समकालीन जनमत
कविता

आशीष तिवारी की कविताएँ सामूहिक प्रतिरोध का आह्वान करती हैं।

विपिन चौधरी


जहाँ हिन्दी साहित्य में कई युवा रचनाकारों ने अपनी आमद से आश्वस्त किया है ऐसे ही एक युवा कवियों की फ़ेहरिस्त में एक नया संभावनाशील नाम आशीष तिवारी का भी है, जिनकी कविताएँ एक बार फिर यह भरोसा दिलाती हैं कि जब तक संवेदनशील मनुष्य के भीतर कविता रचने जैसी संवेदनशीलता सांस लेती रहेगी तब तक मानवीयता को कोई ख़तरा नहीं फिर सामने वाला दुश्मन चाहे कितना भी धूर्त और शक्तिशाली क्यों न हो, राजनीति चाहे कितनी ही गर्त में क्यों न चली जाए, समाज चाहे अपने सामने होने वाले नग्न नाच से कितनी ही बार आँखें मोड़ ले मगर एक जागरूक और संवेदनशील मनुष्य के भीतर रहने वाली कविता इतिहास और वर्तमान, अतीत और भविष्य, मानव और प्रकृति के बीच आवाजाही करते हुए ठीक उसी तरफ़ जाने की हिम्मत हमेशा रखेगी जहाँ से प्रकाश की ढेरों किरणें एक साथ नई और जगमगाती हुई ऊर्जा लेकर आती हैं और तमाम अंधेरे, सारी उदासियाँ और सारी नकारात्मकता को अपने साथ समेट कर ले जाती हैं.

इसी सत्य के साथ आशीष अपनी कविताओं में मिथकों के ज़रिए वर्तमान की मक्कारियों पर प्रहार करते हैं, तथाकथित श्रेष्ठताबोध को दर्शाने वाली संस्कृति की कलई खोलते हैं जो सहज और नेक मनुष्य को हेय बनाने की फिराक में लगी रहती है. आशीष उस अस्पष्ट और दिशाहीन इतिहास का अन्वेषण करते हैं जिसको थाम कर वर्तमान ने हमेशा ही सत्य को भ्रमित किया है.

अपने अलहदा अंदाज में उन ऊल-जलूल अवधारणाओं को व्यक्त करती आशीष की इन कविताओं का तेवर अलहदा है और समय के साथ और भी गहरा रंग होता जाएगा ऐसी उम्मीद की जा सकती है.

आज के समय में इंसान के नागरिक के तौर पर अपनी जिम्मेदारी अभी भी तय नहीं है जबकि दूसरी ओर हमारी स्त्री-शक्ति सबसे ऊंचे पायदान पर खड़ी हमें ललकार रही हैं,

वे सुंदर जीवन और राष्ट्र ही नहीं,
विश्व बचाने, नियम बचाने उतरी हैं
अब संतानों की जिम्मेदारी तय होनी बची है ( जिनकी दुनिया का धर्म मनुष्य-निर्माण है)

आशीष वर्तमान के लगातार भोंडे होते जा रहे स्वरूप पर भी नज़र रखते हैं, वे देखते हैं किस तरह से आधुनिक मनुष्य के हाथ से जीवन के मर्म से वाबस्ता रखने वाली चीज़ें छूटती जा रही हैं और वह कुछ नया और सार्थक कर पाने में असफल हो रहा है,

उनके पाँव तले की मिट्टी दिनों दिन खिसक रही थी
जब वे अपने शरीर की मिट्टी को
गलने से बचाने के लिये
ईंट के भट्टे में अपने पूर्वजों की मिट्टी को
झोंक रहे थे ( देह की मिट्टी बचाने के लिए )

आशीष की कविताएं उस निर्भीक कार्यकर्ता की तरह हैं जो सत्ता के सामने सच बोलना का साहस करता है, और जो एकजुटता का ऊंची आवाज़ में आहवाहन करता है और नकारात्मक ताकतों के खिलाफ सामूहिकता को आवाज़ देता है.

हम एक दुनिया बनाएंगे
आओ न ! मेरे साथ चलो !
बस इतना बचाकर हम पूरी दुनिया बचा लेंगे ( हम मिलकर बहुत कुछ बचा लेंगे)

आज जिस तरह राजनीतिक स्तर पर बेईमानी और आडंबर का बोलबाला है, मीडिया की भ्रामक बयानबाजी बढ़ती जा रही है, कमज़ोर तबकों को धमकी देने वाली अमानवीय ताकतों का साहस और हिंसा चरम पर है ऐसे में कवि गंभीर सत्य के साथ मनुष्य की चेतना का जैसे विस्फोट कर देना चाहता है और एकजुट मोर्चे को प्रेरणा देना चाहता है ताकि समाज में सामूहिक प्रतिरोध विकसित हो और चारों दिशाओं में दुंदुभि बज सके क्योंकि आज का यह समय आत्मसंतुष्टि का समय तो हरगिज़ नहीं है।

 

आशीष तिवारी की कविताएँ

1. मिट्टी-चोर बच्चे

किसी ने कहा कि मोहल्ले के बच्चे
आपके प्लॉट की मिट्टी चुरा रहे
मैंने भी देखना चाहा
देखा कि छोटे-छोटे बर्तनों में बच्चे मिट्टी भरके ले जा रहे
वे उन्हें गमलों में डाल रहे थे
कुछ गमलों में तो सुंदर-सुंदर फूल भी खिले थे

कुछ पल के लिए तो लगा कि वे सारे फूल मेरे हैं
क्योंकि वे मेरे प्लॉट की मिट्टी में उगे हैं
फिर उन बच्चों के चेहरों पर ध्यान गया
जो उन पौधों को सींचते

ये बच्चे बड़े नादान होते हैं
गमले तैयार करना वे खेल समझते हैं
उन्हें नहीं पता
वे मिट्टी चुराकर फूल खिला रहे

जब उन गमलों में खिले फूल देखता हूँ
तो उन फूल जैसे बच्चों के चेहरे याद आ जाते हैं

तब मन हंसकर कहता है
ले जाओ!
सारी मिट्टी चुराकर ले जाओ
सारी मिट्टी को फूल बना दो

नहीं तो ये सारी मिट्टी शहर के बोझ तले दफ़न हो जाएगी

बच्चों! जब ज़मीन पर इमारतें उतर आएं
तो उन इमारतों के सिर पर
एक गमला मिट्टी भरकर रख देना
ताकि उन्हें एहसास रहे
मिट्टी ही सत्य है
मिट्टी ही शाश्वत है।

 

2. देह की मिट्टी बचाने के लिए

वे जब पैदा हुए तो घर मिट्टी का बना था
मिट्टी में ही खेले
मिट्टी में ही पले-बढ़े
कभी-कभी शौक़ से मिट्टी खाई भी

उन्हें लगा कि मिट्टी ही सब कुछ है
मिट्टी के चूल्हे,
मिट्टी के बर्तन,
मिट्टी के खिलौने
और घर की दीवारें भी मिट्टी की थी

उन्हें लगा कि मिट्टी ही सब कुछ है
इसीलिए खेतों की मिट्टी से उन्हें प्यार था
पूरा परिवार चारों ऋतुओं में मिट्टी को चूमता रहता था
मिट्टी उनके लिए सब कुछ थी

जब सभ्यता ने खुद को आधुनिक घोषित कर दिया
मिट्टी का मोल मिट्टी बराबर साबित किया जाने लगा
और
मिट्टी को मिट्टी के मोल खरीदकर
भट्टों में महंगे ईंटें बना दी गईं

उनसे मिट्टी का भरोसा छीन लिया गया
नम मिट्टी को ठोस ईंटों में बदलने का काम जारी था
ये मिट्टी के बने इंसान
अपनी मिट्टी को ईंट बनता देखकर निस्सहाय हो चुके थे

उनके पाँव तले की मिट्टी दिनोंदिन खिसक रही थी
अब वे अपने शरीर की मिट्टी को
गलने से बचाने के लिये
ईंट के भट्ठे में अपने पूर्वजों की मिट्टी को
झोंक रहे थे।

 

3. दैवासुर विद्या

असुर वे कहलाये गए
जिनके गुरुओं ने उन्हें स्वर्ग-विजेता बनने के गुर सिखाए
असुरों के गुरु को, गुरु के रूप में स्वीकार नहीं किया गया
जिनके शिष्य महाव्यसनी थे,
जिनके शिष्यों की विलासिता,
किसी असुर शिष्य की विलासिता से कम न थी
वे गुरु देव-पूजाओं में दुहराए जाते हैं
असुरों के गुरु ने उन्हें विजय-कौशल के मंत्र दिए
सृष्टि-रचयिताओं से वरदान लेने योग्य कठिन साधना, तप का दृढ़ संकल्प सिखाया
रचयिताओं को बार-बार विवश किया इच्छित वरदान देने के लिए
असुर थलचर थे,
उन्होंने आकाश में युद्ध-कलाओं से देव-शिष्यों को अनेक बार पराजित भी किया
संभव था वे उन वरदानों का सदुपयोग भी सीख जाते,
लेकिन आचार्य शुक्र जैसा प्रतिबद्ध गुरु उन्हें दुबारा न मिला
आचार्य बृहस्पति इंद्र की मूढ़ताओं से दुखी रहते थे
परंतु देव-सत्ता का त्याग वे न कर पाए
जाने किस लाचारी में वे अपनी विद्याओं का लोप होता देख रहे थे
देव-निर्मित जिस गुरुत्व-बल को तोड़कर
असुरों का स्वर्गारोहण हो रहा था उससे वे चकित थे
वे इंद्र से अपेक्षा करते थे कि वह एक नया स्वर्ग भले न बना पाए
कम-से-कम निर्मित स्वर्ग को अपने पराक्रम से बचाये रहे
जिससे उनकी विद्याओं का प्रभाव बना रहे
परंतु देवतागण दैवीय-भार से ग्रसित थे
विद्या-प्रभाव उनमें असुरों से लघुतर था
देव-गुरु की पदवी छोड़कर गुरु बृहस्पति एक प्रयोग यदि कर पाते
कि आचार्य शुक्र के साथ मिलकर एक महाअभियान
असुरों के पक्ष में करते
तो योद्धाओं का इतिहास इस महादेश में कुछ और होता
तब जो आचार्य परंपरा विरासत में मिलती,
वह दैवासुर संग्राम को न जन्म देती
बल्कि दैवासुर विद्या-संस्कृति को शिल्प देती….

 

4. लौह-तर्पण

पांच हज़ार साल पहले देवता ने धरती पर जन्म लिया था
ऐसा धर्मग्रन्थों में वर्णित है
एक लुहार का बेटा
लोहे का एक मजबूत टुकड़ा लेकर कई वर्षों से घूम रहा है
कहते हैं वो बांवला हो गया है
उसे उस लोहे में इंसान के खून की गंध आती है
उसने जबसे महाभारत के युद्ध की कथा सुनी है
तब से वो उस भूमि की तलाश में घूम रहा है
जहां देवता ने युद्ध का व्यूह रचा था
जहां कुछ गिने-चुने राजाओं के अलावा लाखों-करोड़ों सैनिकों के रक्त बहे हैं
देवताओं ने इतिहास में विजय की गाथा को अपने मस्तक पर चंदन की भाँति सँवारा है
उनकी अस्थियों के नाम पर मंदिर बने
पर वे जिनकी माँओं, बहनों और पत्नियों ने कभी राज्यलोभ का स्वप्न भी न देखा था
युद्ध भूमि में मांस के टुकड़ों में बदल गए
उनकी अस्थियां मिट्टी में मिल चुकी हैं
लुहार का यह बेटा
अपने खानदान के पूर्वजों के पांच हज़ार साल पुराने अवशेष ढूंढने निकला है
वह भी इतने वर्षों पुराने देवता के बगल
उनकी हड्डियों का ढ़ेर लगाना चाहता है
ताकि हिसाब लग सके
कि
राज्य और प्रतिष्ठा किसे मिली
और
मृत्यु और गुमनामी किसके हिस्से आई
लोहे के टुकड़े में बसी गंध उसे बरबस
अपने पूर्वज सैनिकों के इतिहास पर सवाल करने पर मजबूर कर रही
कहते हैं ये लोहे का टुकड़ा ऐसे ही किसी युद्ध के मैदान में उसके पिता को मिला था

 

5. मकड़ व्यवस्था

मकड़ी जैसा शातिर जीव कौन होगा
उड़ने वाले कीटों के लिए
रेशमी जाल बुनकर रखा है उसने
वे फंसते हैं इसमें
और
फड़फड़ाकर उसी में मर जाते हैं
मकड़ी का निवाला बनकर
कहीं सारी व्यवस्थाओं का ढांचा
मकड़ी से प्रेरणा लेकर तो नहीं बनीं
क्योंकि इनमें भी
आजाद इंसान
एक बार फंसकर
तड़प-तड़प कर
फड़फड़ाकर मर जाता है
उसकी आज़ादी के पंख
व्यवस्था के मकड़जाल में
लिपटकर टूट जाते हैं
बाद में देखा कि
मकड़ी उस कीट के मृत शव को
कुतर-कुतर के खा रही है
अब इंसान के बारे में
आगे इस दृश्य से साम्य बैठाना
वीभत्स्य लगता है….

 

6. ठीक उसी वक्त

भाई! देखो न!
एक ही वक्त में हम दोनों कितने अलग जगहों पर थे
और कितने अलग कामों में लगे हुए थे,

जब तुम मेरा उपहास कर रहे थे,
उस वक़्त मैंने कई भाषाओं के जीवन-सूक्त दुहराए।
जब तुम दूसरों से मुझे गालियां दे रहे थे,
ठीक उसी वक्त गर्म तवे पर मैं रोटियां सेंक रहा था,
तुम्हारा गला अनर्गल बोलते-बोलते जब सूख रहा था,
ठीक उसी वक्त मैंने लोटे से गटागट कई घूंट पानी पिये थे।

ऐसा कई बार हुआ,
जब तुम मुझे मारने की फ़िराक में हरे पेड़ों की टहनियां तोड़ रहे थे,
ठीक उसी वक्त मैंने अपने दुआरे पर एक नीम का पेड़ रोपा है,
तुम छाया खत्म कर रहे थे और मैं भविष्य के लिए छाया तैयार कर रहा था
जब तुम मुझे बेमुरव्वत और दगाबाज़ साबित कर रहे थे,
उस वक्त मैं अपनी दादी की स्मृतियों में डूबा,उन्हें याद कर रहा था,
उस वक़्त मैं अपने संबंधों में मिठास घोलने की कोशिश कर रहा था,
उनमें भरोसे की नींव डाल रहा था।

भाई जब तुम दूसरों के खेतों के मेड़ तोड़ रहे थे,
मैं मिट्टी से प्रेम जता रहा था,
उनमें कुछ फूलों और फलों के बीज ढंक रहा था।
और एक छोटा दृश्य लेकिन बड़ी बात….
जब तुम सभाओं में नेताओं की तनी-बर्री मूंछे देखकर गदगद हो रहे थे
ठीक उसी वक्त, उसी सभा में
मेरी नज़रें एक जोड़ी लाचार, रुआंसी नज़रों पर पड़ी रही
ठीक उसी वक्त तुम मेरी नज़रों से गिर रहे थे,
गिरते जा रहे थे…….

 

7. जिनकी दुनिया का धर्म मनुष्य-निर्माण है

सभ्यता की जिस सीढ़ी पर चढ़कर
हम यहां तक पहुंचे,
उसमें माताओं के अविस्मृत चढ़ावे
संपूर्ण विश्व की नींव में रचे-बसे हैं
मन्नतें, दुआएं और आशीर्वाद
हर आंगन से उठकर ब्रह्मांड तक गुंजायमान हैं
और यह कोई कल्पना की उड़ान नहीं
जब भी जीवन के किसी शुभ-कर्म का अवसर आया
इन्होंने ही दीप जलाकर
मंगल-गीत गाए हैं।
वो मंगल-कामना के लिए हर धर्म के देवता के आगे
शीश नवाती है।
इनकी उंगलियों के निशान ही
देवताओं के मस्तक पर चंदन बनकर सुशोभित हुए।
किसी आँचल से निकली मन्नतें,
न कभी अनर्गल आशा के लिए
और न ही कभी किसी अपशगुन के लिए निकली होंगी।
माताएं पाक़-साफ इच्छाओं से विश्व रच रही थीं
उनके रचे विश्व पर
आततायी शक्तियों ने हमले किये
क्रूरताओं और अनैतिकताओं में सने पुत्रों को देखकर
उनका हृदय लहूलुहान हुआ है
माताओं का स्नेह धर्मरहित है
धर्मनिरपेक्षता की धुरी उन्हीं ने थामी है
किसी अनाथ बच्चे को अपना दूध पिलाती कोई मां
उसका धर्म नहीं सोचती
वो अपना धर्म निभाती है।
जिसे आततायी नष्ट कर रहे
उसकी एक धुरी माँ के हृदय में सुरक्षित है
उस मूल्य को नष्ट करने में क्या उनके हृदय चीर सकोगे…?
आंगन बटोरते-बुहारते दादियों की उम्र बीत गई
अब वे देश बुहारने निकली हैं,
विश्व बुहारने में रत हैं,
माताएं अब आंदोलनों में हैं,
नारों में उनकी तनी मुठियाँ आसमान को थामें हैं।
वे सुंदर जीवन और राष्ट्र ही नहीं,
विश्व बचाने,नियम बचाने उतरी हैं
अब संतानों की जिम्मेदारी तय होनी बची है…..

 

8. हम मिलकर बहुत कुछ बचा लेंगे

हवाएं बदल रही हैं दोस्त!
कुछ कोशिश करोगे मेरे साथ.?
हम तुम मिलकर
सुंदर रंगीन गुब्बारों में हवाएं भरकर
बांट आएंगे उन लोगों को,
जिन्हें घुटन भरी जिंदगी नसीब हुई
हम जहां हैं वहां हवा बहुत सुगंधित है
हमने सींचा है इस बाग को मिलकर
सुंदर फूल, हरियाली, भौंरे
सब मेरे-तुम्हारे खूबसूरत रिश्ते की बदौलत है
चलो न! थोड़ा कहीं बांट आते हैं इस खुशबू को
हो सकता है किसी को जरूरत हो इसकी
किसी के रिश्तों की मिठास कम हो रही होगी,
तो हमारे प्रेम-मधु से सींच सकता है
फूल और हरे बाग बचे हैं इस तपिश में,
ऐसा आश्वासन देना है इस संसार को
चलो न ! मेरे साथ चलो !
सब कुछ कंक्रीट बनता चला जा रहा
अभी हमारी जिम्मेदारी बड़ी है
हमें मिट्टी बचानी है,
थोड़ी घास बचानी है,
तरह-तरह के बीज बचाने हैं,
एक छोटी सी खुरपी
और कुछ जोड़ी सुंदर हाथ
हम फूल उगाएंगे और खुशबू बांटेंगे
हम मिट्टी बचाएंगे,
बीजों की सम्भावनाओं को जिंदा रखने के लिए,
एक छोटी गौरैया और एक मोर बचाएंगे,
हम एक दुनिया बनाएंगे
आओ न ! मेरे साथ चलो !
बस इतना बचाकर हम पूरी दुनिया बचा लेंगे।

 

9. नई पारिस्थितिकी

पिता,बच्चे को पारिस्थितिकी समझा रहे थे
उन्होंने बताया
बकरी घास-पत्ती खाती है,
बकरी को शेर खाता है
बच्चे ने बीच में ही टोका,
“पर पापा बकरी को तो आदमी भी खाता है”

पिता निरुत्तर हो गए
बच्चे को जवाब देने लिए बात घुमानी चाही
बोले, “बेटा आदमी भी शेर ही होता है”
कहकर पिता ठहाका लगाए
लेकिन बच्चा एकटक उन्हें बड़ी-बड़ी आंखों से देखता रहा
पिता उसकी प्रश्नाकुल आंखों के सामने निरुत्तर हो गए

उन्होंने दूसरी तरह से समझाना चाहा
केंचुआ मिट्टी खाता है,
केंचुए को चिड़िया, मुर्गी और कबूतर खाते हैं,
इन सबको बिल्ली खाती है,
बच्चे ने फिर बीच में टोका
“पर पापा! मुर्गी और कबूतर तो आदमी भी खाता है”

पिता अपने सीखे पाठ्यक्रमों को निरर्थक पा रहे थे
उन्होंने पहली वाली बात की तरह इसे भी टालना चाहा
बोले, “तो बेटा आदमी भी बिल्ली ही होता है”
बच्चा इस तरह से पिता को देख रहा था
जैसे उनके बताए उत्तरों को
अपने मस्तिष्क में ढांचा दे रहा हो

पिता यह बात समझ रहे थे
पर बात जिस तरह से हंसी में टाली जा रही थी
टालने लायक न थी

इसी वक्त बच्चे ने पिता से सवाल किया
“पापा, जब आदमी बकरी को खाये तो शेर
मुर्गी और कबूतर को खाये तो बिल्ली
और जब आदमी,आदमी को खाये तो..??”
और यह सवाल करके बच्चा ठीक उसी तरह खिलखिलाकर हँसा
जैसे पिता उसे उत्तर देते वक्त हँसे थे

पिता समझ गए थे कि जो पाठ्यक्रम वे उसे समझा रहे थे
वो बच्चे को हिंसा और संवेदनहीनता की ओर ले जा रहा था
बच्चे का यह सवाल पिता के कलेजे में चुभ गया

उन्होंने खुद को सम्भाला और बताने लगे
” बेटा! जब सांप मेढ़क को पकड़ लेता है
तब चिड़िया ऊपर से उड़-उड़कर सांप को टक्कर मारती है
ताकि मेढ़क बच जाय,
जब बिल्ली चिड़िया को पकड़ने के लिए घात लगाए रहती है
तब सारे पंक्षी और गिलहरियां चिल्ला-चिल्लाकर सभी को सचेत करती हैं,
जब शेर किसी बकरी या हिरनी को पकड़ता है
तब जंगल के सारे भालू, बंदर और जंगली भैंसे इकठ्ठा होकर उन्हें छुड़ा लेती हैं”

बच्चा इस बार भी गोल-गोल आंखों से एकटक पिता की ओर देख रहा था
यह भी उसके लिए नई संरचना थी
इसका ढांचा भी बच्चा अपने मष्तिष्क में बना रहा था
और कुछ पल बाद ध्यान हटते ही खिलखिलाकर हँस पड़ा
और बोला, “तो पापा इस तरह आदमी भी आदमी को बचा लेता होगा”

इस बार पिता संतुष्ट होकर बोले, ” हाँ बेटा”
उन्हें महसूस हुआ
कि जो पाठ्यक्रम वे पढ़कर आये थे
वह आदिम हिंसा की प्रवृत्ति की पोषक थी
उन्होंने बच्चे को नए पाठ्यक्रम से परिचित कराया
जो, आदिम प्रेम, सहयोग और न्याय-निर्णय को जन्म देगा

बच्चा इस नए उत्तर का ढाँचा बनाने में खोया है…

 

10. गीत की एक पर्ची

किसी शरीर के मृत हो जाने भर से
उसका जिया हुआ जीवन मृत नहीं हुआ करता
तेज रफ़्तार ट्रेन के गुज़र जाने के बाद
उस औरत के शरीर के चिथड़े हो चुके थे
उसके मरने के बाद
स्टेशन पर ही लोग तरह-तरह की बातों का अनुमान लगाकर
परिवार से लेकर चरित्र तक पहुंचते गए

मैंने उस दृश्य को देखा था,
जब वो ट्रेन के नीचे आ गई थी
उसे देखकर ये नहीं लगता था कि वो आत्महत्या करने आई है
ऐसा लगता था,
जैसे पटरी पार करके झट से उस पार जाने की तैयारी में थी,
जैसे उस पार शहर में उसका कोई अपना
बेसब्री से इंतज़ार कर रहा हो
उसके कदमों में तेज़ी थी, एक बाघिन की चाल थी
आत्महत्या के लिए जाते निराश कदमों की आहट नहीं थी उसमें
वो ट्रेन की रफ्तार को मात देकर निकलने वाली थी
पर अचानक….

उसके सामान के थैले से एक छोटा सा पर्स निकला
जिसमें कुछ फुटकल रुपये, एक मंगलसूत्र और कागज़ का एक टुकड़ा
जिस पर कोई गीत लिखा था
मिला

मैं अनुमान लगा रहा हूँ कि
कोई स्त्री किसी यात्रा में जाते वक़्त
किसी कागज़ पर लिखे गीत को क्यूँ सहेज कर रखेगी
उस सहेजने में ही जीवन की आस,
उसके मरने के बाद भी लिपटी हुई है

किसी बच्चे के जन्म पर गाया जाने वाला गीत
या किसी रिश्तेदार की शादी में गाया जाने वाला गीत होगा
या किसी मांगलिक पूजन में शुभ मनाने का गीत होगा
कुछ तो होगा, जिसमें इस गीत को गाकर वह लोगों की तारीफ़ भी लूटती
जो भी हो,
पर इतना अवश्य है कि वह कोई रुदाली गीत नहीं होगा
बुआ और बहनें हमेशा मंगल गीत गाने ही मायके इकठ्टा होती हैं
सम्भवतः वो भी भाई के घर बधाई लेकर जा रही हो
पर वह गीत की पर्ची गवाही दे रहा कि वह आत्महत्या करने नहीं गई थी

काश! वो पर्ची मुझे पुलिस से मिल पाती
तो मैं उस गीत की बोली पता करता
उस बोली के क्षेत्र में जाकर उस गीत की परंपरा,
उसके पीछे का मंतव्य और
उसे गाकर लगाए जाने वाले हँसी-ठहाकों को जानने की कोशिश करता
वहां जरूर उसके अवशेष भी मिलते और
उसका वैभवपूर्ण इतिहास भी….


 

कवि आशीष कुमार तिवारी, जन्म: 20 मार्च 1993, घीसापुर, सैदाबाद, उत्तरप्रदेश। अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के हिंदी विभाग से बीसवीं सदी की हिंदी कविता पर वैश्वीकरण के प्रभाव’ पर पीएचडी  सम्पन्न। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और ब्लॉग्स पर कविताएँ  प्रकाशित। ‘लौह तर्पण’ नाम से कविता संग्रह प्रकाशित।

सम्पर्क: 96969 94252

टिप्पणीकार विपिन चौधरी समकालीन स्त्री कविता का जाना-माना नाम हैं। वह एक कवयित्री होने के साथ-साथ कथाकार, अनुवादक और फ्रीलांस पत्रकार भी हैं.

 

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