(हिन्दी कहानी के प्रमुख हस्ताक्षर मार्कण्डेय के जन्मदिन पर समकालीन जनमत के पाठकों के लिए प्रस्तुत है दुर्गा सिंह का लेख)
मार्कण्डेय की कहानी ‘भूदान’ स्वतन्त्रता के बाद हुए भूमि-सुधार एवं बिनोवा भावे द्वारा भूमि-समस्या के एक समाधान स्वरूप चलाये गये भूदान- आन्दोलन को विषय के रूप में प्रस्तुत करती है।
पहले यह कहानी ‘भूँयदान’ नाम से लिखी गयी थी, जो लोक-प्रयोग से प्रभावित थी। लेकिन, छपी यह ‘भूदान’ नाम से। इसमें एक सांकेतिकता थी, जो अपने प्रभाव में भूमि को लेकर तमाम राजनीतिक -आध्यात्मिक छल-छद्म को समेटती है।
इस कहानी में जमींदारी उन्मूलन, सिकमी, भूदान आन्दोलन की असलियत बयान होती है। दस बीघे के भूदान का सपना सँजोए राम जतन तथा ‘ठाकुर के हर काम में धोखाधड़ी का संदेह’ करने वाली उसकी पत्नी जसवन्ती की कहानी के माध्यम से भूदान का सत्य मार्कण्डेय लिखते हैं।
रामजतन ठाकुर की हलवाही करता है, जिसके एवज में उसे एक बीघा खेत मिला होता है। जमींदारी उन्मूलन कानून 1949 पास होने के बाद ऐसी जमीनें सिकमी के तहत जमीन जोतने वाले को मिल जाती हैं।
रामजतन को भी एक बीघा खेत मिल जाता है। लेकिन ठाकुर अच्छी मिट्टी और उपज वाली जमीन को ऐसे ही हाथ से नहीं जाने देना चाहता। इसलिए वह मुकदमें की धमकी से लेकर ढोंग-पाखण्ड सब आजमाता है।
इसी बीच 1954 ई. में बिनोबा भावे भूदान आन्दोलन चलाते हैं। इसके अंतर्गत वे भूदान कमेटी बनाकर जमींदारों से जमीन दान में लेते हैं और उस जमीन को भूमिहीन किसानों में बांट देते हैं।
ठाकुर रामजतन को दान की दस बीघे जमीन का लालच देकर एक बीघे खेत से इस्तीफा ले लेता है। इस्तीफा अर्थात खेत से अपने मालिकाने का दावा छोड़ देना। इस दस बीघे खेत को पाने की खुशी में रामजतन तमाम सपने पाले लौटता है—
‘‘बेर लटके दो घड़ी बीत गयी है, इसलिए रामजतन के पाँव घर के रास्ते पर जल्दी-जल्दी बढ़ रहे हैं। मन में एक अजीब खुशी है, जो रह-रह कर अगल-बगल के खेतों में लहलहाते, चैती के उमड़ते सागर से पौधों में खो जाती है… दुनिया पलटान खा गयी होती तो जिस धरती के लिए महाभारत हो गया, उसी धरती को लोग हँस-हँस कर दान कर देते और वह भी उस लँगोटी वाले संत को, जिसका अपना न घर, न दुवार। लोग कहते हैं, गाँधी जी का धरम बेटवा है.. तभी तो, तभी… रामजतन पुलकित हो उठता और उस तराई की हरियर, कचर सिवान में बहता चला जाता।’’
इस कहानी में बिनोवा भावे का लोक-प्रसिद्ध संत-चरित्र प्रारम्भ में रखा गया है। लोक-समाज में ऐसे चरित्रों का प्रभा-मण्डल जल्दी व्यापता है। कहानी में उसे इसी रूप में रखा गया है।
भूमि का महत्व स्थापित करने के लिए, कहानी के सत्य को व्यापक एवं प्रभावी बनाने के लिए बिनोवा का चरित्र आता है। कहानी में इस प्रभाव को और गाढ़ा करने के लिए कहानी के भीतर एक लोक-कथा भी है, जो व्रिटिश औपनिवेशिक शासन की भू-सम्बन्धी नीतियों और उसके खिलाफ हुए संघर्ष एवं प्रतिरोध को प्रतिबिम्बित करती है। यह अन्तर्कथा चेलिक की है, जो रामजतन के माध्यम से ही सामने आती है।
‘‘…चेलिक की निलहे फिरंगियोें से लड़ाई- वाह रे जवान, वाह! मरद हो तो ऐसा।”
‘‘—लेकिन अपनी भूँय नहीं देता। क्यों दे वह अपनी धरती… एक साल बच गया चेलिक, दो साल बच गया और उसकी मूँछ बड़ी होती गयी, हाथों की अँगुलियाँ ज्यादा देर उस पर टिकने लगीं। अगल-बगल छूत के रोग के तरह नील के खेत छा गये पर यह किसका खेत है? चेलिक का!’’
‘‘—नहीं देता साहब, बड़ा जाविर है, पहलवान।’’
यह पहलवानी भी कृषि-संस्कृति का अभिन्न हिस्सा है। मार्कण्डेय की कहानियों में पहलवान प्रतिरोधी संस्कृति के प्रतीक हैं। चेलिक भी ऐसा ही पहलवान है।
‘‘—सारा गाँव चेलिक को समझा रहा है। काहे को विपत लेते हो सिर पर, काहे लड़ते हो। पर नहीं, तो नहीं! पकड़ा गया और उसके चमड़ों में बाँस की खपच्चियाँ, पीठ पर हँटर, कमर पर लकड़ी का कुन्दा। बेहोश हो गया। मुँह से फेचकुर आने लगा, पर भूँय तो भूँय। धरती है माता- माता को कैसे दें’’
और जब निलहा साहब जबरदस्ती चेलिक का खेत जोतवा रहा होता है, तभी
‘‘जाने क्या सूझा उस भूत को कि उठा और साल भर से चारपाई में रिघुरती माँ को गोद में लेकर दूसरे हाथ से लाठी सँभाले खेत की ओर भागा… अपनी माँ को मार डाला, बूढ़ी खटिया पर रिघुरती माँ को! छी-छी, लेकिन साहब के जान के लाले पड़ गये। चेलिक ने दरखास दी कि साहब ने उसकी माँ का खून कर दिया…साहब को सजा हुई। बिलाइत में मुकदमा चला और किसानों ने बूढ़ी की यादगार में यह चौरा बना दिया। वह पति के लिए नहीं, धरती के लिए, अपने बेटों की दुधारू मिट्टी के लिए सती हो गयी। सती नहीं अजर-अमर…’’
रामजतन यह सब तब याद करता है, जब वह स्वयं अपने एक बीघे के उपजाऊ खेत से इस्तीफा लिखकर आ रहा है। अर्थात, चेलिक ने अपने खेत के लिए जहां संघर्ष और बलिदान की मिसाल पेश की, वहीं रामजतन के अन्दर संघर्ष का कोई कतरा भी नहीं मौजूद है।
लेखक ने ऐसा यह दिखाने के लिए किया है कि विलायती साहब से ज्यादा चालाक है, देशी साहब, उसके पास संत का चोला भी है और कोर्ट-कचहरी की धमकी भी अर्थात कानून पर रामजतन का नहीं ठाकुर का राज चलता है।
यह आजादी के बाद की ऐसी नयी परिस्थिति है, जिसमें रामजतन जैसे लोग अपने को छला हुआ पाते हैं।
जमींदारी उन्मूलन जैसे कानून जहाँ बदलाव का भ्रम ग्रामीण भारत में पैदा कर रहे थे, वहीं वास्तविकता में ठाकुर जैसे लोग संत बिनोवा की आभा-छाया में आम जन के लिए शासन का नया छद्म रच रहे थे।
ग्रामीण आम जन, जहाँ चेतना नहीं पहुँची थी, किंकर्तव्यविमूढ़ था। रामजतन भी ऐसा ही ग्रामीण जन था। उसका बिनोवा के ऊपर विश्वास देखिए—
‘‘रामजतन के मन में आया कि धरती पर धरम का अवतार ले कर आदमी का हृदय बदलने वाले साधू बिनोबा का दास्तान कह सुनाए…’’
लेकिन जसवन्ती ऐसी नहीं है, वह अपने जीवन-अनुभव से इस सत्य पर पहुँची है कि ‘ठाकुर के हर काम में धोखाधड़ी’ है। याद करिये ‘पूस की रात’ कहानी की ‘मुन्नी’ और ‘गोदान’ उपन्यास की ‘धनिया’ को। जसवन्ती उसी परम्परा की किसान-मजदूर स्त्री है। लेकिन रामजतन के ऊपर बिनोवा के आध्यात्मिक प्रभा-मण्डल का गहरा असर है। हालाँकि, उसका कारण नितान्त भौतिक है, क्योंकि उन्हीं के कारण उसे पाँच बीघे जमीन मिलने वाली है।
‘‘—का धरा है इस ससुरी जिनगी में इतना सब करो-धरो और आखिर में टाँय-टाँय—फिस। यह सब लादकर ले जाना थोड़े ही है। रूखी-सूखी मिल जाती है, यही क्या कम है, और उसे उस मायावी सन्त का एक काल्पनिक देव अपनी ओर खींचने लगा, बड़े-बड़े हाथ-पाँव, नंगे, झुर्रियों से भरे, बेहाल, थके हुए। उसके मन में आया, वह पास होता तो उन पैरों की थकान हर लेता—गरीबों की सेवा में रमे हुए इस देवता को अपने कंधे पर बिठाकर इस जगह से उस जगह पहुँचाता। कितना पुण्य लूट रहा है।’’
पुण्य का यह आकर्षण तत्कालीन सरकारों की राजनीति ने उत्पन्न किया था, जिसकी कमान ‘मायावी’ बिनोवा के हाथ थी। लेखक इन सबके प्रति सचेत है। वह रामजतन के मुँह से बिनोवा का गुणगान करवाता है लेकिन खुद जानता है कि यह सब ढोंग और पाखण्ड है। अर्थात लेखक अपनी चेतना किसी चरित्र को नहीं देता, कथा-सत्य को देता है।
कहानी का जो मूल मन्तव्य है वह है ‘भूँय’ के प्रति एक किसान की चाहत और उस इच्छा का सरकारी व्यवस्था से अन्तर्विरोध।
जब दोना महतो रामजतन को बताता है कि ‘भूँयदान के बाद एक कमेटी होगी’, तो रामजतन खुश हो उठता है ‘‘का कहते हो दोना भइया, हमको भूँय मिलेगी, राम कहो!’’ और फिर वह बड़ी किसानी के सपने देखने लगता है
—‘‘बड़े-बड़े दो बैल होंगे, घंटियाँ बाजार से लाकर पहनाऊँगा और एक गाय भी रहे तो क्या हरज है। हारे-गाढ़े घी बेच दिया करूँगा।’’
रामजतन को ‘पाँच बीघे की तरी’ मिल जाती है और ठाकुर की हर बात में धोखाधड़ी देखने वाली जसवन्ती भी अब खुश है। कहानी यही खत्म हो जाती है। इसके बाद लेखक की टिप्पणी है, जो कहानी को एक कठोर यथार्थ के धरातल पर पटक देती है—
‘‘ आज इस सुखान्त कथा के बाद बारह महीने का समय बीत गया है। फिर वही पूस का महीना है और चमरौटी की गरीबी अलाव के सहारे दाँत किटकिटाती ठिठुर रही है। कुछ के पास मजदूरी-धतूरी का सहारा है, रामजतन की तो हलवाही भी छुड़ा दी गयी। पिछले कई महीनों से नहर में फावड़ा चलाते-चलाते उसका शरीर सूख कर काँटा हो गया है। महीने भर से साँस की बीमारी के कारण वह चारपाई में पड़ा हाँफ रहा है… जसवन्ती छाती पीटकर रोती है और गाँव वाले बार-बार दुहराते हैं,
भूदान-कमेटी के मंतिरी जी ने तो कब का रामजतन को समझा-बुझा दिया है, कि ठाकुर के जिस दान से उसे भूँय मिली थी, वह केवल पटवारी के कागज पर थी। असल में तो वह कब की गोमती नदी के पेट में चली गयी है।’’
भूदान-आन्दोलन की यही असलियत थी। वस्तुत: तेलंगाना-किसान-संघर्ष ने यह बात स्थापित कर दी थी, कि आजाद हिन्दुस्तान जब तक भूमि के सवाल को हल नहीं कर लेता, तब तक वह शान्ति और लोकतन्त्र के सवाल को भी हल नहीं कर सकता।
भूदान-आन्दोलन इसी सवाल के समाधान के लिए काँग्रेस द्वारा चलाया गया गैर-राजनीतिक लेकिन अपने मूल मन्तव्य में ज्यादा राजनीतिक आन्दोलन था, लेकिन 1960 ई० तक आते-आते वह भी विफल साबित हुआ। 1967 ई० में पुन: नक्सलबाड़ी में किसानों की तरफ से अपना समाधान प्रस्तुत किया गया। शासक वर्ग और इन किसानों के बीच आज तक कोई नतीजा नहीं निकल सका। किसान आज भी अपने संघर्ष पर भरोसा कायम किये हैं और शासक वर्ग इस बात पर कायम है, कि वह दमन से सब कुछ हल कर लेगा।
कल्यानमन
‘‘इधर-उधर, चारों ओर बेल और झरबेरी के झार-झांखड़, बीच-बीच में शीशम-नीम और कहीं-कहीं इक्के-दुक्के आम के बड़े-बड़े पेड़ों से घिरे सोलह बीघे के इस तालाब को कल्यानमन कहते हैं।’’
यह है कल्यानमन का परिचय
‘‘इसी कल्यानमन की पूरब दिशा में एक ऐसा टीला है, जिस पर घास का एक तिनका भी नहीं उगता। मंगी की झोपड़ी इसी पर है। तीन ओर सरकंडे और सरपत का टट्टर, सामने का हिस्सा खुला हुआ। मंगी इसी जगह बोरसी में आग और चिलम-हुक्की लिए, बैठी रहती है।’’
कहानी अपने प्रारम्भिक परिचय में ही इस बात का संकेत कर देती है, कि समस्या सोलह बीघे में फैला तालाब है, जिसमें ‘सिंघाड़े के गहरे-हरे और बीच में लाल धब्बों वाले सुहावने छत्ते’ हैं। मंगी इसी की मालकिन है ‘उसकी दृष्टि केवल दो जगह रहती है, कभी राख से भरी बोरसी पर, तो कभी सिंघाड़े के छत्तों पर।’
मंगी को यह तालाब जमींदारी उन्मूलन के तहत सिकमी में मिली है। जमींदारी उन्मूलन 1949 के अन्तर्गत जिस जमीन पर, जो किसान वास्तविक जोत कर रहा था, उसे ही उस जमीन का असली मालिक बना दिया गया अर्थात मौजूदा रूप में काबिज किसान ही मालिक अर्थात जिसकी जोत उसका खेत। इसे ही सिकमी कहा गया।
जमींदारों से वह जमीन तो ली गयी जिस पर वे स्वयं खेती न कर रेण्ट या किराये पर उठाये हुए थे। लेकिन जमींदारों से सिर्फ जमीन ली गयी, सरकारी संरक्षण उन्हें मिलता रहा।
कानून में इतने पेंच थे कि जमींदार अपने धनबल और सत्ता में दखल के बूते रातों-रात वास्तविक जोतदार बन बैठे और जहाँ नहीं बन पाए वहाँ धमकी और छल-छद्म का सहारा लिया। मंगी की चिन्ता यही है—
‘‘किसका बच रहा है। जगई खाली डराने-धमकाने से इस्तीपा देकर भाग गया और मुसई ने सौ रुपये लेकर माँ-बाप की धरती पर से पाँव उठा लिये। बस वही तो एक बच रही है, और उसके साथ भी क्या कम किया ठाकुर ने! कितनी बार पटवारी को धमकाया, कितनी बार उसे रुपये देने की लालच दी।’’
लेकिन ‘‘मंगी है एक ही अपने गाँव में, कान की बहिर-ठेंठ, किन्तु आवाज की इतनी कड़ी कि नया आदमी सहसा डर जाए। आँधी की तरह पैर के पंजों के सहारे लुढ़कती हुई भागती चलती है। घर में एक भड़साँय, दो घर में पानी की भराई और वही कल्यानमन के सिंघाड़ों की खेती है, उसके पास।’’
कल्यानमन का तालाब बड़ी बखरी की पानी-भराई में मिली है उसे, जिसमें वह सिंघाड़ों की खेती करती है लेकिन जब आजादी के बाद जमींदारी उन्मूलन में उसके पति बंगा के नाम वह सोलह बीघे का तालाब आ गया तो मंगी को विश्वास ही नहीं हुआ—
‘‘दो साल हुए जब उसने सुना था, कि जिसकी जोत होगी, भूँय उसी की हो जाएगी। तब उसे लगा था, न तालाब धरती है, न सिंघाड़ा खेती। कहाँ हल चलाती हूँ, मैं? कहाँ मेरी जोत है?’’
लेकिन बंगा इन सब बातों से बाख़बर था क्योंकि वह
‘‘सुराजियों की सभा में जाया करता था। कभी खुश रहता तो लौटकर मंगी से अपने सारे मंसूबे कहता’’
‘‘उसे बार-बार समझाता कि सब तो सब, यह कल्यानमन अपना हो जाएगा। चाहे पानी की भराई में ही क्यों न मिला हो, पर सिंघाड़े की काश्त तो वही करता है।’’
बंगा की मृत्यु के बाद मंगी को ‘बेदखली का हुकुमनामा’ मिल गया लेकिन उसने लड़कर उस तालाब को अपने नाम चढ़वा लिया।
कानूनी रूप से अब वही उसकी मालिक थी और ठाकुर का जोर और धमकी उस पर नहीं चल पायी, तो ठाकुर ने उसके लड़के पनारू को उसके खिलाफ भड़काना शुरू किया कि मंगी अपने मरने पर वह तालाब दामाद और बेटी के लिए छोड़ जाएगी।
पनारू इसमें विश्वास कर लेता है और मंगी से दूरी बना ठाकुर के यहाँ ही पड़ा रहता है। लेकिन मंगी ठाकुर के छल-छद्म पहचानती है।
‘‘पनारू का वाक्य पूरा भी नहीं हुआ था, कि मंगी के झापड़ों से उसकी कनपटियाँ झनझना उठीं। यही सीखने बैठा रहता है यहाँ, जानता नहीं कि ये लोग जमीन के लिए आदमी की गरदन भी काट सकते हैं।’’ उसे भूमि सुधार और जमींदारी उन्मूलन की असलियत का भी अन्दाजा है—
‘‘अँखिया त फूट गयी है सुरजियन की कि यह अन्हेर भी नहीं देखते। खेती चमरू करेगा, परताल ठाकुर के नाम से होगी। बीच में पटवारी इधर से भी खाएगा, उधर से भी खाएगा। अब तो बेभूँय का किसान, खाद हो गया है, खाद, बस वह खेत बनाता है। बड़ा कानून सीख के बैठा तो है, भला बची है एक बिस्सा भूँय किसी मजूर-धतूर के पास? सभी तो खेत जोत रहे थे। कोई मार खाकर इस्टीपा लिख गया, तो किसी को बहकाकर सादे कागज पर अँगूठे की टीप ले ली इन लोगों ने। किसी को सौ-दो-सौ देकर टरकाया। कहीं रह गया है कुछ? वह तो कहो मुझे, जो बैठी हूँ बज्जर की तरह छाती पर।…’’
लेकिन पनारू तो पूरी तरह ठाकुर के इस बहकावे में है—
‘‘बेचारा लड़का सयाना हो गया और अब तक जगह-जमीन पर हर जगह अपना नाम चढ़वा रखा है। उसका न घर से मतलब, न दुआर से। क्या वह तुम्हारा नौकर है! वह तुम्हारी सारी होशियारी समझता है।’’
सहारा पाकर पनारू भी बोल उठता है, ‘‘बहनोई जी तीसरे दिन दुवार खनते रहते हैं। क्या हमें पता नहीं कि क्यों इतना चक्कर काट रहे हैं। उन्हीं को लिखना चाहती हो तो जाकर लिख दो!’’ मंगी उसके इस बात से टूट गयी और सोलह बीघे के तालाब कल्यानमन से इस्तीफा लिख दिया—
‘‘जब मैं अपने सराबी आदमी की नहीं हुई और उसे ठारी में गलाकर मार डाला तो इस भोंदे लड़के को कल्यानमन नहीं दे जाऊँगी। मँगाओ अपना कागद-पत्तर, ले लो मेरे अँगूठे का टीप।’’
कहानी यह दिखाती है कि आजादी के बाद का जो जमींदार है, वह सिर्फ निर्दयी और क्रूर नहीं है, बल्कि लोकतन्त्र की सभ्यता और कानून, न्याय की भाषा में पारंगत होकर ज्यादा तेज और शातिर है। ऊपर से उसे सत्ता का संरक्षण भी है। दूसरे, इस कहानी में साँप के माध्यम से यह संकेत है कि जमींदारी खत्म होने के बाद भी जमीनों पर वे साँप की तरह कुण्डली मारकर बैठे रहे।
पनारू जहाँ चेतना से शून्य है, वहीं मंगी सचेत है लेकिन ऐसी होकर भी वह ‘अँगूठे की टीप’ दे देती है। कहानी की जो आन्तरिक लय है, उससे यह कार्य-व्यापार मेल नहीं खाता। मंगी के चरित्र का तर्क- संगत विकास बाधित है। फिर भी कहानी भूमि को लेकर हुए शासक वर्गीय सुधारों की और जमींदारी उन्मूलन की कलई खोल देती है।
आजादी के बाद की भूमि-समस्या पर मार्कण्डेय द्वारा लिखी गयी यह एक उत्कृष्ट कहानी है। इसमें मंगी, पनारू और ठाकुर के बड़े बेटे का जो चरित्र है वह तत्कालीन बदलते सामाजिक वर्ग-चरित्र को ठीक ढंग से पेश करने में सफल है।
अन्य कहानियाँ
मार्कण्डेय की कई अन्य कहानियाँ भी हैं, जिसमें भूमि-समस्या भले ही केन्द्रीय वस्तु न हो लेकिन कहानी के वस्तु-निर्माण में भूमि-समस्या मौजूद है। ऐसी कहानियों में ‘महुए का पेड़’, ‘दौने की पत्तियाँ,’ ‘दाना-भूसा,’ ‘हंसा जाई अकेला,’ ‘मधुपुर के सीवान का एक कोना,’ ‘बादलों का टुकड़ा’, ‘सवरइया’ आदि हैं’।
‘महुए का पेड़’ कहानी में केन्द्रीय पात्र दुखना है, जिसकी जमीन, पति की मृत्यु के बाद, ठाकुर बेदखली का हुकुमनामा भेज हथिया लेता है। अब उसके पास सम्पत्ति के रूप में एक महुए का पेड़ है, जिस पर ठाकुर की नजर है। महुए के पेड़ के चलते वह उस जमीन पर कब्जा नहीं कर पा रहा है।
अन्तत: एक रात ठाकुर महुए का पेड़ कटवा डालता है। दुखना के लिए यह महुए का पेड़ अकेली भौतिक सम्पत्ति थी तथा जीवन की तमाम स्मृति को समेटे थी। अकेली दुखना इस दु:ख में तीर्थ पर चली जाती है।
‘दौने की पत्तियाँ’ कहानी पहली पंचवर्षीय योजना में नहर की खुदाई में व्याप्त भ्रष्टाचार और लघु-सीमान्त किसानों की दुर्दशा पर केन्द्रित है।
भोला के पास एक बीघे का खेत है, जिसमें वह सब्जी की खेती करता है और उसे उसकी पत्नी घर-घर बेचती है। उनके परिवार का यही आधार है। नहर गाँव में आती है, तो उसके रास्ते में तिवारी जी का बारह बीघे का खेत आ जाता है, जिसे वे अपनी पहुँच और ताकत से भोला के खेत की तरफ मुड़वा देते हैं। भोला का पूरा खेत नहर में चला जाता है।
यह कहानी आज के दौर में चल रही विकास योजनाओं में अपने खेत और घर से उजाड़े जा रहे, किसानों-आदिवासियों की याद दिलाती है। कैसे कानून और सत्ता धनबलियों और नव कुलकों के पक्ष में खड़ी है और भोला जैसे लघु-सीमान्त किसान विकास के नाम पर दफन किये जा रहे हैं।
यह कहानी अपने विषय-वस्तु में आज अधिक प्रासंगिक है, जब छत्तीसगढ़, उड़ीसा बंगाल, गुजरात, मध्यप्रदेश से किसान-आदिवासी उजाड़े जा रहे हैं। साथ ही मार्कण्डेय ने आजादी के बाद ही तंत्र पर जकड़ बना लेने वाले अधिकारी और वर्चस्वशाली जातियों के बीच गठजोड़ को पहचान लिया था। तिवारी और अधिकारी मिलकर भोला को भूमिहीन बना देते हैं।
‘दाना-भूसा’ अकाल में घिरे खेत-मजदूर की कथा है। इसके कुछ अंश उनकी दारुण स्थिति को बयान करते हैं—
‘‘कहाँ लेकर जाए! अगवार-पिछवार तो परायी धरती है। बाग-बगइचा में रखवार बइठे हैं। आम की पत्ती भी नोहर है, इस टाले में।’’
‘‘बंसन सब कुछ समझकर भी अपनी टूटी चारपाई में बैठ, पल भर को आँखें मूँदकर पड़ गया। उसका शरीर धीरे-धीरे सिकुड़कर छोटा और हल्का हुआ जा रहा था। एक सूखे पत्ते की तरह हल्का और सब कुछ, यहाँ तक कि वह, उसकी चारपाई और बैठक आसमान में उड़ रहे थे। वह उड़ता रहा, उड़ता रहा और धीरे-धीरे ऐसी जगह पहुँच गया, जहाँ रोटियों का एक बहुत बड़ा ढेर लगा हुआ था, इतना बड़ा कि कई बाँस की सीढ़ियाँ लगाकर भी उसके ऊपरी हिस्से को छूना मुश्किल था और लोगों की एक बहुत बड़ी भीड़ उसे मनमाना लूट रही थी। बंसन झटके से लपका, पर खाट बहुत गहरी थी और पाटियों पर उसके हाथ अड़ कर रह गये।’’
यह कहानी यह दिखाती है कि अकाल की मार भी सबसे अधिक भूमिहीन किसानों पर पड़ी। अर्थात भूमि की असमानता ही उनकी विपत्ति का बड़ा कारण है।
इसके अतिरिक्त ‘हंसा जाई अकेला’ में हंसा चुनाव में घूम-घूम कर कांग्रेस के लिए वोट माँगता हुआ कहता है कि कांग्रेस जीती तो ‘बेदखली बंद होगी। छूआछूत बंद होगा। जनता का राज होगा।’
कांग्रेस के जीतने और आजादी मिल जाने के बाद भी ऐसा कुछ नहीं हुआ। बेदखली होती रही, जमींदारों का कहर और छल-छद्म जारी रहा। खेत-मजदूरों और बँधुआ मजदूर की ऐसी ही कहानी ‘मधुपुर के सीवान का एक कोना’ में है।
कुल मिलाकर मार्कण्डेय ऐसे कहानीकार हैं जिन्होंने ग्रामीण समाज के मुख्य अन्तर्विरोध को पकड़ा, जिसके मूल में भूमि-समस्या है। अर्थात भूमिहीनता।
मार्कण्डेय एक कहानीकार के बतौर इस रूप में महत्वपूर्ण हैं कि वे राजनीतिक चेतना से युक्त लेखक हैं। उन्होंने राजनीतिक सवालों को कहानी का विषय बनाया। ग्रामीण सामाजिक संरचना के भीतर से उन सवालों को पहचाना।
मार्कण्डेय जमीन को ग्रामीण यथार्थ का मुख्य तत्व मानते हैं। अर्थात भूमि-समस्या से गुजरे बिना मुकम्मल ग्राम-सत्य नहीं पाया जा सकता।
मार्कण्डेय को इस बात का श्रेय है, कि उन्होंने भूमि-समस्या को राजनीतिक सवाल के बतौर पहचाना, उसे ऐतिहासिक सन्दर्भों से जोड़ा और कहानी का विषय बनाया। ऐसा करने वाले वे अपने दौर के अकेले कहानीकार हैं!