गुंजन श्रीवास्तव
माया मिश्रा जी की कविताओं को पढ़कर एक बात तो साफ़ कही जा सकती है कि यह एक कवि के परिपक्व अनुभव से उपजी अनुभूतियों का मुकम्मल दस्तावेज है। इन कविताओं से गुजरते हुए ऐसा महसूस नहीं होता कि ये किसी कवि के प्रथम प्रयास की कविताएँ हैं। माया मिश्रा बहुत ही बारीक़ और सूक्ष्म नज़र से किसी भी विषय का ट्रीटमेंट करती हैं और अपनी अनुभूतियों को काव्यात्मकता का जामा पहनाती हैं। उनके लिए विषय चाहे शाश्वत हो या पारंपरिक, जिन पर सदियों से कविताएँ लिखी जाती रही हैं, आज भी लिखी जा रही हैं और आगे भी लिखी जाती रहेंगी, पर वो उसकी शाश्वतता या पारम्परिकता में न फँसकर शब्द के अर्थ को नया संस्कार देती हैं। कभी कवि ‘अज्ञेय’ ने कहा था ‘जिन्होंने शब्द को कुछ नया नहीं दिया, वे लीक पीटने वाले से अधिक कुछ नहीं हैं, भले ही जो लीक पीट रहे हैं, वह अधिक पुरानी न हो।’
कवि माया मिश्रा अपने शब्दों के चयन को लेकर सजग हैं। शब्द की साधना और उसकी सजगता ही किसी कवि को अलग पहचान दिलाती है। अपनी कविता ‘आत्महत्या’ में वे कहती हैं –
देखने चाहिए थे तुम्हारे घाव
खड़े होना चाहिए था तुम्हारे हक़ के लिए
चीखना चाहिए था तुम्हारी पीड़ा में
लेकिन मैंने एक खामोश तठस्थता ओढ़कर
चुप रह जाना मुनासिब समझा
बड़े होने की बड़ी जिम्मेदारी ने
अपराधी बना दिया मेरी आत्मा को
इन कविताओं में कुछ ऐसी कविताएँ हैं जो अपनी प्रकृति में एकदम अलग हैं। इन कविताओं का स्वर ही कवि का मूल स्वर है। कविताओं में केवल व्यथा और करुणा ही नहीं बल्कि अन्याय के प्रतिवाद के स्वर भी मौजूद हैं। अपनी एक कविता ‘मेरा कवि’ में वे कहती हैं –
‘अमेज़न के जंगलों तक की दूरी
हड़प्पा के सभी सिक्कों कों पढ़ कर
सभ्यताओं के इतिहास से/खोज लाना चाहता है
अपने अस्तित्व की जड़ें
फिलिस्तीन और यूक्रेन के साथ
शोक मनाना चाहता है मणिपुर की हिंसा का
वो लड़ना चाहता है दुनियाँभर की औरतों के साथ
पितृसात्तत्मक ताकतों और तालिबानी फ़रमानों के ख़िलाफ़
कवि माया मिश्रा के पास कविता रचने का अपना एक ‘इडियम’ है। जिसे पाने के लिए बहुत से कवि उम्र भर भटकते रहते हैं।
कवि की दृष्टि सामाजिक, राजनैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक स्थिति और परिस्थिति को तरतीब से प्रस्तुत करती है। इनकी कविताओं में कभी न ख़त्म होने वाली उम्मीद का एक शिखर है जो उनके विचलित मन को इंसानियत की राह दिखता है। आज हर व्यक्ति में व्यवस्था के प्रति आक्रोश है, उसको बदलने का स्वप्न है|
माया मिश्र की कविताएँ भी इस आक्रोश को दबे स्वर में प्रकट करती है। इनकी कविताओं में यथास्थिति के प्रतिकार की अनेक आवाज़े हैं, जो किसी चीख चिल्लाहट से बहुत दूर शालीनता के साथ अपनी दुनिया के सुन्दर संसार को बुनती हैं जिसकी कुछ तस्वीर इनकी कविताओं में झलकती हैं –
संभाल कर रखना उन जगहों को
जहाँ मुझे होना था, एक मीठे सुख की तरह
या तुम्हारे आलिंगन में ठहरे दुःख की तरह
उन तमाम जगहों से मैं लौट रही हूँ
उदास, निराश, थकी-हारी
मुरझाये फूलों में दम तोड़ती
आख़िरी गंध की तरह
माया मिश्र की कविताएँ कल्पना और यथार्थ का मिला जुला संयोजन है। वर्तमान स्थिति की बेचैनी से निकलने की छटपटाहट है और भविष्य का बेहतर बनाने का सुन्दर स्वप्न है| मुझे उम्मीद है कि इनकी कविताएँ पाठक को ठहरकर विचार करने पर बाध्य करेंगी |
माया मिश्रा की कविताएँ
1. महज बारह घंटे की दूरी
महज बारह घंटे की दूरी है
मेरे गांव की, राष्ट्रीय राजधानी से!
ट्रेन अगर अपने समय पर चलती रहे तो,
एक ठीक-ठाक नींद के बाद
चमचमाते राजपथ बदल जाते हैं-
सदियों पुरानी, टूटी -फूटी, गोबर-मिट्टी से सनी
पगडंडीनुमा बची-खुची सड़क के अवशेष में
राजधानी से महज बारह घंटे की दूरी पर
किसानों को ठीक ठीक नहीं मालूम
छोटे, मझौले और बड़े का अंतर
सूखे से उपजी वेदना और
बैंकों के करजों के बीच
आत्महत्या एक आखिरी रास्ता है
भूखे बच्चों को भूखमरी से बचाने का,
जबकि चारों ओर लहलहाती फसलों से भरे हैं,
सरकारी योजनाओं के विज्ञापन
राजधानी से महज बारह घंटे की दूरी
दुश्वार बना देती है उन योजनाओं का
हमारे गावों तक आना,
जिसके दम पर वारे न्यारे हो रहे हैं –
कलेक्टर, कमिश्नर, बाबू, चपरासी, साहेब, नौकर
राजधानी से महज बारह घंटे की दूरी पर
वापस लौटना मुश्किल है उन सरकारों के लिए
जो चुनाव के मौसम में हमारे झोपडों में बैठकर
खाना खाते और फोटो खिंचवाते हैं!
वो अगर किसी बारिश में आएंगे तो
शायद घुस भी नहीं पाएंगे इन सड़कों में
जिसमें चलकर वे पहुँच गए है संसद तक
राजधानी से महज बारह घंटे की दूरी पर
गणतंत्र दिवस का भव्य समारोह,
क्यों बदल जाता है
फटेहाल बच्चों की “जन-गण-मन” में ?
बूँदी के दो सूखे हुए लड्डूओं को
ललचाई नजरों से घूरते राष्ट्रगान में
लोप हो जाता है ओज गुण का…
राजधानी से महज बारह घंटे की दूरी पर
स्कूल किसी बच्चे को नहीं सिखा पाया
“गुड टच” और “बैड टच” का पाठ!
हर रात उठने वाले दर्द की
सही से व्याख्या न कर पाने की बेबसी में
वो चुपचाप ताकते रहते हैं,
आँखों की कोरों में फँसे
आँसू पोछती मास्टरनी को…
दोनों ही असमर्थ हैं किसी भी भाषा में
अपने दुःख को अभिव्यक्ति देने में…
राजधानी से महज बारह घंटे की दूरी पर
शिनाख्त नहीं हो पाती
नदी, नालों में मिली लाशों की
और चूँकि बारह घंटे की दूरी पर है “इंडिया गेट”
कैडिल मार्च भी नहीं निकाले जाते!
“किसी के साथ भाग गई होगी…”
कह कर फ़ारिग हो जाता है
थाने का सिपाही, अपने दायित्वों से
…गाँव से अचानक लापता हुई लड़की
बस एक कलंक है अपने परिवार के लिए
राजधानी से महज बारह घंटे की दूरी पर
प्रेमी जोड़े सोच भी नहीं पाते “लिव इन” के बारे में
अक्षम्य अपराध है, प्रेम करना
आदेश जारी होते हैं “खाप” की ओर से
सगोत्री करार देकर, सुनाये जाते हैं दंड!
जान से मार दिया जाता है प्रेमी को
प्रेमिका के सामूहिक बलात्कार के बाद…
राजधानी से महज बारह घंटे की दूरी पर
“स्ट्रांग इंडिपेंडेंट वुमन” खो देती है अपनी “आईडेंटिटी”
“डायन” बना दी गई है बलात्कारियों के खिलाफ
एफ.आई.आर. दर्ज करवाने की जिद में,
मुँह काला करके, सिर मुंडवा कर
नुमाइश की जा रही है उसकी सरेआम
वो सदियों से चली आ रही व्यवस्था को,
चुनौती देने लगी थी दो किताबें पढ़ कर…
राजधानी से महज बारह घंटे की दूरी पर
बदल जाता है लड़कियों का समूचा भूगोल!
“स्मार्टफोन” और “फैंसी किताबें” लेकर
घूमने वाली लड़कियाँ,
बदल जाती है एक साल के बच्चे की माँ में
और हाथ भर का घूँघट ताने रहकर भी
समेट लेती है घर भर के सारे काम
स्कूल के किताबों में लिखी कविताएं
हास्यास्पद पहेली लगती हैं उन्हें….
राजधानी से महज बारह घंटे की दूरी पर
बेरोजगारी कोई समस्या नहीं होती!
और न विश्वविद्यालय में छिड़ी हुई बहस,
न उसका कोई सरोकार होता है
सामाजिक और राजनितिक परिस्थितियों से
वह महज एक व्यक्तिगत दुःख है
अभी अभी “ओवर एज” हुए लड़के का…
राजधानी से महज बारह घंटे की दूरी पर
सुगम संगीत की महफिले बदल जाती हैं
दूरदर्शन की भूल चुकी मर्सियाई धुन में…
और साहित्यिक गोष्ठियाँ चुप हो जाती हैं
ठण्ड से काँपते बच्चे और मरियल कुत्ते की
एकसार कुनमुनाहट सुन कर!
महज बारह घंटे की दूरी लाँघना
कितना मुश्किल है दो सभ्यताओं के लिए
जो एक ही गणतंत्र का हिस्सा हैं….
2. आत्महत्या
कभी पुरसुकून तुमसे मिल नहीं पाई मैं!
ना तुम मुझे देख सकी ठीक ठीक, ना मैं तुम्हे
हम दोनों के बीच का फासला
पीढ़ियों का नहीं, सदियों का था
जिसे ना तुमने कम करने की कोशिश की, ना मैंने
यूँ तो घूँघट के भीतर से ही
सब पहचान लेने की कला सीखी थी हम दोनों ने
लेकिन मुझे अफ़सोस है
मैंने इस घूँघट के फासले को हटा कर
कभी तुम्हे जानने की कोशिश नहीं की
और इस तरह मैं बराबर सरीख़ हूँ
तुम्हारी हत्या में….
****
दूर ही दूर से कितना कुछ सुनती रही
तुम्हारे दुर्व्यवहार के बारे में,
तुम्हारे चरित्र पर लगाए जा रहे लांछन,
माँ होने की तुम्हारी योग्यता पर, प्रश्नचिन्ह!
एक सम्भ्राँत परिवार की
बदचलन छोटी बहू होने का “लेबल”
बहुत जी चाहता है एक बार पूछू तुमसे
दम घुटने की हद तक
गला दबाने वाले कठोर हाथ,
जब वो फेरता होगा तुम्हारे घावों पर,
तब उस हवस को प्रेम का नाम देते
क्या तुम शर्मिंदगी में मूंद लेती थी आँखे?
तुम्हारे खूबसूरत चेहरे को
जब मसला जाता हैं जूते की ‘सोल’ से
तब तुम आईने को क्या जवाब देती थी ?
“जैसे भी हो, निबाह करो उससे”
कहते थे मायके वाले
तब कितना छटपटाती थीं तुम ?
“मेरा कोई लेना देना नहीं”
कहता है भाई
तब कितना बेबस होता है तुम्हारा मन?
कैसे सह जाती होगी तुम
अपनी कोमल देह पर बेल्ट की मार,
सुलगती सिगरेट से दागा जाना,
कनपटी पर अनगिनत झापड़!
कैसे सहती रही हो सालों-साल,
शरीर और आत्मा का कुचला जाना?
*****
मैंने कभी साहस नहीं किया
तुम्हारी चीखों को सुनने का
अगर कभी दबी ज़ुबान में नकारना भी चाहा
तो खुद को कटघरे में खड़े कर दिए जाने की
असुरक्षा और डर से सिर झुकाये
“हाँ में हाँ” मिलाती रही उन सबसे
जबकि मुझे पूछना चाहिए था, तुम्हारा सच!
देखने चाहिए थे, तुम्हारे घाव,
खड़े होना चाहिए था, तुम्हारे हक़ के लिए
चीखना चाहिए था, तुम्हारी पीड़ा में
लेकिन मैंने एक खामोश तठस्थता ओढ़कर
चुप रह जाना मुनासिब समझा
बड़े होने की बड़ी जिम्मेदारी ने
अपराधी बना दिया मेरी आत्मा को
और मेरी यह खामोशी भी
सरीख़ थी तुम्हारी हत्या में….
*****
आख़िर किस तरह तैयार किया होगा तुमने खुद को?
दोनों बच्चों को स्कूल भेजने की तैयारी करते हुए…
क्या तुमने मन ही मन दोहराई होगी अपनी योजना?
आँगन में पानी से भरे, सारे बर्तन खाली करते हुए
तुम्हे डर तो लगा होगा ?
घर के भीतर जाने वाले दोनों दरवाजों पर
ताला लगाते हुए, तुमने उम्मीद छोड़ दी होगी क्या,
कि कोई आएगा और तुम्हे बचा लेगा?
खुद पर पेट्रोल छिड़कते हुए तुम्हे उस गंध से
उबकाई नहीं आई होगी ?
माचिस की कई तीलिया एक साथ जलाते हुए भी
क्यों नहीं काँपे तुम्हारे हाथ……..?
*****
तुम्हारी अधजली, मृत देह का सोलह श्रृंगार करते हुए
मुझे याद आती है, उन्नीस साल की
हिरणी सी व्याकुल आखों वाली दुल्हन,
लाल चूनर के छीने घूँघट में, डरी सहमी
बड़ी-बड़ी पलकें उठा कर,
जो देखती है अपनी नई दुनियाँ,
अजनबी चेहरों के बीच खोजती है कोई अपना
और लजा गई है, मुझे मुस्कुराता देख कर!
मैं, तुम्हारी बुझ चुकी आँखों में आँजती हूँ काजल
माथे पर लगाती हूँ सुहाग टीका
और माँग में सिन्दूर की लाली भरते हुए
मिटा देना चाहती हूँ, अपने अपराध के निशान !
3. सुनो
सुनो, उस शहर की वो तमाम जगहें
जिनमें, मैं तुम्हारे होने की जीती रही…
तुमने जिन जगहों पर बिताई अपनी शामें
उसकी रौनक को महसूस किया!
अपने निर्जन प्रदेश के, नितांत अकेलेपन में!
वो तमाम बिम्ब जो चाँद, पर्वत, पहाड़ में
तुम्हारी आभा बनकर चमकते रहे
उन्हें अपनी कविताओं में गूँथने की कोशिश की,
वो सभी बीहड़ और उजड़े हुए खंडहर
जिनमें हमारे मिलने की प्रबल संभावनाएँ थीं,
वो सभी मित्र जो हमें मिलाने के लिए
चुपचाप समर्थित सहयोगी बने रहे,
वो सभी संघर्ष भरे, उकताये हुए दिन
जिन्होंने हमें सँवारा और इंसान बनाया
वो तमाम किताबें, जिन्हें चुन-चुन कर
तुमने मेरे लिए तोहफ़े तैयार किये
वो सभी भावनायें जो एक क्रूरतम समय में भी
उम्मीद की लौ बचाये रखने में सफल रहीं
और वो सभी स्मृतियाँ….
जिन्हें सहेजने में असफल रही हूँ मैं
तुम, उन सब को संभालकर रखना!
…. संभाल कर रखना उन जगहों को
जहाँ मुझे होना था, एक मीठे सुख की तरह
या तुम्हारे आलिंगन में ठहरे दुःख की तरह
उन तमाम जगहों से मैं लौट रही हूँ!
उदास, निराश, थकी-हारी
मुरझाये फूलों में दम तोड़ती
आख़िरी गंध की तरह…
4. मेरा कवि
प्रश्न अब भी बहुत हैं उसके पास
वो जानना चाहता है
धरती के गर्भ में छिपे सभी रहस्य,
वो नाप लेना चाहता है
सहारा के दुर्दान्त मरुस्थल से
अमेज़न के जंगलों तक की दूरी,
हड़प्पा के सभी सिक्कों को पढ़ कर
सभ्यताओं के इतिहास से
खोज लाना चाहता है
अपने अस्तित्व की जड़ें!
फिलिस्तीन और यूक्रेन के साथ
शोक मनाना चाहता है मणिपुर की हिंसा का
वो लड़ना चाहता है दुनियाँभर की औरतों के साथ
पितृसात्तत्मक ताकतों और तालिबानी फरमानों के खिलाफ
उसने अपनी शर्ट की जेब में अब भी संभाल रखे हैं
रोजगार के इस्तेहार वाले अख़बार,
दस के कुछ फटे पुराने नोट,
“डी.टी.सी.” बस का “स्टूडेंट पास”
और दुनियाँ के उन हिस्सों को देखने का सपना,
जिनके बारे में बताते हुए
यकीन दिलाना है बूढ़ी होती माँओं को,
कि सम्भावनाओं से भरा है तुम्हारा संसार!
अपनी फटेहाल किताबों को समेटे हुए
ख़त्म होती उम्मीदों के बीच भी,
वह ताकना चाहता है चाँद को
गिनना चाहता है तारे
सेकना चाहता है जिंदगी की आँच
लिखना चाहता है प्रेम कवितायें
लेकिन धोखा दे रही है उसकी भाषा!
ठीक उस प्रेमिका की तरह
जो जानती है कि कविता की आँच में –
प्रेम तो पक जाता है
लेकिन रोटियाँ नहीं सेंकी जा सकती!
5. मुस्कान
औरतें बड़ी कमबख्त होती हैं!
कोई चीज आँखों से इधर उधर हो जाए
तो सारा घर सिर पर उठा लेतीं हैं,
मामूली चीज़ों को भी बड़ा अजीज बना लेती हैं!
और फिर, जब एक दिन अचानक
मिल जाती है गुम हुई चीज़
कपड़ों की अलमारी में दबी
या बिस्तर के किसी कोने से झाँकती
या रसोई के किसी डब्बे में रख कर भूली हुई
तब ये किसी से कुछ बताती नहीं
बस मुस्कुराती रहती हैं दिनभर
गुनगुनाती हैं दबी जुबान में
रेडियो पर सुना, कोई भूला हुआ गीत….
उस दिन उन्हें किसी की
कोई बात बुरी नहीं लगती!
सभी तानें सुन लेतीं हैं हँसते हुए….
6. ‘वो’ और ‘ये’
अपनी सरल बनावट में
कितनी जटिल हैं दोनों…
‘वो’
गुलमोहर के लाल फूल
अपने जूड़े में सज़ाकर
दौड़ती होगी मीलों, बेरोकटोक!
कभी गूँथती होगी चोटी
खुले आँगन में, बाड़े के पास खड़ी!
हँसते हुए दोहरी हो कर लथर जाती होगी
कच्ची ज़मीन पर गोबर लेपते…
तब भी किसी जलपरी सी जान पड़ती होगी
‘ये’
रसोईघर में आठजनों का
खाना बनाती,
गहनों से लदी-फदी
बार-बार संभालती है पल्लू!
वीरान आँखों से टटोलती है तुम्हें…
समेटते हुए, बैठक से लेकर
‘बेडरूम’ तक की बिखरी चीज़ें!
पैर हटाने की मिन्नतें करती
चाहती है, तुम किसी भी बहाने
उसे भी देखो एक बार…
अपनी सरल बनावट में
कितनी जटिल हैं
“ये” और “वो” दोनों….
7. प्रेम तुम्हारी नियति है
सुनों लड़कियों!
प्रेम तुम्हारी नियति है
लेकिन तुम्हे बताया जायेगा
यह तुम्हारी गलती है
फ़िर भी तुम मानना मत
रिश्ते आते हैं जीवन में
तयशुदा वक़्त पर
मौसम की तरह
प्रेम तुम्हारे जीवन में
चुनाव बनकर नहीं आएगा
तुम न इसे शुरू कर सकती हो न ख़त्म
प्रेम आएगा रीढ़ की हड्डी में बहते
धीमे दर्द की तरह!
तुम चाहो या ना चाहो रहेगा!
जैसे तुममें रहती है तुम्हारी उर्वर शक्ति
हाँ! उम्मीद न करना कि कोई उठाए
तुम्हारे इन दुःखों की जिम्मेदारी!
पर सहेज कर रखना
बेवक़्त उपजे इस प्रेम को,
अपनी उर्वर शक्ति से उपजी
इस नियति को…
8. तलाश
बुधत्व की तलाश में
जब तुम भाग रहे थे खुद से
ठीक उसी समय,
प्रसूति घर के अँधेरे और
बदबूदार कमरे में
ज़मीन आसमान को
चीर देने वाली पीड़ा के बीच
मैंने जान लिया था जीवन का वो सच!
कि बुद्ध होने के लिए
औरतों को भागना नहीं होता…
अपनी डेहरी से झाँक कर भी
वो बेहतर पहचानती हैं दुनियाँ को
****
कोख में करवट लेती “जिंदगी” पर्याप्त है
पूर्णता के उस एहसास को जानने के लिए,
जिसकी कमी तुम्हे भटकाती रही ताउम्र
और तुम भ्रम में रहे कि तुम खोज रहे हो
दुःख और करुणा के अंतर्सम्बन्ध
काश! तुम जान पाते यह रहस्य,
कि जीवन खोजना नहीं, गढ़ना होता है!
दुःख और करुणा को साथ में रचना होता है!!
9. पहचान
अपनी व्यस्ताओं में उलझे हम.,,,
हमने कभी जाना ही नहीं
कोई गुमनाम जीवन ख़त्म हो गया
अपने सभी सपनों को सिरहाने लगाए
दूसरे दर्जे के ‘वेटिंग हॉल’ के सामने
प्लेटफार्म नंबर पांच पर
तलाश जारी है
गठरी में खोजे जा रहे हैं
अवशेष उसके परिचय के,
लेकिन कोई सुराग नही मिलता
कौन था ?
कहाँ से आया था ?
किसके लिए आया था ?
किस ओर को जाना था ?
खबर कहती है –
“वो किसी शहर का नहीं था”
हर शहर उसके लिए
बस एक स्टेशन था …
10. 22 जनवरी
तुम अपने झूठ में
मेरे सच को ऐसे मिला दोगे
कि तुम्हारा झूठ
मेरे सच जितना पवित्र हो जायेगा
और इस तरह तुम
इतिहास का सबसे सफल छल करोगे
और मुस्कुराओगे अपने दार्शनिक लहजे में
चुपचाप! मौन!!
कवयित्री माया मिश्रा, जन्म – 11/06/83 सागर (mp)
शिक्षा – हिन्दी में एम.ए. एवं एम.फिल.
‘गुलजार’ निर्देशित फ़िल्मों पर “हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय” से शोध कार्य
विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में फिल्म समीक्षा, कहानियाँ एवं समकालीन कविताओं पर लेख प्रकाशित ।
वर्तमान में – मैहर (M.P) में व्याख्याता हिन्दी के रूप में अध्यापन कार्य
टिप्पणीकार गुंजन श्रीवास्तव ‘विधान’, जन्मतिथि-24 मार्च 1995
बेगूसराय (बिहार), स्नातक- जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय
MA-राजनीति विज्ञान, कई ब्लॉग, अख़बार और पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
फ़ोन- 8130730527,
मेल- Vidhan2403@gmail.com