विपिन की कवितायेँ लगातार बाहर-भीतर यात्रा करती हुईं एक ऐसी आंतरिकता को खोज निकालती हैं जो स्त्री का अपना निजी उचाट भी है और दरख्तों, चिड़ियों, पीले-हरे पत्तों से भरा पूरा एक नगर भी, जिसके अपने रास्ते हैं, गालियाँ हैं और मैदान भी .
उसके यहाँ यह शब्दचित्र गठित इलाका अवसाद का नहीं, नहीं ही वह अवचेतन का ढंका तुपा कोई संस्तर है, बल्कि अपना खोजा हुआ संरचित कोना जिसे वह मन की संज्ञा देती है .
इस खोजे हुए कोने में वह बार-बार प्रेम तलाशती है। उसके कितने ही रूप, इतिहास और भ्रामक सत्य – सबसे उलझती है लेकिन उससे प्रेम, प्रेम करने वाले, प्रेम पाने वाले सब अतृप्त रहते हैं, इस अप्राप्त चीज से हताश परन्तु इस अहसास से भरी हुई कि शायद इनके इंतज़ार में ही इसका आस्वाद है । शायद इतना ही पाया जा सकता है- किसी के कंधे पर ज्यों टिका दी गयी गर्दन। परन्तु यह भान कि बस इतना ही संभव है स्त्री के लिए, उसके आत्मान्वेषण की यही हद है, शायद यह अहसास कवयित्री को गहरे दुःख से भर देता है- उसका अन्तः द्वीप एक मद्धिम चीत्कार से भर जाता है, और वह कह उठती है ‘कितना दुःख है जीवन मेरे/ कोई ठहर कर इस पर बात नहीं करता/कोई उनकी खोज खबर नहीं लेता/नहीं पूछता दुःख से कभी कोई/ इस ब्रह्माण्ड जैसा विशाल दुःख क्यों है?’ तभी वह सफ़ेद रंग में एक बगुले की तरह रहने लगती है, खुद में खुद को मिलाती, छिपाती, जैसे एक कीड़ा छिपा रहता है किसी फल के भीतर, जब तक की उसे कोई चाकू से चीर न दे.
अब तो कवयित्री को संदेह भी होने लगा हैक जिस प्रेम को वह पाना चाहती है, वह मिल भी जाए तो अपेक्षित सुख का आस्वाद न पैदा कर सके. एक लम्बे इंतज़ार के बाद जैसे मिला प्रेमी अपना तेज खो चुका होता है और सब कुछ मिटटी-सा हो चुका होता है. ऐसी दारुण आत्म-प्रतीति एक उचाट ही रच सकती है एक स्त्री के लिए-प्रेम से उपजा निजी उचाट जिसे जीना भी एक संघर्ष बन जाये। अरसे से प्रेम की ख़ुमारी में जीने के बाद आखिर आत्म तक क्या लौट पाता है-‘बस आया तो एक प्रेत’ , कायदे से जो प्रेमिका की नाज़ुक गर्दन को भी नहीं दबा सकता। इसलिए वह अपनी तरफ ही मुड़ती है और भीतर जाने की कोशिश करती है, मगर क्या पाने- नहीं मालूम।
प्रेम की निरर्थकता को समझने की खातिर – पुरुष स्त्री से प्रेम करने के काबिल क्या अब रहा – क्या स्त्री अपनी देह को खुद से अलग कर ले प्रेम को समझने के लिए, एक आत्म अलगाव, आत्म-निर्वासन क्या वो उसमे चली जाये। प्रश्न यहाँ यह भी है की क्या वह इस स्थिति में हमेशा से रही है या तब से जब से पितृसत्ता ने उसको अपनी छाया में बदल दिया.
आजतक स्त्री और पुरुष के बीच का प्रेम सम्बन्ध क्यों नहीं सुलझा, क्या इसलिए शायद कि पितृसत्ता पुरषों को स्त्रियों से प्रेम करना नहीं उनका दमन करना सीखता है. पुरुष अगर प्रेम करता हुआ दीखता भी है तो स्त्री को अब आशंका है कि उसके भीतर जाने कितने रहस्य छिपे हुए हैं, जाने वह कहाँ कहाँ फंसा हुआ है, उसका सम्पूर्ण ‘सेल्फ’ कभी स्त्री को हासिल नहीं। उसके प्रेम में झूठ इस तरह व्याप्त रहता है कि अपने संचरण में सत्य सा दीखता है. अपने ‘एलिएनेशन’ को विपिन अपनी कविता ‘देह’ में कुछ इस तरह से बयान करती हैं ‘मन की नदी के बीचोंबीच मेरी देह पुतले सी मेरी पकड़ से दूर कहीं बहती चली जाती है ‘ अपनी ही देह को खुद से दूरर जाते हुए देखना एक कैसा दार्शनिक चित्र रचता है!
यह वह देह है जिसे स्त्री-पुरुष ने मिलकर इस पितृसत्ता में निर्मित किया है । यह वह देह जिसे वह फिर बनाएगी। एक ठंडी तटस्थता है इस कविता में क्योंकि वह जान चुकी है कि पुरूष के मन के भीतर कितने ही दरवाजे हैं “एक दरवाजा खुलता है, दूसरा बंद होता है/सबसे भीतरी मन की गहन गुहा की चौकीदारी पर तैनात है एक दरवाजा/ मन के कई बाहरी मजबूत और मुस्तैद दूसरे दरवाजे हैं/ मन के इस कोने में सिमटा हुआ है अधूरा प्रेम” एक अर्थ में इस गहन यात्रा में स्त्री पाती है कि बेहतर है कि वह पुरुषों के तमाम गुप्त, गुह्य प्रेम संबंधों, षड्यंत्रों से विमुख होकर स्त्री की तरफ ही मुड़ जाए. स्त्री का प्रसूति गृह अब कोई अंधेरी कोठरी नहीं जहाँ कोई नया जीवन वह पैदा करती है, बल्कि पुस्तकालय है जहाँ अनगिनत किताबें अपने पढ़े जाने वालों को भी पढ़ती हैं-जहाँ जानने और समझने की प्रक्रिया स्त्री के माकूल है.
विपिन की इस बेहतरीन कविता के बारे में अलग से विश्लेषण की दरकार होगी जो आगे कभी पूरी होगी । ‘पुस्तकालय’ कविता में वह लगभग नई स्त्री के जन्म लेने की स्थिति एवं प्रासंगिकता को दर्ज करती है ।
यह स्त्री कभी नहीं भटकेगी उसके हिसाब से प्रेम के लिए, वह दूसरी स्त्री के मन में दाखिल होगी, तो वहाँ कुछ परिचित सा ही मिलेगा फिलहाल उसे। विपिन की इस कविता की कुछ पंक्तियाँ यहाँ पढ़ने लायक हैं ”ज्ञान का प्रसूति गृह / किताब पुस्तकालय की ईंट है/ हम ही नहीं किताबें भी हमें पढ़ती हैं/ एक स्त्री अपने पति से अलग होकर/ पुस्तकालय की शरण में हैं आजकल/ मेज़ पर झुकी हुई उस स्त्री को पृष्ठ दर पृष्ठ पढ़ती हुई/ गोया वह खुली हुई कोई किताब हो/ बिलकुल नयी/ जिसका एक पन्ना मुझसे पहले/ किसी ने पढ़ा नहीं” अब स्त्रियों को इस बात की तकलीफ नहीं कि उन्हें किसी ने पढ़ा नहीं, समझा नहीं, जाना नहीं प्रेम नहीं किया- बल्कि दिया तो दुःख ही दुःख।
विपिन आज की वैसी स्त्री कवि है जो मेरी पसन्द की है, जो अपनी विलक्षण आंतरिकता को विश्लेषित कर सकती है, और प्रेम के प्रति सदियों से चले आ रहे स्त्री शोक को विश्राम दे सकती है। स्त्री के मन में तूफान चल रहा है लेकिन उसके पेड़ उससे घबरा नहीं रहे, तेज हवा की गति को बल्कि माप रहे हैं । विपिन की कविताओं को पढ़ते हुए एक उम्मीद बनती है कि हिंदी की स्त्री कविता बहुत कुछ पाने को बाध्य है, भले ही वह प्रेम न हो -वह नई स्त्री का सुरक्षित एकांत हो सकता है, जिसमें वह प्रतीक्षा करेगी खुद की ।
विपिन का आग्रह है कि कोई भी औरत पहले तो ख़ुद को खोजे, फिर उसे प्रेम, सहिष्णुता, दया, तृष्णा, वासना के नए दरवाजे दिखने लगेंगे जिसे वह खोल सकेगी और जीवन के दूसरे रहस्यों को जान सकेगी ।- सविता सिंह
विपिन चौधरी की कवितायेँ-
- पुस्तकालय में जन्म लेती नयी स्त्री
‘कृपया शांत रहें’ इस अनुशासन की हवा में कितने ही विचारों ने बदले हैं अपने वस्त्र
ज्ञान का यह प्रसूति-गृह
पृथ्वी के दुष्ट शोर से है कोसो दूर
याद है, किसी ने बतलाया था
‘किताब पुस्तकालय में ईंट की तरह होती हैं’
यह भी कह गया कोई
‘हम ही नहीं किताबें भी हमें पढ़ती हैं’
तानाशाहों के ढेरों दफ़न किस्सों के बीच
अनेक शांति-दूतों को सुकून भरी नींद लेते
देखा मैंने यहीं पर
सोचती हूँ अक्सर
सबसे ज्यादा पढ़ी गयी किताब
खुद को कितना ख़ुशनसीब समझती होगी
बरसों किताबों की सीली खुशबू के संग
ही घर में प्रवेश करती हूँ मैं
एक स्त्री,
अपने पति से अलग होकर
आजकल पुस्तकालय की शरण में है
अब पुस्तकालय में किताबें पढ़ने के अलावा
मेरे पास एक काम और भी है
मेज़ पर झुकी हुई उस स्त्री को पृष्ठ-दर-पृष्ठ पढ़ती जाती हूँ
गोया वह मेरे सामने खुली हुई एक किताब हो
बिलकुल नयी
जिसका एक भी पन्ना
मुझ से पहले किसी ने पढ़ा ही नहीं
और बिना पढ़े ही उसे ठहरा दिया गया
बिलकुल कोरा
- चोर दरवाज़े
मन के भीतर मन
उसके भी भीतर एक और मन मन का एक दरवाज़ा खुलता है
दूसरा बंद होता है सबसे भीतरी मन की गहन गुफा की चौकसी पर तैनात है
मन के कई बाहरी मज़बूत और मुस्तैद दरवाज़े मन की एक सुरंग में डेरा है सहेली के उस निष्ठावान प्रेमी का जिसने जीवन-भर किसी दूसरी लड़की की तरफ आँख उठा कर भी नहीं देखा था दूर रिश्तेदारी के रोशन चाचा
देव आनंद सा रूप-रंग लेकर जन्में थे जो
पड़ोस की वह कुबड़ी दादी लगती थी लगा करती थी
अपनी दादी से भी प्यारी ढेर साड़ी गुड़ियां और उनकी गृहस्थी का छोटा-मोटा साजों-सामान पड़ोसी दीनू जो परीक्षा के दिन उसकी साईकल का पंचर लगवा कर आया था
और आज तक साईकल में पंचर लगवाता हुआ ही दिखता है
सबने थाम रखा है मन का एक आँगन मन के एक कोने में सिमटा हुआ है अधूरा प्रेम
जो दुनिया का ज़हर पी-पी कर कालिया नाग बन गया था बाहर ज़रा सी आहट हुई और दरवाज़ा मूँद कर वह मुस्कुराते हुए अपने शौहर का ब्रीफकेस हाथ में थाम कह उठती है ‘आप मुँह -हाथ धो आईये मैं अभी चाय बना कर लाती हूँ ‘ और नज़र बचा कर
अपने माथे पर चू आये पसीने को पोंछती है आखिर मन के इतने सारे खुले दरवाज़ों का मुँह झटके से बंद करना इतना आसन भी तो नहीं
3 दुःख की आँख
तब दुःख के लिए
मेरे पास आँख नहीं थी
दुःख को मैं अपने रसायन-शास्त्र के शिक्षक की आँख से देखती थी
अक्सर ब्लैक-बोर्ड पर लिखते हुए वे रुक जाते
और अपनी आँखों में दुःख का जल लिए कहते,
‘हम अविष्कारों को पढ़ाते हुए ही मर जाएंगे, कोई नया अविष्कार इज़ाद नहीं कर पाएंगे’
तब शायद दुःख
चाची की आँख से छलकने का नाम था
जो कहा करती थीं
‘मेरे खूबसूरत हाथ राख से बर्तन साफ़ करते-करते ख़राब हो जाएंगे’
आज इस घड़ी
मेरे दुःख के पास भी दो आँखें हैं
खुलती हैं जो भीतर के उस आँगन की तरफ
प्रेम ने जहाँ खूब तबाही मचाई हुयी है
मन भूकंप के बाद उज़ड़ा मनहूस खंडहर लग रहा है
कई दिनों से खाली हुया कनस्तर
ईंख से लंबे वादे
मन के आहते में कुचले हुए पड़े हैं
आज मेरे करीब
दुःख की आँख का होना ही
सबसे बड़ा दुःख है
4 . सफ़ेद से प्रेम
(मीना कुमारी के लिए)
‘सफ़ेद रंग से प्रेम करने वाले
करते हैं प्रेम दुखों से भी’
आखिर यह बात एक बार फिर से
सच साबित हुई
सफ़ेद में डूब कर वह बगुला थी
चुगती जाती कई अनमोल रत्न
जीवन के मटमैले जल में डूबते-उतरते हुए
पता नहीं सफ़ेदी को वह
कैसे रख पाती थी इतना बेदाग़
उस वक़्त,
जब उछाल दिया करती दुनिया
उसकी ओर कई भद्दे रंग
उसकी आत्मा की सफ़ेदी और
गहरे कुएं से छन कर आती हुयी अपनी आवाज़ की डोर पर
दुःख और दुःख के अनेक सहोदर
ऐसे ही विचरण करते हुए आते और बैठ जाते
टिके रहते हैं जैसे बिजली की तार पर तफ़रीह करते हुए पंछी
उसके गहरे मन की तलछट से निकले
कितने-ही आंसू
चढ़ जाते सफ़ेदी की भेंट
दिखने को बची रहती बस एक दर्द भरी मुस्कान
जन्नत की उस संकरी राह की सफेदी
आज भी बनी हुई है
जिस पर चली गयी थी हड़बड़ी में वह
जैसे वहां पर छुटा हुआ अपना कोई समान वापिस लाने गई हो
बुदबुदाते हुए एक ही पंक्ति बार-बार
कि जीना है उसे अभी और भी
- देह
बरसों मैं देह से दूर रही
देह ?
दूरी ?
कारण ?
हाँ, कारण पर ऊँगली रखे बिना
शायद यह दूरी सिमट जाए बिंदु में
तो कारण यही कि
देह के ढेरो तार इतने उलझे से लगे
और उसका सिरा सिरे से नदारद
फिर उस समय सहारे के लिए आत्मा तो थी ही
जिसके आँगन में कोई फेर नहीं दीखता था
न ही उसके अनेक तारों में कोई उलझन थी कि
सिरा खोजने का झंझट सिर-खपाऊ लगे
अब एक बार फिर देह सामने है
देखती हूँ अब
देह में एक ही तार है
जो बकायदा होता है
झंकृत
अब देह और आत्मा को संग-साथ की आदत लग गई है
अब वे एक दूसरे को ऐसे ही देखती हैं
जैसे
जीवन देखता है
मृत्यु को
- दुःख कितना जीवन में
कितना दुःख है इस जीवन में रे
कोई ठहर कर इस दुःख पर बात नहीं करता
कुछ उसकी खोज खबर नहीं लेता
एक-दूसरे से हंसी ख़ुशी मिलने पर एक वृत पूरा होता है
होती है इस दुनियादारी की एक
तस्वीर पूरी
‘हम दो हमारे दो’ के सामाजिक नारे को सीने पर तमगे की तरह पहने
स्त्री-पुरुष हाथ थामे खड़े हैं
पुरुष परिवार में होने के दर्प को होठो में दबा है प्रफुल्लित
उसे तनिक भी खबर नहीं
कितनी बार किसी का दुःख उनकी त्वचा से टकरा कर
वायुमंडल में लोप हो गया है
सब अपने रास्ते चले जाते हैं
एक दूसरे से गले- मिलते
गुनगुनाते
गर्दन हिलाते हुए
अधिक दुःख इस बात का है
कि दुःख के हालात पर कोई घडी भर बात नहीं करता
नहीं पूछता दुःख से कभी कोई
उसे ब्रह्माड जितना विशाल दुःख क्यों है ?
7 . तमीज़
उन दूरियों से कैसा मोह
ले गयी जो मनचाहे क़दमों को मुझ से दूर
बरसों से बंद है उसकी गली में अब आना-जाना
उदासी, अब हर वक़्त मेरे दरवाज़े पर गूंजती है दस्तक की मानिंद
अंतस में उन दिनों की यादें
माचिस की डिबिया में तीलियों सी
कर ली हैं महफूज़
अब प्रेम के लिए बची है बस यादें ही
खुद में ही छिपे रहने की भरकस कोशिश में रहती हूँ अब
रहता है ख़ामोशी के साथ
जैसे फल में छुपकर कोई कीड़ा
चीरे जाने से क्षण भर पहले तक
प्रकृति तमीज़ सिखलाती है
एक तमीज़
दूर गए प्रेम ने भी सिखलाई
- दूरियाँ
मेरी गर्दन
तुम्हारे कंधे
प्रेम में चाहिए
फासला बस इतना ही
मगर प्रेम के बड़े से बेड़े में आकर
दूरियां गढ़ लेती नया आकार
फिर हर बार की मुलाकात में करनी पड़ती
दूरियों की नोक-पलक दुरुस्त
नज़दीकी के मामले में अक्सर ही हम रहे सपनों के भरोसे
और फिर मेरे प्रेम जीवन में घुलने के बाद भी नहीं दे पाया
बेहतर ज़ायका
लंबे अर्से से हम रहे सपनों की खुमारी में
वहां से नहीं आया कोई राजकुमार
आया बस एक प्रेत
कायदे से जिसे नाजुक गर्दन दबानी भी नहीं आई
- तरक़ीब
खरपतवार की सी सरलता से उग आती है
इच्छाएं
उन्हें जड़ों से उखाड़ना इतना सरल नहीं
वह आया था आसान क़दमों से
लेकिन तय है उसका वापिस लौट जाना
उतना आसान नहीं रहा होगा
आने की तरकीबें रुई की फाहों सी हैं
जाने की तरकीब हवा
- पुरानी यादें
पुराने रिश्ते से नाता तोड़ कर वह एक नए रिश्ते में प्रविष्ट हो गया है
पुरानी यादें
मन के हाशिए पर खड़ी हो
उसे प्रेम की नवीनतम अनुभूतियों में डूबे हुए एकटक देख रही हैं
अपने मैले कपड़ों की धूल झाड़ते हुए पुरानी यादें
मन की नयी तरंगों को सुंदर वस्त्रों में देख कुनमुना उठी हैं
पहले प्रेम ने
मन की इसी ज़मीन पर अपनी जड़ें जमायी थी
अब प्रेम के नये सिलसिले में खुद को पूरी तरह रौंद दिए जाने से पहले
एक बार फिर प्रेम अपनी गुज़री यादों को बगल में ले
अपना भाग्य आज़माना चाह रही हैं
इसी क्रम में
पुरानी यादें
मन के किनारे पंक्ति बना
जलते दीपकों की तरह
खड़ी हैं
कतारबद्ध
अंतिम प्रयास के तौर पर पंजों के बल खड़े हो अपना अक्स दिखा
जैसे कुछ याद दिलवाने की कोशिश में हैं
पहले प्रेम की यादें
मगर प्रेमी तो
अपने नये प्रेम में पूरी तरह डूब गया है
- जड़ता
संसार की जड़ता को मैं
अपने ही भीतर तोड़ने की जुगत में हूँ
लिया है मैंने
इड़ा, पिंगला का सहारा
थोड़ी देर बाद ही
देखती हूँ
मन की नदी के बीचों-बीच
मेरी देह
एक पुतले की मानिंद
मेरी पकड़ से दूर कहीं बहती चली जा रही है
- मन
आजकल मैं अपने मन से मुखातिब हूँ
मन
जो ऊबने की हद तक ऊब जाता
अगर मैं उसे खुली छूट देती तो
मगर यह सच है कि उसने मुझसे कई बार पूरी छूट ली
वह जम कर ऊबा
और इतना ऊबा कि उसकी बेशर्मी का जिक्र करते हुए
मैं थोड़ा शरमा रही हूँ
जब मन अपने पर आता है
तो उसे चारों दिशाएं कम लगने लगती है
कई रंगो की शोखी पर वह मुँह बिचका देता है
और अचानक बचपन की कालबत्तियां लगता हुआ सामने खड़ा हो जाता है
कभी मन मेरी पकड़ छुड़ा कर
ऐसे भागता है कि
हवा भी देखती रह जाए
पर अब भी मन
अपने को दबा कर
माँ की मनुहार पर करेला खा ही लेता है
देखो मेरी प्लेट
एकदम सफाचट है
करेले का एक बीज भी बाकी है इसमें ?
- परछाइयों की कहानी
जिस वक़्त परछाईया पूरे शहर को ढकने लगती हैं
उसी समय मेरी देह से आत्मा निकल कर वहां जाती है
जहाँ प्रेम की कल्पनाओं ने अपने पदचिन्ह बनाये थे
उन सभी ठिकानों पर ठहरने, ठिठकने के बाद
लौट आती है देर रात ढले
हर रात अपनी आत्मा के थके हुए पांवों को
गर्म पानी से भरे टब में डालती हूँ
हर रोज़ की यही कहानी है
प्रेम की भटकती हुयी प्रेतात्मा के दूर तक घूम कर
वापिस अपने बिछौने पर लौट आने की
एक उदास कहानी
- कितने प्रेम, कितने पतझड़
प्रेम की जाने कितनी यादें
पतझड़ की पत्तियों की तरह
उसके भीतर झड़ चुकी थी
वह हर बार प्रेम करता
भूलता,
नया प्रेम करता
फिर पुराने प्रेम को भूलने में अपनी ऊर्जा खर्च करता
मनोचिकित्सक ने बताया
यह पहले प्रेम की विफलता से उपजी खीज़ है
जो हर बार नए सिरे से प्रेम करने को उकसाती है
वह बेबस
यादों के पत्तों को बुहारने की तरकीब नहीं जानता
जानता है तो बस नए प्रेम में खोना
और फिर पीले पत्तों सी पुरानी यादों को
झरते हुए
एकटक देखना
15 . मन का देश
मन के मानचित्र पर
पूर्वी हवाएं टहलते हुए आती हैं और भीतर के दरख्तों की जुल्फें बिखेर देती हैं
मन के आहते में
रखी एक बड़ी सी मेज़ पर
तुम्हारी याद का दस्तरख़ान बिछा हुआ है
मन के भीतर फूटते रास्तों की कहानी भी कम रोचक नहीं
एक बड़े से माल रोड से निकलती हुई सड़कें
एक कोने में जा कर गुम हो जाती हैं
छोटी-छोटी गलियां हिचकते हुए जैसे-तैसे अपने लिए
क़दमों का जुगाड़ कर आगे बढ़ जाती हैं
मन का देश
मन के बीचो- बीच है एक बड़ा सा चौबारा
जहाँ उम्मीदों के तराशे हुए बेल- बूटे करीने से सजे हैं
नज़दीक ही सुख के फूलों से लदे-फदे हरे- भरे दरख़्त भी मौजूद हैं
झडे हुए पीले पत्तों की भी कमी नहीं
उन्होंने भी बहुत दूर तक अपना शासन जमा रखा है
ऐसे में एक भूला भटका मुसाफिर
उस लड़की का पता-ठिकाना पूछता है
जो कभी खूब बोलती है और कभी अचानक से चुप हो जाती है
एक डूबी सी आवाज़ से जागती हूँ
सुन मैं जैसे नींद से
हडबडाते हुए बोल उठती हूँ
हाँ, कहो ?
कैसे हो
उस पुकार के बाद मन के मानचित्र पर कोई अक्स नहीं उभरते
जीवन ही वैसा मृदुल नहीं रह पाता
- निशानदेही
कैलंडर पर लाल स्याही से उकेरा हुआ गोल घेरा
पहली मुलाक़ात की सरल पहचान बताता हुआ
विछोह की तारीख भी थी एक लेकिन कैलंडर पर उसकी कोई निशानदेही नहीं
- यादों की सीपियाँ
समुंदर की तेज़ लहरें तटों को अनदेखा कर
दूर तक निकल जाती है
फिर कुछ समय बाद खुमारी उतरने के बाद
लौट आती है अपने तटों की हद भीतर ये लहरें
यादों की ढेरों रंग- बिरंगी सीपियों-शंखों को तट की रेत पर छोड़ते हुए
एक नन्हीं सी लड़की अपने फ्राक की झोली बना
इन छूटी हुयी सीपियों को बटोरती जाती है
बिना यह जाने कि
उसकी सदा चुप रहने वाली माँ को कभी यादों की इन्हीं सीपियों ने डसा था
- लौटा
हमेशा की तरह इस बार भी वह लौटा
बसंत की तरह
चिड़ियों की तरह
खुशबू की तरह
चहचाहट की तरह
पर इस बार राह ताकती लड़की की
याददाश्त की कोशिकाएं घिस चुकी थी
इंतज़ार अब पत्थर हो गया था
अब उसका लौटना भी था
न लौटना
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