समकालीन जनमत
कविता

मनोज मल्हार की कविताएँ अपने समय और परिवेश की गहन पड़ताल हैं।

देवेन्द्र कुमार चौधरी


कोई कवि कितना महत्वपूर्ण होता है इस बात से पता चलता है कि वह अपने समय, अपने आसपास के जीवन और परिवेश को कितनी निर्ममता के साथ अपनी कविता में दर्ज़ करता है। इस दृष्टि से मनोज मल्हार उल्लेखनीय हैं। वे जहाँ रहते हैं, जहाँ उनकी उपस्थिति है और जो कुछ उनकी आँखों के सामने से गुज़रता है, उसे वह अपनी कविताओं में निर्ममता के साथ दर्ज़ करते हुए चलते हैं। यही उन्हें विशिष्ट बनाता है।

दिल्ली सामाजिक-आर्थिक चुनौतियों, प्रदूषण और भीड़भाड़ जैसी समस्याओं से आज जिस तरह गुजर रहा है और सत्तासीन लोग जिस तरह से दिल्ली को देखना चाह रहे हैं, उसे मनोज मल्हार अपनी कविताओं में बख़ूबी दर्ज़ करते हैं।

‘पुल वजीराबाद’ में कवि लिखते हैं-

“अफवाह है कि
मरने के बाद तमाम आत्माएं
यमुना के काले जल में
जल कीड़ा करती हैं।”

और ‘एक शाम फ़िरोज़शाह रोड’ में…

“लगा फ़िरोज़शाह रोड अपनी आत्मा बिखेर रहा है
अपना रंग, अपना पसंदीदा इतिहास
इतिहास के मनपसंद चित्रों और घटनाओं का अंकन करता हुआ
लगा अभी ही उसे रचनात्मक प्रेरणा प्राप्त हुई है
उसका कालापन गाल पर तिल की तरह सुंदर।”

इसी तरह प्रेम की पड़ताल करते हुए कवि का मानना है कि प्रेम कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी फल फूल सकता है। प्रेम केवल स्निग्धता और शीतलता में ही नहीं होता, बल्कि वह कठोरता और चुनौतियों में भी हो सकता है।
‘धूप और गुलमोहर का प्रेम’ नामक कविता में कवि मनोज मल्हार जी इस बात को ऐसे दर्ज़ करते हैं-

“स्निग्धता से सभी प्रेम करते हैं…
कर सको तो कठोरता से प्रेम करो
जैसे सुकरात ने ज़़हर से किया था.
मीरा की तरह पीड़ा में आनंद खोजो …”

‘अमृतसर आते आते में’ कवि अतीत का संधान करते हुए अपना बयान इस तरह दर्ज़ करते हैं जैसे सब कुछ साफ हो जाता है कि क्या कुछ चल रहा है अभी इस देश में…

“रेल अमृतसर की ओर भाग रही है
भीष्म साहनी रेल का पीछा करते हुए..
मंटों के माथे पर खून से लिथरी मिट्टी..
टोबा टेक सिंह ठीक उनके सामने
‘ओपड़ी गुड़ गुड़िया दी’ बुदबुदा रहा है
नहीं मालूम उसका वतन कौन सा ..
न मंटो को मालूम.”

मनोज मल्हार जी अपनी कविताओं में ऐसे परिवेश से हमारा परिचय करवाते हैं, जो संघर्ष और हिंसा से भरा हुआ है। लेकिन वे उससे घबराते नहीं, बल्कि निडरता के साथ जीवन में साकारात्मकता को बनाए रखने पर बल देते हैं। ‘सांवले चेहरे की हंसी’ इसका ज्वलंत उदाहरण है।

अन्तोगत्वा मनोज मल्हार जी की कविताओं को पढ़ते हुए उनके बारे में यही कहा जा सकता है कि वह अपनी कविताओं में अपने समय की गहन पड़ताल करने में अत्यधिक सजग हैं। उन्हें बहुत बधाई और शुभकामनाएँ।

 

मनोज मल्हार की कविताएँ

1. इतिहासकार का जादू

इतिहासकार शुरू करता है.

भारी-भरकम लयबद्ध आवाज की निरंतरता
सर्वप्रथम मंचीय प्रकाश को गायब कर देती है…
धीरे धीरे इंसानी शक्ल, कद काठी नहीं रहने देती.
अनैतिहासिक अन्धकार – जाल को भेदते हुए
हमें ऐसे प्रकाश व्यवस्था में ले जाती हैं
जहां गुजरे ज़माने के सिक्के हैं
माटी के नीचे दबे पाषाण. गुफा चित्र.
वनैले अँधेरे में पेड़ की टहनी से चिपका है मानव
अस्तित्व की लड़ाई प्रतिदिन लड़ता.
भवन, भवन के कंगूरे और स्थापत्य हैं.
ताम्रपत्रीय अवशेष, स्तम्भ, स्नानागार और भित्तिचित्र.
अद्भुत भवन और पूजा स्थल.
पुराणों के पृष्ठों पर अंकित कथाओं के विश्लेषण का युद्ध है.
एक – एक खुदे अक्षर और चिन्ह की व्याख्या की लड़ाई.

शब्दों से चित्र बनने की प्रक्रिया में
हम देखते जाते हैं विशालकाय मैदान में खड़ी सेनाएं.
राजाज्ञाएं. युद्ध.

धीरे धीरे मन स्वीकारता है –

सत्य एक बहुआयामी और पेचीदा चीज है,
निष्कर्ष पर पहुँचने की जल्दबाजी ना करो.
हर निष्कर्ष और नियमन को साक्ष्य चाहिए..
हर विश्लेषण को तर्क चाहिए.
यहाँ तक कि हर भगवान् को हमारी मान्यता चाहिए.

जब हम कहते हैं राजा
तो साथ में है उसका प्रतिलोम प्रजा.
एक है आज्ञा देने वाला तो
बहुत हैं आज्ञा मानने वाले.

जब – जब राजाज्ञा न मानने वाले
एकजुट होते हैं …तब
इतिहास की एकरसता टूटती है
तब नये अध्याय जुड़ते हैं
तब नई तस्वीरें शब्दों को मजबूती देती हैं….

 

2. अमृतसर आते आते …

हरियाई चुंदरी ताने खेत –खलिहान,
नाचते से गुजर जाते
सफेद वृक्षों की तरतीबवार कतार.
अमृतसर करीब आ रहा है …

शेखपुरा, नौशेरा, बटाला, धारीवाल, तलवंडी.
.. कुछ सुने सुने से लगते ये नाम
जाने पहचाने से.
एकाएक कई किताबों के पन्ने सामने आ जाते हैं
पृष्ठों के परिच्छेद
शब्दों की दृश्यावली.
स्मृतियों में भयावहता उभरती है
बादलों के घेरे में पहाड़ की तरह.
शाहनी ट्रक पर सवार है
शेरा गंडासे को छुपाता हुआ…
सिरों पर गट्ठर लाद इधर –उधर छुपते छुपाते लोगों का हुजूम..
रंगमंच के तनाव भरे दृश्य की बदहवाश भाग दौड़.

तलवारें हवा में लहराती चमकती ..
सफ़ेद दाढ़ी में लाल लहू की बूंदे ..
थाह ले ले चलने वाले
एकदम से भागते हैं तेज क़दमों से.
किसी लड़की की बदहवाश चीखें
कुचले जिस्म पर कोई वस्त्र नहीं


रेल अमृतसर की ओर भाग रही है
भीष्म साहनी रेल का पीछा करते हुए..
मंटों के माथे पर खून से लिथरी मिट्टी..
टोबा टेक सिंह ठीक उनके सामने
‘ओपड़ी गुड़ गुड़िया दी’ बुदबुदा रहा है ,
नहीं मालूम उसका वतन कौन सा ..
न मंटो को मालूम.
….

भव्य दुधिया रोशनी में अंगड़ाई लेता नेशनल हाईवे.
गाड़ियों तेज गति से भागती हुई.
मैं नींद के उनींदे से बाहर आ
चाँद को देखता हूँ.. मुस्कुराता चाँद
अपनी पूर्ण चमक और भव्यता के साथ.
इस वक़्त चाँद से शीतलता आ रही है
उन दिनों चाँद से लहू टपकता था.
लाल रक्त में डूबा चाँद
भयावह चांदनी
तलवार और कटारों के आगे भागते जिस्म.
महज धार्मिक पहचानें थी इंसानी जिस्म की
और कोई पहचान नहीं!

कुछ भागते पदचाप
कुछ भयावह चीखें
कुछ कराहते जिस्म
कुछ रोते पिता
कुछ ह्रदय वेधी चीत्कार करती माँएं….

दृश्यों की भागदौड़ में
एकाएक कृष्णा सोबती भव्य चेहरे के साथ
आकार ग्रहण करती हैं
और मैं ‘जिंदगीनामा’ की पृष्ठों में गुम होता चला जाता हूँ..
इस तरह ‘अमृतसर आ गया है’ …

 

3. कवि के इलाके में

कवि के इलाके की सड़क
उपमा और रूपकों से भरी है..

दो पेड़ों के बीच बहुत कुछ है –
डालियाँ गले मिल रही हैं.
बच्चों के जमघट –से
उछल –कूद करते पत्ते…

माँ के आँचल की तरह
बिछी हैं पटरियां
..रेलें जिम्मेदार बेटे की तरह गुजरती हुई .
फूल खिलते हैं
गेहूं की सुनहरी बालियाँ
हवाओं संग झूमती हुई गाती हुई.

उजाड़ में दरगाह
पवित्र साधू – ह्रदय की याद दिलाता.
वहाँ मन्नतें मांगती स्त्रियों का हुजूम,
सन्नाटे की गूँज है
लोगों के छोटे –बड़े मंसूबे
और न दिखाई देने वाली
पीर औलिया की दुआएं ..

आबाद इलाके की ओर जाती सड़क.
दूर दो –चार मनुष्यनुमा आकृति.
सड़क कवि की भाषा,
इच्छाओं और वजनी शब्दों को
सभ्यता तक पंहुचाती हुई…
कवि के इलाके की सड़क
उपमा और रूपकों से भरी हैं.

रेलें वहाँ इत्मीनान से रुकती हैं
मुसाफिर आराम से टहलते हैं.
यथास्थान कोयल का गान.

.. पनियल मेघ रस सिक्त धरा को देख
ज्यों संतुष्ट होता है
उसकी मुस्कान फुहार बन बरसती है..

 

4. धूप और गुलमोहर का प्रेम

धूप में कितनी आग होती है
आग में लाली..
ग्रीष्म के तपिश भरे दिनों में
नये नये चमकदार पत्तों का हरापन
धूप की सोहबत में निखर निखर आता है..

धूप में रह रहे अंगारे
गुलमोहर को लाल कर देते हैं …
दुनिया को सबक देते हुए कि
प्रचंड घाम में ही गुलमोहर खिलता है ..
ग्रीष्म में खिलखिलाने वाला गुलमोहर बनो.

शीतलता ही प्रेम की जमीन नहीं है…
सूखी पथरीली फटी हुई जमीन पर
एक अंकुर का निकल आना प्रेम है..
स्निग्धता से सभी प्रेम करते हैं ..
कर सको तो कठोरता से प्रेम करो
जैसे सुकरात ने ज़हर से किया था.
मीरा की तरह पीड़ा में आनंद खोजो …

आदिम और अटूट प्रेम है
गुलमोहर की लाली
और तपाती हुई धूप में ..
करो अगर प्रेम तो
धूप और गुलमोहर की तरह करो…

 

5. पुल वजीराबाद

अँधेरे के आगोश में रहता है
यमुना का पानी और रेतीला विस्तार.
एकाध बार
चंचल जल तरंगें
चन्द्र किरणों से कर सांठगांठ
चमचमा उठती हैं

अँधेरे में
कितना पानी बह चुका
…कोई नहीं जानता.
हवाओं में
अफवाह है कि
मरने के बाद तमाम आत्माएं
यमुना के काले जल में
जलक्रीड़ा करती हैं
उत्सव खूब जमता है
नृत्य होते हैं और
संगीत की मरी हुई तान गूंजती है.

बहुत दूर से आती
गुरूद्वारे की सफ़ेद रोशनी की परछाई
नहीं दिखा पाती
इंसानी आँखों को
दुर्घटना में मरी
मार दी गई बलत्कृत आत्माएं

यह झूठ नहीं है
सच! उतना ही
जितना यह कि शहर आज बम फटे हैं
गोलियां चली हैं और
आत्महत्या वाली सूची में
सुबह मेरा नाम नहीं होगा!

हकीकत यह है कि
पुल का हर हिस्सा
सुबह और शाम
गुजरने वालों के लहू से रंगा है…
पुल की हर दीवार
मरी हुई इच्छाओं
सूनी आँखों
इंसानी टुकड़ों पर है टिकी.

सुबह और शाम
गुजरने वाला हर एक
और फिंचता है !
और निचुड़ता है!
और सूखता है !

इस तरह जिंदा है
पुल वजीराबाद!

मैं
ठहरी बसों की कतार
कर पार
आगे बढ़ता हूँ
नृत्यरत आत्माओं की याद हो आती है

आत्महत्या को उद्धत लोग
घसीट लेना चाहते हैं
मुझे भी …
कोई है
जो कानों में पिघला मंत्र डालता है
… मर जाओ
सपनों को मार डालो
सपना कुछ नही
सिर्फ गहराते अँधेरे का आभास है
कुछ नहीं कर पाओगे तुम
कुछ नहीं कर पायेगा कोई …
सब के सब
इतिहास के गड्ढों में फंसे हैं
गाँधी! तिलक ! भगत सिंह!

विचार कहीं नहीं हैं!
है सिर्फ बम और बंदूकें.
इन्हीं की भाषा है कारगर
… और जिस सुबह की लाली
तुम देखना चाहते हो
बम और बंदूकों का धुआं
उसे सात सात समुद्रों के नीचे दबा चुका है …

इनकार करने पर
गाल पर पड़ते हैं तमाचे!
अदृश्य शक्ति कोई
धकेलना चाहती है
अँधेरे में नृत्यरत आत्माओं के बीच!

दरअसल
वे आत्माएं नहीं
मरी हुई इच्छाओं का
पाताल छूता दलदल है
ढोंग का कचड़ा है
और सभ्यता की गर्त है …

हर शाम
बाईपास से ससरती है
रोशनियों की कतारें
बस्तियां आबाद हो उठती हैं
बसें रुक जाते हैं

और
अँधेरे में
बहता जाता जमुना का जल.

रोज ही
उलझता
अधनुचा
अकुशल ….. मैं!

 

6.रात्रि के अंतिम प्रहर में सिंघु बॉर्डर

रात्रि का अंतिम प्रहर
अँधेरे में सुराख लग चुका ..

दूर तक जाती स्याह लकीर.
वाहनों के चक्कों पर
कंटीली तारों और खंदकों के साथ
टिक गयी एक बस्ती,
दूर देश जाते परिंदों की डाल पात शाखें
कुछ जिद्दी रातें कुछ रौनकदार सुबहें.
दीवारनुमा ढांचों पर पोस्टर.
कई झंडे हवा की ताल पर नाचते से.
पीली पगड़ी बांधे भगत सिंह
इत्मीनान से खाट पर बैठे दिख रहे.
कहीं सुराही में पानी
कहीं कम्बल के नीचे बेसुध शरीर…

कुछ लोगों की चहलकदमी चालू हुई …
सड़क का काला रंग धीरे धीरे उभरता हुआ.

नज़र तीन वृद्धों पर अटक गयी है.
खाट पर बैठे तीन वयोवृद्ध.
एक ही दिशा में देखती छः आँखें.
गहन गंभीर चिंतनशील चेहरों पर रंगों का खेल,
काले और सफ़ेद के मध्य कश्मकश जारी है,

फिलहाल स्याह रंग का नियंत्रण.
आँखें उम्र की लकीरों में कैद..

समझ नहीं आया
ये गतिमान स्वप्न दृश्य
या किसी महाकाव्य के पन्नों से निकाल
सभ्यता के नाटकीय दृश्य में बैठा दिए गये चरित्र ..
अतीत ताज़ा हो रहा है..
बूढ़े सफ़ेद किसानी लिबासों में.
अँधेरे से निकली जरा सी सफेदी..
तीन पतंगें ऊंचाई पर उड़ रही बिन डोर .
…वे तीन किताबें हैं
नीर क्षीर विवेक के पन्नों से
गुलाब की ताज़ा खून वाली पंखुड़ियाँ.
तीन सितारे लाल झंडे से निकल
खेतों में भ्रमण करने लगे हैं ..

… इससे पहले कि सूरज की धारदार रोशनी इस जादू को हर ले
मैंने कैद कर लिए स्मृति की सबसे सुरक्षित स्नायु तंत्र में ..
और ज्यों का त्यों आप तक पहुंचा रहा हूँ..

 

7. शहर के परिंदे

शहर के परिंदे
ढल रही शाम का
दिलचस्प नज़ारा प्रस्तुत करते हुए.

ना केवल फ़िज़ा रंगीन गतिवान हैं
बल्कि शहर के लोगों को याद दिला जाते हैं
अब तक सब कुछ ठीक है. …
नफरतियों ने गोलियां चलाई हैं
पर अब भी सब दुरुस्त है.
बाशिंदों ने पिस्टल के सामने कलेजा रख दिया..

शाम को उड़ान भरते
लाल बत्तियों के डंडे पर बैठे परिंदे
तस्दीक करते हैं कि सब सलामत है..
अब तक दंगाईयों के मंसूबे सफल नहीं हुए.
सूरज की रौशनी लहरियादार हवा से है लबरेज़..
काला धुआँ , जलते हुए घर
गिरती हुईं लाशें , लहूलुहान धरती सिर्फ दंगाईयों के दिलों में है…

परिंदे याद दिला जाते हैं हर शाम को
शहर सही सलामत हैं अभी..
बसें आ जा रही हैं
आ जा रहे लोगबाग.
रोजाना घर सही सलामत पंहुचने के मंसूबे
अब तक पूरे हो रहे हैं.
आदत की तरह रोज़
दूध फल सब्ज़ियां खरीदी जा रही.
लड़कियां जम कर श्रृंगार कर रही
माता पिता उन्हें नसीहतें देने में लगे हैं…

…परिंदों की उन्मुक्त उड़ाने
शहर के सही सलामत होने का पता है…

 

8. आजकल अख़बार पढ़ना

आजकल अख़बार पढ़ना
अंत से आरम्भ
खुशी से दुःख की ओर यात्रा है …

आखिरी पृष्ठ खेल की खबरों की होती है
खिलाड़ी जीतते हैं हारते हैं
उनका ज़ज्बा उनके हौसले
चूजों की उड़ान होती है
गिरते लड़खड़ाते उठते
आसमान में पर फ़ैलाते …

अंतिम से आरम्भिक की यात्रा
डर और आशंका से भरी हुई –
कई सारी खुदकुशी हुई है
फर्जी एनकाउंटर …
ज़हर उगलते बदशक्ल हो चुके नेता
रीढविहीन अफसर कुत्ते की तरह जीभ लपलपाते..
फिर युवाओं ने शहर की गलियों को नारों से गीतों से
ताली के सामूहिक कोरस से भर दिया है..
..फिर विपक्षी नेताओं को ज़हर देने की खबर…
उन पर अपराध की कई दफाएँ लगा
सींखचों में जकड़ दिया है…
यौन हिंसा की कई घटनाओं पर
महिला आयोग की शातिर चुप्पी जस की तस ..
विकास दर चिंताजनक है
बेरोजगारी रिकॉर्ड स्तर पर.
कला और साहित्य के पृष्ठ दम तोड़ते हुए .
लोगबाग बाढ़ के पानी में डूबे हुए
मंत्रियों के मुंह से घोषणाओं के बुलबुले…

प्रथम पृष्ठ तक आते आते
मस्तिष्क की शिराएँ
पतली तार की तरह तन जाती है
कहीं वो संतुलन टूट न जाये;
मैं अखबार समेट कर रख देता हूँ..

इस तरह पूर्ण होती है
अंत से आरम्भ की यात्रा
सुख से दुःख तक की यात्रा…

 

9. एक शाम फ़िरोज़शाह रोड

शहर के माथे पर छाप तिलक की तरह छप गया है सूरज..
चाँद वाली मुस्कराहट है
और खिले फूल की डालियों वाली संगत

आत्माभिव्यक्ति है वहाँ..
लगा फ़िरोज़शाह रोड अपनी आत्मा बिखेर रहा है –
अपना रंग. अपना पसंदीदा इतिहास.
इतिहास के मनपसंद चित्रों और घटनाओं का अंकन करता हुआ..
लगा अभी ही उसे रचनात्मक प्रेरणा प्राप्त हुई है
उसका कालापन गाल पर तिल की तरह सुंदर .
वृक्षों के शीर्ष उसके रंग में रंगे हुए .

… वह सुन्दर है
क्योंकि रचनात्मक है..
उसने आज ही पढ़ी होगी
‘एक साहित्यिक की डायरी’
वह शब्दों और भावों के नएपन से खेल रहा..

मेरी चाहत है कि वह ‘मुझे कदम कदम पर’ भी पढ़ जाए आज..
आत्मसात कर ले सारे शब्द और विचार
अभिव्यक्तियों की बारीकीयां.

 

10. परिदों की कक्षाएं

जाने वो क्या था
दृष्टिभ्रम मतिभ्रम चकाचौंध
कोई दिमागी असामान्यता …
मुझे घास पर परिदों की कक्षाएं दिखाई दी.

मुझे ठीक से याद है
स्टूडेंट्स शोर शराबा करते बैठे थे यहाँ
कुछ किताबें कुछ नोटबुक कुछ पेन
वे कक्षा में की गई चर्चा पर चर्चा कर रहे थे
शायद प्रदूषण के बढ़ते स्तर पर
या फिर युवा सुलभ विषयों पर …
तब घास पर धूप फैला था
वृक्ष चुप थे दीवारों की चित्रकारी खामोश
गलियारे शांत .. कोई चटर पटर नहीं.

मेरी आंख मुंद कर खुली
…. घास पर शाम का स्याह था
और ढेर सारे परिंदे बैठे हुए..
हैरानी की बात थी
परिंदे भी शोर शराबा कर रहे थे
शायद जोरदार बहसें कर रहे थे
एकदम मनुष्य वाले स्टूडेंट्स की तरह.
वही रवानगी वही तत्परता
आँखों में पत्तों वाली किताबों के पन्ने झलक रहे से..
मुझे वो स्टूडेंट्स लगे
मानवेतर जगत के स्टूडेंट्स!
वैसे ही शोर शराबा करते.
जो मुझे समझ में आया
वे पक्षियों की सभ्यता पर चर्चा कर रहे थे
इतिहास-पुराणों से बहुत पहले के युगों से नाता जोड़ते हुए
..तब धरती पर मनुष्य नही, परिंदे नेतृत्व करते थे
विशालकाय वृक्षों पर विशालकाय घोंसलें हुआ करते थे
फलों से भरे वृक्ष! पानी से लदे जलाशय.
उन्हें सिर्फ उड़ान भरनी होते थी
धरती की तहें, आकाशीय दूरी मापने के लिए..
मतलब ये कि परिंदों की सभ्यता में विज्ञान और गणित खूब विकसित थे.
साहित्यशास्त्री घोंसलों के सौंदर्य पर महाकाव्य लिखा करते थे
उनके विविध रंगी पंखों की बारीकियां
चित्रकारों को प्रफुल्लित कर देता था.
उन्होंने अपने सांस्कृतिक नायकों के नाम भी लिए
पर अभी मुझे वो याद नहीं आ रहा..
… फिर जैसा कि उनकी भाव भंगिमा से ज्ञात हुआ –
धीरे धीरे मनुष्य की सभ्यता आयी
महान महत्व वाले प्राचीनतम वृक्ष कटने लगे…
आग लगाई जाती थी! जंगली आग!
वृक्ष की हर डाल के साथ उनके घोंसले जलते थे
उनके महान प्रतिनिधि आग में भून दिए गये..जला दिए गये..
वे मनुष्य की बर्बरता को याद कर अत्यंत खिन्न और हताश हो जाते हैं..
शायद कहीं कोई स्मारक , स्मृतियों के चिन्ह हों..
शायद वो जानते हों हत्याकांड के कोई निशाँ.
ऐसा नहीं था कि उन्होंने मनुष्य से संवाद की कोशिश नहीं की..
बार बार की. मगर हर बार उन्हीं के घर जले
उन्हीं के वृक्ष कटे, उन्हीं की सभ्यता नष्ट हुई
जमीन बंजर कर दिए गये
उनके दाना चुगने तक का काम हराम कर दिया गया
क्यूँ कर दिया गया ऐसा ??
‘ये धरती तो सब की थी .. हम परिंदों की भी..
फिर हम दाना क्यूँ नहीं चुग सकते ???’

.. दोस्तों! मैं मनुष्य समाज का अकेला प्रतिनिधि था वहाँ
मैं शर्म से गड़ रहा था.. आंसू अविरल बहने लगे थे.
उनके लेक्चर के बीच मैं कैसे जाऊं कैसे कहूँ
कैसे बताऊँ कि मनुष्यों ने सफलतापूर्वक
बहुत से वनों को नष्ट कर दिया है
युद्ध समर्थक लोगों ने बम – बारूद के विस्फोटों से
शहरों को काला मलबा बना दिया है
आसमान की पवित्रता में सुराख है.
वहां मनुष्य के लिए जगह नहीं
तो परिंदों के लिए ख़ाक होगा!!..

मैं पर्याप्त शर्मसार हो चुका था
ग्लानी से आत्मा पिघलने लगी थी
उनकी कक्षाएं जारी सी थी
परिंदे झुण्ड में अब भी शोर शराबा सा कुछ कर रहे थे ..

बहुत बड़ा बोझा था अपराध का
उस समय सिर्फ मैं वहां था ..
मेरी आँखों में यादों के जंगल थे जलते हुए
जलते कलात्मक और सुंदर घोंसले
पंछियों को सीखचों में बंद किया जा रहा था
उनके पंख कतरे जा रहे थे..

 

11. सांवले चेहरे की हंसी

दीवारों पर पके ईंटों के रंग का फैलाव.
असमतल सीढ़ियों के नीचे ठहरी नालियां.
मटमैले आसमान का थोड़ा सा हिस्सा …
आते जाते इंसानों के बीच
पीठ पर बस्ता लादे
एक स्कूली लड़की का प्रवेश.
नीली स्कर्ट घिसी पिटी हरी कमीज ..
दो चुटिया कन्धों पर ..
अनायास उसकी नज़र मुझसे मिलती है..
आदतन मैं मुस्कुरा देता हूँ..
और जवाब में वो मुस्कुराती चलती
गली की टक्कर से ओझल..
सांवले चेहरे की हंसी ठहर जाती हैं वहीं..

..यहाँ पत्थर बाज़ी हुई थी
गोलियां हवा में थी अब भी.
दरवाजे तोड़े गये थे.घर जले थे
हवा में काले धुएं के कण बरक़रार .
रह रह धमाके झेल रहे
दीवारों के पीछे लोग
वक़्त बीतने का इंतज़ार कर रहे थे..
दंगाईयों के दफ्तर ने सुनिश्चित कर रखा था –
अमन चैन नहीं ही रहने चाहिए…
नाले की ऊपर सीढ़ी पर आरामतलब औरतों की गप्पें.
लडकें कैसे शांति से रेहड़ी पर पानी के डब्बों संग दूकान लगाने जा रहे हैं!! ..
फैशन की दुकानों की रंगीनियत में खिले चेहरे उनके स्वाभाविक शत्रु.

….आज लड़की की हंसी सब पर भारी थी.
हवा में टंगी सांवले चेहरे की हंसी
जैसे उड़ते पतंग की डोर थाम
चमकता सितारा टंग गया हो
चमकता और चमकाता..

 

12. ‘अपराध और दंड’ पढ़ने के बाद

गेहूं के भूसे की मरी रंगत में लिपटा
धब्बेदार, धूसर शहर.

दिनों की घटनाएं
एकदम खिसकती चट्टान सी
गिरती हैं..अचानक
शहरी हो हल्ले में
गर्मी के दिनों के
तीव्र, आवेशी दृश्य की तरह
कंपकपाती है
अशांति की आशंका,
बीमार गंधाते समाज को
दूध पिलाता समाज….

धूल की कीचड़दार पर्तों में लिपटे
बड़े रोड़े गड्ढे गहरे.
हवा का जोरदार झोंका –
और धुल से ढँक जाती है दिशाएँ

राह में देने फैलाये ज़र्द गेरुआ ट्रक.
बड़े खतरनाक ढंग से मुडती हैं टायरें
वीभत्स ढंग से टकराती हैं
पिलाई रोशनी की आड़ी तिरछी रेखाएं
छायाएं नाच उठती हैं
पास कहीं कर्कश संगीत गूंजता है
पेड़ की डालों से कौवों का झुण्ड उड़ा जाता
कांव – कांव की रौरव फैलाता.
फिर जान पर बन आयी है.

पानी का कैन लादे
रस्कोलनिकोव
असहाय नज़रों से घूर रहा है

वह घूर रहा है
और उसके सामने है रंगीनियों की चकाचौंध.
नियोनी रश्मियों के पुंज!
बहुत बड़े साइनबोर्ड में
उन्मुक्त हँसी बिखेरती तारिकाएँ…

वह घूर रहा है
क्रूरता के मासूम से दिखते चेहरों को
जो रात के अँधेरे में दानव अवतार लेते हैं
और मंदिरों –मस्जिदों में
ताले लटक जाते हैं…
असहाय नज़रों से घूर रहा , वह
शर्तिया अपराध करेगा .
फिर दूनिया के कदमों को चूम, कहेगा –
“मैं तुम्हारे नहीं, समस्त पीड़ित मानवता के
क़दमों चूम रहा हूँ”
तंग गलियों में वो फक्कड़
ठोकरें खायेगा ,
भूख से अकड़ी अंतड़ियाँ लिये
माँ के दुखों को याद कर
वह फिर वार करेगा…
खौफनाक अपराध !

पत्थर . चाकू , लाठी
सामूहिक दहन की सामग्रियों से
सज्जित नैतिकताएं ,
तमाम धर्मशास्त्रों की आयतें
खतरनाक अपराधी बतायेंगी…
….धीरे धीरे
धुंधली पड़ती जाएँगी
श्रेष्ठ मानवीय भावनाएं.
आप दार्शनिक होते होते
एकदम से चिल्ला उठेंगे –
‘हाँ हाँ! अपराधी है वह !
खून किया है उसने!’

मगर रस्कोलनिकोव को नहीं रोक पाएंगे.
माथे पर शिकन , आँखों में जलन लिये
विश्थापित , दर- बदर
इनके भीतर जी उठेगा रस्कोलनिकोव
पवित्र और ‘वांटेड’ अपराधी
दोस्तोयेव्स्की.

 

13. अंसल के कबूतर

जब शहर में आग की लपटें मोटे परतदार पुलों को पिघला डालेंगी
जब काले धुएं की गुबार में शेष रंग तितर बितर हो जायेंगे.
जब हिंसक नकाबपोशों के गिरोह सड़कों पर लहू बहायेंगे ..
… तब भारी तादाद में
वाहनों से लबालब भरी सड़कों को
अपनी मस्त लयबद्ध उड़ानों से
तोरण द्वारों की तरह सजा संवार देने वाले
कबूतरों के झुण्ड क्या करेंगे?

जब किसी गुप्तचर से
दरिंदों को ज्ञात होगा –
भारी संख्या में सड़कों पर गोते लगाते
अंसल की मादक गलियों रोशनियों के शौक़ीन
शाम को संगीत की अल्हड़ ऊर्जावान धुनों पर नर्तन करने वाले
कबूतरों ने बड़ी चतुराई कुशल आयोजन से
आँखों में प्रेम के आंसू की तरह
अपने सात घेरों के बीच सफ़ेद कबूतर को छुपा रखा है..

तब कठोर चेहरे जनरल डायर में तब्दील होते होते
तमाम संग्रहित अस्त्र शस्त्र दाग
इनकी गति को अकड़ को
सर उठा कर बहस कर लेने के विश्वास को
महबूबा को फूल भेंट करने,
-‘ये धरती जितनी तुम्हारी उतनी हमारी भी है
हवा पानी आकाश धूप ..
..हम भी प्रेमियों के जोड़ों की मानिंद
अंसल की सीढ़ियों पर बैठते हैं’ –
इतना कहने की गुस्ताखी पर
धराशायी कर दिए जायेंगे.
..तब उनके निशाने पर होंगे
सड़क का वो उभार
पुल की वो गहराई
जहां कबूतर उड़ाने भरते हैं,
कालिख के ढेर में तब्दील हो जाएगी वो जगह
जहां कुछ इंसान दाना – पानी डाल आते हैं…

सिर्फ ये सबूत है उनके पास –
दशकों से वे वहाँ रहते आये हैं..
वहाँ की हवा को फिजा को
धूप की गर्माहट को
चाँद की शीतलता को पहिचानते आये हैं..
इसी शहर के बाशिंदों ने उन्हें दाना पानी दिया है..
….मगर वे कागज़ नहीं दिखा पायेंगे
अदालत में गुटरगूं समझ कर वर्णित करना
किसी भाषा वैज्ञानिक,माननीय जज साहेब
वकील के लिए नामुमकिन होगा…
…क्या उनके लिए कारागार होगा या फिर
एक बार , सिर्फ एक बार का कत्लेआम..
सिर्फ एक बार तबाही के मंजर
मलबों के ढेर, जली हुई ईंटें, अधजले पेड़
नुची अधजली धरती…और
सिर्फ और सिर्फ शव..

 


कवि मनोज मल्हार, फिल्म समीक्षक और प्रोफेसर. सामाजिक- राजनीतिक कार्यों और सांस्कृतिक आयोजनों में में निरंतर सक्रियता. कई पत्र-पत्रिकाओं, समाचार पत्र एवं प्रतिष्ठित ई – माध्यमों पर कविताएँ, फिल्म समीक्षा एवं आलोचनात्मक लेख प्रकाशित. वर्तमान में हिंदी विभाग, कमला नेहरू कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में अध्यापन एवं लेखन. सम्पर्क : manoj.hrb1@gmail.com

 

टिप्पणीकार देवेन्द्र कुमार चौधरी, जन्म: 4 जून 1975 को प्रतापगंज, जिला-सुपौल (बिहार) में। शिक्षा: हिन्दी से स्नातकोत्तर (पटना विश्वविद्यालय, पटना से )। सृजन: हिन्दी की विभिन्न पत्र पत्रिकाओं, साझा संकलनों एवं कई ऑनलाइन प्लेटफॉर्म पर कविताएं प्रकाशित।
सम्प्रति: स्थानीय सरकारी विद्यालय में अध्यापन एवं लेखन। सम्पर्क: ग्राम व पोस्ट- प्रतापगंज, जिला- सुपौल (बिहार) पिन- 852125
मो0-8877249083
ईमेल: devendrac615@gmail.com

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