बृजराज सिंह
〈 कश्मीर के कठुआ में बकरवाल समुदाय की एक आठ साल की बच्ची के साथ साल की शुरुआत में समूहिक बलात्कार की योजनाबद्ध घटना को अंजाम दिया जाता है। उसके महीने दो महीने बाद जब इस षड्यंत्र का खुलासा होता है और मीडिया एवं जन समुदाय इसके खिलाफ लामबंद होता है और मुजरिमों को उचित सजा देने की मांग करता है तब जाकर कुछ कार्रवाई की जाती है। आसिफा नाम की इस लड़की के पहले भी मासूम बच्चियों का बलात्कार होता आया है और उसके बाद भी अनवरत होता आ रहा है। लेकिन इस घटना में जिस तरह से अभियुक्तों के पक्ष में, धर्म-समुदाय एवं बहुसंख्यकवाद की राजनीति करने वाले लोग और राजनीतिक दल आ खड़े होते हैं, वह मंजर देश ने पहली बार देखा है। बलात्कार जैसे जघन्य और नाकाबिलेबर्दास्त गुनाह के पक्ष में भी धर्म और संप्रदाय के नाम पर देश को दो खेमों में बँटता हुआ हमारी पीढ़ी ने पहली बार देखा। गुनाहगारों के पक्ष में रैलियाँ और सभाएं आयोजित की जाती हैं, उसे राष्ट्रवाद का विषय बनाया जाता है। सरकार के मंत्री तक उन सभाओं में शिरकत करते हैं। मुजरिमों के पक्ष में तिरंगा लहराया जाता है, उन्हें संरक्षण दिया जाता है, पुलिस और न्यायालय की कार्रवाई में बाधा पहुंचाने की कोशिश की जाती है। इसलिए भी यह दुर्घटना अन्य कई मामलों से अलग हो जाती है। लेकिन इन तक़सीमी मंसूबों के विरुद्ध देश के बुद्धिजीवियों और संवेदनशील लोगों ने अपनी-अपनी प्रतिक्रियाएँ अलग-अलग ढंग से दर्ज़ कराया है। उन्हीं में से कुछ लोगों ने स्वतःस्फुर्त ढंग से फेसबुक तथा सोशल मीडिया के अन्य जगहों पर कुछ कविताएं लिखीं। उन्हीं कविताओं को एक संकलन के रूप में प्रकाशित किया है दिल्ली के नवारुण प्रकाशन ने। ‘आसिफाओं के नाम ’ इस संकलन का सम्पादन किया है युवा कवि बृजराज सिंह ने। इसमें करीब चालीस कवियों की चालीस कविताएं संकलित की गयी हैं। प्रस्तुत है उस संकलन की भूमिका के रूप में लिखा गया बृजराज सिंह का लेख – समकालीन जनमत 〉
अगरचे इस देश में प्रतिदिन सैकड़ों महिलाओं के साथ बलात्कार होता है, लेकिन इनमें से सौ के आसपास उन बच्चियों की संख्या भी है, जिनके साथ यह हैवानियत गुज़रती है। यूं तो हमें अब आदत-सी हो गयी है कि बलात्कार कि सामान्य घटनाओं की तरफ हमारा ध्यान जाता ही नहीं है। जब कोई ऐसी वारदात हो जाती है जो रोज़मर्रा की खबरों से थोड़ा अलग हो, मनुष्य होने के नाते जिस पर यक़ीन करना हमारे लिए नामुमकिन होने लगता है, तब हम थोड़ा बोलने और उद्वेलित होने की ज़रूरत महसूस करने लगते हैं।
POCSO (पोक्सो) ऐक्ट के तहत प्रतिवर्ष चालीस से पचास हज़ार मामले दर्ज़ हो रहे हैं, और पिछले कुछ सालों में इनमें खूब इज़ाफ़ा भी देखा जा रहा है। ज़ाहिर है कि इन मामलों की पीड़िताओं को शायद ही कभी न्याय मिल पाए। अगर न्यायालयों में इनकी सुनवाई हो तब भी अमूमन 50 साल का समय लग जाएगा, फैसले आने में। वैसे बलात्कार के मामले में हमारी रेंज बहुत बढ़ गयी है। नवजात-मासूम बच्चियों से लेकर सत्तर-अस्सी साल की वृद्धा तक, कोई भी औरत बची नहीं है हमारी हवस के शिकार से। बलात्कार के नए-नए मामलों ने हमारी स्त्री-पुरुष के सम्बन्धों की अवधारणा को भी बदल कर रख दिया है। जिस तरह से पारिवारिक और खून के रिश्तों में भी यौन शोषण और बलात्कार की घटनाओं से हमारा साबका पड़ता जा रहा है, उसमें हमें इन समस्याओं पर फिर से विचार करने कि ज़रूरत पड़ती जा रही है।
साल 2012 के दिसम्बर में मेडिकल छात्रा के साथ दिल्ली की सड़कों पर चलती बस में जिस तरह से सामूहिक बलात्कार और क्रूरतम, जघन्य वारदात हुई, वह देश के लिए एकदम नया था। हमारी सोच और पहुँच से बहुत आगे। सेक्स और बलात्कार के अब तक के ईजाद तरीकों से सौ-सौ कदम आगे। इससे देश उद्वेलित हुआ और स्वतः स्फूर्त देश व्यापी आंदोलनों से यह लगा कि अब कुछ न कुछ ज़रूर बदलेगा। सरकार और जनता दोनों ने महसूस किया कि हमें ऐसी घटनाओं से बचने के कुछ कारगर उपाय करने ही होंगे। संसद ने कड़े कानून भी पास किए, लेकिन थोड़े ही दिन बाद हमें पता चल गया कि वे उपाय कारगर नहीं थे।
रोज़ होते इन सैकड़ों-हज़ारों घटनाओं में कठुआ की घटना इतनी अलग कैसे है, जिस पर हमें फिर से निर्भया जैसे देशव्यापी आंदोलन की जरूरत महसूस होने लगी है। जम्मू के कठुआ इलाके में एक आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार और उसकी निर्मम हत्या का मामला प्रकाश में आया है। आठ साल की बच्ची से बलात्कार की घटना कोई नयी चीज़ नहीं रह गयी है, इधर इस तरह की घटनाओं की आवृत्ति बहुत बढ़ गयी है, लेकिन कठुआ के इस केस में जिस तरह की बातें सामने आ रही हैं, वह हमें अपनी सभ्यता और मनुष्य समाज की उपलब्धियों पर फिर से विचार करने और उसकी समीक्षा करने को मजबूर कर रही है। मनुष्य इतना घिनौना और क्रूर अपने आदिम युग में भी नहीं रहा होगा। स्त्री योनि में पैदा होने की इतनी बड़ी सजा आज के पहले किसी बच्ची को नहीं मिली होगी। मैं यहाँ पर यह कहने को मजबूर हो रहा हूँ कि जो लोग बच्चियों को गर्भ में ही मार देते हैं या पैदा हो जाने पर दूध में डुबो कर मार देते हैं, वे इन दरिंदों से कुछ बेहतर मनुष्य होते होंगे। पिछले कुछ वर्षों में हमने जिस तरह का समाज बनाया है, उसमें स्त्री के लिए सबसे सुरक्षित उसका न होना ही रह गया है। तमाम ज्ञान-विज्ञान, विचार-परंपरा, आंदोलन आदि का कुल हासिल क्या है ? कठुआ ?
अभी तक बलात्कार की घटनाओं का विश्लेषण करते समय हम अपराधी के सामाजिक और मानसिक पहलुओं पर विचार करते थे, ऐसा माना जाता था कि बलात्कार करने वाला स्त्री को उसकी औकात बताने और अपनी यौन पिपासा मिटाने के लिए बलात्कार करता है, लेकिन कठुआ की घटना ने हमें फिर अपनी अवधारणाओं पर सोचने–विचारने को मजबूर कर दिया। मध्ययुग में राजा किसी राज्य पर अपनी जीत की निशानी में युद्ध बंदी के रूप में स्त्रियों को हर कर ले जाता था। लेकिन आज जमीन और वर्ग विशेष को गाँव से बेदखल करने के लिए भी लड़कियों और स्त्रियों के साथ बलात्कार, आधुनिक मनुष्य की निशानी बिलकुल नहीं हैं। हमें अपनी आधुनिकता की भी समीक्षा करनी चाहिए। पिछले पाँच सालों से देश में जो धर्म-ध्वजा फहर रही है, और सांप्रदायिकता का जो उन्माद लोगों की नसों में घुल रहा है, उसी का प्रारम्भिक नतीजा है कठुआ का मामला। उससे भी चिंताजनक बात यह है कि जिस तरह से संवैधानिक-प्रशासनिक संस्थाओं एवं सेना का सांप्रदायीकरण किया जा रहा, उसका दुष्परिणाम भी कठुआ मामले में देखा जा सकता है।
क्राइम ब्रांच की चार्जशीट में इस बात का उल्लेख है कि स्थानीय पुलिस के अधिकारी न सिर्फ़ आरोपियों को बचाते हैं, बल्कि स्वयं पूरी वारदात में शामिल हैं। यह ‘विकास’ और यह ‘न्यू इंडिया’ हमें कहाँ लेकर जाएगा। एक संप्रदाय विशेष के लोगों को सबक सिखाने के वास्ते उसकी आठ साल की बेटी का अपहरण किया जाता है और उसका सामूहिक बलात्कार एक बार नहीं कई बार किया जाता है। मंदिर का पुजारी मुख्य अभियुक्त है।
बच्ची का परिवार बकरवाल समुदाय का है। याद रखना चाहिए कि इसी बकरवाल समुदाय के लोगों ने कारगिल घुसपैठ की सूचना दी थी। उन्हें उस इलाके से भगाने के लिए तथा उनकी ज़मीनों पर कब्जा करने के उद्देश्य से यह षड़यंत्र रचा गया था। लेकिन अभी भी जो सबसे भयावह था, होना बाकी था। बलात्कारियों को बचाने और संरक्षण देने के लिए हिंदुवादी संगठनों द्वारा रैली आयोजित की जाती है, और इसमें जम्मू-कश्मीर सरकार में भाजपा के दो मंत्री केन्द्रीय नेताओं के इशारे पर शामिल होते हैं। जांच अधिकारियों को धर्म और जाति का हवाला देकर, धमकी देकर उन्हें प्रभावित करने की कोशिश की गयी। पीड़ित पक्ष के वकील को कोर्ट में जाने से रोका जा रहा है और उसे भी धमकी दी जा रही है। बार एसोशिएसन की भूमिका भी बेहद संदिग्ध है। ऐसे में न्याय की कोई उम्मीद करना बिलकुल बेमानी है। ऐसा देश में पहली बार हो रहा है कि अभियुक्तों के पक्ष में तिरंगा लहराकर राष्ट्रवाद की दुहाई दी जा रही है।
बच्ची के पिता का यह बयान कि ‘हमने उसे हर जगह ढूंढा सिवाय मंदिर के’ में जो पीड़ा और विश्वास के टूटने का दर्द है, शायद वह कभी न लौटे। कुछ दिनों में सब कुछ सामान्य हो जाएगा, लेकिन आसिफा के पिता या ऐसे करोड़ों लोगों के विश्वास को कैसे वापस लाया जाएगा। अन्य मामलों की तरह इसे भी हम भूल जाएंगे। हमारी स्मृति बहुत कमजोर हो गयी है। यह संग्रह इसी बात का बहुत मामूली-सा प्रयास है कि हम उसे भूलने न पाएँ तथा आसिफा के पिता का विश्वास छीजने न दें।
इस संग्रह की कविताएं सोशल एवं वैकल्पिक मीडिया के विभिन्न प्लेटफार्म पर प्रकाशित हुयी हैं। इन्हें वहीं से लेकर एक संग्रह के रूप में हम प्रकाशित कर रहे हैं। इन कविताओं के लेखकों को इस आंदोलन का हिस्सा मानकर और साझा दुख में शामिल जानकार, उन्हें यहाँ शामिल कर रहे हैं। उन सबके प्रति मैं बहुत आभार और धन्यवाद प्रकट करता हूँ। इस योजना को मूर्त रूप देने में सहयोगी प्रेमशंकर और संजय जोशी का भी मैं बहुत आभार प्रकट करता हूँ। देश की तमाम आसिफाओं को, इस उम्मीद के साथ कि हम उन्हें कभी भूलेंगे नहीं, यह श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।