जन संस्कृति मंच ने गुजरात साहित्य अकादमी की पत्रिका के संपादकीय में कोरोना के दौरान सरकार की संवेदनहीनता को बेपर्द करने वाली पारुल खख्खर की कविता ‘ शववाहिनी गंगा ’ और उसे पसंद करने वालों को ‘ लिटरेरी नक्सल्स ’ बताने तथा लक्षद्वीप के पर्यावरण, प्राकृतिक संपदा और सामाजिक शांति व सौहार्द की दृष्टि से केंद्र सरकार के प्रतिनिधि और प्रधानमंत्री मोदी के करीबी प्रफुल्ल पटेल द्वारा प्रस्तावित विनाशकारी कानूनों का विरोध करनेवाली आंदोलनकारी और फिल्म एक्टिविस्ट आयशा सुल्तान पर देशद्रोह का मामला दर्ज किये जाने तथा मशहूर कार्टूनिस्ट मंजुल के कार्टूनों से घबराकर भारत सरकार द्वारा उनके ट्वीटर एकाउंट के खिलाफ कार्रवाई करने का आग्रह और अंत में अंबानी के टीवी नेटवर्क18 से उन्हें सस्पेंड किये जाने की तीखे शब्दों में भर्त्सना की है।
जसम ने आज जारी एक बयान में कहा है कि ये तीनों घटनाएं आलोचना और विरोध के जनतांत्रिक अधिकारों को कुचलने का उदाहरण हैं। सरकार एक ओर अपने कारपोरेट मित्रों की स्वार्थपूर्ति के लिए किसी हद तक जाने को तैयार है, तो दूसरी ओर कारपोरेट सरकार की आलोचना करने वाली आवाजों को दबाने का काम कर रहा है।
गुजरात साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विष्णु पांड्या ने अकादमी की पत्रिका ‘शब्दसृष्टि’ के जून अंक में प्रकाशित संपादकीय में जिस तरह सरकार के बचाव में कुतर्क पेश करते हुए पारुल खख्खर की कविता ‘शववाहिनी गंगा’ में जनता की पीड़ा और बेचैनी का अक्स देखने वाले तमाम लोगों को साजिश करने वाला कहा गया है और भारत के प्रति उनकी प्रतिबद्धता पर सवाल खड़ा किया है, वह बेहद शर्मनाक है। सत्ता के कुकृत्य को ढंकने वाले ऐसे व्यक्ति का किसी साहित्य अकादमी का अध्यक्ष होना, साहित्य के लिए कलंक है। साहित्य अकादमी में बैठे सरकार के इस संवेदनहीन नुमाइंदे ने पारुल खख्खर की कविता को पसंद करने वालों को वामपंथी और उदारवादी बताते हुए यह भी कहा है कि इन्हें कोई नहीं पूछता। लेकिन दूसरी ओर वह उनसे इतना घबराया हुआ है कि उन्हें लिटरेरी नक्सल्स कहता है और कविता को अराजकता फैलाने की साजिश से जोड़ता है।
गुजरात साहित्य अकादमी के अध्यक्ष विष्णु पांड्या के इस संपादकीय ने पुनः जाहिर किया है कि भारत में फासिस्ट राजनीति के पक्षधरों को भाजपा-संघ सरकारों की जनविरोधी नीतियों, संवेदनहीनता और जानबूझकर लचर कर दिए गए स्वास्थ्य तंत्र के कारण होने वाली लाखों मौतों को लेकर कोई अपराधबोध नहीं है। गंगा में तैरती अनगिनत लाशें चीख-चीखकर कह रही हैं कि इस जनसंहार के लिए सरकार जिम्मेदार है। गुजरात साहित्य अकादमी के अध्यक्ष ने इस सच को दर्शाने वाली कविता और कविता पसंद करने वालों को ही दोषी ठहराकर यह साबित कर दिया है कि वे भी मानसिक रूप से इस जनसंहार के साझीदार हैं। ऐसे व्यक्ति का साहित्यकारों द्वारा पूरी तरह से बहिष्कार किया जाना चाहिए।
दूसरी ओर लक्षद्वीप में प्रफुल्ल पटेल द्वारा प्रस्तावित नये कानूनों का संदर्भ है, जिनमें विकास के मकसद से किसी की संपत्ति जब्त करने, असामाजिक गतिविधियों पर अंकुश लगाने के नाम पर किसी व्यक्ति को सार्वजनिक रूप से बताये बगैर एक साल तक हिरासत में रखने, दो बच्चों से अधिक बच्चों वालों को पंचायत चुनाव की उम्मीदवारी के अयोग्य ठहराने, मांसाहारी भोजन, गोमांस के क्रय-विक्रय पर पाबंदी, शराब पर प्रतिबंध हटाने तथा मछुआरों के बोट पर सरकारी कर्मचारियों की तैनाती का प्रस्ताव है। ऐसे कानूनों का जबर्दस्त विरोध होना स्वाभाविक है। आयशा सुल्ताना इस अभियान के नेतृत्वकारियों में से हैं। उन पर भाजपा का आरोप है कि टीवी के एक बहस में उन्होंने प्रफुल्ल पटेल को ‘जैव-वायरस’ कहा है। इसी आधार पर भाजपा के लक्षद्वीप इकाई के अध्यक्ष की शिकायत पर आयशा के खिलाफ देशद्रोह का मामला दर्ज किया गया है। आयशा ने अपने फेसबुक वाॅल पर लिखा है कि उसने पटेल और उनकी नीतियों को जैव हथियार के रूप में महसूस किया है और उनके दल के माध्यम से ही लक्षद्वीप में कोविड-19 फैला।
उनका तर्क है कि उन्होंने पटेल की तुलना सरकार या देश से नहीं, बल्कि एक जैव हथियार के रूप में की है। प्रफुल्ल पटेल देश नहीं हैं और न ही भाजपा देश है कि उनकी नीतियों की आलोचना करने पर कोई देशद्रोही हो जाएगा। लक्षद्वीप में कारपोरेट यारों को लूट की छूट देने के लिए ही केंद्र सरकार दमनकारी कानूनों और सांप्रदायिकता का सहारा ले रही है। इसका पूरे देश में व्यापक स्तर पर विरोध होना चाहिए।
मौजूदा मोदी व केंद्र सरकार की तानाशाही और उनके जनविरोधी चरित्र पर कटाक्ष करने वाले अत्यंत धारदार राजनीतिक कार्टूनों के लिए मशहूर कार्टूनिस्ट मंजुल के एकाउंट के खिलाफ भारत सरकार के कानून प्रवर्तन विभाग ने पहले ट्वीटर से कार्रवाई करने को कहा गया। जब मंजुल नहीं माने, तो मोदी के करीबी मुकेश अंबानी ने अपने टीवी नेटवर्क-18 की नौकरी से उनकी छुट्टी कर दी। यह कारपोरेट द्वारा अपनी कठपुतली सरकार के पक्ष में शर्मनाक ढंग से खड़ा होने का उदाहरण भी है। मौजूदा सरकार यही चाहती है कि साहित्य, पत्रकारिता, कार्टून, चित्रकला- अभिव्यक्ति के सारे माध्यम और विधाएँ पूरी तरह से उसके झूठ के प्रचार में अपनी भूमिका निभाएँ। जाहिर है सरकारी झूठ के खिलाफ सच को दर्शाना जनता के राजनीतिक-आर्थिक हित में तो होगा ही, स्वयं इन विधाओं और माध्यमों की विश्वसनीयता भी इसी तरीके से मजबूत होगी।
( जन संस्कृति मंच की की ओर से सुधीर सुमन द्वारा जारी)