पवन करण
आदमी के अपराध औरत की भेंट चाहते हैं
यह सबक वह पिट-पिटकर सीख रही है-
संजीव कौशल की कविता की स्त्रियों से ( पक्षियों, मौसमों, रंगों, नदियों, फूलों और घटनाओं से भी ) हम अपने घर, बाजार, पार्क, दफ्तर, बस और मेट्रो में मिल सकते हैं। उनसे मिलना-बात करना संजीव की कविताओं को पढ़ने जैसा है। उनके नये कविता संग्रह ‘फूल तारों के डाकिये हैं’ की कविताओं की स्त्रियाँ हमारे बेहद करीब की वे स्त्रियाँ हैं, जो जीवन और समाज में हमारी साथिनें हैं। ये वे स्त्रियाँ नहीं है, जिनके बारे में हम बस सुनते और जिनके जीवन में शामिल उमंग और संघर्ष की बात अथवा कल्पना करते हैं। कवि अपनी इन कविताओं में स्त्रियों को अपनी संवेदित निगाह से देखता और कभी सुर्ख गुलाब जैसी कोमलता और किसी छिपकर उगे कांटे जैसी चुभन से उनकी बात कहता है। इन कविताओं में भले ही ‘दो लोगों का बीच’ बहुत हो मगर स्त्रियों की पीड़ा और प्रेम के साझीदार संजीव की कविता की स्त्रियां कभी-कभार ही अपनी तरफ से अपनी बात कहतीं हैं, मगर जब कहतीं हैं, तड़पा देती हैं। उनकी कविताओं में स्त्रियों ने जितनी जगह घेर रखी है। दुनिया में भी उनकी उतनी जगह हो।
चलकर यहां तक पहुंची दुनिया, यदि आधी दुनिया के (पुरुषों के) संघर्ष और सफलताओं से भरी है तो आधी दुनिया के (स्त्रियों के) शोषण और दुखों से भी भरी है। पुरुष अपने संघर्षों से हासिल सफलताओं का लगातार जश्न मना रहा है तो स्त्रियाँ अपने शोषण की बहुत धीमी गति से बदलती मानसिकता से मुक्त होने, दुखों को जीतने और आंसुओं को जाया न होने देने की जद्दोजहद में लिप्त है। कवि संजीव कौशल की ख़ासियत यह है कि वे स्त्रियों की इस जद्दोजहद को पहचानते ही नहीं वरन उनका एक हिस्सा भी हो जाते हैं और जैसा कि मैनें कहा भी, कि स्त्रियों का कहा वे कहते हैं, उनकी कविता की स्त्रियां उन पर भरोसा करती हैं और यह भरोसा बढ़ता हुआ उनकी कविता पढ़ने वाले पाठकों तक पहुंचता है।
साथ रहने की शानदार और समर्पित शुरुआत करने वाले कालांतर में कब साथ रहते हुए मरने लगे वे ये जान ही नहीं सके। इस रास्ते पर चलते हुए वे इतना आगे निकल आए कि अब सिवाय अंत के कोई प्रतीक्षा नहीं। प्रेम तो पहले ही मर चुका था? क्या प्रेम वाकई मर जाता है?? संजीव अपनी किताब में स्त्री-पुरुष के बीच के प्रेम को मरने तो क्या मुरझाने भी नहीं देना चाहते और इसके लिए वे लगातार जतन करते हैं। उनकी कविता, छोटे सबसे सरल प्रतीकों से, रोजाना घटने वाली घटनाओं और दृश्यों के माध्यम से ‘प्रेम की देह में धड़कन की तरह’ बने रहना चाहती हैं। संग्रह की शहद जैसी ये कविताएँ पढ़ने के दौरान सीधे आपसे मिलेंगी, आपको झुमा देंगी। संग्रह की ऐसी कविताओं को जिनमें कवि संजीव का कौशल विन्यस्त है, आप पहचान लेंगे। प्रेम में किये जाने वाले कुछ नव-जतन, कुछ मीठीं-मनुहारें, कुछ मारक-उपमाएँ और दाहक-प्रशंसाएँ इन कविताओं में भी आप ढूंढ और जोड़ सकते हैं।
‘प्रेम अपना फीका होना स्वीकार नहीं करता अपने लिए चाँद से कम चमकीली कोई उपमा उसे स्वीकार नहीं’
संजीव जिस तरह अपनी कविता में किन्हीं स्त्रियों को देखते हैं वे उसी तरह चिड़ियों, रंगों, टहनियों और उन पर उगी पत्तियों को देखते हैं। आखिर किसी स्त्री को देखने और किसी रंग, किसी पक्षी, किसी वृक्ष को देखने में क्या अंतर हो सकता है। इन सब का देखा जाना, एक स्त्री के देखे जाने में समाहित है। किसी नदी से बात करने और किसी स्त्री से बतियाने में भेद कोई कवि ही खोल सकता है। इसे जीवन और प्रकृति से प्रेम का विस्तार ही कहा जाना चाहिए।
संजीव की कविताओं की उल्लेखनीयता यह भी है कि उनकी राजनैतिक-सामाजिक समझ पुख़्ता है। जितनी सिद्दत से वे प्रेम की पहचान कर लेते हैं। जितनी गहराई से वे प्रकृति में बदलाव को पकड़ लेते हैं। पक्षियों की उदासी भांप लेते हैं। उतनी ही तीक्ष्णता से वे मनुष्य की ताकतवर एवं राजनैतिक शोषक-शक्तियों और उनकी कारगुज़ारियों को चीन्ह लेते हैं। संग्रह की अनेक कविताएँ उन्हें प्रतिरोधी और हस्तक्षेपकर्ता कवि की स्पस्ट पहचान देती हैं।
प्रेम करने और प्रतिरोध रचने में ज्यादा अंतर भी नहीं। वे प्रेम कविताओं के रास्ते कुछ प्राप्त करने के लिए प्रयासरत कवि नहीं, वे प्रतिरोधी-पथ पर बढ़ते हुए प्रेम बचाने के लिए तत्पर कवि हैं। प्रेम बचेगा तो जीवन बचेगा । मनुष्यता बचेगी। प्रेम के बिना जीवन और मनुष्यता की कल्पना नहीं की जा सकती।
जहाँ ख़ुद को कवि दिखाने और जताने का प्रयास कम है। चर्चा और प्रचार कम है। वहां कविता कितनी समृद्ध वैविध्यपूर्ण और विश्वशनीय है। संजीव कौशल की कविताएँ इसका बढ़िया उदाहरण हैं।-
◆कब्रें होती हैं अपराधी सारा इतिहास बिगाड़कर
कैसे सो सकती हैं वे चैन की नींद
◆जरूरी नहीं हत्या तलवार से हो
अच्छी हत्याएं दिमाग में होती हैं
◆जमीन पौधों को सीच लेती है
अपने बेटों को नहीं सीच पाती
◆गोलियां वैसे ही चल रही हैं
सीने बदल रहे हैं मगर हाथ वही हैं
◆हाथों में इस तरह लहराते हैं
कि ईश्वर का नाम भी हथियार बन जाता है
हिंसा और नफरत से भरा हुआ
◆पापा खेत बचाने गये हैं….बच्चे ने जोश से कहा
जीत कर आये तो क्या करोगे
फूलों का हार पहनाऊंगा
पुलिस की गोली लग गई तो
बच्चा थोड़ा हिचक गया
फिर बोला तब भी फूलों का हार पहनाऊंगा
◆वक्त की दीमक बन्दूक़ों को खा जाती
◆मांग भरते ही
लड़की झुककर लड़के के पैर छूती है
जो रिश्ता बराबरी का था
संस्कार की बंदूक उसे डस लेती है
◆विदा होने के सालों बाद भी
लड़कियों की डोलियां कई बार
टीस लिए पीहर लौट आती हैं
◆कितना छोटा शब्द है नहीं..कितनी छोटी आकांक्षा
कितना मुकम्मल प्रतिरोध
बस स्त्रियों को इसकी इजाजत नहीं
◆कंकड़ उठा और चिड़िया के कंठ में समा गया
गीत धम्म सा नीचे गिर गया
◆उसमें बैठने वाले पूरा देश नाप चुके
भाव लगा चुके जंगल खदान बस्तियों के
और हम हैं कि देख रहे हैं राह
बुलेट ट्रेन की हमारे स्टेशन पर रुकने की।
◆कविताओं की क्यारियां हमेशा हरी रहती हैं ।
(संजीव कौशल की कम शब्दों और कम पंक्तियों में लिखीं जाती कविताओं का मैं और मुरीद हुआ। संग्रह लोकभारती से प्रकाशित है)
कविता संग्रह: फूल तारों के डाकिए हैं
प्रकाशक: लोकभारती प्रकाशन
मूल्य: 250 रुपये (पेपरबैक)
समीक्षक पवन करण का जन्म 18 जून, 1964 को ग्वालियर, मध्य प्रदेश में हुआ। उन्होंने पी-एच.डी. (हिन्दी) की उपाधि प्राप्त की। जनसंचार एवं मानव संसाधन विकास में स्नातकोत्तर पत्रोपाधि।
उनके प्रकाशित कविता-संग्रह हैं-‘ इस तरह मैं’, ‘स्त्री मेरे भीतर’, ‘अस्पताल के बाहर टेलीफोन’, ‘कहना नहीं आता’, ‘कोट के बाजू पर बटन’, ‘कल की थकान’, ‘स्त्रीशतक’ (दो खंड) और ‘तुम्हें प्यार करते हुए’। अंग्रेजी, रूसी, नेपाली, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, गुजराती, असमिया, बांग्ला, पंजाबी, उड़िया तथा उर्दू में उनकी कविताओं के अनुवाद हुए हैं और कई कविताएँ विश्वविद्यालयीन पाठ्यक्रमों में भी शामिल हैं।
‘स्त्री मेरे भीतर’ मलयालम, मराठी, उड़िया, पंजाबी, उर्दू तथा बांग्ला में प्रकाशित है। इस संग्रह की कविताओं के नाट्य-मंचन भी हुए। इसका मराठी अनुवाद ‘स्त्री माझ्या आत’ नांदेड महाराष्ट्र विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर पाठ्यक्रम में शामिल और इसी अनुवाद को गांधी स्मारक निधि नागपुर का ‘अनुवाद पुरस्कार’ प्राप्त। ‘स्त्री मेरे भीतर’ के पंजाबी अनुवाद को 2016 के ‘साहित्य अकादमी पुरस्कार’ से पुरस्कृत किया गया।
उन्हें ‘रामविलास शर्मा पुरस्कार’, ‘रजा पुरस्कार’, ‘वागीश्वरी पुरस्कार’, ‘शीला सिद्धान्तकर स्मृति सम्मान’, ‘परम्परा ऋतुराज सम्मान’, ‘केदार सम्मान’, ‘स्पंदन सम्मान’ से भी सम्मानित किया जा चुका है।
सम्प्रति : ‘नवभारत’ एवं ‘नई दुनिया’, ग्वालियर में साहित्यिक पृष्ठ ‘सृजन’ का सम्पादन तथा साप्ताहिक-साहित्यिक स्तम्भ ‘शब्द-प्रसंग’ का लेखन।
ई-मेल : pawankaran64@rediffmail.com