महाकुंभ को लेकर देश भर में महीनों चले प्रचार अभियान, लोगों से कुंभ में आने का आवाहन करती हुई प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री की होर्डिंगों, धर्माचार्यों, बाबाओं , साध्वियों द्वारा- ‘जो हिंदू कुंभ में ना आया वह देशद्रोही है’ तक के प्रचारों से सनातन गर्व की राजनैतिक आकांक्षाओं के लिए मास हिस्टीरिया निर्मित करने की कोशिश की गई। श्रद्धालुओं को मेले तक लाने की व्यवस्था, सुरक्षा, रहने की जगहों व नहाने के स्नान घाटों, स्वास्थ्य सेवाओं आदि की सरकारी से लेकर 5 सितारा होटलों तक की सुविधाओं का ढोल पीट- पीट कर लोगों को आश्वस्त किया गया था। उससे मेला शुरू होने के दिन 13 जनवरी पौष पूर्णिमा से जो भीड़ आना शुरू हुई कि रह-रहकर शहर और मेले की व्यवस्था चरमराने लगती। फिर उसे श्रद्धालुओं को भारी कष्ट देकर, 15 से 20 किलोमीटर तक पैदल चला कर मैनेज किया जाता। हर रोज सैकड़ों वीवीआईपी से लेकर वीआईपी, बड़े अधिकारियों और लगभग हर तीसरे दिन कोई न कोई प्रमुख मंत्री मेले में होता। मुख्यमंत्री का तो जैसे कैंप कार्यालय ही यहां था। ये लोग लगातार शहर और मेले में जगह-जगह जाम लगा रहे थे। लेकिन 28-29 जनवरी के सबसे मुख्य स्नान मौनी अमावस्या को शहर से मेला तक 60,000 सुरक्षाकर्मियों, कई हजार सीसीटीवी कैमरों, एआई जेनरेटेड सैकड़ों उपकरणों और महीनों से तमाम सुरक्षा कर्मियों को प्रशिक्षित करने के दावों के बावजूद मेले की हृदयस्थली संगम नोज पर भयानक हादसा हुआ, लोग मारे गए। 1954 में संगम पर हुए ऐसे ही हादसे के 70 बरस बाद इलाहाबाद के माथे को खून के धब्बों से कलंकित कर दिया गया।
जरूर 2013 के कुंभ में भी रेलवे के ओवर फुटब्रिज पर रेलवे द्वारा अचानक गाड़ी का प्लेटफार्म बदल देने से दुखद हादसा हुआ था। लोग मारे गए थे। लेकिन कम से कम संगम पर नहीं हुआ था। मृतकों की सही संख्या की सूचना भी आधिकारिक तौर पर दी गई थी और तत्कालीन मेले के प्रभारी मंत्री आजम खान ने नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए इस्तीफा भी दिया था। लेकिन यहां तो मंत्री से लेकर संतरी तक लगातार झूठ बोल रहे हैं। विभिन्न मीडिया के लोग अपने स्रोतों से निकाल कर जितना भी सच बता पा रहे हैं, उन्हें धमकाते हुए कहा जा रहा है कि अफवाह ना फैलाएं। मेला के सेक्टर 20 में झूंसी की तरफ हुई भगदड़ के बारे में मेला डीआईजी वैभव कृष्ण एक दिन बाद तक कह रहे थे कि उन्हें इसका पता नहीं है। वह जांच करवाएंगे। संगम नोज पर हुई भगदड़ और मौतों के कई घंटे बाद भी मेला एसएसपी राजेश द्विवेदी कह रहे हैं कि कोई भगदड़ हुई ही नहीं। भगदड़ के बाद जब मृतकों के शव मेले के केन्द्रीय अस्पताल और पोस्टमार्टम हाउस पहुंचने लगे, दैनिक भास्कर ने 39 नंबर टैग किए हुए शव के बैग का वीडियो भी जारी कर दिया था, उसके बाद भी मुख्यमंत्री हादसे के कई घंटों बाद अपने बयान में 30 मृतकों का आंकड़ा देते हुए अफवाह न फैलाने का फरमान भी जारी करते हैं। शाम तक यह आंकड़ा 58 नंबर तक 4 पीएम की रिपोर्ट में जारी होता है। 2 फरवरी तक आजमगढ़, जौनपुर, गोरखपुर के मृतकों के परिवारीजनों के दैनिक भास्कर, टीवी 9 व अन्य पर प्रसारित बयान संगम से लेकर झूंसी की तरफ सेक्टर 20 में हुई भगदड़ तक के बारे में आ गए हैं। जिसमें वह लोग 150-200 लाशों को मार्चरी या पोस्टमार्टम हाउस के कमरों में देखने की बात कह रहे हैं।
शर्मनाक यह कि हादसे के कुछ घंटों बाद संगम तट से लाशें और लोगों के छूटे सामानों को जेसीबी मशीन और ट्रैक्टर लगाकर साफ करवाकर, लोगों की वधस्थली बनी उस धरती पर धर्माचार्य स्नान कर रहे हैं और उन पर हेलीकॉप्टर से क्विंटलों फूलों की वर्षा की जा रही है। क्या स्नान के पहले या बाद में ये तमाम धर्माचार्य, शंकराचार्य अपने ही लोगों के लिए दो मिनट मौन रखकर अपने ईश्वर से मृतकों के लिए शांति और उनके परिवारीजनों को इस शोक को बर्दाश्त करने के लिए प्रार्थना भी नहीं कर सकते थे। क्या हेलीकॉप्टर से पुष्पवर्षा रोकी नहीं जा सकती थी। कितना क्रूर है यह निजाम जो वधस्थली पर पूरे हर्ष और उल्लास से जश्न मना रहा है।
इस भयावह हादसे पर कोई अधिकारी मुख्यमंत्री जी के बयान के पहले कुछ भी बोलने को तैयार नहीं था। ऐसा लगता है कि अधिकारियों को सबसे ज्यादा प्रशिक्षण इसी बात का दिया जाता है कि वह साफगोई से तथ्य कैसे छुपा ले जाएं।
हमलोग मेले में लगातार आ रहे लोगों का भारी सैलाब कई दिनों से देख रहे थे और सारी समस्याओं के बावजूद सदिच्छा से इतना ही सोच रहे थे कि मेला सकुशल बीत जाए। लेकिन जमीनी परिस्थितियां किसी और तरफ ही इशारा कर रही थीं। मुसलमानों के हाथ, जीभ काट लेने और उन्हें मेले में न घुसने देने की चेतावनियों ने पहले ही भय का माहौल बना दिया था। जबकि मेले में काम करने वाले ढेरों कारीगर मुसलमान थे। दो मुसलमान मजदूर मेले में आने वाली सोरांव से सड़क ओवरब्रिज बनाते हुए पहले ही जान गंवा चुके थे। कुछ कारीगरों से मेरी 16 जनवरी को संगम घाट पर कपड़े बदलने वाली जगह बनाते हुए मुलाकात भी हुई थी। स्टेशन के पास खुसरो बाग मस्जिद बैरिकेड कर दी गई थी। शहर से मेले की तरफ आते हुए ‘उत्पाती टाइप भक्त’ रास्ते में पड़ने वाली मस्जिदों और गिरजाघर पर जय श्री राम की नारेबाजी करते हुए रुके भी लेकिन लोगों ने संयम बरता। हालांकि मुसलमान भाई मेले में भय के कारण ना के बराबर ही गए। जबकि घाट के पास की मिली जुली आबादी वाले मुहल्लों में मुस्लिम भाइयों ने अपने घर की खाली जगहें अपने हिंदू पड़ोसियों को सौंप दी थी। मकर संक्रांति के पहले यानी 13 जनवरी से ही आने वाले श्रद्धालुओं के निजी या सार्वजनिक वाहन सभी दिशाओं में 15 किलोमीटर दूर रोक दिए गए। प्रयागराज जंक्शन से भी संगम तक जाने के लिए 12 किलोमीटर पैदल चलना था। 500 सरकारी बसें और सभी तरह के सार्वजनिक वाहन लोगों के लिए अपर्याप्त साबित हुए। बावजूद इसके मौनी अमावस्या के दो दिन पहले से भारी सरकारी प्रचार और प्राइवेट कंपनियों द्वारा अनवरत जारी प्रचार के कारण बड़े- बुजुर्ग से लेकर महिलाएं और छोटे-छोटे बच्चे तक यह दूरी तय कर रहे थे। और कोढ़ में खाज यह कि तब भी वीवीआईपी या वीआईपी काफिले शहर से लेकर मेले के अंदर तक पूरे प्रोटोकॉल के साथ आमजन के लिए मुश्किलें खड़ी कर रहे थे।
मौनी अमावस्या के दिन 28 जनवरी की 8 बजे सुबह मैंने अपने जानने वाले, जो नागवासुकी मार्ग पर बने दशाश्वमेध घाट के किनारे दुकान लगाते हैं, शत्रुघ्न निषाद को मेले का हाल और भीड़ की स्थिति के बारे में जानने के लिए फोन किया। उन्होंने बताया कि 24 घंटे चलने वाली अपनी चाय- पानी की दुकान से वह कुछ देर के लिए थोड़ा हटकर सोने के लिए चले गए थे। उनकी नींद सुबह 5 बजे के आसपास खुली तो देखा, फोर्स के लोग तमाम श्रद्धालुओं को आसपास की तमाम गलियों में घुसा रहे हैं और गली के रास्ते बंद कर रहे हैं। वह कहते हैं कि यह तमाम लोग, जिन्हें दारागंज से लेकर प्राचीन नागवासुकी मंदिर तक की पचासों संकरी गलियों में घुसा दिया गया था, इन्हें कोई रास्ता भी नहीं पता था कि वह अपने ठिकानों तक कैसे जाएं। सवाल यह कि जब 27 तारीख से ही भीड़ इस कदर बढ़ गई थी और 28 की सुबह यह सब घट चुका था, तब प्रशासन क्या कर रहा था। 27 जनवरी को सुबह खुद गृह मंत्री अपने अमले के साथ संगम स्नान करने आए थे और 27 की ही शाम योगी जी ने हाई लेवल मीटिंग की थी। इसके बाद मेला क्षेत्र में सभी वाहन, दोपहिया तक प्रतिबंधित कर दिए गए। 27 तारीख की रात से ही जिले से लगी सीमाएं सील की जाने लगीं और ट्रेनों को कैंसिल किया जाने लगा। इसके बावजूद संगम और मेला क्षेत्र में जो लोग पहुंच गए थे, उन्हें आधुनिक डिजिटल तकनीक से सुसज्जित अधिकारियों, सुरक्षाकर्मियों की फौज के पास भीड़ ज्यादा होने पर संगम क्षेत्र से बाहर निकालने की कोई योजना क्यों नहीं थी।
28-29 तारीख की रात सिनेमेटोग्राफर और समकालीन जनमत पत्रिका के कला संपादक अंकुर कुंभ पर एक डॉक्यूमेंट्री फिल्म की शूटिंग के लिए खुद कटरा से 10 किलोमीटर पैदल चलकर संगम नोज के मीडिया टावर पर तकरीबन 12:30 बजे पहुंच ही रहे थे कि अचानक तमाम एंबुलेंसों की आवाज सुनाई पड़ने लगी। कुछ देर के लिए उन्हें लगा कि शायद तैयारी के सिलसिले में एंबुलेंस की कोई मॉक ड्रिल चल रही है पर मिनटों के भीतर ही उनके दिमाग में कौंधा कि शायद कोई और मामला है। और जब उन्होंने संगम नोज पर जमा भीड़ पर फोकस किया तो दिमाग झनझना उठा। वहां भगदड़ हो चुकी थी। लोग एक दूसरे के ऊपर गिर रहे थे। दूसरी ओर फोर्स ने तमाम पांटून पुलों और संगम की तरफ आते लोगों को बैरीकेडिंग करके रोक रखा था। हर तरफ अफरातफरी मची हुई थी। उनका और उनके सहकर्मियों का कैमरा लगातार चल रहा था और दिमाग आशंकाओं से झनझना रहा था। उस समय और उसके बाद की कथा तमाम मीडिया प्लेटफार्मों पर उनके पत्रकार, सुशील मानव, मोहम्मद अनस, सीनियर फोटोग्राफर जर्नलिस्ट एस के यादव जैसे मेरे साथी जो सोशल मीडिया पर हैं, खुद को भी जोखिम में डालकर लगातार अपडेट कर रहे थे। 29 की शाम भी अंकुर से बात करते हुए उनके चेहरे पर उस भयानक हादसे की छाया आ-जा रही थी। कभी वह बात करते, कभी एकदम चुप हो जाते और कभी अपने मोबाइल पर कोई वीडियो क्लिप दिखाते।
मेले में बने बहु प्रचारित हाईटेक अस्पताल के डॉक्टर और स्टाफ के अथक परिश्रम के बाद भी व्यवस्था ध्वस्त हो रही थी। 100 लोगों का महिलाओं का आईसीयू और पुरुषों का भी फुल हो गया था। अंदर लाशें पड़ी थीं। डॉक्टर घायलों का कुर्सी पर बैठाकर इलाज कर रहे थे। फिर मृतकों को मेडिकल कॉलेज मार्चरी, स्वरूप रानी के पोस्टमार्टम हाउस और घायलों को स्वरूप रानी हास्पिटल में शिफ्ट किया जाने लगा। लेकिन अभी तक तमाम चैनलों, अखबारों, सोशल मीडिया में सजग, समझदार लोगों की तमाम खबरों के बाद भी पूरी तस्वीर हमारे सामने साफ नहीं है। मेडिकल कॉलेज, स्वरूप रानी अस्पताल व पोस्टमार्टम हाउस से अभी तक जिसने जो भी अपने सूत्रों से, प्रत्यक्षदर्शियों या मृतकों के परिवारीजनों, घायलों से पता किया हो लेकिन सरकार या प्रशासन ने 30 की संख्या और तस्वीर, जो पोस्टमार्टम हाउस के बाहर लगी थी, इसके अलावा कोई लिस्ट मृतकों, घायलों या गायब हुए लोगों की 2 फरवरी तक मुहैया नहीं कराई है। मेला क्षेत्र में बने डिजिटलाइज खोया पाया केंद्र भी कोई आधिकारिक आंकड़ा नहीं दे रहे कि कितने लोग गायब हैं । और न ही मेला की ओएसडी आधिकारिक तौर पर कुछ भी कहने को तैयार हैं। नाम न छापने की शर्त पर जरूर 10 अलग-अलग केंद्रों के कर्मचारियों ने कुछ आंकड़े दिए हैं, जो लगभग 1500 के आसपास ठहरते हैं। दैनिक भास्कर जैसे कुछ समाचार प्रकाशकों ने इसका डिटेल भी दिया है। लेकिन सवाल यह है कि जो तमाम लोग इन केंद्रों पर 3-4 दिन से चक्कर मार रहे हैं, नाम, पता, पहचान पत्र मुहैय्या करा रहे, उनके लोगों का क्या हुआ? गंगा प्रसार में बने केंद्र में 1 फरवरी की रात तक 38 महिलाएं बैठी थीं जो अपने परिवारीजनों से बिछड़ गई हैं। जिनकी लिस्ट मेरे पास भी आई है।
पिछले अर्धकुंभ के पहले शहर का नाम बदलकर और इस बार लगातार मुसलमानों के खिलाफ जहर उगलकर भी शहर इलाहाबाद की साझी संस्कृति को नहीं बदला जा सका। क्योंकि वह जनता की स्मृति है और रोज- ब-रोज के रिश्ते से बनती है। यहां दो आब मिलकर एक आब में तब्दील हो जाते हैं। इसलिए जहां योगी जी झूठ बोलकर सब सब छुपाना चाहते हैं और कुछ चारण मीडिया बेशर्मी से इस बात का गुणगान कर रहे थे कि कैसे एनएसजी ने स्थिति को संभाल लिया वरना घटना और बड़ी हो सकती थी और अब साजिश तलाशी जा रही है। आपके एक मंत्री संजय निषाद, जो खुद को गरीबों का नेता घोषित करते हैं, कह रहे हैं कि इतने बड़े आयोजन में छोटी-मोटी घटनाएं हो जाया करती हैं। एक बाबा जो शुद्ध पाखंडी है, वह कह रहा है कि जो मौतें हुई वह लोग मरे नहीं हैं, उन्हें मोक्ष प्राप्त हुआ है। इन जैसे लोगों और आपके तमाम लोगों को पश्चाताप तो नहीं ही होगा। लेकिन इलाहाबाद के नागरिकों और उन्हीं में शामिल मुसलमान भाइयों ने, मेले से किसी तरह स्टेशन पहुंचे और वहां भी भगदड़ की स्थिति में पुराने शहर के घंटाघर, नखास, रौशनबाग और खुसरोबाग में धकेल दिए गए पचीसों हजार लोगों के लिए अपनी मस्जिदें, दरगाहें, मदरसे, स्कूल-कॉलेज से लेकर घरों के दरवाजे तक खोल दिए। उनके लिए बिस्तर, खाने-पीने की जितनी भी व्यवस्था वह अपनी ताकत भर कर सकते थे, 29 की रात से लेकर 30 की सुबह तक करते रहे। ऐसे ही झूंसी की तरफ अनवर मार्केट से लेकर त्रिवेणी पुरम तक, कटरा से लगायत हाईकोर्ट पानी टंकी फ्लाइओवर के रास्ते पर नागरिकों ने लोगों को संभाला।
मेले के भव्य अखाड़ों, सेक्टरों में बने सरकारी अमलों के विशालकाय पंडालों, कारपोरेट और बड़ी कंपनियों के पंडालों, रिहायशी शाही टेंटों में इस विपत्ति के समय भी जिनके लिए कोई जगह नहीं थी, उन्हें जैसे तैसे रेलवे स्टेशनों, शहर के बाहर हर दिशा में बने बस अड्डों, पार्किंग की तरफ 15 से 25 किलोमीटर तक पैदल चलने के लिए हांक दिया गया।
मुझे 30 जनवरी की सुबह 4 बजे संगम से निकली बुजुर्ग महिला यशोदा जी, जो औरैया जिला के गुलाबपुरा गांव की हैं, दिन में 2 बजे अग्रसेन कॉलेज के पास स्टेशन से आगे के लूकरगंज मोहल्ले में अपने परिवार के साथ लगभग 20 किलोमीटर पैदल चलते हुए मिलीं। उन्हें अभी वहां से कम से कम 5 किलोमीटर और सूबेदारगंज स्टेशन जाना था। वह ‘गंगा मैया की कृपा से बच गईं’ कहते हुए अपने सूजे पांव दिखातीं, व्यवस्था को लेकर बहुत दुखी थीं।
ऐसे ही इंडियन प्रेस चौराहे पर साइकिल ठेले पर बैठे असम से आए दिलीप चक्रवर्ती अपनी पत्नी और मित्रों के साथ मुझे शाम को मिले, जहां रुक कर वह लोग पूरी सब्जी खा रहे थे। दिलीप जी ने कहा कि कोई व्यवस्था जब नहीं दे सकते तो इतना प्रचार करके बुलाया क्यों? वे संगम में नहीं नहा सके थे इसका उन्हें दुख भी था। गंगा में नहा कर सामान लिए सात आठ किलोमीटर पैदल बालसन चौराहे तक आए। तब यह ठेला उनको मिला था। मेरे यह पूछने पर कि फिर आएंगे, उन्होंने कहा कि अब कभी नहीं आऊंगा। इतना ही नहीं श्रद्धालुओं को बाबाओं के कैंप में पीटा भी गया और इतना कि उन्हें अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।
सफाई कर्मचारियों को पुलिसिया उत्पीड़न से लेकर कंपनियों के उत्पीड़न का शिकार होना पड़ रहा। जिसे लेकर उनकी यूनियन सफाई मजदूर एकता मंच, इलाहाबाद के अध्यक्ष बलराम पटेल ने 1 फरवरी को मेला प्रशासन को ज्ञापन देते हुए चेतावनी भी दी है। लोगों की तकलीफों की कथा और देश के लोगों की गाढ़ी कमाई के टैक्स से खर्च 7300 करोड़ रुपये लगाकर हुए अनर्थ की कथा का कोई अंत नहीं है। अर्नेस्ट एंड यंग कंपनी, जो तमाम तरह की सर्विसदाता कंपनी है (याद करिए इसी कंपनी की पुणे आफिस की सीए ने काम के दबाव के कारण दिसंबर 24 में आत्महत्या कर ली थी, जिसकी खबर जनमत के पन्नों पर जनवरी में छपी थी।) उसे करोड़ों रूपये का ठेका महाकुंभ को ईवेंट मैनेजमेंट के लिए दिया गया, जिसमें देश भर में प्रचार विज्ञापन से लेकर आर्टिफिशियल इंटिलिजेंस तक तमाम सेवाएं शामिल हैं। ऐसे ही तमाम बड़ी डाबर, कोला, नेस्ले, ब्लिंकिट, डिटाल आदि ब्रांडो की कंपनियों से मेला भरा पड़ा है। उनके लिए यह सबसे बड़ा बाजार हथियाने का अवसर है। इसलिए महीनों पहले से ही इसे सत्ता की राजनीति और कारपोरेट का मेला बना दिया गया। और बिना अडानी जी के यह कैसे हो सकता है। उन्हें भी बदनामी से उबार कर धर्मात्मा साबित करना था। इसलिए वह इस्कान का 45 दिनों का भंडारा प्रायोजित कर रहे हैं। और शहर में उनकी बैनर लगी गाड़ियां जगह बदल बदल कर ‘महाप्रसाद’ के नाम से खाना वितरण कर रही हैं। मेला अभी बाकी है। फिर कहूंगा कथाएं इसकी।
लेकिन अंतिम बात अपने प्रधानमंत्री जी से पूछे बगैर इस बात को खत्म नहीं कर सकता। आजाद भारत के पहले महाकुंभ 1954 में इलाहाबाद संगम पर भयानक दुर्घटना घटी थी। नेहरू जी को कुछ लोग यह कहकर बचा रहे थे कि वह कुंभ में थे ही नहीं, एक दिन पहले आकर मेले का जायजा लेकर लौट गए थे। लेकिन उन्होंने सदन के भीतर यह स्वीकार किया कि वह राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद जी के साथ उस समय किले की बुर्ज पर थे और इस दुखद घटना के लिए उन्होंने खेद प्रकट किया था। हालांकि तत्कालीन उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री गोविंद बल्लभ पंत घटना को दबाना चाहते थे लेकिन तब अमृत बाजार पत्रिका के सीनियर जर्नलिस्ट ए एन मुखर्जी भगदड़ में गिर जाने के बावजूद न सिर्फ जिंदा लौटे बल्कि उसकी तस्वीरें भी उतार ली थीं और वह 4 फरवरी के अमृत बाजार पत्रिका में छपी थीं। इसके बाद पंत जी द्वारा खंडन छापने के दबाव और लोग मरे हैं इसका प्रमाण मांगने पर मुखर्जी दा नाटकीय तरीके से भारी सुरक्षाऔर रोक के बावजूद लाशों को जलाने की तैयारी को कैमरे में कैद कर लाए। 5 फरवरी को फिर वह तस्वीर अखबार में छपी। तब शिशिर कुमार घोष अखबार के संपादक थे। वह आजादी के आंदोलन में जब अंग्रेजों द्वारा अखबार प्रतिबंधित होने पर भी नहीं डरे और 1937 से जुगांतर नाम से दूसरा अखबार शुरू कर दिया था तो किसी मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री के भी दबाव में वह कैसे आते। क्या आज का मीडिया, कुछ चुनिंदा लोगों को छोड़ दें तो, सीधे उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री से जवाब मांगेगा।
प्रधानमंत्री महोदय जो ठीक उस समय जब उनके अधिकारी एसएसपी ‘कोई भगदड़ नहीं हुई’ यह बयान दे रहे थे, तब दिल्ली की चुनावी सभा में बोल रहे थे कि कुछ पुण्यात्माओं की महाकुंभ में हुई दुर्घटना में मृत्यु से वह दुखी हैं और शोक संवेदना प्रकट कर रहे हैं। वह क्या कोई कदम उठाएंगे और कम से कम मृतकों की सही संख्या देश को बताएंगे। याद करिए 2019 के अर्ध कुंभ में मोदी जी ने 1954 की संगम पर हुई दुर्घटना के लिए नेहरू को जिम्मेदार ठहराया था। क्योंकि उन्होंने एक महीने पहले आकर यहां कई शिलान्यास किए थे और मेले की तैयारी का सारा जायजा लेते हुए कहा था कि मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी जी पूरी जिम्मेदारी से कर्तव्य निर्वहन कर रहे हैं, खुद उन्होंने कहा था कि हर हिंदू को, सनातन धर्म मानने वाले को इस पुण्य अवसर पर आना चाहिए, तो क्या इस भयावह दुर्घटना की वह और उनके मुख्यमंत्री नैतिक जिम्मेदारी लेंगे। आजम खान से 2013 में, जो उस समय महाकुंभ के मंत्री के रूप में प्रभारी थे, इस्तीफा की मांग करने वाली पार्टी और अभी हाल हाल तक उत्तर प्रदेश के चीफ मिनिस्टर, डिप्टी चीफ मिनिस्टर तक एक मुसलमान जो सनातन धर्म नहीं जानता, को मेले का प्रभारी बनाए जाने पर आक्षेप लगाते नहीं थक रहे थे, उसकी जवाबदेही तय करते हुए अपने जिम्मेदार मुख्यमंत्री का इस्तीफा लेंगे। सत्र शुरू है, क्या प्रधानमंत्री जी सदन में इस हादसे पर बयान देंगे। या मामला केवल तीन सदस्यीय न्यायिक जांच आयोग, वह भी हाई कोर्ट के रिटायर जस्टिस, आईएस और एक आईपीएस अधिकारी की अध्यक्षता में बनाकर खाना पूरी कर दी जाएगी। जरूर आयोग ने कुछ सवाल 31 जनवरी को मेला प्रशासन और प्रयागराज के प्रशासन से पूछा है। लेकिन क्या मौतों का सही आंकड़ा और अब तक स्रोतों से प्राप्त 1500 गायब लोगों के बारे में उनके परिजनों को और मीडिया को सही जानकारी दी जाएगी। यह सवाल सरकार से तो है ही, इस दुर्घटना की जांच के लिए बने न्यायिक आयोग से भी है और माननीय प्रधानमंत्री जी से तो है ही।
महाकुंभ में योगी सरकार द्वारा मौतों को छिपाए जाने से कई तरह की आशंकाएं व अफवाहें चल रही हैं। अब यह स्थापित सत्य की तरह है कि भगदड़ कई जगहों पर हुई। तीन फरवरी को राज्यसभा में विपक्ष के नेता और कांग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे ने कहा कि 29 जनवरी को महाकुंभ में हुई भगदड़ में मारे गए हजारों लोगों को मेरी श्रद्धांजलि। राज्यसभा के सभापति और उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने इस पर उनसे अपना बयान वापस लेने को कहा। खड़गे ने कहा कि, ‘यह मेरा अनुमान है। अगर आंकड़े सही नहीं हैं, तो सरकार को बताना चाहिए कि सच्चाई क्या है। अगर मैं गलत हूं तो मैं माफी मांगूंगा।’
देश के सबसे बड़े विपक्षी दल के राष्ट्रीय अध्यक्ष द्वारा राज्य सभा में हजारों लोगों की मौत की बात कहना और सरकार द्वारा इसका कोई स्पष्ट जवाब नहीं देना मौतों की संख्या को लेकर सरकार द्वारा छिपाई और दबाई जा रही सच्चाई को सही मानने के आधार को मजबूत कर रही है।
इसलिए सरकार से पूछा जाना जरूरी है, क्योंकि 30 जनवरी को खबर दी गई कि प्रधानमंत्री समेत कोई वीवीआईपी अब मेले में नहीं आएगा। अगले एक दिन बाद ही उसके उल्लंघन की खबर छपी और 1 फरवरी को उपराष्ट्रपति जगदीश धनखड़ की सपरिवार संगम पर हंसते, खिलखिलाते, नहाते हुए तस्वीरें प्रकाशित हुई हैं।
(फीचर्ड इमेज़: सुशील मानव)
शीर्षक मशहूर शायर फ़ैज़ अहमद फ़ैज़ की नज़्म ‘ढाका से वापसी’ की चौथी लाइन ‘ख़ून के धब्बे धुलेंगे कितनी बरसातों के बाद’ से लिया गया है।
नोट- लेखक की अर्धकुम्भ 2019 पर आधारित रपटों पर सम्पादित किताब, ‘दिव्य कुम्भ 2019’, नवारुण प्रकाशन, जनसत्ता अपार्टमेंट, गाजियाबाद से प्रकाशित है।
सम्पर्क-9811577426