आज कॉमरेड Amar Nadeem का जन्मदिन है.
यों तो वे हमारे शहर अलीगढ़ के रहने वाले थे, लेकिन जान पहचान उनसे फेसबुक पर ही हुई. वे फेसबुक की सबसे गरमाहट भरी, जिंदादिल और प्रतिबद्ध उपस्थितियों में एक थे.
वे हिन्दी गजल का नया जनवादी मिजाज बनाने वाले शायरों में अग्रणी थे. उन्होंने कभी नारे, आह्वान , ललकार या प्रार्थना के शिल्प में शे’र नहीं कहे. उन्होंने एक ऐसी काव्य-सम्वेदना का आविष्कार किया था, जो कोमल मगर गहरी मार करने वाली थी.
यह भूमिका मैंने उनके दूसरे दीवान “मैं न कहता था” के लिए लिखी थी. लेकिन यह दीवान के बारे में कम और समकालीन हिन्दी गजल के बारे में ज़्यादा है .
अमर नदीम की उपस्थिति कैसी थी, इसे महसूस करने के लिए उनके बारे में धीरेश भाई की इस पोस्ट को जरूर पढ़ा जाना चाहिए, जो उनके निधन के बाद लिखी गयी थी.
“अलविदा साथी अमर नदीम.
अमर नदीम साहब के निधन की खबर दोस्त अमोल सरोज ने फोन पर दी। अमोल बहुत दुखी थे। उन्होंने एक साधारण सी लग सकने वाली क़ीमती बात कही कि नदीम साहब फेसबुक पर एक बेहतरीन इंसान की तरह रहे।
उनकी शायरी, कविताओं और उनके लिखे में समाज की चिंताएं शामिल रहती थीं। फेसबुक पर हममें से बहुत कम लोग एक इंसान की तरह रह पाते हैं।
कात्यायनी जी ने लिखा है कि अमर नदीम जी एक सड़क दुर्घटना में गंभीर रूप से घायल होने के बाद चलने-फिरने तक में असमर्थ थे। मुझे याद आया कि एक बार मनमोहन ने भी उनके बारे में यह बात बताई थी। लेकिन उनकी पोस्ट्स पढ़ते हुए मुझे कभी यह बात ध्यान नहीं आई। सही बात तो यह है कि मैं यह तभी भूल गया था। इसकी बड़ी वजह अमर नदीम ही थे।
फेसबुक पर जहां लोग अपने नाखून में खरोंच आने तक का भरपूर विज्ञापन करते है और उसे अपनी महानता को समृद्ध करने के काम में भी लाते हैं, नदीम साहब ने अपनी इतनी बड़ी परेशानी का रोना नहीं रोया।
वे कवि-शायर के रूप में भी और अपनी टिप्पणियों के रूप में भी समाज के सवालों से वाबस्ता रहे और फेसबुक पर उनकी सक्रिय उपस्थिति अर्थपूर्ण बनी रही।
प्रतिभाओं के चिल्लपों के दौर में अमीर नदीम लिखने, पढ़ने, रचने की अपनी सक्रियता के रूप में उदाहरण हैं। यह हैरानी से ज्यादा सीखने की बात है कि एक्सीडेंट ने उन्हें बिस्तर पर पटक दिया तो भी उन्होंने काम नहीं रुकने दिया।
कात्यायनी जी ने लिखा है –
“चलने-फिरने तक की असर्मथता के बावजूद साथी अमर नदीम के अध्ययन और सृजन का अनवरत सिलसिला कभी रुका नहीं। बिस्तर पर लेटे-लेटे उन्होंने कार्ल मार्क्स की जेल्डा कोट्स लिखित सुप्रसिद्ध जीवनी का अनुवाद कर डाला था।
इसी वर्ष लैंग्सटन ह्यूज़ की चुनी हुई कविताओं का उनके द्वारा किया गया अनुवाद ‘स्थगित स्वप्न’ नाम से प्रकाशित हुआ है। इन दिनों वे परिकल्पना प्रकाशन के लिए मार्क्स-एंगेल्स के बारे में उनके समकालीनों के संस्मरणों के एक संकलन के अनुवाद में व्यस्त थे
साथी अमर नदीम की ग़ज़लों के दो संकलन ‘ऑंखों में कल का सपना है’ और ‘मैं न कहता था’ प्रकाशित हो चुके थे और लगभग इतनी ही ग़ज़लें अभी अप्रकाशित हैं।”
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ग़ज़ल ठेठ हिन्दुस्तानी कला है.
बेशक इसकी शुरुआत छठी सदी के आसपास अरब में हुई हो. भले ही तेरहवीं और चौदहवीं सदियों में फारसी सूफी कवि रूमी और हाफ़िज़ ने उसे संवारा हो .
लेकिन हिन्दुस्तान में, हिन्दुस्तानी ज़बान में ,ग़ज़ल को जैसी मकबूलियत मिली, जो महत्व हासिल हुआ ,वैसा कहीं और नहीं हुआ.
अमीर खुसरो से चल कर, वली से होते हुए, मीर, ग़ालिब, इकबाल, फ़िराक और फैज़ तक के सफर में एक काव्यरूप के बतौर ग़ज़ल ने हैरतंगेज़ उपलब्धियां हासिल कीं .
आज भोजपुरी से ले कर अंग्रेज़ी तक अनगिनत ज़बानों में हिन्दुस्तानी या हिन्दुस्तानी मिजाज के शायरों के मुंह से गजल कही जा रही है .अंग्रेज़ी के गज़लकार आगा शाहिद अली भले ही अमरीका में रहते हों , मन से पूरमपूर हिन्दुतानी हैं .
शायर ही नहीं , ग़ज़ल -गायकी के सब से रौशन सितारे भी इसी धरती के हैं . मलिका पुखराज ,बेगम अख्तर , मेंहदी हसन , गुलाम अली, जगजीत सिंह , आबिदा परवीन हिन्दुस्तान -पाकिस्तान के घर घर में गूंजने वाले नाम हैं . गलियों- गलियों होने वाले मुशायरों से ले कर सडकों पर दौड़ते ट्रकों -बसों ,लॉरियों, टेम्पो , ट्रेक्टरों तक के पीछे गजल के शेर खिलखिलाते दिखाई दे जाते हैं .
हाँ , हिन्दुस्तान या हिन्दुस्तानी मिजाज से हमारा मतलब आज नक़्शे पर मौजूद जो भारत या इंडिया है, उतना ही नहीं है . इसका पसारा आसानी से समूचे दक्षिण -एशिया में देखा जा सकता है . लेकिन इस पसारे का मरकज़ हिन्दुस्तान की मीर-ग़ालिब की सरजमीं ही है.
ग़ज़ल की हिंदुस्तानियत को ध्यान में रखा जाए तो गजल से जुड़ा फारसी -उर्दू -हिन्दी का सारा झगड़ा बेमानी दिखाई देगा .
गजल में उर्दू के वैभव को तो फ़ारसी / दरी भी छू नहीं सकतीं. ग़ालिब के बारे में कहते हैं कि वे अपनी उर्दू शायरी से अधिक अपने फारसी कलाम को महत्पूर्ण समझते थे .लेकिन आज दुनिया गालिब को उर्दू की खातिर याद करती है. उनके फारसी कलाम की आमलोगों को याद तक नहीं है.
लेकिन उर्दू से उधार ले कर दक्षिण एशिया की तमाम ज़बानों ने गजल की आग चंहुओर फैला दी है , जो हर तरफ तमाम रंगों में खिली हुई दिखाई देती है .
हिंदी -उर्दू तो सगी जुड़वा बहनें ठहरीं . इनको तो अलग पहचानना भी बेहद मुश्किल है.
18 वीं सदी के शायर सौदा के इस शेर को आप क्या कहेंगी ?
‘सावन के बादलों की तरह से भरे हुए / वे नैन हैं कि जिन से ये जंगल हरे हुए ‘
20वीं सदी के इब्ने इंशा ने योंही नहीं कहा था – ‘काहे को ठेठ बने रहिये / ज़रा रंग बदल के गजल कहिये / ये जो उर्दू ज़बान हमारी है / सौ रंग हैं इस के दामन में ‘.
हिंदी इन्ही सौ रंगों में एक रंग है. कुछ लोग इसी बात को उलट कर कहते हैं . ख़ास तौर पर कथित ‘हिंदी’-वाले . लेकिन वह सब हिंदी-उर्दू के जटिल राजनीतिक इतिहास की देन है . जहां तक कविता का सवाल है , अब वह उस इतिहास से आगे निकल रही है .
हिंदी और उर्दू ग़ज़ल के मिज़ाज और अंदाज़ में जो समानता और फर्क है , वह इन दो ज़बानों के मिज़ाज की समानता और फर्क है .
उर्दू परम्परागत रूप से शहर की ज़बान रही है . उर्दू जब शहर से गाँव की तरफ चलती है , तब वह हिंदी हो जाती है . उसकी शहरी शाइस्तगी खत्म हो जाती है .
शब्द- चयन से ले कर उच्चारण तक की कठोर पाबंदियां ढीली पड़ जाती हैं . बेढंगे अटपटे शब्द और मुहावरे , जिनका प्रवेश निषिद्ध था , हाथ उठाये हंगामा करते भीतर आ जाते हैं . और साथ ही आ जाते हैं वे मजमून जिनका रिश्ता खवास से न हो कर अवाम से होता है . प्रेम और अध्यात्म की वेदना की जगह भूख , संघर्ष और सियासत की बातें ज़्यादा होने लगती हैं .
यों ग़ालिब से चल कर गोंडवी तक आते आते गजल अपने शरीफ शहरी चेहरे को एक खुरदुरे किसान चेहरे में बदल लेती है .
ऐसा नहीं है कि उर्दू शायरी हमेशा महज शराब और शबाब की शायरी बनी रही . वामिक , फिराक ,फैज़ और जालिब जैसे महान शायरों ने उसे सियासी ज़द्दोज़हद की काबिलियत और ताकत अता की .
फिर भी उर्दू में गजल का झंडा सुरुचि के सुरभित वायुमंडल में ही लहराता रहा . जनरूचि की खुरदरी , कीचड -कादो भरी , ठोस जमीन में पांव जमाने के लिए उसे उर्दू का घिरा हुआ आंगन छोड़ कर हिन्दी- पंजाबी से ले कर छत्तीसगढ़ी- भोजपुरी तक के विस्तृत मैदान में उतरना पडा .
हिन्दी ग़ज़ल के जुझारू तेवर और जमीनी मिजाज का आगाज़ महाप्राण से निराला से ही हो गया था –
‘खुला भेद विजयी कहाए हुए जो
लहू दूसरों का पिए जा रहे हैं ‘
ऐसा बेबाक लहजा दोटूक अंदाज़ उर्दू में मुमकिन न था .
निराला के बाद ग़ज़ल में हाथ आजमाने वाले महत्वपूर्ण हिंदी कवी शमशेर हुए .उन्होंने अपनी इस मशहूर कविता में जैसे बाकायदा हिंदी ग़ज़ल का घोषणापत्र जारी किया –
वही उम्र का एक पल कोई लाए
तड़पती हुई-सी ग़ज़ल कोई लाए
हक़ीक़त को लाए तख़ैयुल से बाहर
मेरी मुश्किलों का जो हल कोई लाए
कहीं सर्द खूँ में तड़पती है बिजली
ज़माने का रद्दो-बदल कोई लाए
……………………
हिन्दी ग़ज़ल ने शमशेर की ज़ुबानी हकीकत को तखैयुल से बाहर लाने की जो प्रतिज्ञा की , वही दुष्यंत कुमार के हाथों अपने उरूज पर पहुंची.
जिस तरह फैज़ और जालिब के ग़ज़लें जनरल ज़िया की मुखालिफत में अवाम की आवाज़ बन कर उभरीं, उसी तरह दुष्यंत कुमार भारत में आपातकाल की तानाशाही के प्रतिरोध के सब से मकबूल काव्य -स्वर हो गए –
कैसे आकाश में सूराख नहीं हो सकता
एक पत्थर तो तबीअत से उछालो यारों
देखने की बात है कि यह शेर केवल राजनीतिक सत्ता के आकाश में ही पत्थर नहीं उछाल रहा , बल्कि गज़लियत के परम्परागत सौन्दर्यशास्त्र में भी सूराख कर रहा है .
फैज़ आज़ाद लबों को बोलने के लिए ललकार सकते थे , जालिब कमजोरदिल शायरों कलम से इजारबंद डालने की झिडकी दे सकते थे , लेकिन कविता के आसमान में तबीअत से जमीनी गुस्से का ऐसा पत्त्थर न उछाल सकते थे !
ग़ज़ल के इसी जमीनी इंकलाबी तेवर को अदम गोंडवी और बल्ली सिंह चीमा ने घर घर पहुंचाया है . अदम के यहाँ गजल धारदार राजनीतिक आलोचना का उपकरण भी बनती है .फासीवाद के उभार एक के दौर में वे अपनी गजलों से संजीदा बहसें छेड़ते हैं और कविता से इतिहास को चुनौती देते हैं —
हम में कोई हूण कोई शक कोई मंगोल है
दफ्न है जो बात अब उस बात को मत छेडिये .
उधर बल्ली सिंह चीमा के यहाँ गजल सीधे जनक्रांति की कतारों में शरीक हो जाती है –
ले मशालें चल पड़े हैं
लोग मेरे गाँव के
ढूँढने निकले हैं दुश्मन
लोग मेरे गाँव के
इन चंद उदाहरणों से हिन्दी गजल की परम्परा की एक साफ़ लकीर देखी जा सकती है .
अमर नदीम की ग़ज़लें इस परम्परा से सीधा राबता कायम करती हैं , लेकिन उसमें कुछ नया जोडती भी हैं . यह जो नया है , वह नब्बे के बाद की बदलती हुयी दुनिया की हकीकतों से आया है .
सरल क्रांतिवादी आशावाद की जगह इन गजलों में छीने जा चुके जवाबों की खाली जगहों पर उभरते उदास सवाल अधिक दिखाई देते हैं –
घर से सुबह तो निकला था अपनी तलाश में
लौटा जो शाम को तो भला किसके घर गया
इस शेर में कोई चाहे तो एक बेचैन आशिक की उलझन पढ़ ले , लेकिन असल में यह क्रान्ति की सपनीली सुबहों से प्रतिक्रांति की असूझ शामों तक बढ़ते हुए बीसवीं सदी के उस उदास मनुष्य की कविता है, जिसके पास कुछ बेचैन अटपटे सवाल भर बाकी बचे हैं . जैसे –
पार उतर कर तुमने अपनी नाव जला तो डाली है
कभी लौटना पड़ा अगर तो सोचो कैसे आओगे .
लेकिन नदीम एक ऐसे शायर भे हैं , जो अपने समय के सवालों को समूची मानव- सभ्यता के विकासक्रम से जोड़ कर पूछने की हिम्मत रखते हैं. इस से उनकी शायरी समय -समीक्षा से आगे बढ़ कर सभ्यता -समीक्षा का रूप लेने लगती है —
राम कथा का सार न बदला, वाल्मीकि से तुलसी तक
राम रहे राजा, सीता के हिस्से में बनवास रहा .
धनी प्रवासी पुत्र सरीखा, सुख जीवन भर दूर रहा
दुख अनपढ़ बेरोजगार बेटे सा अपने पास रहा.
नदीम के साथ हिंदी ग़ज़ल आखिर उस दौर में आ पहुँचती है , जिस में नायकों और देवताओं को दरवाज़ा दिखा दिया जाता है , और निखालिस आदमी की बात बाकी रह जाती है —
खूब चरचा रही फरिश्तों की
चलिये अब आदमी की बात करें
बेशक उत्तर -सोवियत समय की हकीकतें उनकी शायरी के जुदा लबोलहजे की तामीर करती हैं . वे एक ऐसे वामपंथी शायर की तरह उभरते हैं जो मोहभंग से व्याकुल , निराश और दिग्भ्रमित होने की जगह वामपंथी परियोजना में हुई गलतियों की सख्त मजम्मत करते हुये नयी लड़ाई छेड़ने को तैयार है ,लेकिन पाला बदलने को तैयार नहीं –
जिनका सब कुछ इसी किनारे है
ये नदी उनसे पार कैसे हो .
उम्मीद है , हिन्दी ग़ज़ल का यह नया अंदाज़ आप को पसंद भी आयेगा , बेचैन भी बनाएगा .