2018 में ब्लूम्सबरी एकेडमिक से मार्चेलो मुस्तो की इतालवी किताब का अंग्रेजी अनुवाद ‘एनादर मार्क्स: अर्ली मैनुस्क्रिप्ट्स टु द इंटरनेशनल’ प्रकाशित हुआ । अनुवाद पैट्रिक कैमिलर ने किया है। मुस्तो कहते हैं कि नए विचारों की प्रेरक क्षमता को यदि युवा होने का सबूत माना जाए तो मार्क्स बेहद युवा साबित होंगे ।
मुस्तो की किताब का दूसरा खंड राजनीतिक अर्थशास्त्र संबंधी मार्क्स के अध्ययन पर केंद्रित है जिसकी शुरुआत पेरिस प्रवास में हो चुकी थी । 1845 में ब्रसेल्स आए और पत्नी तथा पहली पुत्री जेनी के साथ तीन साल रहे । वहां रहने की इजाजत इस शर्त के साथ मिली कि वर्तमान राजनीति के बारे में कुछ नहीं लिखेंगे । अर्थशास्त्र की घनघोर पढ़ाई का सबूत यह कि शुरू के छह महीनों में ही छह नोटबुकें भर गईं । इसके बाद दो महीने मानचेस्टर रहकर अन्य अर्थशास्त्रियों खासकर अंग्रेजों के चिंतन का गहन अध्ययन किया और नौ नोटबुकें भर डालीं । इस समय ही इंग्लैंड के मजदूर वर्ग के हालात पर एंगेल्स की पहली किताब प्रकाशित हुई । अर्थशास्त्र के अध्ययन के अतिरिक्त इसी दौरान नए हेगेलपंथियों के विचारों के विरोध में ढेर सारा लेखन किया जो मरणोपरांत जर्मन विचारधारा के नाम से छपा । इस मेहनत का मकसद जर्मनी में लोकप्रिय नव हेगेलपंथ के ताजातरीन रूपों का खंडन करना और मार्क्स के क्रांतिकारी अर्थशास्त्रीय विचारों को ग्रहण करने की जमीन तैयार करना था । किताब पूरी तो नहीं हुई लेकिन जिसे बाद में एंगेल्स ने इतिहास की भौतिकवादी धारणा कहा उसकी पुख्ता जमीन तैयार हो गई ।
प्रकाशक को 1846 में सूचित किया कि पहले खंड की पांडुलिपि तैयार है लेकिन बिना फिर से सुधारे उसे छपाने का इरादा नहीं है । सुधार का काम तीन महीने में पूरा हो जाने की आशा थी । दूसरा खंड ऐतिहासिक होना था इसलिए उसके जल्दी लिख जाने की उम्मीद थी । जब एक साल बाद तक भी पांडुलिपि नहीं मिली तो प्रकाशक ने अनुबंध मंसूख करने का फैसला किया । असल में वे इस दौरान कम्यूनिस्ट पत्राचार कमेटी के काम में भी व्यस्त थे जिसे यूरोप भर के श्रमिक संगठनों के बीच आपसी संपर्क स्थापित करने के लिए गठित किया गया था । इसके बावजूद सैद्धांतिक काम भी जारी था । आर्थिक इतिहास के अध्ययन के नोटों से तीन और रजिस्टर भर गए । बीच में प्रूधों की किताब दरिद्रता का दर्शन पढ़ी तो उसका प्रतिवाद दर्शन की दरिद्रता फ़्रांसिसी में लिखा क्योंकि प्रूधों जर्मन नहीं समझते थे । राजनीतिक अर्थशास्त्र के बारे में प्रकाशित यह उनकी पहली किताब थी । इसमें मूल्य के सिद्धांत के बारे में विचार, सामाजिक यथार्थ को समझने की सुसंगत पद्धति और उत्पादन संबंधों की परिवर्तनशील प्रकृति के बारे में बताया गया था । जो किताब उन्हें लिखनी थी उसकी विषयवस्तु इतनी विराट थी कि हालांकि उन्हें अंदाजा नहीं था लेकिन अभी उसकी बस शुरुआत ही हुई थी ।
1847 के आते आते सामाजिक खलबली तेज हो जाने के कारण मार्क्स की राजनीतिक सक्रियता बढ़ चली । जून में जर्मन मजदूरों की अंतर्राष्ट्रीय संस्था कम्यूनिस्ट लीग की लंदन में स्थापना हुई । अगस्त में ब्रसेल्स में जर्मनी के मजदूरों का एक संगठन मार्क्स और एंगेल्स ने बनाया । नवंबर में मार्क्स थोड़ा क्रांतिकारी किस्म के संगठन ब्रसेल्स डेमोक्रेटिक एसोसिएशन के उपाध्यक्ष बने । साल का अंत आते आते कम्यूनिस्ट लीग ने मार्क्स और एंगेल्स को एक राजनीतिक कार्यक्रम लिखने की जिम्मेदारी दी और अगले साल फ़रवरी में इसे ‘कम्यूनिस्ट पार्टी का घोषणापत्र’ नाम से छापा गया । इसका प्रकाशन एकदम ही सही समय पर हुआ । प्रकाशन के तुरंत बाद इतना अप्रत्याशित तीव्र और व्यापक क्रांतिकारी आंदोलन उठ खड़ा हुआ कि समूचे यूरोपीय महाद्वीप की सामाजिक राजनीतिक व्यवस्था पर संकट घहरा पड़ा । विद्रोह को कुचलने के लिए सरकारों ने सभी संभव उपाय किए और मार्च 1848 में मार्क्स को बेल्जियम से वापस पेरिस भेज दिया गया । राजनीतिक अर्थशास्त्र का अध्ययन रोककर मार्क्स ने क्रांति के पक्ष में पत्रकारीय लेखन शुरू किया ताकि राजनीतिक दिशा तय करने में क्रांतिकारियों की मदद की जा सके । अप्रैल में वे जर्मनी के राइनलैंड इलाके में चले आए और कोलोन से प्रकाशित होने वाले अखबार न्यू राइनिशे जाइटुंग का जून में संपादन शुरू किया । अखबार के जरिए उन्होंने सर्वहारा से विद्रोहियों का साथ देकर सामाजिक और गणतांत्रिक क्रांति को आगे बढ़ाने की गुहार लगाई ।
राजनीतिक घटनाओं के विवेचन के अतिरिक्त उन्होंने राजनीतिक अर्थशास्त्र संबंधी संपादकीय लिखे । उन्हें बुर्जुआ वर्ग के शासन और मजदूरों की गुलामी कायम रखने वाले रिश्तों की छानबीन की जरूरत महसूस हुई । ब्रसेल्स में उन्होंने जर्मन मजदूरों में जो व्याख्यान दिए थे उनके आधार पर लिखे लेखों का संकलन ‘मजदूरी, श्रम और पूंजी’ शीर्षक से छपा । इसमें मजदूरों के लिए बोधगम्य भाषा में विस्तार से समझाया गया था कि पूंजी कैसे मजूरी श्रम का शोषण करती है । बहरहाल 1848 में उपजी क्रांतिकारी आंदोलनों की यूरोप व्यापी लहर को जल्दी ही कुचल दिया गया । निर्मम दमन के अतिरिक्त इस पराजय के कारण आर्थिक हालात में सुधार, मजदूर वर्ग में कुशल संगठन की कमी और मध्यवर्ग में क्रांति के भय के चलते सुधारों के लिए समर्थन में घटोत्तरी आदि थे । इनके चलते सरकार पर प्रतिक्रियावादी राजनीतिक ताकतों की पकड़ मजबूत हुई । नतीजतन मई 1848 में फिर से देशनिकाला मिला । फ़्रांस पहुंचे लेकिन वहां भी प्रतिक्रिया का बोलबाला था सो पेरिस की जगह दूर कहीं भेजने का सरकारी फैसला सुनकर लंदन जाने की योजना बनाई ताकि कोई जर्मन अखबार निकालने की कोशिश कर सकें । आगे का समूचा जीवन उन्हें वहीं गुजारना पड़ा लेकिन एक तरह से अच्छा हुआ क्योंकि राजनीतिक अर्थशास्त्र संबंधी शोध के लिए दुनिया में लंदन से बेहतर कोई जगह न थी । इकतीस साल की उम्र में मार्क्स इंग्लैंड पहुंचे ।
लंदन दुनिया भर की आर्थिक और वित्तीय गतिविधियों का केंद्र था । वहां रहकर ताजातरीन आर्थिक गतिविधियों और पूंजीवादी समाज को देखा और परखा जा सकता था । शुरुआती दिन बहुत सुखद नहीं रहे । छह बच्चों और हेलेन देमुथ के साथ सोहो में प्रचंड गरीबी में दिन गुजारने पड़े । इसके साथ ही जर्मन प्रवासियों की सहायता के काम में भी काफी समय और ऊर्जा लगानी पड़ी । इन सबके बावजूद एक मासिक पत्रिका की योजना बनाई । उन्हें लगा कि क्रांति के अवसान के शांतिकाल को क्रांति पर विचार करने, प्रतियोगी पक्षों के चरित्र का विश्लेषण करने और इनकी मौजूदगी तथा टकराव की निर्धारक सामाजिक स्थितियों की तलाश में लगाना चाहिए । इसी किस्म का विश्लेषण उनकी किताब ‘फ़्रांस में वर्ग संघर्ष 1840 से 1850’ में सामने आया । इसमें उन्होंने कहा कि वास्तविक क्रांति उत्पादन की आधुनिक शक्तियों और बुर्जुआ उत्पादन संबंधों के बीच टकराव से पैदा होती है । उसका होना उतना ही तय है जितना संकट का फूट पड़ना निश्चित है ।
उनको यकीन था कि आगामी क्रांतिकारी ज्वार पैदा होने से पहले की यह खामोशी अल्पकालिक है । आर्थिक समृद्धि का प्रसार होते देखकर भी उन्होंने आशा नहीं खोई । समृद्धि उन्हें अस्थायी सुधार ही लगा । अति उत्पादन और रेलवे में सट्टेबाजी के चलते उन्हें ऐसा संकट आने की उम्मीद थी जैसा संकट पहले कभी नहीं आया था । इसके साथ ही वे कृषि में भी संकट गहराता हुआ महसूस कर रहे थे । अमेरिका में भी उन्हें संकट का प्रसार होता हुआ दिखाई दे रहा था । उनके मुताबिक यह माहौल मजदूर वर्ग के लिए बेहतर होगा । अब उनके चिंतन का केंद्र आर्थिक संकट हो गया जिसके फलस्वरूप क्रांति का फूट पड़ना निश्चित है । उन्हें लगा कि आगामी संकट के समय औद्योगिक और व्यावसायिक संकट के साथ कृषि संकट भी मिल जाएगा । उनका अनुमान सही साबित नहीं हुआ ।
लेकिन उनके विचार लंदन आने वाले बाकी प्रवासी नेताओं से अलग थे । आर्थिक स्थिति का अनुमान गलत होने के बावजूद राजनीतिक गतिविधियों के लिए वर्तमान राजनीतिक आर्थिक हालात का अध्ययन वे अपरिहार्य समझते थे । अन्य ढेर सारे नेता जिन्हें वे क्रांति की कीमियागिरी में काबिल कहते थे, मानते थे कि क्रांति की अंतिम जीत हेतु अपनी सांगठनिक तैयारी ही पर्याप्त है । इस तैयारी से उनका आशय षड़यंत्र की पुख्ता योजना होता था । ऐसे ही एक समूह का मानना था कि 1848 की क्रांति की असफलता का कारण नेताओं की निजी महात्वाकांक्षा और उनकी आपसी ईर्ष्या थी । उनका यह भी मत था कि सरकार का तख्ता पलट देना ही क्रांति की जीत है । उनकी आशा के मुकाबले आगामी विश्व आर्थिक संकट पर आश्रित मार्क्स की आशा पूरी तरह अलग किस्म की आशा थी । वे इन हवाई आशावादियों से दूरी बनाकर अपने अर्थशास्त्रीय अध्ययन में डूब गए । जीवंत संपर्क केवल मांचेस्टर आ बसे एंगेल्स से रह गया था । दोनों की प्रमुख चिंता लेखन और उसका प्रकाशन हो चला । प्रवासी नेताओं के बीच के क्षुद्र टकरावों का एकमात्र जवाब उन्हें अपने लेखन के जरिए हस्तक्षेप प्रतीत हुआ । नतीजतन मार्क्स छूटे काम को पूरा करने में लग गए ।
अगले तीन सालों की पढ़ाई से छब्बीस रजिस्टर भर गए जिनमें लंदन के मशहूर पुस्तकालय में पैठकर हासिल तथ्य और तमाम विद्वानों के मतों की समीक्षा भी मौजूद है । उन्होंने खासकर आर्थिक संकटों के इतिहास और सिद्धांत, मुद्रा और उसकी उत्पत्ति समझने के लिए कर्ज आदि का व्यापक अध्ययन किया । प्रूधों मानते थे कि मुद्रा और कर्ज की व्यवस्था में सुधार करके संकट से बचा जा सकता है । इसके विपरीत मार्क्स को लगा कि इससे संकट गंभीर या कमजोर तो हो सकते हैं लेकिन संकटों के वास्तविक कारण उत्पादन के अंतर्विरोधों में खोजना होगा । तैयारी इस स्तर की हो चुकी थी कि एंगेल्स को पांच हफ़्तों में काम खत्म करने का आश्वासन दे डाला । लेकिन यह कहना उनकी अपने आपसे उम्मीद ही थी क्योंकि पांडुलिपि की शक्ल में कुछ भी नहीं था । अभी अध्ययन भी अर्थशास्त्र के इतिहास का ही ठीक से हुआ था ।
1851 से पढ़ाई की दूसरी किस्त शुरू हुई । आर्थिक धारणाओं के इस अध्ययन में रिकार्डो के साथ सबसे गहरा संवाद हुआ लेकिन जमीन के किराये और मूल्य के बारे में गहन अध्ययन के साथ तथा कुछ मामलों में उनसे परे भी गए । इन बुनियादी सवालों पर अपनी पुरानी मान्यताओं में कुछ संशोधन किया और अपनी जानकारी का दायरा बढ़ाते हुए कुछ और विद्वानों की पढ़ाई शुरू की । इस बार रिकार्डो के सिद्धांतों में अंतर्विरोध देखने और उनकी धारणाओं को आगे बढ़ाने वाले विचारकों पर ध्यान केंद्रित किया । ज्ञान और शोध के इस क्षेत्र विस्तार के बावजूद मार्क्स को उम्मीद बनी रही कि वे अपना काम जल्दी ही पूरा कर लेंगे । दो महीनों में किताब के लिख जाने की आशा थी क्योंकि सामग्री का संग्रह हो चुका था । एक बार फिर वे चूके और निश्चित समय पर प्रकाशक को भेजने लायक पांडुलिपि तैयार न हो सकी । वजह आर्थिक तंगी थी । आमदनी के लिए कोई अखबार खोजना शुरू किया जहां लिखकर कुछ धन मिल सके । अगस्त महीने में अमेरिका में सबसे अधिक बिकने वाले अखबार न्यू-यार्क ट्रिब्यून के संवाददाता बन गए । अगले दस सालों में सैकड़ों पन्ने इस अखबार के लिए उन्होंने लिखे । समसामयिक राजनीतिक कूटनीतिक घटनाओं पर लिखने के अतिरिक्त विभिन्न आर्थिक और वित्तीय मसलों पर भी प्रचुर लिखा जिसके चलते कुछ ही सालों में पत्रकारों की दुनिया में भी उनका नाम लिया जाने लगा । साथ ही पढ़ाई भी जारी रही । जमीन के किराये के लिहाज से कृषि रसायन जरूरी लगा तो उस पर अधिकार करने में जुट गए । साथ ही प्राक-पूंजीवादी संरचनाओं की छानबीन भी की । इसके बाद तकनीक के इतिहास और राजनीतिक अर्थशास्त्र से उसके रिश्ते की गहरी खोजबीन की ताकि इस पहलू से भी कृषि अर्थतंत्र के बारे में अधिकारपूर्वक लिख सकें ।
साल का अंत आते आते फ़्रैंकफ़ुर्त के एक प्रकाशक को प्रस्तावित किताब छापने में रुचि जागी । मार्क्स ने तीन खंडों की योजना बनाई । पहले खंड में उनकी अपनी धारणाओं को प्रस्तुत किया जाना था, दूसरे खंड में अन्य समाजवादों की आलोचना होनी थी और तीसरे खंड में राजनीतिक अर्थशास्त्र का इतिहास लिखा जाना था । एंगेल्स ने अनुबंध कर लेने के लिए प्रेरित किया लेकिन प्रकाशक की ही रुचि खत्म हो गई । दो महीने बाद मार्क्स फिर से उपयुक्त प्रकाशक की खोज करने लगे । इस बीच संकट के आगमन और क्रांति के फूट पड़ने की आशा भी बनी रही । बीच में लुई बोनापार्त की अठारहवीं ब्रूमेर लिखी लेकिन उसका प्रकाशन अमेरिका से हुआ । जर्मनी में कोई भी प्रकाशक उनका लिखा छापने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहा था ।
अगले दो सालों में फिर से छूटी हुई पढ़ाई चलती रही । इस बार मानव समाज के विभिन्न चरणों के विवेचन में ध्यान लगाया । भारत में खास रुचि पैदा हुई और इसके बारे में न्यू-यार्क ट्रिब्यून के लिए लगातार लिखा । इस विराट अध्ययन में बाधा आर्थिक तंगी की वजह से बीच बीच में आती रही । एक बार तो लिखने के लिए कागज तक खरीदने के लिए एक पुराना कोट गिरवी रखना पड़ा । फिर भी वित्तीय बाजारों की उठापटक से वे उत्साहित बने रहे । लासाल नामक एक साथी को गहरी आत्म विडंबना के साथ चिट्ठी लिखी कि मैं तो अपने को व्यवसायियों की तरह दिवालिया भी नहीं घोषित कर सकता । थोड़े दिनों बाद फिर एक मित्र को लिखा कि कैलिफ़िर्निया और आस्ट्रेलिया में सोने के नए भंडार मिलने और भारत के साथ लाभप्रद व्यापार के चलते संकट एक साल के लिए टल सकता है लेकिन उसके बाद इसका रूप और विकराल होगा, क्रांति को उस समय तक इंतजार करना पड़ेगा । इसके कुछ दिनों बाद जब अमेरिका में सट्टा बाजार में गिरावट आई तो एंगेल्स को लिखा कि क्रांति हमारी आशा से पहले भी आ सकती है । चिट्ठियों के अलावे न्यू-यार्क ट्रिब्यून में भी इसी किस्म के लेख लिखते रहे ।
1852 में प्रशिया की सरकार ने एक साल पहले से गिरफ़्तार कम्यूनिस्ट लीग के सदस्यों पर मुकदमा शुरू किया । आरोप था कि उन्होंने प्रशियाई राजतंत्र के विरोध में मार्क्स द्वारा संचालित अंतर्राष्ट्रीय षड़यंत्र में भाग लिया है । साल के आखिरी तीन महीने उन्हें इन आरोपों को झूठा साबित करने के अभियान में लगे रहना पड़ा । इसके लिए पूरे मामले का भंडाफोड़ करते हुए एक अनाम किताब लिखी जिसका प्रकाशन स्विट्ज़रलैंड से हुआ लेकिन उसकी अधिकतर प्रतियों को पुलिस ने जब्त कर लिया । परिश्रम के साथ लिखी किताब का यह हश्र देखकर मार्क्स को भारी निराशा हुई । प्रशियाई सरकार के मंत्री जो भी कहें, इस समय मार्क्स बहुत अलगाव में थे । कम्यूनिस्ट लीग आधिकारिक तौर पर भंग हो चुकी थी । इंग्लैंड, अमेरिका, फ़्रांस और जर्मनी में मार्क्स के समर्थक उंगलियों पर गिने जा सकते थे । ये समर्थक भी बहुधा उनकी रानीतिक मान्यताओं को ठीक से समझ नहीं पाते थे और अक्सर फायदे की जगह नुकसान कर बैठते थे । ऐसी हालत में बस एंगेल्स से अपना क्षोभ जाहिर करके रह जाना पड़ता था । आगामी क्रांति का सपना देखने वालों के किसी भी संगठन का साथ उन्होंने नहीं दिया, बस चार्टिस्ट आंदोलन के वाम नेता अर्नेस्ट जोन्स से संबंध बरकरार रखे । इसलिए मजदूरों में से नए समर्थकों की आमद जरूरी हो गई थी । जो सैद्धांतिक काम कर रहे थे उसका भी यही मकसद था । समर्थन राजनीतिक के साथ सैद्धांतिक भी होना आवश्यक था । मार्क्स के साथ लगी गरीबी काम करने नहीं दे रही थी । सोहो में हैजा फैल गया । पेट भरने के लिए भी घर की चीजें गिरवी रखनी पड़ती थीं । लेखों पर समय देने के बावजूद उनसे होने वाली आमदनी कम होती जा रही थी । अर्थशास्त्र के बारे में लिखने की जगह अखबार में लिखना पड़ रहा था । लेख दुनिया जहान के बारे में हों लेकिन दिमाग में अर्थशास्त्र गूंज रहा था इसलिए आर्थिक पहलू हमेशा ही प्रमुखता से उभर आता था ।
तीन साल तक इन स्थितियों में रहने के बाद 1855 में अर्थशास्त्र का काम फिर से शुरू हो सका । लंबे अंतराल के बाद शुरू करने से पहले पुरानी सामग्री को एक बार देखना जरूरी लगा । इसी समय निजी जीवन की परेशानियों ने फिर से आ घेरा । आठ साल के पुत्र की मौत ने तोड़कर रख दिया । इन्हीं हालात में सबसे छोटी पुत्री एलीनोर का जन्म हुआ जिसे वे अपना ही प्रतिरूप कहते थे । लंबे जीवन संघर्ष ने शरीर पर प्रभाव डालना शुरू कर दिया । उधर चिकित्सक ने फ़ीस वसूलने के लिए कानूनी दावा कर दिया । बचने के लिए कुछ दिनों के लिए मानचेस्टर चले गए और लौटे तो भी घर में छिपकर रहना पड़ा । संयोग से पत्नी के परिवार में किसी बुजुर्ग की मौत से विरासत का कुछ धन मिला तो बला टली । इस संक्षिप्त अंतराल के बाद 1856 में फिर से राजनीतिक अर्थशास्त्र पर काम शुरू किया । घर के हालात में कुछ सुधार हुए तो सोहो वाला मकान छोड़कर थोड़ा बेहतर जगह पर आ गए । इसके बाद राजनीतिक अर्थशास्त्र के क्षेत्र में जो काम किया उसे ही ग्रुंड्रिस के नाम से जाना गया ।