संतोष सहर, कवि एवं संस्कृति कर्मी
पिछले साल मई माह के आखिरी दिनों मैं जहानाबाद में था। हमारी पार्टी भाकपा-माले के दिवंगत महासचिव कामरेड विनोद मिश्र अक्सर कहा करते थे – ” दिल्ली का रास्ता जहानाबाद से होकर जाता है।” मैंने नोन्ही-नगवां, दमुहाँ-खगड़ी और इस्से बिगहा नाम के गांव-टोलों की यात्रा की। मगही-उर्दू के शायर वसी अहमद ‘तालिब’ की रचनाओं को हासिल किया और कॉ. कुंती देवी से एक संक्षिप्त बातचीत भी की।
कॉ. कुंती देवी अभी हो रहे जहानाबाद विधान सभा उपचुनाव में भाकपा-माले की प्रत्याशी हैं। वे इस जिले में पिछले 40-42 वर्षों से जारी भूमिहीन दलितों,गरीबों के आंदोलन का एक मजबूत स्तंभ भी हैं। कुंती बिहार में महिलाओं के आंदोलन का वह चेहरा हैं जो इस आंदोलन की एक विशिष्टता को उजागर करता है।
जहानाबाद शहर से पश्चिम करीब 3 मील की दूरी पर है- इस्से बिगहा गांव। गांव के प्रवेश मार्ग पर एक स्मारक है। एक शहीद स्तंभ जिसकी पृष्ठभूमि में ताड़ का एक खूबसूरत पेड़ है, बच्चा पेड़ जो हर साल लपकते हुए बड़ा होता जाता है। स्तंभ पर करीब दो दर्जन से अधिक शहीदों के नाम दर्ज हैं। बिंद व कहार अतिपिछड़ी जातियों की आबादी वाले इसी टोले में कुंती का जन्म हुआ। साल 1967 में यानी जिस वर्ष नक्सलबाड़ी में ‘वसन्त का वज्रनाद’ सुनायी पड़ा था।
अपने समय में भाकपा के जुझारू नेता बुद्धदेव बिंद और सोमरिया देवी की सात संतानों में सबसे बड़ी हैं कुंती। दो भाई, चार बहनें उनसे के प्रखंड नेता थे, मैट्रिक पास थे और अपनी थोड़ी-बहुत जमीन पर खेती करते थे।
पढ़ने की लगन और पिता की दी हुई जमीन पर ही गांव का स्कूल होने के बाद भी उन्हें स्कूल नहीं भेजा गया। तब उस टोले में इसका चलन नहीं था। पांच बेटियों को निबटाना था, इसलिए पिता ने बचपन में ही उनकी शादी भी कर दी, पटना जिले के भरतपुरा के नजदीक सरकंडा गांव में।
विस्टौल और कुंजवा दो पड़ोसी गांव हैं जहां राजपूतों की आबादी है। इन लोगों का दबदबा व क्रूर दमन चलता था। इन गांवों समेत आसपास के गांवों के गरीब इसके शिकार होते थे। इस्से बिगहा के गरीब लोगों के बीच इसके खिलाफ एकता रहती थी। लेकिन भाकपा इस दबदबे व दमन के खिलाफ कारगर लड़ाई लड़ने से हिचकती रही। 80 दशक के उत्तरार्ध में कुंती के पिता समेत अन्य गरीबोँ का भाकपा से मतभेद व मोहभंग शुरू हुआ।
कुंती बताती हैं कि 1979 से मेरे गांव में कुछ दूसरे लोगों का आना-जाना शुरू हुआ। वे लोग अक्सर रात में आते। गांव-घर में बैठकेँ होने लगी। मैंने जब पिता से पूछा तो उन्होंने बताया कि ये नक्सलाइट लोग हैं। जमींदारों से यही लोग लड़ते हैं। हमें तंग-तबाह करनेवाले बिस्टौल-कुंजवा के राजपूत लोगों से यही लड़ेंगे। उनके आने-जाने से गांव में नई सरगर्मी शुरू हुई। मैं भी बाहर से आनेवाले लोगों के लिए खाना जुटाने-बनाने का काम करने लगी। बैठकों में महिलाओं को नहीं बुलाया जाता। लेकिन, मैं लुक-छिपकर बैठकों की बातें सुनने लगीं। तब ज्वाला और सुधीर जी जो पटना जिला के थे, नक्सलाइट पार्टी के नेता थे, जो हमारे गांव में आते थे।
जल्दी ही सिकरिया और बिस्टौल गांवों में मजदूरी की लड़ाई छिड़ गयी। पुलिस भी रोज-रोज आने लगी। गांव में लगातार बैठकें होने लगी और महिलाओं की भी बैठक बुलायी जाने लगी। मैंने यह काम अपने हाथ में ले लिया। गांव की नेता बन गयी।
इसी बीच एक दिन, तीन बजे दिन में ही गुंडों और नक्सलाइट दस्ता के बीच भिड़ंत हो गयी। दोनों तरफ से गोलियां चलने लगीं। देर-सबेर पुलिस पहुंचेगी यह हम सबको पता था। सो, मैंने महिलाओं को संगठित कर लड़ाई में उतारने का जिम्मा लिया। मैंने रातों-रात बिस्टौल, रामदेवचक, मखदुमपुर आदि गांवों में गरीब टोलों में महिलाओं की बैठक की। उन्हें बताया कि पुलिस जब आएगी तो उसका प्रतिरोध कैसे करना है। पुलिस 3 बजे भोर में आयी, दर्जन भर गाड़ियों में लद कर और 20 गरीब लोगों को पकड़ कर ले जाने लगी। एक हजार से भी अधिक महिलाओं ने तुरंत जुटकर चारों तरफ से पुलिस की गाड़ियों को घेर लिया। दो-तीन घण्टों तक यह संघर्ष चला। अंततः महिलाओं की ही जीत हुई। पुलिस को बैरंग वापस होना पड़ा। इस इलाके में ऐसा पहली बार हुआ था। इसका शोर चारों तरफ फैल गया।
इसके बाद तो जहां कहीं भी सामंती धाक के खिलाफ और जमीन और मजदूरी के लिए संघर्ष छिड़ता या सभा-जुलूस होता में जाती। महिलाओं की बैठक कर उन्हें गोलबंद करती। लहसुना, पिरही (पटना) और कराय (नालंदा) में थाने के घेराव में भी शामिल रही। पिता ने तो कभी मना नहीं किया, लेकिन माँ डांट-फटकार और कभी-कभी पिटाई भी कर देतीं।
1980 में बिस्टौल में 15-16 बीघा गैरमजरूआ जमीन दखल हुआ। उसके बाद कुंती ‘होलटाइमर’ हो गयीं – ‘महिला होलटाइमर!’ उनके गांव-घर के कई युवकों ने भी ऐसा किया। लेकिन, उनका ऐसा करना सहज नहीं रहा।
कुंती बताती हैं कि तब गांव-घर में महिलाओं के पार्टी में काम करने को लेकर अच्छा माहौल नहीं था। अपने ही भाइयों, सगे-संबंधियों ने विरोध शुरू कर दिया। वापस घर में लौट आने के लिए पार्टी और मुझ पर दबाव डालने लगे। मेरी ससुराल व पति का भी विरोध सामने आया। गांव-जवार की महिलायें भी इसे अच्छी नजर से नहीं देखती थीं। पार्टी में काम करने वाले पुरुष तो योद्धा समझे जाते थे, लेकिन मैं ?
मैंने हिम्मत नहीँ हारी और अपनी राह पर आगे बढ़ती रही। मेरी पहली शादी खत्म हो गयी। इस बीच 1981 में दिल्ली में आइपीएफ का स्थापना सम्मेलन हुआ। मैं उसकी तैयारी में भी लगी और शरीक भी हुई। बगाही गांव में मजदूरी की लड़ाई में जीत हासिल हुई। नोआवां, सरता, नौगढ़, इक्किल, सलेमपुर, सरैयां (रतनी प्रखंड) आदि गांवों में सामंती धाक को तोड़ते हुए जमीन-मजदूरी की लड़ाई जीती गई। सरता गांव में तो जिलाधिकारी को आकर गरीबों से माफी तक मांगनी पड़ी। शकुराबाद थाना पुलिस को भी झुकना पड़ा। गरीबों का साहस बढ़ा। शासन-प्रशासन का भय दूर हुआ।
1983 में वे अरवल लोकल कमेटी में काम करती थीं। चर्चित अरवल जनसंहार के वक्त कुंती अरवल में ही थीं और इसके खिलाफ हुए जनांदोलन का नेतृत्व कर रही थीं। 1986 में टेकारी (गया) गयीं जहां एमसीसी का आतंक फैला हुआ था। दमुहाँ-खगड़ी में जब कॉ. विद्रोही ने भागवत झा आजाद के मुंह में कालिख पोती, वह उनके साथ थीं। गिरफ्तार भी हुईं लेकिन थाना हाजत से ही रिहा हो गईं। 1989 में वह फिर सेअरवल में काम करने लगीं।
1985 में जब ‘ प्रगतिशील महिला मंच’ (आज ऐपवा) का निर्माण हुआ, कुंती इसका राज्य सचिव बनीं। मगध क्षेत्र में मीना, महेन्द्री, सावित्री, शीला, सामफूल, शांति, कलावती और सर्वोपरि शहीद कॉ. मंजू आदि समेत माले की जो महिला कतार बनी, वे उसकी अगुआ रहीं।
1987 में कुंती और ज्वाला ने अपनी मर्जी की शादी की। वे दोनों लम्बे समय से साथ ही काम कर रहे थे। जहानाबाद के बदहर गांव में जहां उन्हें पार्टी द्वारा दखल की गई जमीन का एक हिस्सा मिला था, उन्होंने अपना आशियाना बनाया।
वे 1990 के बाद से होनेवाले प्रायः हर विधान सभा चुनाव में प्रत्याशी रहीं।
आइपीएफ व ऐपवा की राज्य कमेटियों में भी रहीं ।1992 के बाद कुछ वर्षों तक उलझन व ठहराव का दौर भी आया। लेकिन, कॉ. विनोद मिश्र के निधन के शोक को संकल्प में ढालते हुए वह फिर से लौटीं। 2003 में जहानाबाद-भाग2 से जिला पार्षद निर्वाचित हुयीं। 2004 में माले की राज्य कमेटी सदस्य बनीं।
जेल, मुकदमें और जानलेवा धमकियां – कॉ. कुंती बिहार में क्रांतिकारी महिला आंदोलन का वह ताकतवर चेहरा है, जिनको इनकी जरा भी परवाह नहीं रही।1 967 में जन्मी कुंती ‘वसंत के वज्रनाद’ को सच्चे अर्थों में प्रतिकित करती हैं। वह बिहार के गरीबों व महिलाओं का एक खरा स्वर हैं। उनके सपनों, संघर्षों व उपलब्धियों की वास्तविक छवि हैं।
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