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शराब पर्वतीय क्षेत्रों में पूरे सामाजिक तंतु को ही तहस-नहस कर रही है

बीते दिनों देहारादून में जहरीली शराब पीने से 7 लोगों की मौत हो गयी. इससे पहले इसी साल फरवरी के महीने में रुड़की में जहरीली शराब पीने से 40 से अधिक लोगों की मौत हो गयी थी. उत्तराखंड में सरकार का ज़ोर शराब बेचने पर सर्वाधिक है. इसके लिए सरकार किसी भी हद तक जाने को तैयार नजर आती है. वर्ष 2017 में उच्चतम न्यायालय ने सभी राज्यों से शराब की दुकानों को राष्ट्रीय राजमार्गों और राज्य राजमार्गों से दूर हटाने को कहा. पंजाब के अमरिंदर सिंह, पश्चिम बंगाल की ममता बनर्जी, उत्तर प्रदेश के योगी आदित्यनाथ की सरकार के साथ उत्तराखंड की त्रिवेन्द्र रावत की भाजपा सरकार भी थी, जिसने इस आदेश से बचने के लिए अपने राज्य के राजमार्गों को जिला मार्ग घोषित कर दिया था.

पर त्रिवेन्द्र रावत की सरकार यहीं पर नहीं रुकी. शराब और शराब वालों के लिए यह सरकार इस कदर समर्पित थी कि इस सरकार ने उच्चतम न्यायालय से उत्तराखंड के लिए उक्त निर्णय को बदलने की गुहार लगाई और उच्चतम न्यायालय ने यह स्वीकार भी कर लिया. सिक्किम के साथ ही उत्तराखंड सरकार ने उच्चतम न्यायालय में तर्क दिया कि उत्तराखंड एक गरीब राज्य है और शराब,सरकार की आय का सबसे बड़ा स्रोत है. आम तौर पर शराब के समर्थक भी यह तर्क देते हैं कि यदि शराब न बिके तो राज्य सरकार के लिए कर्मचारियों को तनख्वाह देना भी मुश्किल हो जाएगा. ऐसा प्रतीत होता है कि यह शराब की बेतहाशा बिक्री के समर्थन में दिया जाने वाला सबसे मजबूत तर्क है. क्या वास्तव में ऐसा है ? आंकड़ों की रौशनी में देखें तो यह तर्क सर्वाधिक खोखला और झूठा है. उत्तराखंड का कुल बजट है लगभग पैंतालीस हजार करोड़ रुपया,वेतन-भत्ते-पेंशन मद पर खर्च है लगभग 18 हजार करोड़ रुपया,जबकि इस वर्ष शराब की कुल बिक्री से लक्षित आय है 2135 करोड़ रुपया. इस आंकड़े से साफ है कि न तो शराब से राज्य की अर्थव्यवस्था चलती है और ना ही यह कर्मचारियों को दिये जाने वाले वेतन-भत्तों-पेंशन के लिए धनराशि की पूर्ति करता है.
आम तौर पर सरकारी शराब के समर्थन में यह तर्क भी ज़ोरशोर से दिया जाता है कि वैध शराब नहीं होगी तो अवैध शराब और उसका माफिया फलेगा-फूलेगा. लेकिन रुड़की और देहारादून में जहरीली शराब से लोगों के मारे जाने की घटना तो बताती है कि राज्य के हर गली-कूँचे में शराब की सरकारी दुकानें खोलने के बावजूद अवैध शराब का कहर जारी है. देहारादून का मामला तो और भी बहुत कुछ बयान करता है. इस जहरीली शराब का कारोबारी भाजपा का ही स्थानीय नेता था. यहाँ सरकारी ठेके से देसी शराब खरीद कर,उसे और जहरीला बनाने का कारोबार,ऐन सरकार की नाक के नीचे सालों से चल रहा था. इस तरह देखें तो वैध शराब सरकार बेच रही है और अवैध शराब को बेचने वाले भी सरकार के अपने ही लोग थे,जिनको जब तक बचा सकना मुमकिन था,बचाया गया. इसके अलावा स्थानीय स्तर पर बनने वाली अवैध शराब से लेकर हरियाणा और चंडीगढ़ से आने वाली अवैध शराब का प्रसार भी सरकारी शराब के समानांतर गाँव-गाँव तक है. चर्चा तो यहाँ तक होती है कि जो सरकारी शराब के कारोबारी हैं,इस अवैध शराब के प्रसार के कारोबार के तार भी उन्हीं से जुड़े हैं.इसके पीछे की वजह यह बताई जाती है कि अवैध शराब के कारोबार में मुनाफा अधिक है. यह कोई अनहोनी या नामुमकिन बात भी नहीं प्रतीत होती है. शराब कारोबारी कोई दूध के धुले,नैतिकता की प्रतिमूर्ति तो हैं,नहीं कि वे सिर्फ सरकारी शराब बेचेंगे और सरकारी कायदों में बांध कर रहेंगे. जो सरकारी शराब की दुकान में ही खुलेआम नियम-कायदों की धज्जियां उड़ाते हैं,वे उसके बाहर भीगी बिल्ली हो जाएंगे,यह तो मुमकिन नहीं दिखता. सारतः सरकारी शराब के दौर में भी अवैध शराब का प्रसार यह बताता है कि अवैध शराब के फलने-फूलने की वजह सरकारी शराब का न होना, नहीं है. माफिया इसलिए नहीं पनपता कि वह बहुत शक्तिशाली होता है. माफिया इसलिए पनपता है क्यूंकि तंत्र उसे संरक्षण देता है,कानून की पीठ में खंजर भोंक कर तंत्र, उससे गलबहियाँ करने लगता है.
उत्तराखंड में सरकार और सरकारी तंत्र हमेशा से शराब बेचने का समर्थक रहा है. लेकिन शराब के दुष्प्रभावों को देखते हुए जागरूक लोग निरंतर शराब और अन्य नशों की खिलाफत करते रहे हैं. 1980 के दशक में उत्तराखंड में “नशा नहीं रोजगार दो” जैसा आंदोलन हुआ. उसके आगे-पीछे भी लोग और खासतौर पर महिलाएं शराब के विरुद्ध आंदोलन करते रहे हैं. 2017 में भी उच्चतम न्यायालय के फैसले के बाद पूरे प्रदेश में शराब विरोधी आंदोलन चला था.
अभी जब प्रदेश में शराब से लोगों के मरने की चर्चा हो रही है तो 29 अगस्त 2019 को उत्तराखंड उच्च न्यायालय,नैनीताल द्वारा दिया गया फैसला, नशे के कहर पर अंकुश लगाने के मामले में महत्वपूर्ण साबित हो सकता है. उच्च न्यायालय के अधिवक्ता डी.के. जोशी द्वारा उच्च न्यायालय में जनहित याचिका दार करके उत्तराखंड में पूर्ण शराबबंदी किए जाने की मांग की गयी. डी.के. जोशी ने अपनी याचिका में कहा कि उत्तर प्रदेश आबकारी अधिनियम,1910 की धारा 37 (ए),में यह प्रावधान है कि सरकार राज्य में चरणबद्ध रूप से शराबबंदी लागू करवाएगी.जोशी ने जनहित याचिका के जरिये यह मांग की कि चूंकि उक्त अधिनियम,उत्तराखंड में भी पूर्णरुपेण लागू है,अतः उच्च न्यायालय,उत्तराखंड सरकार को उत्तर प्रदेश आबकारी अधिनियम,1910 की धारा 37 (ए) को लागू करने का आदेश दे.
याचिकाकर्ता की तरफ से पैरवी करते हुए वरिष्ठ अधिवक्ता बी.पी.नौटियाल ने कहा कि शराब ने पर्वतीय क्षेत्रों में पूरे सामाजिक तंतु को ही तहस-नहस कर दिया है और यदि आबकारी अधिनियम की धारा 37 (ए) को राज्य में लागू नहीं किया गया तो राज्य की ग्रामीण अर्थव्यवस्था नशे की चपेट में आ कर पूरी तरह धराशायी हो जाएगी. उन्होंने कहा कि ऐसा न हो,इसके लिए तत्काल न्यायिक हस्तक्षेप की आवश्यकता है.
याचिकाकर्ता और उनके अधिवक्ता ने अदालत से कहा कि उत्तर प्रदेश आबकारी अधिनियम,1910 की धारा 37 (ए) का अनुपालन के बजाए राज्य सरकार की नीति तो यह है कि राज्य का कोई हिस्सा शराब की दुकान या बार से मुक्त नहीं रहना चाहिए !
उक्त जनहित याचिका पर फैसला सुनाते हुए उत्तराखंड उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश, न्यायमूर्ति रमेश रंगनाथन और न्यायमूर्ति आलोक कुमार वर्मा की खंडपीठ ने उत्तराखंड सरकार को निर्देश दिये कि उत्तर प्रदेश आबकारी अधिनियम,1910 की धारा 37-ए की उपधारा 3 का अनुपालन करते हुए राज्य सरकार अधिकतम 6 माह के भीतर उत्तराखंड में चरणबद्ध रूप से शराबबंदी लागू करने के लिए नीति बनाए. ऐसी नीति बना लेने के पश्चात उत्तराखंड सरकार चरणबद्ध रूप से शराबबंदी लागू करने के लिए समय-समय पर विभिन्न क्षेत्रों का चयन कर सकती है.
2017 में उच्चतम न्यायालय के शराब की दुकानों को राष्ट्रीय और राज्य के राजमार्गों को हटाने के निर्णय के पश्चात उत्तराखंड में हुए शराब विरोधी आंदोलन के दबाव में मुख्यमंत्री त्रिवेन्द्र सिंह रावत ने बयान दिया था कि शराब को चरणबद्ध रूप से हटाया जाएगा. उनकी सरकार ने तो ऐसा नहीं किया,बल्कि प्रदेश में शराब की दुकानों की संख्या निरंतर बढ़ ही रही है. डी.के जोशी की जनहित याचिका में उच्च न्यायालय के फैसले के पश्चात नशे पर रोकथाम करने के लिए काम करना सरकार के लिए बाध्यकारी है. यह देखना दिलचस्प होगा कि त्रिवेन्द्र रावत की सरकार उच्च न्यायालय के आदेश के अनुपालन को प्राथमिकता देती है या फिर शराब कारोबारियों के हित साधने के निमित्त,इस फैसले से बचने का कोई चोर दरवाजा तलाश करती है !

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