प्रज्ञा गुप्ता
महादेव टोप्पो साहित्य में आदिवासी विमर्श के प्रमुख स्वरों में एक हैं। महादेव टोप्पो स्पष्ट सोच एवं संवेदना के साथ अपनी अनुभूतियों को कविता का रूप देते हैं। विकास की आंधी में उजड़ते जंगल एवं पहाड़ की पीड़ा को अभिव्यक्त करते हुए बहुत ही बारीकी से वे अपने समय के यथार्थ को प्रस्तुत करते हैं। जल, जंगल, जमीन और भाषा एवं संस्कृति के प्रश्न उनकी कविताओं में बार-बार कौंधते हैं। महादेव टोप्पो की कविताओं में आदिवासी जन समुदाय की वेदना मुखर है। उनकी कविताओं में वृहद जन समुदाय की आकांक्षाएं प्रतिध्वनित होती है। जन कवि नागार्जुन की तरह वे भी कहते हैं –
“मैं जंगल का कवि
पेड़ भी रोपूँगा,कविता भी
इस जंगल पहाड़ में उगा रहा हूँ
कुछ कवि कुछ कविता, कुछ कहानी
अपने अनुभव एवं संवेदना के साथ महादेव टोप्पो अपने समय के यथार्थ को चित्रित करते हैं। कवि की संवेदना ‘जंगल पहाड़ के पाठ’ के रूप में सामने आती है। पुरखों से मिली सीख एवं जीवन का अनुभव दोनों जब कवि की संवेदना को प्रभावित करते हैं तो कविता का जन्म होता है।
अपनी कविताओं के माध्यम से महादेव टोप्पो आदिवासियों की भूमिका तलाशते, भूमंडलीकरण से उपजी समस्याओं से संघर्ष करते नजर आते हैं। उनकी कविताएँ अपनी कला -संस्कृति, भाषा के प्रति ,अपनी अस्मिता के प्रति जागरुक हैं। जल; जंगल ,पहाड़ की रक्षा की मांग करता यह कवि मांदर का साथ चाहता है।
“जब तक बदलते मौसम के साथ,
मांदर के बदलते तालों पर नहीं थिरकोगे,
खद्दी करम, माघे, बा पोरोब, जतरा में नहीं नाचोगे
चाँद के घटते-बढ़ते आकारों के साथ
मांदर के बदलते तालों पर
बदलते कदमों से कदम नहीं मिलाओगे
साथी नर्तकों के साथ समान आरोह अवरोह में
समान लय- ताल में गाओगे नहीं गीत
मांदर को नहीं समझोगे।“
मांदर महज लकड़ी से बना एक वाद्य यंत्र मंत्र नहीं है। यह एक पूरी संस्कृति का परिचायक है। मांदर सामूहिकता का, सहजीविता का परिचायक है। मांदर अखड़ा संस्कृति का द्योतक है। अखड़ा जहाँ सभी वर्ग के लोग बराबर हैं ; कोई ऊँच-नीच, छोट-बड़ नहीं। मांदर के साथ थिरकने के लिए मौसम को समझना ज़रूरी है, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता ज़रूरी है। मांदर का साथ बनाए रखने के लिए आज के युवा आदिवासी को अपनी भाषा एवं संस्कृति से जुड़ना होगा।
आज पूरा विश्व वैश्वीकरण एवं उपभोक्तावादी संस्कृति की चपेट में है। सभी देशज भाषाएँ एवं लोक संस्कृति खतरे में है, आदिवासी जीवन एवं संस्कृति भी संकटग्रस्त है। विकास की नई अवधारणाओं ने मनुष्य को जंगल उजाड़ कर घर बनाने की जो तरकीब दी है उसमें पुरखों और अपने द्वारा बनाए गए खेत -खलिहान, मसना- सरना सभी विकास की भेंट चढ़ते जा रहे हैं। महादेव टोप्पो अपनी कविताओं में आदिवासियत बचाने का संकल्प लेते हुए कहते हैं-
“ अब यदि छिड़ेगा कोई महायुद्ध
मैं धन-दौलत कुछ नहीं बचाऊँगा
बचाऊँगा अपना और पुरखों का
जंगलीपन
क्योंकि तब मनुष्य का
संपूर्ण अस्तित्व हो जाएगा खत्म
तो यह आदिवासीपन हीं
जंगलीपन ही बचाएगा
बनाएगा
सिरजेगा
चौथे महायुद्ध के बाद जन्मे मनुष्य को”।
आदिवासियत बचाने के क्रम में वे धरती , प्रकृति , मनुष्य, मनुष्यता बचाने के लिए चिंतित हैं. लालची मनुष्यों द्वारा निर्मित आत्मघाती-आदमखोर, धरतीखोर, मुनाफाखोर संस्कृति के बरक्स वे विकास, सभ्यता, शिक्षा, तकनीक, विज्ञान आदि को संतुलित, नम्र और अधिक मानवीय बनाने पर बल देते हैं.
कवि इस बात को लेकर चिंतित हैं कि देश की आजादी के 70 वर्षों के बाद भी शासक वर्ग आदिवासियों को आदमी नहीं मानता। मुख्य धारा में लाने के नाम पर, विकास के नाम पर आदिवासियों पर हमला जारी है। आजाद ‘भारत’ देश की त्रासदी बताते हुए वह लिखते हैं-
“इस देश में पैदा होने का
मतलब क्या है
जानते हो मेरे भाई ?
नहीं?
इस देश में पैदा होने का
मतलब है –
आदमी का जातियों में बँट जाना
और गलती से तुम अगर हो गए पैदा
जंगल में
तो तुम कहलाओगे
आदिवासी -वनवासी- गिरिजन
वगैरह- वगैरह
आदमी तो कम से कम कहलाओगे नहीं”
हमारे देश में ही नहीं, पूरे विश्व में अंधाधुंध हो रहे औद्योगीकरण ने पर्यावरणीय संकट को गहराया है और इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हुई है आदिवासी संस्कृति। आदिवासियों पर लगातार सांस्कृतिक ,धार्मिक, राजनीतिक हमले हुए हैं जिसे लेकर आदिवासी समाज ने अपना प्रतिरोध दर्ज किया है। लेकिन इनकी विजय गाथाएं इतिहास में दर्ज नहीं की गई क्योंकि इनको इंसानियत के साथ देखा ही नहीं गया। अतः महादेव टोप्पो लिखते हैं-
“इससे पहले कि
वह पुनः तुम्हारा अपने ग्रंथों में
बंदर -भालू या
किसी अन्य जानवर
के रूप में करें वर्णन
तुम्हें अपनी आदमी होने की
तलाशनी होगी परिभाषा
उनके सिद्धांतों
स्थापनाओं के विरुद्ध
उनके बर्बर वैचारिक
हमलों के विरुद्ध
रचने होंगे
स्वयं ग्रंथ”।
कवि ने यह शिद्दत से महसूस किया है कि संविधान में बराबर हक के बावजूद व्यावहारिक रूप में आदिवासियों के साथ भेदभाव जारी है। यदि कोई आदिवासी अपनी योग्यता से उच्च पद प्राप्त कर ले तो भी उसे शक की निगाह से देखा जाता है। इन सारी बातों से कवि का हृदय आहत है ।जो भी वंचित है, शोषित हैं उन्हें भी अपना आत्मबल ,इच्छा -शक्ति जागृत करने की आवश्यकता है। सिर्फ सहानुभूति के बल पर कोई अपने पैरों पर खड़ा नहीं हो सकता। इसीलिए महादेव टोप्पो गीत रचते हैं- जदुर गीत। दास मानसिकता के लोगों को, सोए हुए लोगों को वह जगाना चाहते हैं; और जंग लगे तीरों पर नई धार लाने का गीत गाते हैं-
“थिरका रहे पाँव सरहुल के जुलूस में
मिलेगा नहीं इससे तुमको, कभी आत्मबल
और ना होगा कभी इससे तुम्हें अस्तित्व का ज्ञान
बेहतर है रचो नया कोई जदुर गीत
कैद होती स्वर्णरेखा ,कोयल -कारो
कनहर ,दामोदर की मुक्ति को”।
महादेव टोप्पो आदिवासी अस्मिता एवं पहचान को लेकर लगातार सजग हैं। उन्हें यह भी मालूम है कि पूंजीवादी संस्कृति कहीं भी घुसपैठिये की तरह प्रवेश कर प्रकृति का नाश कर सकती है। पूंजीवादी अर्थव्यवस्था ने उपभोक्तावादी संस्कृति का निर्माण किया है। उसने आज के मनुष्य को आदमखोर, धरतीखोर, जंगलखोर बना दिया है। आदिवासी व्यक्ति भी पूंजीवादी चेतना के वशीभूत होकर पर्यावरण का विनाशक बना बैठा है। झारखंड के निर्माण पर उन्होंने कविता लिखी जिसमें देखा जा सकता है कि प्राकृतिक संपदा का दोहन कैसे होता चला जाता है। “भारत की समृद्ध परंपरा निभाता झारखंड” कविता में वे लिखते हैं –
“कुछ लोग हाशिये से बाहर निकल गये
कुछ मुख्य धारा में गहरे चले गये
इतने गहरे कि ना किनारे से लोगों ने उन्हें देखा
न उन्होंने किनारे के लोगों को देखा
इसी ऊहापोह में, इसी असमंजस में
कुछ लोगों ने लाठी के बदले
बंदूक थाम लिया
कुछ ने तीर धनुष के बदले कलम
कुछ ने कैमरा उठा लिया
कुछ ने कुदाल के बदले क्रांति का परचम लहराया
कुछ ने अपनी तराजू में राजनीति तौली
कुछ ने दामोदर का पानी कर दिया मलिन
कुछ ने कर दिया स्वर्ण रेखा से सुनहरी रेत गायब
कोई झरिया धनबाद से कोयला ले गया
तो कोई चिड़िया माइंस किरीबुरू से लौह पत्थर
कोई सारंडा के घने जंगल को क्षीण बना गया
तो कोई जादूगोड़ा से यूरेनियम ले भागा”।
और इस तरह से जल, जंगल, जमीन की लूट लगातार जारी है जिसमें आदिवासी, गैर -आदिवासी दोनों मिले हुए हैं। महादेव दादा लंबे समय से कविताएं रच रहे हैं। उनके संग्रह ‘जंगल पहाड़ के पाठ’ में 1982 ई से 2014 ई.तक की कविताएं शामिल हैं। वह अपने समय के यथार्थ को अभिव्यक्त करते; युवाओं को जागृत करते कविताएँ रचते रहेंगे।
महादेव टोप्पो की कविताएँ
1.त्रासदी
इस देश में पैदा होने का
मतलब क्या है
जानते हो मेरे भाई?
नहीं ?
इस देश में पैदा होने का
मतलब है-
आदमी का जातियों में बँट जाना
और गलती से तुम अगर हो गए पैदा जंगल में
तो तुम कहलाओगे
आदिवासी -वनवासी -गिरिजन
वगैरह-वगैरह
आदमी तो कम से कम
कहलाओगे नहीं हीं
उन लोगों की तरह
शरीर में तुम्हारे भी लाल रक्त बहता है
हाथ पांव कान
नाक मुँह आंख आदि
सब कुछ तो वैसा ही है
मगर वह तुम्हें मनुष्य नहीं कहेंगे
सबसे बड़ी त्रासदी तो यह कि
तुम्हें वनवासी आदिवासी गिरिजन
सब कुछ कह लेंगे
लेकिन कहेंगे नहीं
कभी तुम्हें इस देश का वासी
वैसे कहने को तो वे
तुम्हें इस देश का
आरक्षित नागरिक भी कह लेंगे
लेकिन यह कितनी बड़ी
विडंबना है
कितना बड़ा विरोधाभास
कि जब तुम इस देश के
नागरिक होने के नाते
मांगोगे अपना हक
कहलाओगे फिर तुम ही
अलगाववादी!
2. चौथे महायुद्ध के बाद
अब यदि छिडेगा कोई महायुद्ध
मैं धन -दौलत कुछ नहीं बचाऊंगा
बचाऊंगा अपना और पुरखों का
जंगलीपन
क्योंकि तब मनुष्य का
संपूर्ण अस्तित्व हो जाएगा खत्म
तो यही आदिवासीपन ही
जंगलीपन ही
बचाएगा
बनाएगा
सिरजेगा
चौथे महायुद्ध के बाद जन्मे मनुष्य को!
3. जंग लगे तीरों पर नई धार लाने का गीत
तुम्हारे जदुर गीत सुनकर
झूमती नहीं है स्वर्णरेखा, मयूराक्षी, कोयल कारो और ना कनहर
और न हीं तुम्हारे
नगाड़ो ढोलों मांदरों की ताल से ताल मिलाकर गाता है दामोदर
क्योंकि इन सारी नदियों के
बंध गए हैं हाथ पैर या बंध रहे हैं
छड़ सीमेंट की जंजीरों से
ताकती है आशा भरी निगाहों से
आज स्वर्णरेखा ,कोयल कारो ,दामोदर मयूराक्षी
तुम्हारे जंग लगे तीरों की ओर
और तुम हो कि गिटार की धुन पर
मटका रहे कूल्हे
थिरका रहे पाँव- सरहुल के जुलूस में मिलेगा नहीं इससे तुमको
कभी आत्मबल
और ना होगा कभी इससे तुम्हें अपने अस्तित्व का ज्ञान
बेहतर है रचो नया कोईगीत जदुर
कैद होती स्वर्णरेखा, कोयल, कारो कन्हर दामोदर की मुक्ति का
स्वयं को जानने पहचानने का
और जंग लगे तीरों पर नई धार लाने का।
4. रचने होंगे स्वयं ग्रंथ
इतिहास तुम्हारा
इतिहास के पन्नों पर
गढा नहीं शब्दों ने
ना ही हो सका है दर्ज ग्रंथों में
तुम्हारी विजय गाथाओं
और संघर्षों के गवाह
पेड़ हैं नदिया हैं चट्टानें हैं
पुरखों की आत्माएं हैं
ससनदिरी हैं जाहेरथान हैं
तुम्हारे लोकगीत हैं
पर इन सब की गवाही
उन्हें नहीं है स्वीकार
इसलिए तुम इतिहास के ग्रंथों
में हाशिए पर डाल दिए गए हो
या कर दिए गए हो उससे बाहर
इससे पहले कि
व पुनः तुम्हारा अपने ग्रंथों में
बंदर- भालू या
किसी अन्य जानवर
के रूप में करें वर्णन
तुम्हें अपने आदमी होने की
तलाशनी होगी परिभाषा
उनके सिद्धांतों
स्थापनाओं के विरुद्ध
उनके बर्बर वैचारिक
हमलों के विरुद्ध
रचने होंगे स्वयं ग्रंथ।
5. माँदर का साथ
तुम कहते हो
छोड़ दूँ मैं माँदर
भला ऐसे कैसे छोड़ सकता हूँ इससे मैं?
दरअसल तुम नहीं जानते
जीवन का एक-एक पल
साँस की एक-एक धड़कन
आँसुओं की एक-एक बूँद
प्यार का एक-एक क्षण
या खेतों में कुदाल चलाते, हल चलाते
पसीने की एक-एक बूँद
अन्न से भरे घर की सारी पूँजी
माँदर की थापों से है बँधी
और जीवन की इतनी बड़ी पूँजी
जो जादुई दवा की तरह बार-बार
मीटा देती है शरीर की थकान सारी
इतना बड़ा खजाना !
कमाई इतनी बड़ी !
तुम्हें दे दूँ भला कैसे मैं ?
मेरे भाई !
जब तक बदलते मौसम के साथ,
माँदर के बदलते तालों पर नहीं थिरकोगे
खद्दी, करम, माघे, बा पोरोब, जतरा में नहीं नाचोगे
चाँद के घटते-बढ़ते रूपों, आकारों के साथ
माँदर के बदलते तालों पर,
बदलते कदमों से कदम नहीं मिलाओगे
साथी नर्तकों के साथ समान आरोह-अवरोह में
सामान लय-ताल में
गाओगे नहीं गीत
माँदर को नहीं समझोगे
अखड़ा मैं नाचना-कूदना
और कभी जोश में पंक्ति के छिटककर
अलग कूदने-थिरकने में भी है अनुशासन
इस अव्यवस्था में भी है व्यवस्थित लय
जोड़ीदार नर्तकों से जुड़े रहने की ललक
जहाँ किलकारियाँ भी हैं संगीत के अंग
माँदर के संग
नृत्य के लिए
आगे-पीछे उठते कदमों का संकेत मात्र नहीं है
और न संगीत का ताल मात्र है माँदर
पहली बारिश में
मिट्टी की सोंधी महक है माँदर
बसन्त की मादक सुगन्ध भी है माँदर
हमारे खेत-खलिहानों का रक्षक भी है माँदर
अगहन की ठंड में, तन में ऊर्जा भरता, अंगार भी है माँदर
खुश होकर नाचने मात्र का साधन नहीं है यह
साधारण-सा दिखता यह ‘बजना’
साथी है हमारे साथ चलने का, जीने का
चाहे मिट्टी से बनी हो या काठ से
टूटने, फूटने पर इसके
पत्नी की मौत की तरह
लगता है सदमा, दोस्तों को हमारे
जब वे गा उठते हैं
“खेल ख़ोट्टरा भइया रे, मुक्का केचका लेखा लग्गी”
दुख आने पर माँदर, दिखाता है हमदर्दी
दुखती रगों पर जब अपनी धमक रखता है हाथ
नस-नस में लगता है बहने-
परब जैसा आनन्द की लहर
जीवन है, भाषा है, साँस है, गीत है
हिम्मत है, सपना है, आशा है
पुरखों के संघर्ष की प्रेरणा है
विरोध और असहमति का गर्जन भी है
एकजुट होने का सन्देश भी है
उलगुलान का जोश भी है,
शान्त रहने का होश भी है
पसीनों से नहाये देह की पवित्र गन्ध
हरे खेतों, धान भरे खलिहानों का सपना
इसके तालों में है समाहित
धरती से जुड़ी अन्तरंगता हमारी
इतिहास का अनखुला पन्ना भी है माँदर
जाहिर है-
इन सबको करोगे नहीं अनुभव तुम,
न माँदर को समझोगे,
न जीवन को मेरे
स्पष्ट है-
मुझे भी नहीं समझोगे !
करते रहोगे घोषित
खुद को सभ्य और मुझे असभ्य है या हाशिये का आदमी
लेकिन, हम गाते रहेंगे माँदर की थाप पर-
धरती की साँसों के गीत
धरती की हरियाली के गीत
कोयल, कारो, दामोदर, स्वर्णरेखा,
नर्मदा की मुक्ति-कामना के गीत
सरई फूलों की पवित्रता के साथ
सिन्दूर बनी धरती के, पलाश के लाल फूलों के साथ
नदियों के कल-कल लयबद्ध तालों के साथ
पहाड़ की ठंडी, शान्त हवाओं के साथ
बार-बार गाते रहेंगे
कलम में धार लाने के गीत
जीवन को सँवारने के गीत
अपने गाँव से लेकर-
देश, दुनिया को बेहतर बनाने के गीत- माँदर के साथ |
6. बाजार का झारखंड
झारखंड के नाम पर
खुल गया
एक बाजार नया
बिक रहा है जहाँ
झारखंड के नाम पर
झारखंड का लेबल लगा
ताजा, सड़ा-गला, पुराना
हर प्रकार का माल
तुमने कभी ‘जय झारखंड’ कहा या नही
कभी झारखंडी जुलूस में शरीक हुए या नही
क्या फर्क पड़ता है?
झारखंड गठन के बाद हो ही झारखंडी
बस लगा लेना है झारखंड का लेबल
और उतार देना है बाजार में
बिरसा के नाम पर एक नया उत्पाद
या खोलनी है एक दुकान
क्योंकि यह पूरा इलाका
नयी जरूरतों का बन गया है बाजार
जहाँ बिक सकता है अब
झारखंड के नाम पर कुछ भी
बस लगाना है उसमें झारखंड का लेबल
या लेना है बिरसा का नाम
झारखंड बनने के यही तो हैं फायदे
झारखंड के हर शहरों में खुल गये हैं –
आय के स्त्रोत नये
किन्तु, इसकी खबर नहीं मेरे गाँव को।
7 जंगल का कवि
जब जंगल की
सारी विद्रोही आवाजों को
जंगल के पेड़ों के हरेपन को
हरे -भरे होकर सीना तान
पहाड़ों पर घाटियों में
उगने लहराने की
उनकी आकांक्षा को
महुए की बोतल में
डुबोने की हो साजिश
इस जंगल का कवि
रहेगा भला कैसे चुप ?
वह धनुष उठएगा
प्रत्यंचा पर कलम चढ़ाएगा
साथ में बांसुरी और मांदर भी
जरूर उठाएगा
प्रत्यंचा पर कलम चढाएगा
साथ में बांसुरी और मांदर भी
जरूर उठाएगा
जंगल के हरेपन को
बचाने की खातिर
जंगल का कवि
मांदर बजाएगा
बांसुरी बजाएगा
चढ़ाकर प्रत्यंचा पर कलम।
कवि महादेव टोप्पो, जन्म 15-08-1954 रांची में कुँड़ुख आदिवासी परिवार में.
पुश्तैनी घर लहना, रातू, रांची किन्तु बचपन हुलसी गाँव , बेड़ो प्रखंड, रांची में गुजरा.
शिक्षा – स्नातकोत्तर हिन्दी ,
भारतीय फिल्म एवं टी वी संस्थान पुणे से 1994 में फ़िल्म एप्रिसिएशन कोर्स। बैंक में नौकरी. नॉर्थ ईस्ट के अलावा कई राज्यों में कार्य. लेखन की शुरुआत मातृभाषा कुँड़ुख मे. लेकिन छपने की सुविधा ना पाने के कारण हिंदी में लेखन.
जंगल पहाड़ के पाठ (कविता संग्रह ), इसका अँग्रेजी, मराठी , संताली मे अनुवाद प्रकाशित.
कई रचनाएँ- मराठी, असमिया, संस्कृत, जर्मनी , अंग्रेजी, तेलुगू , बंगला, संताली आदि भाषाओं में अनूदित और प्रकाशित.
लेख संग्रह 1. सभ्यों के बीच आदिवासी 2. आदिवासी विश्व चेतना .
कलम को तीर होने दो (झारखंड के 17 कवियों का कविता संग्रह) सह संपादन रमणिका गुप्ता के साथ.
साहित्य अकादेमी दिल्ली के कार्यकारिणी समिति का सदस्य, साथ ही आदिवासी साहित्य और भाषा केन्द्र का सदस्य
दो पुस्तकें प्रकाशनाधीन
सम्मान – बिरसा मुंडा सम्मान, झारखण्ड रत्न, दैनिक भास्कर सम्मान, जगन्नाथ सम्मान, अखिल भारतीय कुड़ुख Literary सोसाइटी का सम्मान। झारखंड मैथिल मंच का विश्वंभर सम्मान, विश्वरंग मानद अलंकरण सहित कई पुरस्कार , सम्मान आदि
विभिन्न पत्र पत्रिकाओं और ऑनलाइन पोर्टल्स के लिए साहित्यिक योगदान। कुँड़ुख भाषा में निर्मित लघु कथा-फिल्म 1) “एड़पा काना (going home)” राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त तथा 2 ) “पहाड़ा” और 3. “जादूगोड़ा ” लघु फीचर फिल्म में अभिनय। इसे जमशेदपुर संवाद फिल्म फेस्टिवल और ब्राजील फ़ेस्टिवल में पुरस्कार.
मातृभाषा कुड़ुख में नाटक लेखन भी. अब तक दो नाटक.
कलम, कूँची , कैमरा से समाज के विकास के लिए निरंतर प्रयासरत।
टिप्पणीकार प्रज्ञा गुप्ता का जन्म सिमडेगा जिले के सुदूर गांव ‘केरसई’ में 4 फरवरी 1984 को हुआ। प्रज्ञा गुप्ता की आरंभिक शिक्षा – दीक्षा गांव से ही हुई। उच्च शिक्षा रांची में प्राप्त की । 2000 ई.में इंटर। रांची विमेंस कॉलेज ,रांची से 2003 ई. में हिंदी ‘ प्रतिष्ठा’ में स्नातक। 2005 ई. में रांची विश्वविद्यालय रांची से हिंदी में स्नातकोत्तर की डिग्री। गोल्ड मेडलिस्ट। 2013 ई. में रांची विश्वविद्यालय से पीएच.डी की उपाधि प्राप्त की। वर्ष 2008 में रांची विमेंस कॉलेज के हिंदी विभाग में सहायक प्राध्यापक के पद पर नियुक्ति ।
संप्रति “ समय ,समाज एवं संस्कृति के संदर्भ में झारखंड का हिंदी कथा- साहित्य” विषय पर लेखन-कार्य।
विभिन्न पत्र- पत्रिकाओं में आलेख प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तक- “ नागार्जुन के काव्य में प्रेम और प्रकृति”
संप्रति स्नातकोत्तर हिंदी विभाग रांची विमेंस कॉलेज रांची में सहायक प्राध्यापक के पद पर कार्यरत।
पता- स्नातकोत्तर हिंदी विभाग ,रांची विमेंस कॉलेज ,रांची 834001 झारखंड।
मोबाइल नं-8809405914,ईमेल-prajnagupta2019@gmail.com