पंकज चौधरी
समकालीन हिन्दी कविता में दो तरह की कविताएँ अधिक प्रामाणिक और विश्वसनीय कही जा सकती हैं। एक तो वे कविताएँ, जिन्हें लिखने वाले कवियों की हम आत्मकथाएँ कह सकते हैं, और दूसरी वे कविताएँ जो सामाजिक-राजनीतिक विषयों को आधार बनाकर लिखी जा रही हैं। अग्रज रमेश ऋतंभर एक ऐसे कवि हैं, जिनके यहाँ दोनों तरह की विशेषताएँ देखी जा सकती हैं। हिन्दी कविता की परंपरा के विकास में ऐसे कवियों का सर्वाधिक योगदान माना जाता रहा है।
आत्मकथ्यपरक कविताएँ लिखना सबसे खतरनाक काम है। खतरनाक इसलिए क्योंकि उसमें यदि समय और समाज नहीं बोल रहा होता है, तो वह व्यक्ति-विशेष की गाथा बनकर रह जाती है। इसलिए ऐसी कविताएँ लिखते वक्त कवियों को इस बात का विशेष रूप से ध्यान रखना पड़ता है कि वे निजी प्रसंगों और संदर्भों को कुछ इस तरह रचे कि उनमें समय, समाज, परिवेश का दर्शन ज्यादा हो सके। वैसे भी कुछ भी व्यक्तिगत नहीं होता और सब कुछ एक-दूसरे से जुड़ा (कनेक्टेड) होता है। ऐसी कविताओं को ही लक्ष्य करके कहा गया होगा- “सिमटे तो दिल-ए-आशिक, फैले तो जमाना है।”
कवि रमेश ऋतंभर को इस मामले में महारत हासिल है। उन्होंने अपने व्यक्तित्व को कविताओं में कुछ इस तरह ढाला है कि सवाल ही पैदा नहीं होता कि उसमें दुनिया के निपट सरल, सहज और नैतिक बल से भरे हुए लोग अपना अक्स नहीं देख सकें-
“एक छोटी-सी गलती पर/मेरा कलेजा कांपता है/एक छोटे से झूठ पर/मेरी जबान लड़खड़ाती है/एक छोटी-सी चोरी पर/मेरा हाथ थरथराता है/एक छोटे से छल पर/मेरा दिमाग गड़बड़ा जाता है।”
कहने की जरूरत नहीं कि ऐसे लोगों की संख्या भारत सहित दुनिया भर में करोड़ों में है और तथाकथित विकास की दौड़ में ये ही सबसे पहले पिछड़ते हैं। कवि का निजपन यहाँ इतनी सुंदरता से सामूहिकता में तब्दील होता है कि दिल से बेसाख्ता ‘वाह’ निकलता है। कविता को एक बड़ा अर्थ कैसे मिलता है, रमेश ऋतंभर की कविताओं को पढ़कर जाना जा सकता है।
हिन्दी के चर्चित कवि और संपादक संतोष चतुर्वेदी रमेश ऋतंभर की कविताओं पर टिप्पणी करते हुए एक जगह कहते हैं- “मनुष्य ने अपनी सामाजिकता का विकास कर खुद को दुनिया के सबसे बौद्धिक प्राणी के रूप में ढाल लिया है। यह एक दिन में नहीं हुआ, बल्कि इस सामूहिकता को विकसित करने में शताब्दियां लग गईं। जीवन की शुरुआत से ही यह क्रम शुरू हो जाता है और जीवनोपरांत यह प्रक्रिया चलती रहती है। रमेश ऋतंभर ऐसे कवि हैं जो एकाकी हो चले समय में इस सामूहिकता को अपनी कविताओं में शिद्दत से रेखांकित करते हैं।”
रमेश ऋतंभर की संवेदना और सरोकार के केंद्र में वे सभी मनुष्य हैं जो दुर्बल हैं, क्षीण हैं, कमजोर हैं, जिनकी सांसों को दो जून की रोटी के जुगाड़ में आराम नहीं है, जो सभी जगहों से बेदखल किए जा रहे हैं और जिनको अपनी वफादारी का दिन में सौ-सौ सबूत पेश करना पड़ता है। इसीलिए रमेश ऋतंभर का अपना दुख और बयान कोई अलग नहीं, वरन् उन्हीं करोड़ों लोगों के दुख और बयान को वे अपना दुख और बयान मानते-कहते हैं। रमेश ऋतंभर की कविताओं में यदि आत्मालोचना का दर्शन करना हो तो उनकी सामाजिक-राजनीतिक विषयों पर लिखी कविताओं को पढ़ा जाना चाहिए, जिसमें समाज का जिम्मेदार नागरिक सार्वजनिक रूप से यह घोषणा करते पाया जाएगा कि वह कोई व्यक्तिवादी, परिवारवादी, जातिवादी, सम्प्रदायवादी नहीं है, लेकिन वही व्यक्ति अपनी जाति के सम्मेलन का उद्घाटन भी करने जाता है और वही अपने सम्प्रदाय की एकता के लिए दंगे का पूर्वाभ्यास भी करते पाया जाता है। हमारे समय के सबसे बड़े सच को रमेश ऋतंभर अपनी कविताओं में दिखाना नहीं भूलते।
रमेश ऋतंभर की कविताएँ सामाजिकता, उदारता, सरलता, कृतज्ञता, निष्कलुषता, सौजन्यता, नैतिकता, परदुख:कातरता की भी मिसाल पेश करती हैं। यह अकारण नहीं है कि उनका पूरा कवि व्यक्तित्व इन्हीं तत्वों का सम्मिश्रण है।
रमेश ऋतंभर की कविताएँ
1. मैं कोई व्यक्तिवादी, परिवारवादी, जातिवादी, सम्प्रदायवादी व राष्ट्रद्रोही नहीं?
(सभी सुधीजनों से निवेदन है कि यह रचना अपने युग के व्यक्ति की आत्मालोचना है, इसे इसी रूप में पढेंगे तो आपकी भावनाएँ शायद नहीं होंगी)
मैं एक राष्ट्रवादी सोच का व्यक्ति हूँ
मुझे अपने महान देश पर बहुत गर्व है
मुझे अपने देश के गौरव को बढाना है
मुझे अपने देश के स्वर्णिम अतीत से नई पीढी को अवगत कराना है
मुझे अपने देश की प्राचीन परंपरा एवं विरासत को अक्षुण्ण रखना है
मुझे अपने देश को सोने की चिड़िया बनाना है
पर ठहरिए…
पहले मुझे दुनिया के सबसे ऐश्वर्यशाली देश की नागरिकता का जुगाड़ करना है
पहले मुझे महंगे विदेशी ब्रांडों से सुसज्जित एक ऐशगाह बनानी है
पहले मुझे अपनी सारी काली कमाई विदेश के बैंकों में छिपानी है
पहले मुझे विदेशी कंपनियों के हित में लाभकारी कदम उठाना है
पहले मुझे देश की गोपनीय सूचनाएँ पड़ोसी देश के हाथों बेचनी हैं
मैं कोई राष्ट्रद्रोही नहीं.
मैं एक सर्वधर्म समभाववादी सोच का व्यक्ति हूँ
मुझे दुनिया के सभी सम्प्रदायों का आदर करना है
मुझे सम्प्रदाय के आपसी झगड़ों का निबटारा करना है
मुझे सभी सम्प्रदायों में आपसी भाईचारा व सदभाव कायम करना है
मुझे ईद की सेवइयाँ और दीपावली की मिठाइयाँ खानी हैं
मुझे चर्च में कैंडल जलाना और गुरुद्वारे में मत्था टेकना है
पर ठहरिए…
पहले मुझे अपने सम्प्रदाय के रक्षार्थ चंदा इकट्ठा करना है
पहले मुझे अपने सम्प्रदाय के अमीर मठ का महंत बनना है
पहले मुझे धर्मगुरु की पदवी हासिल करनी है
पहले मुझे अपने सम्प्रदाय के लिए लाठी, डंडा व बंदूक जमा करना है
पहले मुझे अपने सम्प्रदाय की एकता के लिए दंगे का पूर्वाभ्यास करना है
मैं कोई सम्प्रदायवादी नहीं.
मैं एक समाजवादी सोच का व्यक्ति हूँ
मुझे दुनिया में गरीबों, पिछड़ों, दलितों व अल्प–समूहों को
सामाजिक-न्याय दिलाना है
मुझे सदियों से समाज के वंचित लोगों को सत्ता-संस्थानों में
भागीदारी दिलानी है
मुझे एक शोषणमुक्त समतामूलक समाज बनाना है
पर ठहरिए…
पहले मुझे जाति के सम्मेलन का उद्घाटन करने जाना है
पहले मुझे अपनी जाति के प्रधान का पद हथियाना है
पहले मुझे अपने परिवार के लिए एक पार्टी बनानी है
पहले मुझे पार्टी और सरकार में अपने बेटे-बेटियों का भविष्य सुरक्षित करना है
मैं एक परिवारवादी नहीं.
मैं एक साम्यवादी सोच का व्यक्ति हूँ
मुझे दुनिया में व्याप्त अमीरी-गरीबी के बीच की खाई को पाटना है
मुझे धन-धर्म-जाति के भेदभाव को खत्म करना है
मुझे गरीबों-मजदूरों के हक-हकूक की लड़ाई लड़नी है
मुझे एक वर्गविहीन समाज बनाना है
पर ठहरिए…
पहले मुझे अपनी फाजिल जमीन को अजन्मी पीढी के नाम पर
बंदोबस्त कराना है
पहले मुझे अपनी बिरादरी के सबसे रईस परिवार से बेटे का रिश्ता
तय करना है
पहले मुझे अपनी जाति के लेखक को पुरस्कार दिलवाना है
पहले मुझे अपने सम्बन्धी को संगठन के अध्यक्ष पद पर बिठाना है
मैं कोई जातिवादी नहीं.
मैं एक मानवतावादी सोच का व्यक्ति हूंँ
मुझे धर्म-जाति-लिंग-भाषा भेदरहित एक दुनिया निर्मित करनी है
मुझे गांव, शहर, प्रदेश व देश की सीमाओं से ऊपर उठकर
सम्पूर्ण मानवता के कल्याण के लिए सोचना है
मुझे साम्राज्यवाद के खिलाफ एक मुहिम छेड़नी है
मुझे ‘वसुधैव कुटुंबकम’ के आदर्श को साकार करना है
पर ठहरिए…
पहले मुझे अपने भाइयों से जायदाद का बंटवारा करना है
मेरा भाई एक इंच जमीन अधिक हड़प नहीं ले
पहले इसका उपाय ढूंढना है
पहले मुझे पड़ोसियों की निगाह से बचने के लिए
अपने घर की चहारदीवारी ऊँची उठानी है
पहले मुझे अपने घर के दरवाजे पर लोहे का एक मजबूत ताला लगाना है
मैं कोई व्यक्तिवादी नहीं.
आप कृपया मेरी मजबूरी को समझिए श्रीमान!
मैं कोई व्यक्तिवादी, परिवारवादी, जातिवादी, सम्प्रदायवादी व राष्ट्रद्रोही नहीं??
2.अपने हिस्से का सच
(पलायित बिहारी युवाओं को समर्पित)
दिल्ली में भी कई-कई नरकटियागंज* हैं
सिर्फ़ सेंट्रल दिल्ली ही नहीं है दिल्ली
दिल्ली जहाँ है, वहाँ गंदगी भी है
कूड़ा-करकट भी है
धूल-धुंआ भी है
पानी का हाहाकार भी है
सिर्फ चकाचौंध नहीं है दिल्ली
दिल्ली जहाँ है, वहाँ बीमारी भी है
परेशानी भी है
ठेलमठेल भी है
और भागमभाग भी है
सिर्फ एयरकन्डीशड नहीं है दिल्ली
आखिर किस दिल्ली की आस में
हम भागे चले आये दिल्ली
यह सेंट्रल दिल्ली तो नहीं आयेगा
हमारे हिस्से कभी.
चाहे हमारे जैसे लोग, जहाँ भी रहे
उनके हिस्से तो नरकटियागंज ही आयेगा
यह सेंट्रल दिल्ली नहीं….
तो फिर किसी दिल्ली की आस में
हम भाग चले आये दिल्ली।
*कवि का कस्बा।
3.एक उत्तर-आधुनिक समाज की कथा
एक आदमी सुबह से शाम तक खेत जोतता है
एक आदमी सुबह से शाम तक फावड़ा चलाता है
एक आदमी सुबह से शाम तक बोझ ढोता है
एक आदमी सुबह से शाम तक जूता सिलता है
तब भी उसे दो वक्त की रोटी नसीब नहीं होती
वही एक आदमी खाली झूठ बोलता है
एक आदमी खाली बेईमानी करता है
एक आदमी खाली दलाली करता है
एक आदमी खाली आदर्श बघारता है
तो वह चारों वक्त खूब घी-मलीदा उड़ाता है
प्रिय पाठको! यह किसी आदिम-समाज की कथा नहीं
एक उत्तर-आधुनिक सभ्य समाज की कथा है,
जिसके पात्र, घटना और परिस्थितियाँ
सबके सब वास्तविक हैं
और जिनका कल्पना से कोई भी सम्बन्ध नहीं।
4.मृत्यु-दौड़
(दारोगा की नौकरी की दौड़ में हताहत युवाओं की सजल स्मृति में)
वह दौड़ रहा है
वह पूरी जान लगाकर दौड़ रहा है
पाँव लड़खड़ा रहे हैं
कंठ सूख रहा है
आँखों से चिंगारियाँ निकल रही हैं
फिर भी किसी अदृश्य शक्ति के सहारे
वह लगातार दौड़ रहा है
उसकी आँखों के आगे बूढ़े पिता का थका-झुर्रीदार चेहरा कौंध रहा है
उसकी आँखों के आगे बीमार माँ की खाँसती हुई सूरत झलक रही है
उसकी आँखों के आगे अधेड़ होती कुंवारी बहन का उदास मुखड़ा तैर रहा है
उसकी आँखों के आगे वह दारोगा की वर्दी में खुद खड़ा दिखाई दे रहा है
उसकी आँखों के लक्ष्य-रेखा करीब आती हुई नज़र आ रही है
उसकी आँखें धीरे-धीरे मुंदती जा रही है
और सारा दृश्य एक-दूसरे में गड्मड हो रहा है
अब उसे कुछ नहीं दिखाई पड़ रहा है
वह दौड़-भूमि में भहरा कर गिर पड़ा है
और उसकी चेतना धीरे-धीरे लुप्त होती जा रही है
माँ-पिता, बहनें, दोस्त सब
एक-एक कर याद आ रहे हैं
उसकी चेतना में लक्ष्य-रेखा धंस-सी गयी है
और वह अपने को लगातार दौड़ता हुआ पा रहा है
उसके प्राण-पखेरू उड़ चुके हैं
अब वह अपनी मृत्यु में दौड़ रहा है
वह लगातार दौड़ रहा है।
5.कहाँ से लाऊं लोहे की आत्मा?
एक छोटी-सी गलती पर
मेरा कलेजा कांपता है
एक छोटे-से झूठ पर
मेरी जुबान लङखङाती है
एक छोटी-सी चोरी पर
मेरा हाथ थरथराता है
एक छोटे-से छल पर
मेरा दिमाग़ गङबङा जाता है
कैसे कुछ लोग
बङा-सा झूठ
बङी-सी चोरी
बङा-सा छल कर लेते हैं
और विचलित नहीं होते
क्या उनका कलेजा पत्थर का है
या आत्मा लोहे की?
अब मैं कहाँ से लाऊं लोहे की आत्मा
और कैसे बनाऊं पत्थर का कलेजा??
6.एक पिछङा हुआ आदमी
कभी वह किसी अन्धे को सङक पार कराने में लग गया
कभी वह किसी बीमार की तीमारदारी में जुट गया
कभी वह किसी झगडे के निपटारे में फंसा रह गया
कभी वह किसी मुहल्ले में लगी आग बुझाने में रह गया
कभी वह अपने हक-हकूक की लङाई लङ रहे लोगों के जुलुस में शामिल हो गया….
और अन्ततः दुनिया के घुङदौङ में वह पिछङता चला गया….
मानव-सभ्यता के इतिहास में दोस्तों
वही पिछङा हुआ आदमी कहलाया।
7.पिता की विरासत
पिता जिन्दगी में किसी से बात-बेबात
झूठ नहीं बोले
कभी किसी से छल नहीं किया
कभी किसी का दिल नहीं दुखाया
हमेशा जरूरतमंदों की मदद की
हमेशा लोगों के बीच रहे.
पिता
दुनिया की घुड़दौड़ में कभी
शामिल नहीं हुए
थोड़ा ही कमाया, थोड़े में ही खुश रहे
उन्हीं की सन्तान मैं
उनकी विरासत में
जमीन-जायदाद नहीं
कोठा-अटारी नहीं
वहीं सब कुछ पाया….
जिनके साथ मैं रोज
दुनिया के बाजार में निकलता हूँ
और ठगा जाता हूँ।
8.मेरा बयान
किसी के सपने में मेरा सपना शामिल है
किसी की भूख में मेरी भूख
किसी की प्यास में मेरी प्यास शामिल है
किसी के सुख में मेरा सुख
इस दुनिया में करोड़ों आँखें, करोड़ों पेट, करोड़ों कंठ
और हृदय ऐसे हैं
जो एक सपना, एक भूख और एक प्यास
लिए जीते हैं
और मर जाते हैं
उन्हीं के बयान में मेरा बयान शामिल है
उन्हीं के दुख में मेरा दुख।
9.हर बार
हर बार कसम खाता हूँ
कि अगली बार किसी के बीच में नहीं बोलूंगा
लेकिन किसी को ग़लत बात करते सुन
चुप नहीं रह पाता
हर बार कसम खाता हूँ
कि अपने काम से काम रखूंगा
लेकिन कुछ उल्टा-सीधा होता देख
हस्तक्षेप कर बैठता हूँ
हर बार कसम खाता हूँ
कि चुपचाप सिर झुकाए अपने रास्ते पर जाऊंगा
लेकिन लोगों को झगङा-फसाद करते देख
अपने को रोक नहीं पाता
हर बार कसम खाता हूँ
कि किसी की मदद नहीं करूंगा
लेकिन किसी को बहुत मजबूर देख
आगे हाथ बढ़ा देता हूँ
हर बार कसम खाता हूँ
और वह हर बार टूट जाता है।
10.कर्जदार
(दुनिया के तमाम अनाम-अजनबी मेहनतकशों को; जो हमारी जिन्दगी को रोज बचाते-संवारते हैं)
मेरा रोम-रोम जिन्दगी की जद्दोजहद से जूझते
अनाम-अजनबी लोगों का कर्जदार है
घनघोर बारिश में पानी में डूबी सड़क पर
मुझे गंतव्य तक पहुँचाते उस अनाम रिक्शेवाले का
जिसका किराया मैं चुका नहीं पाया
उस अनजान राहगीर का
जिसने सफर में बुखार से बेहोश
मुझको सहारा देकर घर तक पहुँचाया
उस अजनबी दुकानदार का
जिसने महानगर में मुझ भटकते को
दोस्त के घर का सही रास्ता बताया
उस बेनाम चायवाले का
जिसने मुझ प्यासे को प्यार से पानी पिलाया
उस अपरिचित दम्पति का
जिसने तेज बारिश में मुझ भींगते हुए को
अपने घर में शरण दिया
मेरा रोम-रोम मिट्टी, हवा, धूप, पानी के साथ-साथ
उन अनाम-अजनबी लोगों का शुक्रगुज़ार है
जिनका चाहकर भी मैं कभी कर्ज चुका नहीं सका।
11.प्रतिबद्धता
जब सारी दुनिया
निन्यानबे के फेर में फंसी पड़ी थी
उस वक्त
मैं प्यार में डूबा हुआ था.
जब सारी दुनिया
धर्म के नशे में धुत थी
उस वक्त
मैं प्यार में डूबा हुआ था.
जब सारी दुनिया
हथियारों के खरीद-फ़रोख़्त में लगी हुई थी
उस वक्त
मैं प्यार में डूबा हुआ था.
यह समय ही ऐसा था
कि मैं प्यार के सिवा कुछ सोच नहीं सकता था
यह मेरी प्रतिबद्धता का सवाल था
क्योंकि मुझे कहीं किसी को कुछ जवाब देना था।
12.एक दिन अपरिचित होगा प्यार
हम कहाँ-कहाँ नहीं गए मित्र
तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूंढ़ा
पृथ्वी के इस छोर से लेकर उस छोर तक
तलाशते रहे हम तुम्हें
लेकिन शताब्दियाँ गुजर गयीं
तुम कहीं नहीं मिले मित्र
मिलीं तो सिर्फ़
शताब्दियों बाद संग्रहालय में रखी
तुम्हारी पुरानी डायरी
और मेरे नाम लिखी
बिना पोस्ट की गयीं कुछ चिट्ठियाँ
जिसमें तुमने लिखा था
मेरे लिए
सिर्फ़ एक ही शब्द
‘प्यार’
जिसे पढ़कर लोग पूछ रहे थे
एक-दूसरे से अर्थ
(अचकचाये-से)
जो उनकी दुनिया के लिए नितांत
अपरिचित था।
कई पुरस्कारों से सम्मानित कवि रमेश ऋतंभर (अकादमिक नामः डॉ.रमेश प्र.गुप्ता) का जन्म बिहार के पश्चिमी चम्पारण जिले के ‘नरकटियागंज’ शहर में 02 अक्टूबर,1970 को हुआ। बिहार विश्वविद्यालय से 2003 में ‘राजेन्द्र यादव का कथा साहित्य: कथ्य एवं शिल्प’ विषय पर पीएच.डी.की उपाधि प्राप्त की। सम्प्रति वे बिहार विश्वविद्यालय के रामदयालु सिंह महाविद्यालय में स्नातकोत्तर हिन्दी विभाग में विश्वविद्यालय आचार्य के रूप में अध्यापनरत हैं और मुज़फ़्फ़रपुर प्रलेस के अध्यक्ष, बी.आर.ए.विश्वविद्यालय सेवा शिक्षक संघ (बुस्टा) के महासचिव।
रचनाएँ: सफर जारी है ( साझा काव्य संग्रह,1990),
कविता दस वर्ष (साझा काव्य संग्रह,1993), रचना का समकालीन परिदृश्य (आलोचना, 2012), सृजन के सरोकार (आलोचना, 2013), प्रतिरोध के स्वर (पूनम सिंह के साथ साझा काव्य संग्रह सम्पादन), पुश्तैनी गंध (पूनम सिंह के साथ साझा काव्य संग्रह सम्पादन)शीघ्र प्रकाश्य: राजेंद्र यादव का कथा-लोक (शोध), ईश्वर किस चिड़िया का नाम है (काव्य संग्रह) सम्पर्क: 9431670598
टिप्पणीकार पंकज चौधरी की कविताएँ लगभग सभी प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। दो कविता संग्रह ‘उस देश की कथा’ और ‘किस-किस से लड़ोगे’ के नाम से प्रकाशित हैं। दो वैचारिक आलेखों की पुस्तक ‘आम्बेडकर का न्याय दर्शन’ और ‘पिछड़ा वर्ग’ का भी सम्पादन किया है। इनकी कविताएँ अंग्रेजी, मराठी, बांग्ला, गुजराती और मैथिली में अनूदित हो चुकी हैं। बिहार राष्ट्रभाषा परिषद् के ‘युवा साहित्यकार सम्मान’, पटना पुस्तक मेला के ‘विद्यापति सम्मान’ और प्रलेस के ‘कवि कन्हैया स्मृति सम्मान’ से सम्मानित हैं।
सम्पर्क : -9910744984, 9971432440