशज मार्क्सवादी की राजनीति और उसके पूर्वाग्रहों को जिन ऐतिहासिक परिस्थितियों ने निर्मित किया था, उन पर एक निगाह डाल लेना उन तमाम सरलीकरणों और अन्यथाकरणों से रामविलास के आलोचकों को बचा ले जाता जो अकादमिक हलकों के नित नए फैशनों से उत्पन्न होती है.
रामविलास शर्मा के इतिहास लेखन के राजनीतिक उद्देश्यों और उनके द्वारा इस्तेमाल किए गए उपकरणों को समझने के लिए 19वीं शताब्दी के आखीर और बीसवीं शताब्दी के पहले चार दशकों तक भारतीय इतिहास-लेखन के संदर्भों को समझना जरूरी है. भारतीय इतिहास-लेखन की मूल प्रेरणा इन दिनों भारतीय अस्मिता का रचनात्मक निर्माण था जिसके लिए इतिहास और साहित्य दोनों ही अनुशासन एक दूसरे से वर्चस्व की लड़ाई में भी उलझे रहे थे साथ ही एक दूसरे की पद्धतियों को भी अपना लिया करते थे. इस दौर के इतिहास लेखन की प्रेरणा को यदि सुदीप्तो कविराज के शब्दों में कहा जाए तो ‘‘किसी जाति की आत्मछवि या अस्मिता का बुनियादी कार्य है उस जाति द्वारा स्वयं को एक इतिहास देना’’. इन दिनों भारत के प्राचीन अतीत के आविष्कार का मुख्य उद्देश्य उस औपनिवेशिक तर्कपद्धति का मुकाबला करना था जिसके अनुसार भारत राष्ट्रीयता के बोध से रहित कुछ ही समय पूर्व अस्तित्व में आया महज एक भौगोलिक क्षेत्र था. रामविलास शर्मा ने प्राच्यवादियों की तरह प्राचीन भारत का आध्यात्मीकरण नहीं, बल्कि इहलौकिकीकरण किया है. प्राचीन वैदिक गण समाजों के अध्ययन की उनकी पद्धति एंगेल्स के माडल पर आधारित है किसी प्राच्यविद के माडल पर नहीं. यहां यह भी याद कर लेना प्रासंगिक होगा कि पूरी दुनिया में 19वीं सदी तक इतिहास-लेखन अभी भी पद्धतियों, उद्देश्यों और मानकों के लिहाज से वैविध्यपूर्ण बना हुआ था.
एक ओर विश्वविद्यालय आधारित, अभिलेख-केन्द्रित, पेशेवर और आधुनिक अकादमिक अनुशासन के रूप में इतिहास की संकल्पना विकसित हो रही थी जहां प्राथमिक स्त्रोतों के गहन अनुसंधान के द्वारा निष्पक्ष और निस्संग तरीकों से ऐतिहासिक सत्य का उद्घाटन इतिहासकार का दायित्व समझा गया, वहीं दूसरी ओर इतिहास के प्रवाह को अमूर्त दार्शनिक चिंतन की तरह समझने की एक धारा जर्मनी में चल रही थी. फ्रांसीसी क्रांति से उत्पन्न एक रूमानी और राष्ट्रीयतावादी रुझान के साथ इतिहास की एक तीसरी धारा बेहद प्रचलित थी. इस धारा का एक नमूना टी.बी. मैकाले का ‘इंग्लैण्ड का इतिहास’ था, जो उपनिवेशों में नियमित तौर पर पाठ्यपुस्तक के रूप में पढ़ाया जाता था. बेनेडिक्ट एंडरसन ने ‘साम्राज्यवादी सरकारी राष्ट्रवाद’ की उस विडंबना को उचित ही रेखांकित किया है, जिसके तहत उनके द्वारा योरोपीय श्रेष्ठता और प्राच्य असभ्यता के आख्यान पर आधारित इतिहासों ने उपनिवेशों के पराधीन लोगों की चेतना पर गहरा असर डाला. नतीजे में पराधीन देशों में इसी माडल पर अपने-अपने राष्ट्रीय इतिहास विकसित हुए जो मिल और मैकाले की योरोपीय श्रेष्ठता और प्राच्य असभ्यता की थीसिस के विरुद्ध राष्ट्रीय आत्मगौरव से परिचालित थे. कहना न होगा कि भारत में भी यही प्रक्रिया चल रही थी. यह ऐसा दौर था जिसमें एक ओर जदुनाथ सरकार, मो. हबीब, गौरीशंकर हीरानंद ओझा आदि पेशेवर इतिहासकार पत्र-पत्रिकाओं में लिख रहे थे, वहीं दूसरी ओर बड़े पैमाने पर भारत के गौरवशाली अतीत के पुननिर्माण से प्रेरित साहित्यिक लोग इतिहास के विषयों पर लोकप्रिय ढंग से लिखा करते थे. इंडियन एंटिक्वेरी, एशियाटिक रिसर्चेज, जर्नल आफ दि एशियाटिक सोसाइटी आफ बंगाल जैसी नामी-गिरामी शोध पत्रिकाओं में प्रकाशित लेखों से लेकर रामायण, महाभारत, हर्षचरित, राजतरंगिणी तक को न केवल साहित्यिक लोगों द्वारा बल्कि ओझा जी जैसे इतिहासकारों द्वारा भी इतिहास का स्त्रोत ही नहीं बल्कि स्वयं इतिहास मान लिया जाता था. औपनिवेशिक इतिहास लेखन के विरुद्ध भारत के महानीकरण पर आधारित पेशेवर इतिहासकारों द्वारा और साथ-साथ साहित्यकारों द्वारा लोकप्रिय इतिहासलेखन 20वीं शताब्दी के चौथे दशक तक जारी रहा. यहां एक अनुशासन के रूप में इतिहास का अर्थ ही था जाति की राष्ट्रीयता को फिर से प्राप्त करना. इतिहास का ऐसा ही उपयोग भारतेन्दु से लेकर प्रसाद के नाटकों तथा वृन्दावन लाल वर्मा के उपन्यासों तक में देखा जा सकता है.
रामविलास शर्मा का इतिहास लेखन एक ऐसा क्षेत्र है जहां 19वीं शती में विकसित रूमानी और राष्ट्रवादी चेतना तथा अध्ययन संस्कार और बाद के दौर में विकसित ऐतिहासिक-भौतिकवादी-द्वन्द्ववादी मार्क्सवादी इतिहासदृष्टि सतत संघर्षरत है. यह संघर्ष उनके इतिहास-लेखन के उद्देश्यों, मानकों, प्रविधियों सभी स्तरों पर देखा जा सकता है उनके इतिहास-लेखन की पद्धति पर उस High Textualism का प्रभाव स्पष्ट है जो उस समय प्रकाशित होने वाले इंडियन एंटिक्वेरी आदि शोध पत्रिकाओं में लिखने वाले भारतविदों और प्राच्यवादियों द्वारा अपनाई जाती थी. आमतौर पर वेद, उपनिषद, महाकाव्य आदि संस्कृत स्रोतों का विश्लेषण होता था. जहां कहीं लोक(Folk) और जनजातीय(Tribal) परंपराओं का विश्लेषण होता था, वहां भी उच्च सांस्कृतिक परम्परा का निर्माण ही अभीष्ट था. भारतविद्या और प्राच्यविद्या में भारत का महानीकरण और प्राच्य समाजों की असभ्यता और बर्बरता की परस्पर विरोधी अवधारणाएं संघर्षरत दिखती हैं जो अक्सर इंग्लैंण्ड की कंजरवेटिव और लिबरल धाराओं की राजनीतिक प्रतिस्पर्धा से भी प्रभावित होती थीं. इतिहास चिंतन की मूलपाठ के विश्लेषण की परंपरा का गहरा संबंध 19वीं शती के उस राष्ट्रवादी विमर्श से है जिसमें एक भाषा, एक धर्म और एक संस्कृति की के रूप में राष्ट्र की संकल्पना की जाती थी. इस राष्ट्रवाद की एक धारा जो जर्मनी में विकसित हुई उसमें आर्य नस्ल की श्रेष्ठता का केन्द्रीय महत्व है. इंग्लैण्ड में विकसित राष्ट्रवाद की दूसरी धारा लोकतांत्रिक मूल्यों, मैग्नाकार्टा, संसदीय लोकतंत्र और प्रजातांत्रिक संस्कृति को राष्ट्रीय गौरव का मुख्य आधार बनाती है. अमरीका वगैरह में योरोपीय आप्रवासियों द्वारा विकसित क्रियोल राष्ट्रवाद की एक तीसरी धारा भी थी. दुनिया भर में राष्ट्रवाद का विकास इन्हीं तीन धाराओं के आपसी संक्रमण से निर्मित बताया जाता है.
जैसा कि ऊपर कहा गया, रामविलास शर्मा की ऐतिहासिक पद्धति पर High Texualism का गहरा असर है जिसका संबंध भारतविद्या और प्राच्यविद्या से स्पष्ट है. इन्हीं पूर्वाग्रहों के चलते वे एक इतिहासकार की अपेक्षतया निष्पक्ष पेशेवराना दृष्टि नहीं अपना पाते. अपने इतिहास-चिंतन में साम्राज्यवाद से निपटने के उत्साह में वे विरासत में मिले प्राच्यवादी संस्कारों से निपटे बगैर ऐतिहासिक भौतिकवादी-द्वन्द्ववादी पद्धति (जो उन्होंने अपने लिए अर्जित की थी) का उपयोग करते हैं. इन्हीं की टकराहटों में उनके इतिहासबोध, परंपरा का मूल्यांकन और यहां तक कि आलोचना दृष्टि का भी निर्माण हुआ है. वर्गीय विश्लेषण के ऊपर जातीय निर्माण की प्रक्रिया को भक्तिकाल और नवजागरण के प्रसंगों में तरजीह देना, उनके उसी साम्राज्यवाद-विरोधी पूर्वाग्रह का परिणाम है जहां पद्धति निष्कर्षों से प्रभावित होती है न कि निष्कर्ष पद्धति से.
उनका मार्क्सवाद चाहे जितना मोटा हो और चाहे जितने बड़े सामान्यीकरणों को जन्म देता हो, उनके इतिहासलेखन का माडल वही है, पद्धतिगत विरासत के बावजूद, प्राच्यवाद उनका मूल्यबोध नहीं है. मूलभाषा या जननीभाषा की अवधारणा का खंडन, संस्कृत की जगह जन भाषाओं पर अधिक बल, बहुजातीय-बहुधर्मी-बहुभाषिक राष्ट्र का माडल ऐसे ही तत्व हैं. 19वीं और 20वीं शताब्दी के गैर-पेशेवर लोकप्रिय इतिहास-लेखन और पेशेवर कहे जाने वाले राष्ट्रवादी इतिहास लेखन, दोनों में प्राचीन भारत के गौरवशाली अतीत के निर्माण के साथ-साथ भारत की गुलामी और नैतिक, सामाजिक, आर्थिक सभी प्रकार के अधःपतन के लिए मुस्लिम मध्यकाल को जिम्मेदार ठहराया गया है. प्राच्यवादी राजनीति का माडल इतिहास बोध यही है. गौरीशंकर ओझा, पं. सुंदर लाल से लेकर आर.सी. मजूमदार जैसे पेशेवर इतिहासकार और भारतेन्दु से लेकर चतुरसेन शास्त्री जैसे इतिहास का उपयोग करने वाले जैसे साहित्यकार इसी इतिहास चेतना से संचालित हैं. यह ऐतिहासिक भौतिकवाद ही है जो रामविलास शर्मा को इस इतिहास बोध के खिलाफ प्रखरता के साथ खड़ा करता है. मूलतः साहित्य के क्षेत्र के ऐसे लोग जो इतिहास के घालमेल से इतिहास और मिथक की विभाजनरेखा को धूमिल कर देते थे, ऐसे ही लोगों ने (न कि अकादमिक पेशेवर इतिहासकारों ने ) हिन्दी पाठक समुदाय के इतिहासबोध को को गढ़ा है. रामविलास शर्मा साहित्यिक क्षेत्र के पहले व्यक्ति हैं जिन्होंने इस परिघटना को समझा और अपने इतिहासलेखन को स्पष्टतः साहित्य से अलगाया. मुस्लिम द्वेष और प्राच्यवादियों को भारत के गौरवशाली अतीत उपलब्ध कराने का श्रेय देने और कृतज्ञता ज्ञापन पर आधारित इतिहासबोध, जो प्रधानतः साहित्य के माध्यम से हिंदी समुदाय का कामनसेंस बना हुआ है उसे रामविलास का इतिहास-लेखन लोकप्रिय तरीके से ध्वस्त करता है. यहां यह याद कर लेना भी प्रासंगिक होगा कि हिटलर के समय आर्यों की नस्लीय श्रेष्ठता पर आधारित फासीवादी जर्मन राष्ट्रवाद से प्रभावित होने वालों में टी. एस. इलियट और एजरा पाउण्ड जैसे महान साहित्यकार भी शामिल थे. साहित्य और संस्कृति की अपनी प्रक्रिया में स्मृति, मिथक, स्वप्न आदि का महत्व होता है. इस जमीन से इतिहास की ओर दृष्टिपात करने वाले अक्सर खतरनाक इतिहास बोध तक पहुंचते हैं. एजरा पाउण्ड हों अथवा निर्मल वर्मा, इस नियति तक पहुंचते ही हैं. रामविलास शर्मा पर प्राच्यवाद के संस्कारों को रेखांकित करने वाले आलोचकों का दायित्व बनता था कि वे यह दिखलाते कि प्राच्यवाद की भयानक फासिस्ट और सांप्रदायिक साम्राज्यवादी परिणतियों के खिलाफ रामविलास शर्मा को समझौताविहीन ढंग से खड़ा करने वाला तत्व क्या है. वास्तव में यही उनकी विरासत है जिसे यदि आलोचना के आलोचक बुरा न मानें , तो हम ऐतिहासिक द्वन्द्ववादी भौतिकवाद आज भी कहना पसन्द करेंगे.
(पहली बार समकालीन जनमत, जनवरी-मार्च, 2002 में प्रकाशित, बाद में ‘समकालीन चुनौती के संयुक्तांक 5-7, वर्ष 3, अक्टूबर 2011- जून 2012 में पुनर्मुद्रित)
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