पंकज चौधरी
प्रेम की तरल संवेदना के कवि हैं देवेंद्र कुमार चौधरी। देवेंद्र को पढ़ते हुए केदारनाथ अग्रवाल याद आते है। केदारनाथ अग्रवाल इसलिए क्योंकि देवेंद्र ने भी अपनी कविताएं पत्नी के प्रेम में ही लिखी हैं। जहाँ पति पत्नी से समानता का व्यवहार करते हुए कविताएँ लिखता है और पत्नी के अटूट प्रेम और समर्पण की छवि को प्रकट करना नहीं भूलता। वह निखालिस अपनी सुनाता नहीं जाता। उसे पता है कि प्रेम दो पक्षों का मामला है। दुनिया का निर्माण तभी संभव है जब दोनों मिलकर हाथ बटाएँ प्रेम की सार्थकता इसी में है। उसकी लौकिकता और अलौकिकता का सुख भी यहीं है। देवेंद्र इस लिहाज से डिफरेंट कवि हैं।
समकालीन हिंदी कवियों की प्रेम कविताओं का यदि बारीकी से अध्ययन किया जाए तो पता चलेगा कि पुरुष कवियों की कविताओं से मर्दवादी और सामंती मानसिकता की बू आ रही है। हिंदी कवि अपनी प्रेमिकाओं को ऐसे संबोधित करते हैं गोया वह उसकी कोई जागीर या संपत्ति हो। उसने उस पर पेटेंट करा रखा हो। अधिकांश स्त्रीवादी कवयित्रियाँ/लेखिकाएँ भी इस बात को मार्क नहीं करतीं क्योंकि ये उनका वर्गीय और वर्णीय मामला बन सकता है। ऐसा उस वर्ग में इसलिए भी देखने को मिलता है क्योंकि उसके पास हजारों साल से सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक और सांस्कृतिक सत्ता होती है। सत्ता की हनक में ऐसा होना अस्वाभाविक नहीं। देवेंद्र प्रेम कविताएँ लिखें या प्रकृतिपरक, दोनों बगैर प्रेम के संपूर्ण नहीं होती। वहाँ प्रेम को आना है। प्रकृति वैसे ही प्रेम का उद्दीपन नहीं है! इसीलिए देवेंद्र की कविताएँ ओरिजनल हैं। वे जिस समाज से आते हैं वहाँ स्त्रियाँ सर्वाधिक स्वतंत्र भी हैं। ज़ाहिर है उनका स्वावलंबी होना इसका बड़ा कारण हो।
मज़दूरों को लेकर लिखी देवेंद्र की कविता दिनेश कुशवाह की ‘इतिहास में अभागे’ की याद दिलाती है। दुनिया के निर्माता मज़दूर और किसान हैं। लेकिन इतिहास की पुस्तकों में कहीं उनका ज़िक़्र तक नहीं। देवेंद्र ने मज़दूरों के जीवन के लिए ‘खखोरन’ जैसे बिम्ब का भी प्रयोग किया है जो बिलकुल अलहदा, सटीक और अचूक है। कविता में उक्त शब्द के अर्थ को समझाया गया है। मैथिली साहित्य में इस शब्द का खूब प्रयोग होता है लेकिन हिंदी में मेरा ख़याल है कि यह पहली बार आया होगा। इसे हम देवेंद्र की ख़ूबी कहेंगे कि वे अपनी कविताओं में बिलकुल टटके बिम्बों, प्रतीकों और रूपकों का प्रयोग करते हैं। इस दृष्टिकोण से ‘सहजन का फूल’ भी उल्लेखनीय है। कभी-कभी मुझे लगता है कि मज़दूरों की दुर्दशा के लिए कहीं ख़ुद मज़दूर भी तो ज़िम्मेदार नहीं हैं क्योंकि दुनिया के सारे उसूल, कायदे और नीति-नियमों का पालन तो वे ख़ुद करते रहे लेकिन जिससे उनकी लड़ाई है और जिनको वे धन्ना-सेठ बनाते रहते हैं, वे उन कायदे-कानूनों की धज्जियाँ उड़ाते रहे। देवेंद्र ने बड़ी सूक्ष्मता से इसका काव्यात्मक वर्णन किया है। कंवल भारती ने दिनेश कुशवाह के काव्य संग्रह ‘इतिहास में अभागे’ पर आलोचनात्मक आलेख लिखते हुए कहा है, ‘‘अभागे वे हैं जो इतिहास के नायक हैं, पर जातिवादी इतिहासकारों की उपेक्षा के शिकार हुए। राजेंद्र यादव कहते थे कि पराजितों का इतिहास नहीं होता। हालांकि वह इतिहास की गलत समझ के कारण ऐसा कहते थे। जबकि सच यह है कि इतिहास विजेताओं ने लिखे, जिन्हें अपनी जीत की गाथाएँ ही लिखनी थीं लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि पराजितों का इतिहास नहीं होता। इतिहास वास्तव में पराजितों का ही होता है। संघर्ष और बलिदान ही इतिहास का निर्माण करते हैं।’’
भविष्य के प्रति आश्वस्त करतीं देवेंद्र की कविताएँ उम्मीद जगाती हैं। उन्हें बधाई और शुभकामनाएँ।
देवेन्द्र कुमार चौधरी की कविताएँ
1. कहानी का असली नायक
दुनिया के इतिहास में मजदूरों के लिए
कभी भी श्री शब्द दर्ज नहीं था
हमेशा दूसरों की इच्छाओं के लिए जीने वाले
रातों की नींद भी उन्हीं के अनुसार लेते थे
उन्हीं इतिहास के पन्नों में अपना नाम
दर्ज कराने वाले लोगों की कहानी
इन्हीं मजदूरों के पसीने से लिखी गई
ध्वस्त हो चुके स्मारकों या भवनों के
उत्खनन से निकले अवशेष में भी
मौजूद रहा इन्हीं मजदूरों के देह की गंध
इसलिए इतिहास में दर्ज नाम जिसके भी रहे हों
उसका असली नायक तो यही मजदूर रहा है
एक मजदूर का जीवन घी का वह खखोरन है
जिसे फेंक दिया जाता है और समझा जाता है
यह कुछ भी नहीं
और खखोर कर उसी घी से अपने जीवन का
स्वाद बढ़ाने वाले लोग
एक मजदूर के स्वाद ग्रंथि पर
जड़ देते हैं ताला
अपनी इच्छाओं के प्रतिकूलित होने पर
एक मजदूर ठीक से जी नहीं पाता अपना जीवन
चाक पर मिट्टी की तरह
और नाचता रहता है जीवन भर
इन्हीं लोगों के इशारों पर
यही मजदूर धरती पर उगाता रहता है
जगह-जगह एक सुंदर-सा फूल
और खुशबुओं से भरता रहता है इनका जीवन
ऐसे मजदूर की दास्तां
उस अनकही कहानी की तरह है
जो अभी भी जन्म नहीं लिया है इस धरती पर।
2. तुम आ जाना
जब लिख रहा होउं
एक आखिरी प्रेम पत्र
तब उसमें तुम
एक जरूरी हस्तक्षेप की तरह आ जाना
जैसे रात के बाद स्वतः आ जाता है दिन
जब उकेर रहा होउं
उस प्रेम पत्र में
सम्पूर्ण स्वानुभूत सत्य
तब उसमें तुम
एक आवश्यक दस्तावेज की तरह आ जाना
जैसे श्याम के साथ स्वतः आ जाती है राधा
जब अभिव्यक्त कर रहा होउं
उस प्रेम पत्र में
अपनी तरल भावनाएं
तब उसमें तुम
एक महत्वपूर्ण तथ्य की तरह आ जाना
जैसे मीठा खाने के बाद स्वतः आ जाता है मिठास
जब लिख रहा होउं
एक आखिरी प्रेम पत्र
तब उसमें तुम
एक अनिवार्य चेतना संपन्न विचार की तरह आ जाना
जैसे प्रातः वेला के बाद स्वतः आ जाता है सूरज।
3. तुम्हारी तस्वीरें
मैंने तुम्हारे प्रेम पत्र की तरह
सुरक्षित रखी तुम्हारी तस्वींरें
और ठीक तुम्हारी तरह
तुम्हारी इन तस्वीरों से भी किया बहुत प्रेम
तुम्हारी सैकड़ों तस्वीरें हैं मेरे पास
और उसे निहारता रहता हूँ बार-बार
बिल्कुल तुम्हारी
अलग-अलग तरह की तस्वींरें
हर बार मुझे शीत में
वसंत का आभास कराता है
जैसा कि शीत पर अधिकार हो पूरा वसंत का
तुम्हारी कुछ तस्वीरें
खींच ले जाती है मुझे उन स्वर्णिम पलों में
जब हम प्रेम में उतरने के लिए
मिलकर तैयार हुआ करते थे
तुम्हारी कुछ तस्वीरें
बहा ले जाती है मुझे अपने साथ
प्रेम के अथाह सागर में
जैसे बहा ले जाती हैं नदियां
साथ रहने वाली अपनी मछलियों को
प्रेम में तुम्हारे लिए मैं
ताजमहल तो नहीं बना सकता
ताजमहल के सामने हमारी तस्वीरें
जरूर हमारे बच्चों को
हमेशा हमारे प्रेम की याद दिलाता रहेगा
हर बार जैसे कहती हो तुम
कि इन तस्वीरों का मैं क्या करुंगा
सुनो, इन तस्वीरों में कैद है
तुम्हारी चेहरे की मोहिनी मुस्कुराहट
तुम्हारे आँखों की धवल चमक
तुम्हारे होठों की अतृप्त प्यास
तुम्हारे बालों का अदृश्य सौन्दर्य
इन तस्वीरों में सुरक्षित है हमारा प्रेम
हमारे यादों की एक पूरी इमारत
हमारी खुशियों का अजायबघर
और हमारी अनंत प्रेम कहानी
इन तस्वीरों को देखने से लगता है
कि मेरे जीने की राह यहीं से निकलती है
इन तस्वीरों को देखने से लगता है
कि हमारा प्रेम अमर है
कि हमारा प्रेम अनंत है
कि हमारा प्रेम जीवंत है
कि हमारा प्रेम शाश्वत है
इस सृष्टि में हमेशा हमेशा के लिए।
4. मैं सोच रहा हूं
मैं सोच रहा हूं
जाते-जाते ठंड मेरे पीठ पर उतर रही है
मैं सोच रहा हूं मेरे शरीर में कंपन्न है
मस्तिष्क शांत है
मैं समाया हूँ उसके सीने में
अब वह वसंत बनकर उतर रही है।
बचे रहेंगे ये पेड़
……………….
धरती पर
ये पेड़ बचे रहेंगे
आसपास, इधर-उधर और चाहे जिधर भी
यदि कहीं नहीं तो मेरे मस्तिष्क में ये बचे रहेंगे
ये बचे रहेंगे अपने फलों के बीज में
और बीज में जब तक जिजीविषा बची रहेगी
ये बचे रहेंगे
ये बचे रहेंगे मेरी हथेली पर
जैसे हवा में पतंग बचे रहते हैं
ये बचे रहेंगे जल प्रलय के बाद भी
यदि और कहीं नहीं तो मेरी उम्मीद में
और मेरी छाती पर भी ये उगेंगे
और बचे रहेंगे इस धरती पर
एक रात मैं सोते से उठूंगा
पेड़ सहित उठूंगा
और तुम्हारे दरवाजे पर आउंगा
और तुम्हें साथ लेकर चलूंगा
इन पेड़ों से मिलने
मिलूंगा और मैं भी पेड़ हो जाउंगा
इस धरती पर
और धरती पर
बचे रहेंगे ये पेड़
अनंंतकाल तक
तुम आना मिलने के लिए
जब भी मुझसे मिलने की इच्छा हो।
5. सहजन के फूल
देश के किसी कोने
किसी हिस्से, किसी खेत
किसी भी घर के पिछवाड़े
सहज हीं खिले हुए
दूर से देखे जा सकते हैं
सहजन के गुच्छेदार फूल
अपने में बिल्कुल अलग
अधिकतर सफेद रंगों में
वसंत के गीत गाते
और डाल पर इतराते-से
प्रायः दिख जाते हैं
कहीं भी ये फूल
बहुतायत में पाए जाने वाले
और आम लोगों के बीच
सब्जी के रूप में सबसे पसंदीदा
सबसे ज्यादा लोकप्रिय है सहजन
और सहजन के पेड़ों में
पत्ते, तने एवं जड़ से कहीं ज्यादा
सेहत एवं स्वास्थ्य के लिए
गुणकारी और फ़ायदेमंद हैं
इनके ये फूल
मेरी आँखों को तो बड़ी प्रिय हैं
नहीं तोड़े जाने वाले
ये वासंती फूल
सबसे अलग, बिल्कुल पास
पूरी तरह प्राकृतिक, सुंदर और सुलभ
ठीक तुम्हारी तरह
जब जब वसंत के मौसम में
तुम मुझसे मिलने आया करोगी
सहजन के फूलों का
बहुत सारा गुच्छा तुम्हें भेंट करता रहूंगा
फिर जब भी अगले वसंत
तुम मुझसे मिलने आया करो
इनके फूलों की तरह
पूरी तरह तरोताज़ा होकर
तब तुम्हारा मिलना सहजन की तरह
स्वाद और खुशबू से भर जाएगा।
6. बगैर नदियों के
मैं जहाँ बैठा था
ठीक उसके सामने
एक नदी शांत बह रही थी
बिल्कुल चुपचाप
मेरे साथ-साथ
यहां तट पर बैठे
और भी बहुत सारे लोग
नदी की उस शांति का आनंद ले रहे थे
संध्या के समय
सूर्य की लालिमा के बीच
नदी को छूती
और उसे तरंगित करती हुई
पूरब से चली आ रही हवा
अपने शीतल झोंके से
नदी के तट पर
शांत बैठे हुए लोगों को
शीतलता से भर रही थी
और बीच-बीच में
जल का वह मधुरिम स्पर्श
हमारे हृदय को आह्लाद से भर रहा था
इधर तट के नीचे
नदी के बहते हुए जल को
गौर से देखने पर
छोटी बड़ी ढ़ेर सारी मछलियां
तैरती हुई दिख रही थीं
उधर नदी के उस पार
हरे भरे पेड़
और उस पर पक्षियों के समूह
झूमते हुए नज़र आ रहे थे
जिससे नदियों के आसपास का वातावरण
और भी अत्यधिक मनोरम दृश्य उत्पन्न कर रहा था
सचमुच
बगैर नदियों के
हम अपने जीवन में
शीतलता का अनुभव
कैसे कर सकते हैं?
7. फूल-सा पहला स्पर्श
कई वर्षों के बाद
जब तुम्हारा पहला स्पर्श पाया मैंने
तो उस दिन
सारे फूल खिल गए
मेरे दरवाजे के बाहर
फिर इन फूलों को गौर से देखा
तो तुम्हारी वही छवि
मुझे दिखाई दी इन फूलों में
जब मैंने फोन पर तुम्हें
यह बात बताई
तो तुम सहसा
फूल की तरह खिल गई
तुम्हें शायद मालूम भी नहीं होगा
कि अगले दिन मैंने
इन फूलों को
धरती का स्पर्श करते हुए देखा
और धरती के सारे बीज
मेरे अंदर फूल बनकर मुस्कुराने लगे।
8. भोला चरवाहा
अपने परिवार की
सबसे पुरानी पीढ़ी है
पचहत्तर वर्षीय भोला चरवाहा
जो अपने पैरों की चाल पर नापता है
धरती की लंबाई
कांख में एक पुराना छाता दबाए
लाठी की नोंक पर ठुकराता है
दुनिया का हर वैभव
अपने दिन का आरंभ
खाली पेट एक लोटा पानी पीने
और मवेशियों के पोसर खोलने से करता है
और लौट आता है घर
सूरज निकलने से पहले
दूध दूहने के बाद
सबसे पहले एक किलो कच्चे दूध से मिटाता है
अपने आत्मा की प्यास
और कहता है-
आत्मा तृप्त तो समझिए तन, मन तृप्त
अंगूठे की छाप देने वाला भोला
लड़कियों की पढ़ाई को लेकर
दस तरह के अवगुण गिनाता है
अपनी उंगलियों पर
मशीनी युग की चकाचौंध से अनभिज्ञ
अपने शरीर रूपी मशीन को
मानता है सबसे महत्वपूर्ण
और बातों-बातों में कहता है-
सबसे पहले इस मशीन को है
भोजन की आवश्यकता
इसके बाद कुछ और
इस संबंध में उनका स्पस्ट कथन है-
‘शरीर से काम लेब अखनी, डिजल देब तू कखनी’
वात, गैस, गठिया, कमर दर्द, कमजोरी
और रतौंधी आदि को
ठेंगा दिखाते हुए
तीन-चार कोस की यात्रा
पैदल ही पूरी करता है
आज भी बिना चप्पल के
कभी-कभी मैं उनकी निश्छलता पर
द्रवित हो उठता हूँ
और उनसे कहता हूँ
कि आज मेरे यहाँ आमंत्रित हैं
तो सुनकर उसकी आंखें बड़ी-बड़ी हो जाती हैं
अमूमन प्रतिदिन उसे
अपने सामने से गुजरते हुए देखता हूँ
तो बरबस गांधी जी की याद आ जाती है
वही रंग, वही रूप
पूरे शरीर में एक धोती और हाथ में लाठी
बस, केवल कांख में एक पुराना छाता
और लड़कियों की शिक्षा के प्रति
उसका नज़रिया गांधी से अलग है
एक अद्वितीय चरवाहा, अपने जैसा
बिल्कुल भोला, निश्छल और आत्मसंतुष्ट।
9. आभासी दुनिया
आभासी दुनिया में हीं होते हैं
अब गोलमेज सम्मेलन
मिलते हैं लोग एक दूसरे से अब
आभासी दुनिया में हीं
पसंद-नापसंद भी ज़ाहिर करते हैं
उसी आभासी दुनिया के ऊपर
यह आभासी दुनिया ही
पर्याय बनता जा रहा है अब
हमारे जीवंत उपस्थिति का
वहां हमारी सक्रिय भागीदारी
प्रमाण है अब हमारे जीवंत होने का
अब तो इस भौतिक जीवन में भी
बिल्कुल यांत्रिक होते जा रहे हैं हम
उद्याम वेग से धड़कता है
जिनके अंदर उनका दिल
और जो चाहते हैं छू लेना
प्रेमिकाओं के गर्म हाथों को
अपने दोनों हाथों में लेकर
इस यांत्रिकता के मोहपाश से
बच नहीं पा रहे हैं वे भी अब
अब तो कोई भी, कहीं भी यह
साफ-साफ देख सकता है
कि आमने-सामने की दुनिया
सिकुड़ती जा रही है इन दिनों
इन दिनों मंडरा रहा है एक बृहत्तर खतरा
हमारे भौतिक संबंधों की प्नेमिल दुनिया के ऊपर।
10. मरूंगा जरूर एक दिन
खाते पीते नहीं मरूंगा
रिश्तों के आघात से
मित्रों के संताप से भी नहीं मरूंगा
जरूरी और गैर जरूरी चीजों के अभाव से
बाजारवाद की दैनंदिनी चकाचौंध से तो कतई नहीं मरूंगा
मधुमक्खियों के डंक से
या फिर भूख के लिए
पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करने से भी नहीं हीं मरूंगा
चन्द्रमा की सैर करके
सकुशल लौट आऊंगा और बिल्कुल नहीं मरूंगा
राजनीति में लिप्त अनीति से
अपठित स्याही के उद्भेदन से
अंदर बैठे कुविचारों के प्रस्फुटन से
अतृप्त जिजीविषाओं की अलक्ष्य पूर्ति से
साफ-साफ कह रहा हूँ कि नहीं मरूंगा
मगर मरूंगा एक दिन जरूर
नदियों के रुदन
पहाड़ों के प्रलाप
स्त्रियों के अभिशाप
और कुपित पृथ्वी के श्राप से।
11. बनूँ कविता में शूल
बनाना तो कविता बनाना
कोई कवि नहीं
कवि तो नित्य पैदा होते हैं
और शामिल होते हैं
कवियों की जमात में
कोई कवि छपा हो किसी पत्रिका के पृष्ठ पर
तो कर सकूं उनसे मुठभेड़
तोड़ सकूं उनका पुराना गढ़
ढ़हा सकूं उनका सुंदर तिलिस्म
कवि नहीं, कविता बनकर
बन सकूं तो कविता बनुं
बनूँ कविता में शूल!
मिट्टी की धूल!
कवि देवेन्द्र कुमार चौधरी, जन्म तिथि 4/6/1975, जन्म: प्रतापगंज, सुपौल, बिहार। कई प्रसिद्ध साहित्यिक पत्र-पत्रिकाओं, साझा संकलनों एवं कई ऑनलाइन प्लेटफार्म पर रचनाएँ (लेख एवं कविताएँ) प्रकाशित। सम्प्रति: स्थानीय सरकारी विद्यालय में अध्यापन एवं लेखन।
सम्पर्क: पता- ग्राम व पोस्ट- प्रतापगंज, जिला- सुपौल, राज्य- बिहार, पिन- 852125
मो0- 8877249083
ईमेल: devendrac615@gmail.com
टिप्पणीकार पंकज चौधरी, जन्म वर्ष-15 जुलाई, 1976, जन्म स्थान : ग्राम+ पोस्ट-कर्णपुर, थाना+जिला – सुपौल, राज्य-बिहार,शिक्षा : एमए (हिंदी)। प्रकाशित किताब- ‘उस देश की कथा’और ‘किस किस से लड़ोगे'(कविता संग्रह) ‘आम्बेडकर का न्याय दर्शन’ एवं ‘पिछड़ा वर्ग’ नाम से 2 वैचारिक आलेखों की किताबों का सम्पादन। विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और ब्लॉग्स पर कविताएँ प्रकाशित। सम्मान : बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् का ‘युवा साहित्यकार सम्मान’, पटना पुस्तक मेला का ‘विद्यापति सम्मान’ और प्रलेस का ‘कवि कन्हैया स्मृति सम्मान’, वर्ष 2023 में ‘नई धारा रचना सम्मान’ से सम्मानित।
पत्रकारीय कार्यानुभव- आज समाज, दैनिक जनवाणी, फॉरवर्ड प्रेस, युद्धरत आम आदमी एवं सूचना एवं प्रकाशन विभाग, भारत सरकार, नई दिल्ली जैसी प्रमुख पत्र-पत्रिकाओं और संस्थानों में सम्पादकीय पदों पर नौकरी।
सम्पर्क :
348/4, (दूसरी मंजिल)
गोविंदपुरी, कालकाजी, नई दिल्ली-110019
मोबाइल नंबर : 9910744984, 9971432440
ई-मेल : pkjchaudhary@gmail.com