वसु गन्धर्व
मनीष की कविताएँ एक कठिन ज़मीन की कविताएँ हैं जो अपने प्रस्तावित पाठ में पाठक से उतने ही सृजनात्मक संघर्ष की अपेक्षा करती हैं जितना कि कवि के द्वारा इनके सृजन में अनुभूत प्रतीत होता है। इन कविताओं का यथार्थबोध बहुत ठोस और सुलझा हुआ है। इनमें अपने समय की विसंगतियों के प्रति भरपूर खीज और अकुलाहट है। इनमें एक अकूत ज़िम्मेदारी का बोध है जो अपनी मुखर और नम्र उपस्थिती से हिन्दी के नये कवियों की इस पीढ़ी को एक बहुत महत्वपूर्ण आयाम देता है।
मनीष की कविताओं में एक घना अवसाद है जो पूरी तरह कभी मुखर नहीं होता, बल्कि कथ्य के पार्श्व में धीरे-धीरे रिसता हुआ सा प्रतीत होता है। इस अवसाद का बहुत सा हिस्सा सामाजिक और राजनैतिक पृष्टभूमि लिये हुए है वहीं इसका एक पक्ष नितांत व्यक्तिगत भी है। जीवन की तमाम आंतरिक वेदनाएँ जैसे एक धीमे संगीत में विन्यस्त होती आती हैं, कि पढ़ने के बाद पता ही नहीं चलता कि कविताओं की बहुत सी संदर्भहीन, आवारा पंक्तियाँ बार-बार मन में क्यूँ कौंध रही हैं। मसलन;
“मैं एक काटी गयी उम्र हूँ
जिसे नदी द्वारा काटी गयी
मिट्टी का पर्याय हो जाना चाहिए था”
“जब चलने और ठहरने से पेट भरा
तब लोगों ने यात्राओं का
दुखांत लिखना चुना”
“तुमने
दृश्य से उठ कर
चले जाना चुना
और मैंने चुनीं
तयशुदा समय की बीमार उपमाएँ”
“प्रेम मनुष्य के लिये सबकुछ बचा लेता है
जो प्रतिक्षाओं को नहीं प्राप्त होता”
“मैं एक खोया हुआ यात्री हूँ
अधिष्ठित सपनों में
अपना घर भूल आया हूँ”
इन कविताओं में प्रेम बस स्पर्श की सिहरन भर कौंधता है, पर उसकी परोक्ष, या संभावित उपस्थिती इन्हें बहुत गहरी संवेदना देती है। ये कविताएँ अपनी चुप्पी में एक बहुत गझिन यात्रा वृत को समेटे रहती हैं जिसका बहुत सारा हिस्सा अतीत से जुड़ता है, बहुत सा हिस्सा जैसे अपने स्वर को तलाशते एक और गहरी उदासी में आपना ठौर खोज लेता है।
मनीष की कविताएँ अनायास प्रेरणाजनय, अकस्मात पैदा होती कविताएँ नहीं हैं। वे कई मायनों में मुक्तिबोध की याद दिलातीं, जीवन और काव्यकर्म के मिले जुले अनुभव-संघर्ष में तपी कविताएँ हैं। इनमें गहरा अंतर्द्वंद और अंतः-संघर्ष व्याप्त है। इनमें यथार्थ है लेकिन यथार्थ को सुलभ और संप्रेषणीय बनाने की आड़ में छिपा रिडक्शन नहीं है। यह इस अन्धकरावृत्त समय में स्मृति, वेदना, ऊब, उदासी; अंततः जीवन की अनंत संभावनाओं के अनेक शिल्प रचती हैं। यह दुनिया, उसकी विसंगतियों, और उसकी पूरी-पूरी जटिलताओं को अपनी तीव्र बौद्धिक दृष्टि से देखती-परखती हैं। ये हमारे समय की ज़रूरी कविताएँ हैं जिनका स्वागत होना चाहिए।
कवि मनीष कुमार यादव, उम्र 19 वर्ष। हिंदी की नई पीढ़ी से संबद्ध कवि-लेखक-अनुवादक हैं। इनकी कलम अभी नई है। वह इन दिनों राम मनोहर लोहिया आयुर्विज्ञान संस्थान (लखनऊ) में पढ़ाई कर रहे हैं।