यह एक सर्वमान्य विचार है, कि भारत में साम्प्रदायिकता ब्रिटिश उपनिवेशवाद की विभेदकारी नीतियों का परिणाम है।
औपनिवेशिक काल में भारतीय जनता की एकता को विखंडित करने और एक राष्ट्र के रूप में संगठित होने को लेकर भारतीयों के आत्म विश्वास को कमजोर करने के लिए ब्रिटिश शासकों ने हिंदू और मुस्लिम धर्मों के बीच की दूरी को और ज़्यादा विस्तारित किया, जिसे लोकप्रिय तरीके से ‘फूट डालो, राज करो’, की नीति के रूप में जाना जाता है।
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन में इस साम्प्रदायिक विभेद और वैमनस्य को दूर करने की हर सम्भव कोशिश की गयी। महात्मा गांधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने धर्म निरपेक्षता को एक राष्ट्रीय मूल्य के रूप में विकसित करने और हिंदू और मुसलमानों के बीच एकता क़ायम करने के हर सम्भव प्रयास किये।
भारत के संविधान में भी धर्मनिरपेक्षता को एक मूलभूत सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया गया। लेकिन इस सबके बावजूद साम्प्रदायिकता की समस्या दिनों दिन विकराल रूप धारण करती गयी, हिंदू-मुस्लिम विभेद ने द्वि-राष्ट्र का सिद्धांत ग्रहण कर लिया, जिसका परिणाम भारत-विभाजन और पाकिस्तान के रूप में अलग मुल्क हुआ।
आज़ाद भारत में इस साम्प्रदायिकता ने नया रूप ग्रहण किया और अब यह साम्प्रदायिक फासीवाद के रूप में भारत की मुख्य राजनैतिक शक्ति के रूप में उपस्थित है।
सवाल यह उठता है, कि आख़िर क्या वजह है कि भारत में साम्प्रदायिकता को निर्मूल नहीं किया जा सका ? चौथाई सदी से भी ज़्यादा समय के अपने स्वतंत्र राष्ट्रीय जीवन में भारतीयों ने क्यों धर्मनिरपेक्षता को मूल्य के रूप में नहीं अपनाया ? और आज परिस्थिति यह है, कि सेक्युलरिज़्म एक नकारात्मक और घृणित भावबोध का शब्द बन गया है।
डॉ. अम्बेडकर ने भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या को दूर करने के लिए महात्मा गांधी द्वारा अपनायी जा रही, रणनीति की आलोचना की थी।
अपनी किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ में उन्होंने पाकिस्तान बनाए जाने की जरूरत का पुरज़ोर समर्थन और उसकी व्यावहारिकता को रेखांकित करते हुए भारत में सम्प्रदायिकता के इतिहास और तत्कालीन संदर्भों में उसके राजनैतिक घात-प्रतिघात को उद्घाटित किया है।
डाॅ. अम्बेडकर ने साम्प्रदायिकता का व्यावहारिक समाधान खोजने की प्रक्रिया में मुस्लिम लीग द्वारा की जा रही पाकिस्तान की माँग का औचित्य देखा था।
इस प्रक्रिया में अम्बेडकर की दृष्टि कबीर से मिलती-जुलती है, जिसमें वे हिंदू और मुस्लिम दोनों ही पक्षों को कसौटी पर रखते हैं और सम्प्रदायिकता की समस्या को बढ़ाने में उनकी भूमिका के लिए दोनों पक्षों की आलोचना करते हैं।
लेकिन आज की परिस्थिति में हिंदुत्व की वैचारिकी के लेखक-विचारक अम्बेडकर द्वारा की गयी मुसलमानों की आलोचनाओं और उनके ख़िलाफ़ आने वाले तर्कों को प्रचारित कर अम्बेडकर को मुसलमानों का विरोधी सिद्ध करना चाहते हैं।
बेशक डॉ. अम्बेडकर ने अपनी किताब ‘पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन’ में मुस्लिमों की साम्प्रदायिक आक्रामकता, उनमें व्याप्त सामाजिक बुराइयों, मुस्लिम लीग की अनौचित्यपूर्ण माँगों की आलोचना की है, पर उसके साथ ही उन्होंने हिंदू महासभा के द्वि-राष्ट्र के सिद्धांत और सावरकर की योजनाओं को भी नकारा है।
महात्मा गांधी द्वारा राष्ट्रीय आन्दोलन में मुसलमानों को साथ लेने के लिए अपनायी जाने वाली रणनीति की भी आलोचना उन्होंने की। ख़िलाफ़त आंदोलन का बिना शर्त समर्थन देने को लेकर भी अम्बेडकर ने गांधी की आलोचना की, पर साथ ही यह भी कहा,
“ ख़िलाफ़त आंदोलन का मुद्दा उठाकर श्री गांधी ने दो उद्देश्यों की पूर्ति की। एक तो मुस्लिमों का समर्थन पाने की कांग्रेसी योजना को उन्होंने पूरा कर दिखाया। दूसरे, उन्होंने कांग्रेस को देश में एक शक्ति बना दिया और, यदि मुस्लिम कांग्रेस में शामिल न होते तो वह शक्ति नहीं बन सकती थी। मुसलमानों को राजनीतिक सुरक्षाओं की जगह ख़िलाफ़त का मुद्दा कहीं अधिक आकर्षक लगता था। इसका नतीजा यह निकला कि जो मुसलमान कांग्रेस के बाहर थे, वे भी भारी संख्या में कांग्रेस में शामिल हो गये। हिंदुओं ने उनका स्वागत किया, क्यूँकि उन्हें लगा कि इस तरह वे अंग्रेजों के विरुद्ध साझा मोर्चा खोल सकते हैं, जो कि उनका उद्देश्य था।इसका श्रेय तो निश्चित रूप से श्री गांधी को जाता है। निस्संदेह यह एक बड़ा साहसपूर्ण काम था।”[1]
सावरकर पाकिस्तान बनने के विरोध में थे, पर साथ ही वह मुसलमानों को भारत में हिंदुओं के अधीनस्थ क़ौम के रूप में रखना चाहते थे।
उनका कहना था, कि भारत रहने वाला प्रत्येक नागरिक हिंदू है, चाहे उसकी पूजा पद्धति कोई भी हो, परंतु जिन धर्मों की पुण्य-भूमि भारत से बाहर है, उन्हें हिंदुओं अर्थात् जिनकी पितर भूमि और पुण्य भूमि दोनों ही भारत में है, के अधीन रहना होगा।
सावरकर की योजना के अनुसार मुसलमानों को ‘एक व्यक्ति एक वोट’ का अधिकार तो मिलेगा पर उन्हें विधान मण्डलों और प्रशासन में भागीदारी व नौकरियों की गारंटी नहीं दी जाएगी।
अम्बेडकर ने सावरकर के इस प्रस्ताव को विचित्र बताया और कहा कि सावरकर अगर हिंदू राष्ट्र का दावा कर सकते हैं, तो मुस्लिम राष्ट्र के क़ौमी वतन के दावे का विरोध कैसे कर सकते हैं? सावरकर के बारे में अम्बेडकर लिखते हैं-
“ यह बात सुनने में भले ही विचित्र लगे, पर एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर श्री सावरकर और श्री जिन्ना के विचार परस्पर विरोधी होने की बजाय एक दूसरे से पूरी तरह मेल खाते हैं। दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं, और न केवल स्वीकार करते हैं बल्कि इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं : एक मुस्लिम राष्ट्र और एक हिंदू राष्ट्र। उनमें मतभेद केवल इस बात पर है कि इन दोनों राष्ट्रों को किन शर्तों पर एक दूसरे के साथ रहना चाहिए।” [2]
आमतौर पर द्विराष्ट्र के सिद्धांत गढ़ने का दोष सिर्फ़ जिन्ना के सिर पर मढ़ा जाता है, पर यहाँ स्पष्ट है कि अम्बेडकर, सावरकर को भी इसके लिए दोषी मानते हैं।
डॉ. अम्बेडकर भारतीय राष्ट्र के लिए अखंड भारत की किसी वायवीय , अव्यावहारिक योजना की बजाय ठोस ज़मीनी हक़ीक़त और तत्कालीन सामाजिक, सांस्कृतिक और राजनैतिक परिस्थिति के हिसाब से एक हल सुझा रहे थे, जिसमें साम्प्रदायिकता की समस्या को राजनैतिक समझौतों, एकता के संकल्पों के ज़रिए सुलझाने की बजाय स्पष्ट संवैधानिक सुरक्षात्मक उपायों की बात कर रहे थे।
इसी संदर्भ में उन्होंने पाकिस्तान की माँग को जायज़ ठहराते हुए भी मुसलमानों को अधिकतम सुरक्षात्मक अधिकारों के साथ भारत में ही रहने का सुझाव दिया था।
पाकिस्तान की माँग को अम्बेडकर ने ‘एक राष्ट्र का अपने घर के लिए आह्वान’ (A Nation calling for a Home) कहा। पाकिस्तान की माँग को वे मुस्लिम अल्पसंख्यकों के आत्मनिर्णय के अधिकार के रूप में देखते हैं। पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन में वे लिखते हैं –
“मुसलमानों को आत्मनिर्णय के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। हिंदू राष्ट्रवादी जो आत्मनिर्णय पर भरोसा करते हैं और यह पूछते हैं कि जब विश्व को छोटे – छोटे राष्ट्रों के मामले में यह बात माननी पड़ी, तो ब्रिटेन भारत को उससे वंचित कैसे रख सकता है। इस तरह वे ब्रिटेन से यह नहीं कह सकते कि वह अल्पसंख्यकों को आत्मनिर्णय का अधिकार देने से मना कर दे। हिंदू राष्ट्रवादी जो यह आशा करते हैं, कि ब्रिटेन मुसलमानों पर पाकिस्तान की माँग त्यागने का दबाव डाले, वे यह भूल जाते हैं, कि विदेशी आक्रामक साम्राज्यवाद से राष्ट्रीयता की आज़ादी का अधिकार और बहुसंख्यक आक्रामक राष्ट्रीयता से अल्पसंख्यकों की स्वतंत्रता दो अलग-अलग चीजें नहीं हैं। दोनों का एक ही आधार है। वे तो स्वतंत्रता के संघर्ष के दो पहलू हैं तथा उनका नैतिक आधार भी बराबर है।”[3]
अम्बेडकर स्पष्ट तौर पर यह मानते हैं कि पाकिस्तान की माँग औपनिवेशिक भारत में मुस्लिम जनता के राजनीतिक विकास के साथ प्रबल हुई है, और इसे ‘रूपक अलंकारों से भरी बातों’ के बल पर मिटाया नहीं जा सकता, इस मामले में वे सभी पहलुओं का अध्ययन कर उसकी परिणतियों को समझ कर कोई बुद्धिमत्तापूर्ण निर्णय लेने के पक्षधर थे। अपनी किताब में वे हिंदू और मुस्लिम दोनों पक्षों के तर्कों के सकारात्मक और नकारात्मक दृष्टि से परीक्षण करते हैं।
यहाँ यह समझना ज़रूरी है, कि अम्बेडकर जिसे हिंदू पक्ष कह रहे हैं, उसका नेतृत्व कांग्रेस के पास था और मुस्लिम पक्ष का राजनीतिक नेतृत्व मुख्यतः मुस्लिम लीग के पास था।
आज की परिस्थिति में हिंदू पहचान की राजनीति का नेतृत्व जिस राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के पास है, वह उस समय परिदृश्य में नहीं थी, वह एक हाशिए की शक्ति थी।
हिंदू महासभा के पास जरूर उल्लेखनीय ताक़त थी, लेकिन वह भी बहुसंख्यक हिंदुओं का प्रतिनिधित्व नहीं कर रहा था, यह नेतृत्व गांधी का प्राधिकार था।
यह जरूर समझा जाना चाहिए कि डॉ. अम्बेडकर की ऐतिहासिक दृष्टि उपनिवेशवादी इतिहास दृष्टि के प्रभाव में आ गयी है , जिसके कारण वे मध्यकालीन इतिहास का एकांगी, लेकिन व्यावहारवादी दृष्टिकोण से उपयोग करते हैं।
अम्बेडकर की इतिहास दृष्टि के बारे में आनंद तेलतुम्बड़े ने बहुत ही महत्वपूर्ण बात कही है। अपनी किताब ‘Republic of Cast’ में उन्होंने लिखा है कि-
“अम्बेडकर इतिहास के किसी सिद्धांत में विश्वास नहीं करते। कोलंबिया विश्वविद्यालय के अपने प्रोफ़ेसर जॉन डिवी के प्रभाव में इतिहास को बरतने के मामले में वे हमेशा ही एक उपयोगितावादी (pragmatist) बने रहे। अम्बेडकर अपने समय में उपलब्ध साधनों और विचारों का इस्तेमाल तत्कालीन समस्याओं का व्यावहारिक हल निकालने के लिए करते हैं, इसीलिए वे किसी महाआख्यान और आमूलवादी राजनीति का इंतज़ार नहीं करते। “[4]
डॉ. अम्बेडकर के चिंतन व व्यवहार में यह उपयोगितावाद कई जगहों पर दिखता है, जातियों की उत्पत्ति का इतिहास हो, शूद्रों और अछूत जातियों की उत्पत्ति का इतिहास हो, अम्बेडकर ने अपने समय में उपलब्ध हर प्रकार की ऐतिहासिक सामग्री का परीक्षण किया, लेकिन साथ ही वे औपनिवेशिक भारत में दलितों की समस्याओं और जाति-उन्मूलन के अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए उन ऐतिहासिक सामग्रियों का उपयोग करते हैं। वे खुद को बदली हुई परिस्थिति के अनुसार व अनुसंधानों से प्राप्त नये ज्ञान के अनुरूप अपने दृष्टिकोण को बदलने में बिल्कुल भी नहीं हिचकिचाते।
तेलतुम्बड़े कहते हैं, कि अम्बेडकर खुद को निरंतर बदलते या संवर्धित करते रहते हैं। अम्बेडकर के उपयोगितावाद को उनके द्वारा गठित राजनीतिक पार्टियों के उदाहरण से ठीक से समझ सकते हैं। 1936 में उन्होंने इंडिपेंडेंट लेबर पार्टी का गठन किया, जिसके द्वारा वे एक दलित-वाम रुझान की राजनीति करते हैं, उसके बाद, 1942 में उन्होंने शेड्यूल कास्ट फ़ेडरेशन का गठन किया, जिसके जरिये वे दलित पहचान की दावेदारी प्रस्तुत करते हुए अछूत वर्गों के हित में कुछ लाभ हासिल करने की कोशिश करते दिखाई देते है। स्वतंत्र भारत में दलित प्रतिनिधित्व के लिए उन्होंने एस. सी. एफ. को रिपब्लिकन पार्टी में तब्दील कर दिया, निष्कर्ष यह है, कि अछूतों को अधिकार दिलाने के लिए वे बदली हुई परिस्थिति के अनुसार अपनी रणनीति बदलते हैं।
चौथे दशक के भारत में जब साम्प्रदायिक समस्या विभाजन के मुहाने तक पहुँच चुकी थी, अम्बेडकर ने साम्प्रदायिकता का हल पाकिस्तान बनने के रूप में देखा था।
1940 में प्रकाशित ‘थॉट्स ऑन पाकिस्तान’ में वे पाकिस्तान को अनिवार्य विकल्प के रूप में देखते हैं। लेकिन 1945 में उस किताब के दूसरे संस्करण, जिसका नाम ‘Pakistan Or partition to India’ रखा, इसमें वे पाँचवाँ अध्याय जोड़कर पाकिस्तान न बनने की स्थिति में उपलब्ध अन्य विकल्पों की बात करते हैं। जिसमें वे हिंदू राष्ट्र के खतरे के प्रति आगाह करते हैं।
यहाँ सवाल अम्बेडकर के ऐतिहासिक नज़रिए का है, यह स्पष्ट है, कि अम्बेडकर के पास भारत के मध्यकालीन इतिहास की ब्रिटिश सामग्री उपलब्ध थी, जिसके आधार पर उन्होंने मुस्लिम आक्रमणों का उल्लेख किया।
ब्रिटिश इतिहासकारों ने मध्यकालीन इतिहास को साम्प्रदायिक रंग में रंग कर पेश किया था, जिसके बारे में हरबंस मुखिया कहते हैं, कि औपनिवेशिक इतिहास लेखन ने मध्यकाल में निहित साम्प्रदायिक स्वर को दिलेरी के साथ प्रस्तुत किया तथा भारत के अतीत के एकरेखीय साम्प्रदायिक अध्ययन को प्रमुख, बल्कि एकमात्र रुझान बनाने का प्रयास किया।
जेम्स स्टूअर्ट मिल ने भारतीय इतिहास का हिंदू, मुस्लिम और ब्रिटिश कालों में जो विभाजन किया उसका यही अंतिम परिणाम था।
ब्रिटिश इतिहासकारों ने मध्यकाल को मुस्लिम काल घोषित कर यह साबित किया कि यह समय हिंदुओं पर मुसलमानों के विजय का समय है।
इसका खंडन राष्ट्रवादी इतिहासकरों द्वारा किए जाने को लेकर हरबंस मुखिया कहते हैं –
‘‘ मध्यकालीन भारत के इस अनवरत साम्प्रदायिक संघर्ष के विचार का राष्ट्रवादी इतिहासकार खंडन करते थे। वे मध्यकालीन भारत के मुस्लिम शासकों की धार्मिक प्रेरणाओं की सच्चाई पर सवालिया निशान लगाते थे; उन्होंने मध्यकालीन भारत में साम्प्रदायिक सद्भाव दिखाने के लिए साक्ष्य प्रस्तुत किए ; उन्होंने विगत शताब्दियों में विचारों के, संस्कृति के, जीवनशैली के क्षेत्रों में दोनों बड़े सम्प्रदायों के बीच पर्याप्त अंत:क्रिया पर ज़ोर दिया । ‘समन्वित संस्कृति’ की अवधारणा का विकास इसी ज़ोर से हुआ।’’[5]
मध्यकालीन इतिहास को धर्मनिरपेक्ष रूप प्रदान करने में इन इतिहासकारों की भूमिका को मुखिया स्वीकारते तो हैं पर यह कहते हैं, कि राष्ट्रवादी इतिहासकार साम्प्रदायिक इतिहास लेखन का मुक़ाबला उसी की ज़मीन पर कर रहे थे।
वे बताते हैं, कि पचास के दशक के बाद ही ऐसे अनुसंधान हुए जिसमें साम्प्रदायिक प्रवर्गों का कोई दखल नहीं था। वर्गीय संरचना , किसानों के शोषण के रूप और परिणाम आदि विषयों के शामिल होने पर इतिहास की साम्प्रदायिक दृष्टि में बदलाव आया।
इसलिए मध्यकाल के ऐतिहासिक निरूपण में अम्बेडकर अगर औपनिवेशिक इतिहास लेखन के चंगुल में फँसते हैं तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है, लेकिन यह देखा जाना महत्वपूर्ण है कि इस इतिहास दृष्टि से वे हासिल क्या करते हैं।
जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है कि अम्बेडकर इसके ज़रिए विभाजन की समस्या को यथार्थवादी ढंग से समझने का प्रयास कर रहे थे। हालाँकि इसके बावजूद अम्बेडकर के इतिहास दृष्टि की कमज़ोरियों से मुंह फेर लेने का कोई कारण नहीं है।
अम्बेडकर भारत में साम्प्रदायिकता की समस्या को इतिहास के इसी विकासक्रम में देखते हैं। वे मानते हैं, कि आपसी वैमनस्य और सामाजिक, सांस्कृतिक और धार्मिक पहचान के आधार पर परस्पर दुश्मनी भारतीयों का मूल चरित्र है। इसके लिए वे हिंदुओं और मुसलमानों में कोई भेद नहीं करते।
वे कहते हैं कि अंग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ की नीति तब तक सफल नहीं हो सकती, जबतक हमारे बीच ऐसे तत्व न हों जो यह विभाजन सम्भव करा सकें। और अगर यह नीति इतने लम्बे समय तक सफल होती रही है, तो इसका तात्पर्य यह है, कि हमारे बीच में हमारा विभाजन करने वाले तत्व क़रीब-क़रीब ऐसे हैं, कि उनमें कभी भी सामंजस्य स्थापित नहीं हो सकता और वे क्षणिक नहीं हैं।[6]
अम्बेडकर यह मानते हैं, कि हिंदुओं व मुसलमानों में राजनीतिक व धार्मिक प्रतिद्वंद्विता उन तथाकथित सामूहिक बंधनों की अपेक्षा अधिक गहन है, जो उन्हें एक सूत्र में बांध सकते हैं।
वे कहते हैं, कि दोनों सम्प्रदायों में सामूहिक चेतना का विकास तभी सम्भव है, जब दोनों ही समुदाय अपने-अपने अतीत को विस्मृत कर दें। हिंदू खुद को भारत का भाग्य विधाता समझते हैं और मुसलमानों में यह चेतना रही है, कि हमने हिंदुओं पर शासन किया है। एक दूसरे के ऊपर श्रेष्ठता का यह बोध ही अम्बेडकर की नज़र में साम्प्रदायिक सोच का कारण है।
अपने पुस्तक के पाँचवे व अंतिम अध्याय में अम्बेडकर ने पाकिस्तान की माँग के कारणों का परीक्षण किया और यह कहा कि हिंदू राज के विरुद्ध विभाजन का विकल्प और अधिक बुरा है।
हिंदू राज के ख़तरे को दूर करने और राजनीति में साम्प्रदायिक बहुमत को आकार लेने से रोकने के लिए उन्होंने सुझाया की धर्म के आधार पर राजनीतिक पार्टियों के गठन पर रोक लगायी जानी चाहिए।
उन्होंने तर्क दिया कि मुस्लिम लीग का समर्थन कर मुसलमान हिंदू महासभा को साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण का मौक़ा मिलता है इसलिए लीग और हिंदू महासभा की जगह हिंदू मुस्लिम धर्मों के संयुक्त जनमत के आधार पर राजनीतिक पार्टी का गठन किया जाना चाहिए।
भारत में साम्प्रदायिकता और उसके समाधान को लेकर डॉ. अम्बेडकर के इन विचारों का एक विशेष संदर्भ और निश्चित देश काल और परिस्थिति है।
स्वतंत्रता और विभाजन के बाद भारत में साम्प्रदायिकता की स्थिति में मूलभूत परिवर्तन आ चुका है। जिस समय अम्बेडकर यह लिख रहे थे, उस समय तक हिंदू और मुस्लिम दो पक्ष के रूप में उपस्थित थे। ब्रिटिश शासन प्रणाली के अंतर्गत मुसलमान को वे सभी सुविधाएँ व अधिकार शामिल थे जो हिंदुओं को प्राप्त थे। शासन, सम्पत्ति और राजनीतिक अधिकारों के मामले में मुस्लिम अल्पसंख्यक होते हुए भी बेहतर स्थिति में थे, इसी आधार पर वे राजनीतिक सौदेबाज़ी की स्थिति में थे, यह सौदेबाज़ी आम मुसलमानों के हितों के नाम पर शुरू हुई पर धीरे-धीरे मुस्लिम लीग के नेतृत्व में मुसलमानों के प्रभावशाली तबके के राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने का ज़रिया बन गयी।
मुस्लिम लीग की दबाव की राजनीति पर टिप्पणी करते हुए अम्बेडकर ने कहा था, कि मुसलमानों की माँगें लगातार बढ़ती ही जा रही हैं और कांग्रेस उनके दबाव में झुकती जा रही है। कम्यूनल अवार्ड के मामले में भी गोलमेज़ परिषद में महात्मा गांधी ने मुस्लिम पक्ष की माँगों का समर्थन किया परंतु अनुसूचित जातियों के मामले में कम्यूनल अवार्ड न मिले इसके लिए अड़ गए थे।
सम्भवतः इस कारण भी अम्बेडकर यह बात कर रहे हों। पर यह निश्चित है कि आज यह परिस्थिति बदली हुई है। आज भारत के मुसलमान पहले की अपेक्षा विपन्न और राजनीतिक-सामाजिक अलगाव का शिकार हैं।
ऐसे में आज भारत की साम्प्रदायिक शक्तियाँ ‘पाकिस्तान’ का राजनीतिक इस्तेमाल बहुसंख्यक हिंदुओं के ध्रुवीकरण के लिए करती हैं। पाकिस्तान आज एक परिघटना के रूप में भारत में शासक वर्गों के हाथ में व्यवहृत हो रहा है।
आज हमें अम्बेडकर के पाकिस्तान सम्बन्धी विचारों और साम्प्रदायिकता पर उनके दृष्टिकोण की संवेदनशीलता को समझने, सही संदर्भों के साथ आज की समस्या के समाधान के रूप में अपनाने और लोकतंत्र और धर्मनिरपेक्षता विरोधी शक्तियों द्वारा उनके संदर्भ रहित दुरुपयोग करने की कुत्सित प्रयासों के प्रति सचेत रहना चाहिए।
संदर्भ :
1. पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन , बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांगमय खंड 15 पृष्ठ सं 142 , प्रकाशक – डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठान , सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार , तीसरा संस्करण 2013
2. वही, पृष्ठ सं 131
3. इसी किताब की भूमिका से , पृष्ठ सं xxi
4. रिपब्लिक आफ कास्ट, आनंद तेलतुम्बड़े, प्र. नवयाना,तीसरा पेपर बैक संस्करण 2021,पृष्ठ सं 22
5. मध्यकालीन भारत नए आयाम , हरबंस मुखिया, राजकमल प्रकाशन, पहला संस्करण 2020 पृष्ठ सं 43
6. पाकिस्तान अथवा भारत का विभाजन , बाबा साहब डॉ. अम्बेडकर सम्पूर्ण वांगमय खंड 15 पृष्ठ सं 335 , प्रकाशक – डॉ. अम्बेडकर प्रतिष्ठान , सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय, भारत सरकार , तीसरा संस्करण 2013
(फ़ीचर्ड इमेज गूगल से साभार)