समकालीन जनमत
कविता

नाज़िश अंसारी की कविताएँ लैंगिक और धार्मिक मर्यादाओं से युद्धरत हैं

विपिन चौधरी


 

बहरहाल..
गाय-वाय-स्त्री-विस्त्री-योनि-वोनि
कुछ नहीं होना मुझे
मुझे मेरे होने से छुट्टी चाहिए (मुझे छुट्टी चाहिए)

नाज़िश अंसारी की कविताएँ उस युवा सोच का प्रतिनिधित्व करती हैं जो समाजिक नियमों से नहीं बल्कि स्वयं निर्मित नियमों से वाबस्ता हैं. जिन्होंने अपने जीवन की बागडोर को अपने हाथों में मजबूती से थाम रखा है. बचपन में इन प्रखर युवतियों को भी ‘अच्छी लड़की’ बनने की घुट्टी पिलाई गई थी मगर अब वे उस घुट्टी के स्वाद को बिसरा चुकी हैं उन्हें ऐसा करना इसलिए भी जरूरी लगा क्योंकि ‘अच्छी लड़की’ की उनकी परिभाषा उनकी पूर्ववर्ती स्त्रियों से कहीं अलग है. ये युवतियाँ, गुड गर्ल सिन्ड्रोम से बाहर आयी हुई युवतियाँ हैं, जो अपना जीवन दूसरों की हामी के इंतजार में नहीं बिताना चाहतीं, सामाजिक अपेक्षाओं के अनुसार अपनी इच्छाओं की बलि नहीं देती और अपने जीवन, अपने परिवेश में आमूल चूल परिवर्तन लाने के लिए किसी बड़े संघर्ष से रत्ती भर भी नहीं घबराती.

हमारा घर-परिवार, समाज लड़की को जिस तरह से बड़ी होती लड़की को शिक्षा देता है उसमें अदब से रहना, सलीके से बोलना आदि कई तरह की छोटी-बड़ी नसीहतें शामिल होती हैं. फिर जब लड़की की चेतना जागृत होती है तब उसकी सोच और घर-परिवार-समाज द्वारा दी गई शिक्षा के बीच एक मानसिक संघर्ष होता है इसी संघर्ष से निकलता है अमृत मंथन. मगर इससे पहले एक चेतना सम्पन्न युवती को अपने ही परिवार के विरोध का सामना करना पड़ता है और इस विरोध में उनके सामने होती हैं उनकी अपनी ही नानी, दादी और माँ, जो हमेशा अपने हिसाब से ‘अच्छी लड़की’ बनने का भार उनपर लादे रखना चाहती हैं,
“ उनकी झुकी गर्दन ज़रा तनी
ऐतमाद से भरी पूरी हुई
पुरखिनों को भनक लगी तो
खानदान की जनानियाँ सात पुश्तों की इज़्ज़त
उनके गालों पे जड़ कर कहती हैं –
अच्छे घरों की लड़कियाँ नौकरी नहीं करती’( अच्छे घरों की लड़कियाँ)

तो हर युवती का शुरुआती संघर्ष घर से ही शुरू होता है, संघर्ष के शुरुआती दौर में जब लड़की पूछती है, माँ मुझे क्या करना चाहिए ? तो उधर से जवाब आता है, सबसे पहले उसे “अच्छी लड़की” बनने का अभ्यास करना चाहिए.

मगर युवती जो कहती है वह नाज़िश अंसारी की कविता में पंक्ति में कुछ यूं है,

“तुम्हारा जीवन मैं भी जियूँ इतना मुझमें साहस कहाँ
तुमसे मुहब्बत बहुत हैं मगर तुम मेरा आदर्श नहीं हो माँ’( माँ मुझे क्या करना चाहिए

ऐसा साहस उस स्त्री-चेतना की बदौलत उत्पन्न होता है जो बेधड़क यह कहने का साहस भी रखती है कि,

‘तुम नहीं जानती
टोपी धरे सजदे झुके सर
अल्लाह से काम सामाज से ज्यादा डरते हैं
उससे भी ज्यादा उन औरतों से
जिनके हाथों में किताब है’ ( बुर्के वालियाँ)

नाज़िश की कविता, ‘अच्छे घरों की लड़कियाँ’, पढ़ते हुए अनायास ही पंजाबी कवि और पत्रकार निरुपमा दत्त की कविता, ‘बुरी औरतें’ याद आयी. जिसमें ऐसी औरतों का जिक्र हैं जो मुखर हैं, जो हँसती हैं और अपने मन मुताबिक अपना जीवन बिंदास होकर जीती हैं मगर समाज उन्हें बुरी औरतों की संज्ञा देता है.

नाज़िश की यह कविता भी पितृसत्तात्मक समाज पर तंज़ करती है.
नाज़िश की कविताओं में युवा आक्रोश है. सकारात्मक सोच से उत्पन्न होने वाली इस हिम्मत के बल पर ही नए समाज का निर्माण हो सकेगा जिसकी कर्णधार होंगी नाज़िश जैसी प्रखर सोच रखने वाली लड़कियाँ जिनके साथ होगा स्त्री चेतना का हथियार और इन्हीं लड़कियां के पास ही अंधेरे में भी अपनी राह तलाश लेने का हौसला भी होगा.

नाज़िश अंसारी की कविताओं के विषयों के जद में बिकलिस बानो हैं, जिनके जीवन का एक बड़ा हिस्सा न्याय पाने में कट गया, बुलडोजर राजनीति है, जिसमें पिस्ते मज़लूम लोगों की आवाज़ें हैं और इंटरसेक्शनलिटी है, जो मुस्लिम समाज में एक युवती की स्थिति पर प्रकाश डालती है.

ये कविताएँ समाज की आँखों में आँखें डाल कर सवाल करने की हिम्मत रखती हैं. आज के समय में इसी हिम्मत की दरकार है क्योंकि समाज सचमुच ऐसी स्त्रियों से डरता है जिनके हाथों में किताब है.

 

 

नाज़िश अंसारी की कविताएँ

1. अच्छे घरों की लड़कियाँ

अच्छे घरों की लड़कियाँ कॉलेज में पढ़ सकती थीं
सहपाठियों का नाम जाने बग़ैर
क्लास ले सकती थीं हफ़्ते में दो बार
कभी कभी तीन बार भी
सर पर हिजाब लेकर
अच्छे घर की लड़कियों को
होंठ सुर्ख रंगने के लिए
बालों में गोल्डन स्ट्रीक्स के लिए
स्लीवलेस पहनने के लिए
ब्याहू होने का इंतज़ार करना था
सिलाई बुनाई कढाई जैसी शर्तों पर अब पाबंदी नहीं है
हर चौराहे पर मिल जाते हैं दर्ज़ी
तमीज़ ओ तहज़ीब का अब भी विकल्प नहीं मिलता
दस्तरख्वान पर खाना सजाने के आदाब से घर का रख-रखाव परखती औरतें
शऊर के मे’यार पर खरी नहीं उतरती बेटियों को पकड़ाती रहीं इनकार
हाँ, रुपहली रंगत ने बे सलीक़ा लड़कियों को
अनगढ़ का चोला पहना कर बचाया हर बार
कुछ ऐसी भी थीं जिनकी ज़िल्द मैली
ज़हन रौशन थे
पड़ोसी बताते थे: चार दर्ज़ा पढ़ने के बाद ऊँघती दोपहरों में पेट के बल लेट कर नाविल के क़िरदारों से बतियाती थीं देर तलक
वे अजीब लड़कियाँ थीं
उन अजीब लड़कियों ने नेक खातून की निशानियाँ वाली किताबों पर खाए चने मुरमुरे घोल के पी गयी सिलेबस
मुकाबले के इम्तिहानों में आईं अव्वल
सोचा, नौकरी करेंगी
पैसे से उखाड़ देंगी
साँवले रंग और बद ज़ौक़ियत के धब्बे
और न होकर भी बन जाएंगी अच्छे घर की लड़कियाँ
इनकी झुकी गर्दन ज़रा तनी
ऐतमाद से भरी पूरी हुई
पुरखिनो को भनक लगी तो
खानदान की जनानियाँ सात पुश्तों की इज़्ज़त
उनके गालों पे जड़ के कहती हैं-
अच्छे घरों की लड़कियां नौकरी नहीं करती हैं

 

2. माँ मुझे क्या करना चाहिए

तुम्हारी आँखों में चलता सपना जिसमें तुम देख रही हो मुझे
लाल जोड़े सजे मेहंदी रचे हाथों में
क़ीमत जिसकी कुछ किताबें
मिलती हैं जो परीक्षा के दिनों में
(अब तुम बेच चुकी होगी रद्दी वाले को)
कुछ “गुड नाईट” कढ़े तकिये कुछ मिठास का हिसाब कुछ हिसाब मसालों का
कुछ महीने भर का ईंधन
कुछ रफू कुछ तुरपन
मगर तुम्हारा सपना इतने से न पूरा हुआ
इसने मुझसे कुछ और भी मांगा जिसे बताना तुम भूल गयी थी
तुमने नहीं बताया
जब बढ़ गया हो सब्ज़ी में तेल
घट जाए नमक
फेंकी जाएं खाने की मेज़ से तश्तरियाँ
तुम्हारे जन्नांगो से अलंकृत शब्दावलियाँ
कानों से टकरा कर लौट न पाएं
तोड़ फोड़ कर दें मस्तिष्क के चारों खंडों मे
बुल्डोज़र बन जाएं
(आपने ढहते देखी होंगी कंक्रीट की आकृतियाँ
हमने रूह देखी है)
जब उड़े रूह की धज्जियां
मुझे क्या करना चाहिए
रात कमरे की मद्धिम रोशनी में
जब गुटखे का भभका छोड़ा जाए मुँह पर
सामने हों दो भूखी आँखें
उतार दिये गए हों शरीर पर से कपड़े
रौंदा जा रहा हो माँस
मुझे क्या करना चाहिए
मेरे शरीर पर रची गयी नीलिमा
लव बाईट्स नहीं थी माँ….
किसी अनिष्ट की आशंका से डरी तुम
आँख दिखाते हुए घूरती हो
नारीवाद के चोंचले.. तौबा यह छुट्टा औरतें.. न घर बना पाई न जन्म सुधार पाएंगी
बाप मार डालेगा भाई काट देगा
बच्चे की तरफ देख, इसका जीवन बिगड़ जाएगा
वैवाहिक बलात्कार समाज के शब्दकोश में नहीं
संविधान पुस्तिका में भी नहीं
कोर्ट यही कहता है तुम भी यही कहती हो
जब तक मियां हामी न भरे
तलाक़ चुटकुले से ज्यादा कुछ नहीं
तुम बढ़ा रही हो मेरी तरफ बर्दाश्त की विरासत और चाहती हो इसके क्रमिक इतिहास के पहिये में कील की तरह ठुक जाऊँ
अपनी सब पुरखिनों की तरह
गृहस्थी के चूल्हे में ईंधन बन के फुंक जाऊँ
तुम्हारा जीवन मैं भी जियूँ इतना मुझमें साहस कहाँ
तुमसे मुहब्बत बहुत है मगर तुम मेरा आदर्श नहीं हो माँ

 

3. मुझे छुट्टी चाहिए

मैं नहीं होना चाहती बेटी
माँ भी नहीं
पत्नी तो बिल्कुल भी नहीं
मुझे मेरे होने से छुट्टी चाहिए
जैसे कड़ी सज़ा
कठोर निंदा ने
ज़िम्मेदार अधिकारियों को
ज़िम्मेदारी से छुट्टी दे रखी है
जैसे तालीपिटाऊ भाषणों ने पंद्रह लाख को
जुमलेबाज़ी ने अच्छे दिनों को
जैसे रंग गेरुआ ने देश के सब रंगों को
फ़िल्टर ने स्त्रियों को मेकअप से
छुट्टी दे रखी है
जैसे लिव-इन ने रिलेशनशिप से
मुझे भी छुट्टी चाहिए
गाय पालतू पशु है
क्लीशे हुआ
गाय पूरा देश है
और स्त्री सिर्फ़ योनि
जिसे रगड़ना है
घिसना है
खोदना है
जोतना है
सभ्य समाज की
सबसे कुलीन गालियों से सम्मानित होकर
रोज़ पत्थर, काँच, सरिया घुसवाती योनियों की चीत्कार
पहाड़ियों-झाड़ियों में ही फँस जाती है
किसी कार्यालय या न्यायालय नहीं पहुँचती
धर्म के नियम के तहत
ख़ाली दुआएँ ख़ला में कहीं टकराती रहती हैं
ईश्वर बहरा नहीं यह तय है
फिर पृथ्वी की सब बच्चियों की सारी चीख़ें
औरतों की सारी दुहाइयाँ और बददुआएँ कहाँ जाती हैं
फ़रिश्ते भी घूसख़ोर हो लिए या हो गए दल्ला
ओ मेरे अल्लाह!
मेरे निराकार ब्रह्म!
आकार लो
मेरे सजदे बंजर नहीं
उनकी आवारगी को कोई ठौर दो
या रे ईश्वर! तूने अपने ईश्वरपने से भी छुट्टी ले ली है क्या!
बहरहाल…
गाय-वाय-स्त्री-विस्त्री-योनि-वोनि
कुछ नहीं होना मुझे
मुझे मेरे होने से छुट्टी चाहिए
और शायद
मेरे जैसी उन तमाम औरतों को भी
जिनसे फ़ेसबुक के अलावा कोई नहीं पूछता
व्हाट्स ऑन योर माइंड?

 

4. बुर्क़े वालियाँ

नबी का क़ौल था इल्म हासिल करने के लिए चीन तक जाना पड़े तो जाओ
आगे कोई कोष्ठक नहीं जहाँ लिखा हो “सिर्फ मर्दों के लिए”
लेकिन हर बार बड़ी शातिर तरीक़े से
इल्म के नाम पर औरत को पकडाई गयी धार्मिक किताब
किसी यूनिवर्सिटी से पहले खड़ी कर दी गयी पर्दा, ‘बिरादरी में चलन नहीं है’, ‘पढ़ के कौन सा नौकरी करनी है’ की अदृश्य दीवार
अब आप न की मुद्रा में सर हिलाईये
सानिया मिर्ज़ा, निखत ज़रीन से लेकर जय श्री राम के जवाब में अल्लाह हो अकबर कहती
मुट्ठियाँ भींचती बुर्कागर्ल का उदाहरण लाईये
लेकिन ऐसी नजीरें भी कहाँ मिलती हैं कि बेहिसाब रुपहले तारों ने मिलकर स्याह आसमान को फ़िरोज़ी कर दिया..
सुनो महजबीनों! नाज़नीनों!
कब तक “अब्बा नहीं मानेंगे” कहकर किलसती रहोगी
शौहरों के थप्पड़ों, धमकियों, अबोलों के लिए
क़िस्मत, कभी सूरत को कोसती रहोगी
जैसे बैठ जाती हो शाहीन बाग में पहचान के लिए
उतर आती हो सड़क पर हिजाब के लिए
धर्म से परे कर्तव्यों से इतर
भिड़ो, अपने लोगों से अपने अधिकार के लिए
लाँघो, दीवार उस पितृसता की
जिसने तुम्हारे हिस्से के इल्मखानों, संस्थानों, कार्यालयों को देश दूसरा घोषित कर रखा है
तुम नहीं जानती
टोपी धरे सज़दे झुके सर
अल्लाह से कम समाज से ज़्यादा डरते हैं
उससे भी ज़्यादा उन औरतों से
जिनके हाथों में किताब है…

 

5. बिलक़ीस

बिलक़ीस,
उम्र क़ैद का मतलब
उम्र भर की क़ैद नहीं होता
तो क्या हुआ जिन्हें मरकर भी जलना नहीं था उन्हें जिंदा जलाया गया
तुम्हारे बच्ची को पत्थर पर पटक कर मारा गया
तो क्या हुआ जो बेहिसाब औरतें नंगी की गयीं
जिस्म उनके गोश्त के लोथड़े बने
वहशी नारंगी भेड़ियों में तक़्सीम हुए
हाँ, सोते में अचानक घुसती होगी तुम्हारे नथुनों में केरोसिन की झार
चमड़ी पिघलने की चिरांध
और गाढ़ा काला गुबार
फिर भी पढ़नी चाहिए शुकराना
तुम्हारा पंचवासा गर्भ तलवार की नेज़े से बच गया
मुखिया ने कहा
अमल का रद्दे अमल था, हो गया.
उस खूनी सुबह से लेकर अगस्त की उमसाई दोपहरी तक
गाँव की पंचायत से दिल्ली की कचहरी तक
हर दरवाज़े पर लिखा मिलेगा कष्ट के लिए खेद है
बन्द करो खटखटाना
बेचारी बनना छोड़ो
कितना सिसकोगी आँसू पोछो
उठो, आपदा में अवसर खोजो
बिलक़ीस, याद रखना!
उम्र क़ैद का मतलब
उम्र भर की क़ैद नहीं होगा
क़ातिल ही तुम्हारा मुंसिफ़ है
कितना तुम्हारे हक़ में फैसला देगा!

 

6. भ्रम

जिसके राज में स्त्रियों के शरीर गेंद की तरह खेले गए
या कि गर्भ चीरकर तलवार की नेज़ों पर भूर्ण
उड़ेले गए
वहाँ बहुसंख्यक समाज के पुरुष
मुख्य धारा शहर के भाई और पिता
अगर सोचते हैं उनकी स्त्रियाँ
बहन और बेटियाँ
सुरक्षित हैं
तो कहने दीजिये मुझे
ये इस सदी का सबसे नपुंसक भ्रम है
और सबसे अश्लील मज़ाक़ भी।
(मणिपुर के संदर्भ में)

 

7. बुलडोज़र

सोचा—
कम लिखा जाए
पढ़ना ज़्यादा हो
कम कर दिया जाए कहना
सिर्फ़ सुनना शेष हो
टेलीविजन और अख़बार सब बंद कर देने के बाद भी
ख़बरें दराज़ से आ ही जाती हैं
गर्द की पर्त बनकर फ़र्श से चिपक जाती हैं
सबसे अच्छे फ़िनायल से पोंछा लगाकर भी
स्वच्छ भारत के सरकारी अभियान में सहयोग न कर पाने का मलाल है
अबकी बिखरी धूल का रंग धूसर नहीं—लाल है
मैक्रो बायोलॉजी की छात्रा कभी नहीं रही
फिर भी देख सकती हूँ इसमें चिपकी
किसी अरण्य-रुदन की सुगबुगाहट
किसी मौन विलाप की खिसखिसाहट
बाक़ी तो सबने देखा
थोड़ा मीडिया का भौं-भौं
और फिर बुलडोज़र का हौं हौं
न्यायिक व्यवस्था को कुचलता हुआ
तिरंगे की हरी पट्टी को लगभग फाड़ता हुआ
यहाँ चला वहाँ चला
जाने कहाँ-कहाँ चला
आप कनखियों से हँसेंगे, मगर कहेंगे, विक्टिम कार्ड खेलती हूँ
ना, मैं गर्द से पैर बचाकर चलती हूँ
इसलिए नहीं कि मलेच्छ के ठप्पे से बचना है मुझे
(यूँ भी बचने की संभावना वहाँ होती है जहाँ चुनने का विकल्प हो)
बल्कि इसलिए कि एक विज्ञापन कहता है—
विकास करने वाले देश में हर वक़्त कुछ न कुछ बनता है
मेरे उत्तम प्रदेश में बनना मतलब ढहना है
मौरंग, कन्नी, मिस्त्री जैसे शब्द कर दिए गए हैं चलन से बाहर
अब सिर्फ़ चल रहा है, चलेगा बुलडोज़र
सो, कृपया अपने वाहन की गति धीमी रखें
विकासशील देश में कार्य प्रगति पर है

 

8. दीन बचा रहे

जब अल्लाह ने बनाए बेटे
कहा जाओ अपने बाप की मदद करो
जब बनाई बेटियाँ
कहा तुम्हारे बाप की मदद मैं करूँगा
अल्लाह के इस वादे पे रश्क खाते
मोमिन मुसलमान बड़ी शान से करते तज़्किरा
कि दुधमुँही लड़कियाँ जब की जा रही थीं ज़मीन-दोज़
मेरे मज़हब ने उन्हें बख़्शी इज़्ज़त
जब वो बेटी हुई घर की रौनक़ बनी
बीवी हुई रहमत ओ बरकत बनी
जब बनी माँ क़दमों तले उसके जन्नत हुई
और जान निसार उस रसूल पे
जिसकी विरासत में कोई बेटा न था
आह मेरा मज़हब वाह मेरा दीन करते
जिन मर्दों की छातियाँ फ़ख़्र से चौड़ाई थीं
उनने भी पैदा की बेटियाँ
—कभी चार कभी छह कभी सात—
सिर्फ़ एक बेटे की आस में
जो जाए साथ उनके ईदगाह
पढ़ने नमाज़
कि दीन बचा रहे
और बची रहे विरासत भी।

 

9. फ़तवा जारी है

अच्छी लड़की की सब निशानियाँ और फ़रमाबरदारियाँ
पैवस्त थीं नस-नस में कुछ इस तरह
कि जब दो गवाह एक वकील की मौजूदगी में पूछा गया—
‘कुबूल है’—के सिवा कुछ और कहने की हिम्मत न हुई
घर का पता बदला तो पता चला
शौहर हमसफ़र नहीं ख़ुदा ठहरा
विसाल ए यार महज़ ख़ब्त की बात थी
हक़ीक़ी और मजाज़ी अब दो ख़ुदाओं में उसकी हयात थी
ज़िंदगी से भी लंबी गुनाह ओ अज़ाब की फ़ेहरिस्त के
हिफ़्ज़ कर लिए उसने नुक़्ते सारे
ज़ेर भी ज़बर भी
शकर से दोस्त के बजाय नमक भरे हाकिम पर
कर लिया सब्र भी
ये हौल खाती औरतें शौहर की ज़रूरत का सामान बनी रहीं
धमकियों पर घुड़कियों पर चुप रहीं
उनके हक़ अपने फ़र्ज़ के नाम पर
ये रात उतारती रहीं कपड़े
जनती रहीं बच्चे
बनाती रहीं परिवार
सहेजती रहीं सुहाग
आख़िरकार ख़ुदा के बाद तामीर की ज़िम्मेदारी उन्हीं की थी
किसी रोज़ तक़रीर में सुना कि
दोज़ख़ में औरतों की तादाद मर्दों से ज़्यादा होगी
वे तबसे हिसाब लगा रहीं—
हिजाब हमारे लिए
तलाक़ हमारे लिए
हलाला भी हम सहे
बेवक़ूफ़-बेशऊर का तमग़ा लिए
नस्लों की परवरिश भी हम ही करें
फिर किस नियम के तहत
दोज़ख़ में हमारी ज़्यादा हिस्सेदारी है
जवाब के बजाय
सवाल की गुस्ताख़ी के तहत
उन बदज़ातों पर फ़तवा जारी है।

 

10. बोसे

जब पढ़ा उसने किसी दिलजले शाइर का शे’र :
कितनी दिलकश हो तुम कितना दिल-जू हूँ मैं
क्या सितम है कि हम लोग मर जाएँगे
लिल्लाह कहते हुए महबूबा की महीन उँगलियाँ
आशिक़ के होंठों पर ठहरीं
थोड़ा भीग कर लौटीं
वो क्या है न कि
बोसे जो रूह को छू लें
हमेशा माथे पर नहीं होते।

 

11. शादी ख़ाना आबादी

तमाम दीनी किताबों से अपने हगने-मूतने तक का तरीक़ा मिलान करने वालों के पास कुंडली नहीं थी फिर भी मिलाया—पहले ख़ानदान फिर बिरादरी में ढूँढ़ा—शुद्ध नस्ल का तंदुरुस्त लड़का
कोशिश रही कि न हो मसाला, सिगरेट, शराब जैसी कोई लत और हो भी तो चल जाएगा आजकल का चलन है बिटिया को देखना चाहें देख लें वैसे ना-महरम से परदा है हमारे यहाँ…
ग्रह-नक्षत्र… हम नहीं मानते
रख लीजिए चाँद की कोई भी अच्छी तारीख़
शादी सादी ही बेहतर
होटल-वोटल
खाना-वाना
चलन है आजकल का तो करना पड़ता है
वरना फिर बेटी को ही सुनना पड़ता है
मौलवी साहब एक वकील दो गवाह की
मौजूदगी में सुनाते हैं
आपका निकाह जनाब अलाँ के फ़लाँ साहबज़ादे से
तय पाया जाता है
लड़की छूट रहे प्रेमी के साथ
दिल के लड़खड़ा कर गिरने पर
सीली साँस छोड़ती है
फ़िल्म ‘बाज़ार’ की शबनम की तरह दुल्हनों ने—
‘हाँ’ कहा या आह! भरी
कोई नहीं जानता
बैठक में भारी-भरकम आवाज़ें
धर्म की सर्वश्रेष्ठता पर दे रही हैं बयान
सुबहान अल्लाह दीन ने
औरत को कितनी इज़्ज़त बख़्शी
बग़ैर उसकी रज़ा के निकाह मुमकिन ही नहीं
माशाअल्लाह… माशा अल्लाह… की बढ़ती
भनभनाहट से दूर
सुर्ख़ घूँघट हिनाई हाथों में मुँह ढाप कर रो देता है
इस लगभग काल्पनिक घटना को सुन कर
अ-वर्ग लपक कर व्यक्त करेगा संवेदना
ब-वर्ग लगाएगा स्टेटस—
फ़ीलिंग बेइज़्ज़ती विथ अलिफ़ बे एंड थर्टी थ्री अदर्स
मुझे उस स-वर्ग की तलाश है
जो साथ मेरे गवाही दे कि
देश में लोकतंत्र जो पिछले कुछ वर्षों से मरणासन्न है
मध्यवर्गीय फ़ाशिस्ट पिताओं के घर
कभी जन्मा ही नहीं था।

 

12. मुझे लिखनी थी कविता

मुझे लिखनी थी कविता उस औरत की उदासी पर
बुर्क़े पर उतराया जिसका उभरा पेट देखकर
बस की छिटपुट ख़ाली जगहों पर
रूमाल रख दिये गए
मुझे लिखनी थी कविता उस माँ की बेचैनी पर
जिसने रखी बच्चे के टिफ़िन में
रात की बची हुई बड़ियाँ
चूँकि बच्चे का नाम अब्दुल है
संभाव्यता के नियम के तहत
प्राण प्रतिष्ठा के पुनीत पर्व पर
बड़ियाँ बीफ़ भी बन सकती हैं
मुझे लिखनी थी कविता इस समय पर
जब तुलसीदास की निर्मल छवि वाले सिया राम को जय श्री राम की आक्रामक उद्घघोषणा में बदला गया
लेकिन ठीक इसी समय
स्वीकारने दीजिये मुझे अपनी धूर्रता
कूप मंडूकता और स्वार्थ
कि पिता, प्रेमी, पति से अपने चरित्र का प्रमाण पत्र मांगते हुए
मेरी आत्मा ने छुरा घोंपकर आत्महत्या की कोशिश की
खून से कत्थई हुए फ़र्श पर घुटने के बल देर तक बैठी रही
रात भर रुदाली रोई
ये जानते हुए भी कि बोलने कहने पढ़ने वाली स्त्रियाँ
चुप्पी के बजाय पलट कर जवाब देने वाली स्त्रियाँ
हर समय, हर व्यक्ति, हर समाज को नागवार थीं
वे रंडी थीं, छिनाल थीं और बारंबार थीं


कवयित्री नाजि़श अंसारी, जन्म स्थान –गोण्डा। निवास स्थान– लखनऊ। शिक्षा– मनोविज्ञान में स्नातकोत्तर
कई पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ प्रकाशित
दर्ज़न भर पत्रिकाओं में विभिन्न कवियों, लेखकों पर लेख प्रकाशित।
पहली कहानी “हराम” को हंस कथा 2023 सम्मान।

टिप्पणीकार विपिन चौधरी समकालीन स्त्री कविता का जाना-माना नाम हैं। वह एक कवयित्री होने के साथ-साथ कथाकार, अनुवादक और फ्रीलांस पत्रकार भी हैं.


Related posts

Fearlessly expressing peoples opinion