समकालीन जनमत
कविता

मनीषा मिश्रा की कविताएँ समाज के प्रति अपनी जागरूक भूमिका को निभाने का प्रयास हैं

सोनी पाण्डेय


बाँस की कोपलों सी बढ़ती है लड़कियाँ….

विमर्श और स्त्री मुक्ति के नारों के बीच आज की कस्बाई औरतों के संघर्षों का यदि मूल्यांकन करना हो तो हमें बार-बार स्थानीय कविता के इलाकों में जाना होगा। यहाँ जो दर्ज है कविता की भाषा में वह किसी नाम या पुरस्कार के लिए नहीं लिखा गया, बल्कि उल्टे कलम उठाने वाली औरतें पिता सत्ता के मीटर पर मापी जाने लगती है।

आंखो से ही
नाप लेता है
स्त्री के शरीर का भूगोल
उसकी दृष्टि
एक्सरे मशीन की मानिंद
भेद सारे वस्त्रों को
खींच लेती है
रेशे रेशे की तस्वीर

यह पंक्तियाँ उस आम भारतीय स्त्री का सच है जो घर और बाहर दोनों मोर्चे पर न केवल डटी है बल्कि अपनी चेतना के आलोक में स्त्री जीवन के यथार्थ को लिख रही हैं।

इन कस्बाई स्त्री कवियों की कविताएँ उस व्यापक फलक से महरूम रह जाती हैं जहाँ से स्त्री कविता का भूगोल स्पष्ट दिखता है। मनीषा मिश्रा आज़मगढ शहर में हिंदी की प्रवक्ता है और अपने लिखे से ज़्यादा दूसरी स्त्रियों के लेखन को सामने लाने का प्रयास अपनी संस्था साहित्यानुरागी के माध्यम से कर रही हैं।

वह चेतना सम्पन्न स्त्रियों की जमात की नागरिक हैं और यह बात बखूबी समझती हैं कि पीछे आनेवाली पीढ़ी के रास्तों से कैसे पत्थरों को हटाना है। वह लिखती हैं-

बाँस के कोपलों सी बढ़ती है लड़कियाँ
देखते ही देखते पुष्ट बाँस बन जाती हैं।
आती है काम घर को छाने और बनाने में,
शादी के मंडप से मृत्यु की शैया तक,
अपनी अपनी ज़रूरतों के हिसाब से
इन्हें काटा छाँटा और तराशा जाता है

सच है कि औरत पैदा नहीं होती, उसे गढ़ा जाता है। फ़्रांसीसी लेखिका और दार्शनिक सिमोन द बोउआर का कहना था की स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, क्योंकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएं, इच्छाएं, गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में।

मनीषा की कविताओं की स्त्री न केवल अपने स्वत्व और अस्मिता बोध से परिचित है बल्कि उसकी सम्वेदना के दायरा का समाज के सभी वंचितों और उपेक्षित वर्गों से भी अनिवार्य सम्बन्ध है-

अपनी दुनिया को देख दिल रोता है
वो जो कचरे को बीनता है
गंदगी में जीता है
आंसुओं को पीता है
दर्द से गुजरता है
भूखे बच्चों को यूं ही वो पालता है

 

मनीषा मिश्रा की कविताएँ समाज के प्रति अपनी जागरूक भूमिका को बरक़रार रखें इसी शुभकामना के साथ उनकी कुछ कविताएँ पढ़िए।

 

 

 

मनीषा मिश्रा की कविताएँ

 

1. न इसके लिए है न उसके लिए है

न इसके लिए है न उसके लिए है
ये शृंगार मेरा मेरे लिए है
सुंदर दिखूं ये मेरी तमन्ना
मुझको पसंद है बनना संवरना
न इसको रिखाऊं न उसको रिझाऊं
में खुद पर ही रोझूं मैं खुद को
रिझाऊं
दर्पण जो देखूं खुद से लजाऊं
ये अनुराग मेरा मेरे लिए है
ये शृंगार…

कोई देखे न देखे फ़िक़्र है मुझे क्या
सराहे न कोई मेरी गरज क्या
न शब्दों की परवाह न ताने की चिंता
दुनिया के हथियार निंदा प्रशंसा
न हमले का डर है न जख्मों का भय है
ये अभिमान मेरा मेरे लिए है
ये शृंगार…
प्रकृति ने दिया जो उसको सवांरू
अनुपम कृति को हर पल निखारूं
सुंदर तन हो सुंदर मन हो
भावों से पूरित् आंखें सजल हों
सृष्टि का वैभव मुझमें समाया
ये एहसास मेरा मेरे लिए है
ये शृंगार..

 

2. असभ्य हो जाएं

आओ कुछ क्षण को असभ्य हो जाएं।
सभ्यता के मुखौटे,
छीन लेते हैं सहजता,
जड़कर सलीकों के फ्रेम में,
कर देते हैं यंत्रवत।
आओ कुछ क्षण को सहज हो जाएं,
असभ्य हो जाएं।
सभ्यता के आडंबर,
ढक लेते हैं उत्सवों की मौलिकता,
दूर कर आनंद को,
गवा देते हैं आत्मीयता।
आओ उत्सवों का आनंद मनाएं,
असभ्य हो जाएं।
सभ्यता के शब्द,
चुरा लेते हैं भावों की अभिव्यक्ति,
बंद कर मन के द्वारों को,
चिपका जाते हैं होठों पर कृत्रिम हंसी।
आओ मन के बंद द्वार खोल आए,
असभ्य हो जाएं।

 

3. बिटिया हूँ

बिटिया हूँ
मुझे जनमने,
पलने और संवरने दो।

बंद कली हूं बगिया की,
मुझे खिलने और महकने दो ।
कभी चांदनी पूनम की तो,
कभी भोर की किरणों सी,
कर दूंगी जग में उजियारा,
मुझे नभ में जरा बिखरने दो।
बिटिया हूं मुझे जन्मने
पलनेऔर संवरने दो।
तपती धरती पर बूंदों सी,
पतझड़ में नव कोपल सी,
भ्रांत क्लांत मानव मन का,
हर दुख, हर पीड़ा हरने दो।
बिटिया हूं मुझे जन्मने
पलने और संवरने दो।

 

4. वृत्ताकार चूड़ियों के घेरे में फँसी औरतें

वृत्ताकार चूड़ियों के घेरे में फँसी औरतें
नहीं देख पाती उस पार ,
आला लटकाए स्टेयरिंग संभाले
कीबोर्ड पर उंगलियां फिराती
उन औरतों को,
जो संचालित कर रही हैं आधी दुनिया को।
पायल के घुंघरुओं की रुनझुन में
इस कदर खोई हैं नव वधुएं
कि उन्हें नहीं सुनाई देती
वे षडयंत्र भरी बातें
जो उनके पैरों की बेड़ियां बनने वाली हैं।
बिंदी काजल और जाने किन किन
प्रसाधनों में खोई है लडकियां
अनभिज्ञ आसन्न उस खतरे से
जो कभी किसी खेत में
तो कभी हाईवे पर
या कभी कॉलेज से खींच ली जाएंगी
वहशियों के जाल में,
और नोच कर फेंक दी जाएंगी
किसी मांस के लोथड़े समान।
संभलो, निकलो उस घेरे से,
कानो से ही नहीं आंखो से भी सुनो,
प्रसाधन नहीं,
सुरक्षा के साधन धारो।
कोई देवी, देवता, सरकार नहीं
रक्षा अपनी स्वयं करो
तुम, अपनी रक्षा स्वयं करो

 

5. सामने बैठा पुरुष

सामने बैठ पुरुष
आंखो से ही
नाप लेता है
स्त्री के शरीर का भूगोल
उसकी दृष्टि
एक्सरे मशीन की मानिंद
भेद सारे वस्त्रों को
खींच लेती है
रेशे रेशे की तस्वीर
वो मुस्कुराता है
बेपरवाह इस बात से
कि वह स्त्री
समकक्ष है मां बहन या बेटी के
और..
और सामने बैठी स्त्री
ढूंढती है
उस पुरुष की आंखों में
करुणा, प्रेम ,लगाव ,स्नेह।
मिलान करती है वह
कद काठी रूप अवस्था का
कभी पिता कभी भाई
तो कभी पुत्र से
कभी कभी एक मित्र भी
ढूंढती है वह
जो एक स्वस्थ भाव से
संबल देगा उसे
जीवन की पथरीली राहों में
बिना स्पर्श किए ही
थाम लेगा उसका हाथ
पर नहीं….
यह संभव कहां?
छठी इंद्रिय उसे सजग करती है
छोड़ कल्पना
वह यथार्थ पर उतरती है
और स्वीकारती है
इस सच को
कि सामने बैठा पुरुष
केवल ‘पुरुष ‘ है।

 

6. वो जो सड़कों पर सोता है

(एक गीत)

वो जो सड़कों पर सोता है
रात रात रोता है
ठंड से ठिठुरता है
जिंदगी को खोता है
बड़े शहरों में रोज यही होता है
हां होता है
अपनी दुनिया को देख दिल रोता है
इस दुनिया को देख दिल रोता है
वो जो कचरे को बीनता है
गंदगी में जीता है
आंसुओं को पीता है
दर्द से गुजरता है
भूखे बच्चों को यूं ही वो पालता है
अपने बच्चों को यूं ही वो पालता है
अपनी….
वो जो खींचता दुपट्टा है
अस्मिता को लूटता है
दानव सा हंसता है
अट्टहास करता है
वो मानवता का क्रूर हंता है
हां हंता है
अपनी…
वो जो धूप में पसीजता है
रक्त और स्वेद कण से
धरती को सींचता है
कष्टों से जूझता है
हार के इस जीवन से, फांसी पर झूलता है
हां झूलता है
अपनी..
वो जो संसद बैठा है
जनता से ऐंठा है
अनीतियों के सागर में
गहरे बहुत पैठा है
हुआ हमसे ही निर्मित वो नेता है
हां नेता है
अपनी…

 

7. कहूं क्या व्यथा आपके अपने मन की

कहूं क्या व्यथा आपके अपने मन की
हवाएं बहकने लगी हैं चमन की
नेता जो बैठे सुरक्षा कवच में
बातें जो करते हैं अमन-ओ-वतन की सारे फसादों की जड़ में वही हैं
आग सारी लगाई हुई है उन्हीं की
कहूं क्या व्यथा आपके अपने मन की
मुश्किल हुआ अब बेपरवाह चलना होली दिवाली या ईद मनाना
सहमे सहमे से मिलते हैं लोग यहां पर
कैसे पढ़े बातें आंखों की मन की कहूं क्या व्यथा आपके अपने मन की
यहां धर्म ने देश को दाब रखा उन्माद ने प्रेम को रौंद रखा
सूरत बिगड़ती जा रही इस वतन की लाज कैसे बचेगी यहां लोकतंत्र की कहूं क्या व्यथा आपके अपने मन की।

 

8. बाँस की कोपलों सी बढ़ती हैं लड़कियां

बाँस की कोपलों सी बढ़ती हैं लड़कियां
देखते ही देखते पुष्ट बांस बन जाती है।
आती है काम घर को छाने और बनाने में,
शादी के मंडप से मृत्यु की शैया तक,
अपनी अपनी जरूरतों के हिसाब से
इन्हें कांटा छांटा और तराशा जाता है,
यदा कदा खूबसूरती का नमूना भी बनाया जाता है।
दरकार होती नहीं इन्हें परवरिश की,
किसी खाद पानी की ,या ही देखभाल की
ये तो लड़कियां हैं, बढ़ ही जाती हैं,
हर प्रकार से काम ही आती हैं…काम ही आती हैं।

 


कवयित्री डॉ. मनीषा मिश्रा,जन्म – 27 दिसंबर 1973 चित्तरंजन पश्चिम बंगाल। प्रवक्ता – एसकेपी इंटर कॉलेज आजमगढ़, अध्यक्ष – साहित्यानुरागी संस्था। शिक्षा – एम ए, बीएड, पीएचडी (हिंदी)
पुस्तक – ‘जनवादी गीतकार- एक मूल्यांकन’
संपादन – छोटे शहर की बड़ी काव्य संभावनाएँ (साझा काव्य संग्रह)
कुछ कहानियाँ, कविताएँ, लेख विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में प्रकाशित।

 

टिप्पणीकार सोनी पाण्डेय। पहली कविता की किताब “मन की खुलती गिरहें”को 2015 का शीला सिद्धांतकर सम्मान, 2016 का अन्तराष्ट्रीय सेतु कविता सम्मान, 2017–का कथा समवेत पत्रिका द्वारा आयोजित ” माँ धनपती देवी कथा सम्मान”, 2018 में संकल्प साहित्य सर्जना सम्मान, आज़मगढ से विवेकानन्द साहित्य सर्जना सम्मान, पूर्वांचल .पी.जी.कालेज का “शिक्षाविद सम्मान”,रामान्द सरस्वती पुस्तकालय का ‘पावर वूमन सम्मान’ आदि से सम्मानित कवयित्री सोनी पाण्डेय का ‘मन की खुलती गिरहें’ (कविता संग्रह) 2014 में और ‘बलमा जी का स्टूडियो’ (कहानी संग्रह)2018 में प्रकाशित इसके अतिरिक्त कुछ किताबों का संपादन. पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशन.

ईमेल: pandeysoni.azh@gmail.com

ब्लाग: www.gathantarblog. com

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