समकालीन जनमत
जनमतशख्सियतसाहित्य-संस्कृति

प्रकृति की स्वाधीनता से मनुष्य की स्वाधीनता की तलाश

राम नरेश राम 

त्रिलोचन की कविताओं पर लिखना है , समझ में नहीं आ रहा है कहाँ से और कैसे शुरू करूँ. उचित तो शायद यह होता है कि किसी कवि पर लिखने के लिए उसका सम्पूर्ण लिखा हुआ पढ़ लिया जाय लेकिन यह हो कहाँ पाता है. क्या अभी तक जिन लोगों ने कवियों पर लिखा है वे उन कवियों के सम्पूर्ण लिखे को पढ़ कर लिख पाए हैं. अगर ऐसा नहीं है तो कवि के बारे में प्रस्तावित निष्कर्ष ,क्या अधूरे नहीं हैं.

सम्पूर्णता का यह बोध और इसकी आकांक्षा अभिव्यक्ति में बाधा पैदा करने लगती है इसलिए जरुरी नहीं है कि किसी कवि के बारे में राय बनाने के लिए सम्पूर्णता में पढ़ा जाय, ऐसा हो तो यह आदर्श स्थिति होगी. इसलिए मैं इस बात का दावा नहीं कर सकता कि मैं त्रिलोचन के बारे में जो कुछ प्रस्तावित कर रहा हूँ, वह उनको सम्पूर्ण पढ़ने के बाद ही लिख रहा हूँ.

किसी कवि के मूल्यांकन प्रक्रिया में क्या-क्या ध्यान रखना चाहिए. उसकी भाषा, उसका कथ्य, सम्प्रेषण की कलात्मकता या उसका अपने समय के साथ व्यवहार में से किस बात का ज्यादा ध्यान रखना चाहिए.

नामवर सिंह ने त्रिलोचन की कविताओं पर लिखते हुए कहा कि ‘त्रिलोचन की कविता एक नए काव्यशास्त्र की माँग करती है.[1]

उसी में उन्होंने पाठक के लिए यह भी सुविधा प्रदान किया कि अगर काव्यशास्त्र से शास्त्रीयता की गंध आती हो तो काव्यदृष्टि कह लीजिए.

माने कि अगर त्रिलोचन की कविताओं को समझाना है तो पुराने काव्यशास्त्र या पुरानी काव्यदृष्टि सहायता नहीं कर पायेगी. किसी कविता को समझने के लिए नयी काव्यदृष्टि या नए काव्यशास्त्र की आवश्यकता कब पड़ती है.

जाहिर है, जब कविता अपने सृजन में अभिव्यक्ति के प्रचलित तरीकों का हर स्तर पर अतिक्रमण करती है, तभी उसके मूल्यांकन के लिए भी नयी काव्यदृष्टि की आवश्यकता पड़ती है.

ऐसे में यह देखना आवश्यक है कि त्रिलोचन के समय में कविता की स्थिति क्या थी. बाकी कवि क्या लिख रहे थे, त्रिलोचन का लेखन उनसे किस मायने में भिन्न है.

जब तक यह बात स्पष्ट नहीं होगी तब तक यह नहीं समझा जा सकता है कि त्रिलोचन की कविताओं की विशिष्टता क्या है.

त्रिलोचन का पहला काव्य संग्रह ‘धरती’ है , इसका प्रकाशन 1945 ई. में हुआ. त्रिलोचन का मोनोग्राफ लिखने वाले रेवती रमण के अनुसार-

‘धरती का प्रकाशन आधुनिक हिंदी कविता में एक ऐतिहासिक घटना थी. तब तक शमशेर का कोई संग्रह नहीं निकला था. केदार की नींद के बादल और युग की गंगा 1947 में निकली और नागार्जुन की युगधारा 1953 में. हिंदी की प्रगतिशील कविता की धरती संभवतः पहली किताब थी.’[2]

इससे तो इतना स्पष्ट है कि प्रगतिशील काव्यधारा की नींव के विकास में त्रिलोचन का महत्वपूर्ण योगदान है. उनके काव्य संग्रह की समीक्षा करते हुए मुक्तिबोध ने कहा-

‘सारी कविताओं में कवि का गहरा आत्मविश्वास और सामाजिक लक्ष्य के प्रति ईमानदारी प्राथमिक है.’[3]

स्पष्ट है, कि मुक्तिबोध की नजर में उनकी कविताएँ केवल भावनात्मक अभिव्यक्तियाँ भर नहीं हैं, बल्कि एक सामाजिक लक्ष्य को हासिल करने का कलात्मक माध्यम भी हैं.

प्रगतिशील कविता का यह एक व्यापक और सामान्य लक्ष्य था इसलिए यह विशेषता सभी प्रगतिशील कवियों में मिलती है. तब आखिर वह क्या बात थी जिसके लिए नामवर सिंह यह प्रस्तावित करते हैं कि त्रिलोचन की कविता एक नए सौन्दर्यशास्त्र की मांग करती है.

यह बात प्रस्तावित करने में उनके दिमाग में छायावादी कविता है या त्रिलोचन की समकालीन कविता. अगर छायावादी कविता है तब तो यह प्रस्ताव सामान्यीकृत है क्योंकि पूरी प्रगतिशील कविता ही छायावादी अमूर्तन, काल्पनिकता और रहस्यात्मकता के विपरीत अधिक यथार्थवादी भावभूमि के साथ नयी सृजनशीलता को जन्म देती हुई आती है.

ऐसे में नये सौंदर्यशास्त्र की आवश्यकता केवल त्रिलोचन की कविताओं को ही समझाने के लिए क्यों जरुरी है. इसका मतलब यह हुआ कि नामवर सिंह त्रिलोचन की कविताओं के लिए नए सौंदर्यशास्त्र की आवश्यकता त्रिलोचन की समकालीन कविताओं के बरक्स प्रस्तावित करते हैं.

जब नामवर सिंह कहते हैं कि-‘ धरती का ऐतिहासिक महत्व सूरज की रोशनी की तरह स्पष्ट हो जायेगा, लेकिन इसके लिए अनिवार्य है कि पाँचवें दशक की प्रगतिशील और प्रयोगशील कही जाने वाली कविताओं के बीच रखकर उसका मूल्यांकन किया जाय. ख़ासतौर से पन्त की ग्राम्या और अज्ञेय के संपादन में निकले तारसप्तक (1943) के सन्दर्भ में धरती की कविताओं का आकलन अपेक्षित है.’[4]

यहाँ स्पष्ट तौर पर देखा जा सकता है कि नामवर सिंह छायावाद और त्रिलोचन की समकालीन कविता के बीच त्रिलोचन की कविताओं के महत्व को अलग से रेखांकित किये जाने पर जोर दे रहे हैं.

सवाल यह है कि अगर प्रगतिशील कविता के बीच त्रिलोचन एक अलग विषयवस्तु और अभिव्यक्ति के कवि थे तो प्रगतिशील कवियों के उल्लेख के दौरान उनका कोई जिक्र क्यों नहीं किया जाता. क्या कवि का अपने समकालीनों के बीच अलग राह बनाना ही इस पहचान के लिए बाधा बन गया.

इस सवाल का जवाब केदार नाथ सिंह ने त्रिलोचन की प्रतिनिधि कविताओं के संकलन की भूमिका में देने का प्रयास किया है.

‘त्रिलोचन का काव्य व्यक्तित्व लगभग पचास वर्षों के लम्बे काल-विस्तार में फैला हुआ है. परन्तु यह तथ्य है कि वे हमारे समय के एक अत्यंत महत्वपूर्ण कवि हैं-लगभग एक अद्वितीय कवि-अभी पिछले कुछ वर्षों में उभर कर सामने आया है और उनके प्रत्येक नए काव्य-संकलन के साथ और गहरा तथा और पुष्ट होता गया है. इसका एक सीधा और स्थूल कारण यह है कि उनकी बहुत सी महत्त्वपूर्ण काव्य-कृतियाँ पिछले पांच-छह वर्षों में ही पाठकों के सामने आई हैं. पर जैसा कि मैंने कहा, यह सिर्फ एक स्थूल कारण है. असली कारण है समकालीन हिंदी कविता के पाठकों की अभिरुचि में धीरे-धीरे घटित होने वाला मूलभूत परिवर्तन… पिछले कुछ वर्षों में हमारी सांस्कृतिक चेतना पर पश्चिम का औपनिवेशिक दबाव कम हुआ है, आधुनिकतावाद द्वारा स्थापित तथा प्रस्तावित बहुत से काव्यमूल्य संदिग्ध और अस्वीकार्य लगने लगे हैं और कुल मिलाकर कविता में और किसी हद तक साहित्य की अन्य विधाओं में भी-अपने यथार्थ के मूल स्रोतों से जुड़ने की आकांक्षा प्रबल हुई है. फलतः नगर-केन्द्रित आधुनिक सृजनशीलता और हमारी ग्रामोन्मुख जातीय सृजन-चेतना के बीच का अंतराल कम हुआ है. इसी बदले हुए माहौल में त्रिलोचन की कविता ने अपनी अर्थवत्ता नए सिरे से अर्जित की है और बृहत्तर पाठक-समुदाय का ध्यान अपनी ओर आकृष्ट किया है.’[5]

यहाँ यह देखा जा सकता है कि केदार नाथ सिंह ने त्रिलोचन की कविताओं के पहचान लिए जाने और अधिक प्रासंगिक हो जाने का जो कारण बताते हैं उसमे ‘अपने यथार्थ के मूल स्रोतों से जुड़ने की प्रबल आकांक्षा है’.

अब इसी आलोक में अगर त्रिलोचन की कविताओं को देखा जाय तो हम पाते हैं कि केदार जी जिस यथार्थ के मूल स्रोत की बात कर रहे हैं वह हद से हद तक एक भावुक करुणाजन्य यथार्थ ही है. यह केवल त्रिलोचन की समस्या नहीं है बल्कि सम्पूर्ण प्रगतिशील कविता की ही समस्या है. प्रगतिशील कविता में व्यक्त सामाजिक यथार्थ एक आवरण के साथ आता है.

प्रगतिशील कविता के दौर को यदि हम देखें तो यह वही दौर है जब भारतीय इतिहास सामाजिक और राजनीतिक प्रश्नों पर सबसे ज्यादा मुखर और उथल-पुथल वाला है. यह वही दौर है जब अम्बेडकर भारतीय राजनीति के केंद्र में जाति की समस्या को उठाते हैं. यहाँ तक कि उसी के दबाव में गांधी को भी इन प्रश्नों से जूझना पड़ता है. लेकिन प्रगतिशील कवि जाति की समस्या के ऊपर खुलकर कुछ लिखने से हिचकता है उसका दृष्टिकोण उस समय वैसा ही था जैसा आज के मध्यवर्गीय लोगों का जाति के प्रश्न पर होता है.

यह बात इसलिए यहाँ रखी जा रही है क्योंकि इस प्रश्न पर बात किये बिना यह नहीं समझा जा सकता है कि यथार्थ के किस मूल स्रोत की ओर इशारा किया जा रहा है. जिस धरती काव्य संग्रह की चर्चा हुयी उसमें एक कविता है- ‘छा गए बादल…’ इसमें त्रिलोचन का सपना एक वैकल्पिक समाज का है जिसमें वह कहते हैं-

जिस समाज का तू सपना है/जिस समाज का तू अपना है/मैं भी उस समाज का जन हूँ/ उस समाज के साथ साथ ही / मुझको भी उत्साह मिला है.

अर्थात त्रिलोचन का जुड़ाव यहाँ केवल सपने भर से ही नहीं है बल्कि आवयविक ढंग से उस समाज का होने की घोषणा भी करते हैं. वह जहाँ जन की सक्रियता से उत्साहित होते हैं, वहीं ऐतिहासिक रूप से राजनीतिक और सामाजिक शक्ति संरचना में हाशिये पर ठेल दिए गए लोगों को उत्साहित भी करते हैं और अपवंचित जन की खोयी हुई, सोयी हुई शक्ति का स्मरण भी कराते हैं.

इसीलिए उनकी कविताओं में शक्ति शब्द का खूब प्रयोग मिलता है. यह बात अक्सर आश्चर्य में डालती है कि हिंदी कविता में गाँधी बहुत गहरे तक धंसे मिलते हैं लेकिन सामाजिक विमर्श की धारा को मोड़ने वाले अम्बेडकर का जिक्र करने से मुक्तिबोध जैसे प्रखर दृष्टिवान कवि भी चूक जाते हैं. ऐसे में जिस सामाजिक यथार्थ को प्रगतिशील कवि अपनी कविताओं में व्यक्त करते हैं वह वर्गीय मीमांसा के तले दब जाता है. हालाँकि जब इसी कविता में त्रिलोचन लिखते हैं-

‘साम्राज्य औ’ पूंजीवादी/ लिए हुए अपनी बर्बादी/ जोर आजमाई करते हैं/ आज तोड़ने को उनका मन/ उठकर दलित समाज चला है.’[6]

तो बहुत हद तक वर्गीय मीमांसा का दबाव कम होता दिखाई देता है. शायद इसका कारण यह है कि जिस दौर में यह कविता लिखी गयी है उस दौर में दलित समाज के भीतर कोई खास वर्गीय विभाजन नहीं हो सका था.

इसलिए यह दलित की सम्पूर्ण श्रेणी ही एक वर्ग का प्रतिनिधित्व करने लगती है. ‘धरती’ संग्रह की कविताओं को पढ़ते हुए ऐसा लगता है कि त्रिलोचन प्रगतिशीलता की जगह स्वाधीनता के कवि हैं.

उनकी कविताओं में पुरातन का मोह कुछ हद तक दिखता है लेकिन जैसे ही उनको इस बात का एहसास होने लगता है कि यह पुरातनता नवयुग में बाधा पैदा करेगा वह उसके नाश की कामना करने लगते हैं.

त्रिलोचन की बहुत सारी कविताएँ शक्ति साधना की कविताएँ हैं. उद्द्बोधनपरकता इन कविताओं की खास विशेषता है.

ऐसा लगता है कोई व्यक्ति सोये हुए लोगों को जगा रहा है. यही प्रवृत्ति हमको उत्तर छायावादी कविताओं में प्रमुखता से दिखती है. इसमें कोई संदेह नहीं कि पचास का दशक जागरण के चरमोत्कर्ष का काल है इसीलिए इस परिस्थिति का प्रभाव इनकी कविताओं पर पड़ना स्वाभाविक है. यह अनायास नहीं है कि हर जगह एक नए पौरुष की तलाश है जो वास्तव में स्वाधीनता के साधन की खोज है. इसलिए त्रिलोचन बार-बार पौरुष को ललकारते हुए दिखते हैं-

‘कर नूतन निर्माण दिखा कुछ/ तू अपने पौरुष का करतब/ पराधीनता विविध तोड़कर दिखा/ नयी गति का उपक्रम अब’[7].

कवि लघुमानव के महाप्राणता का बोध कराता चलता है. ऐसा लगता है कवि के मन में किसी बड़े लक्ष्य की तैयारी है, जहाँ सबको लेकर जाना चाहता है.

मुक्तिबोध के काव्य में उद्बोधन की जगह मध्यवर्गीय बौद्धिक का द्वंद्व, तनाव और बेचैनी है जो समाज के लिए कुछ न कर पाने के बोध से उपजी आत्मालोचना का रूप ले लेती है.

वहीं त्रिलोचन के काव्य में आत्मालोचना नहीं बल्कि अकूत आत्मविश्वास है. जो स्थिर होकर सोचने नहीं देता बल्कि लगातार आगे बढ़ जाने का आह्वान करता है.

इसलिए त्रिलोचन की कविता में गति ज्यादा है. इस गति का कारण गीतात्मकता भी हो सकता है. लेकिन उनके भीतर बदलाव को लेकर सिर्फ साहस नहीं समझ और धैर्य भी है-

पथ पर/ चलते रहो निरंतर की सीख देने वाला कवि थक कैसे सकता है. उनकी कविताओं की गति का राज यही है. इतना ही नहीं मुक्तिबोध के यहाँ तो रह-रह कर सांकल बजती है, उसी तरह त्रिलोचन को कोई बार-बार पुकारता है-

‘अभी तुम्हारी शक्ति शेष है/ अभी तुम्हारी साँस शेष है/ अभी तुम्हारा कार्य शेष है/ मत अलसाओ/ मत चुप बैठो/ तुम्हें पुकार रहा है कोई’[8].

यही पुकार ही है जो एक व्यक्ति को कवि और सर्जक बनाती है.

त्रिलोचन की कविताओं में सामाजिक अंतर्द्वंद्व खुलकर नहीं व्यक्त हुआ है. त्रिलोचन के मन में जितना द्वंद्व चलता है उतना कविताओं में व्यक्त नहीं हो पाता है.

इसीलिए उनके यहाँ प्रतीकात्मकता उनकी भावना को व्यक्त करने का प्रमुख माध्यम बन जाती है. इसी कारण वह धरती की बात आकाश के माध्यम से व्यक्त करने लगते हैं.

उनकी कविताओं का अधिकांश तो प्रकृतिपरक है. वह एक तरफ प्रकृति को जीवन की प्रेरणा मानते हैं दूसरी तरफ परिवर्तन का आधार. जब भी सामाजिक गैरबराबरी उनको बेचैन करती है वह सीधे प्रकृति की ओर मुड़ते हैं.

प्रकृति की ओर उनका यह मुड़ना पलायनवादी प्रवृत्ति का नहीं है. बल्कि वह तो ठहराव के खिलाफ़ गति के लिए प्रकृति से ही प्रेरणा लेते हैं. इस मामले में वह स्वछंदतावादी प्रवृति के हैं जो उनको छायावाद से जोड़ देती है. यही कारण है कि उनकी कविताओं का मूल स्वर स्वाधीनतावादी है.

सामाजिक अंतर्द्वंद्व के मामले में कुछ कविताएँ अपवाद जरुर हैं. जैसे ‘नगई महरा’,  और ‘चंपा काले काले अक्षर नहीं चीन्हती’. ये ही दो कविताएँ हैं जिनको आधार बनाकर नामवर सिंह ने दो-दो लेख लिख दिए हैं. त्रिलोचन की कविताओं के बारे में नामवर सिंह की मूल स्थापना यह है कि त्रिलोचन गैर आधुनिक कवि हैं.

‘कविता हर तरह से गैर-आधुनिक, बल्कि प्रति आधुनिक, आधुनिकता-विरोधी. शहर के विरुद्ध गाँव, पैसे के खिलाफ़ इनसानी रिश्ता. किन्तु उस दौर की आधुनिकतावादी कविताओं के साथ रखकर देखें तो प्रयोग और प्रगति के नाम पर लिखी जाने वाली कविताओं से कितनी अलग. हर तरह की अंग्रेजियत के खिलाफ़. भाव में भी और भाषा में भी. यह है ठेठ हिंदी की कविता हिंदी की नई कविता- हिंदी की अपनी परंपरा से निकली हुई. आधुनिक लेकिन भारतीय.’[9]

इस स्थापना की अगर जाँच की जाय तो यह देखा जाना चाहिए कि चंपा कविता कितनी गैर आधुनिक, प्रति आधुनिक और आधुनिकता विरोधी है.

भाषा और भाव के स्तर पर कविता चाहे जितनी भी खालिस भारतीय परंपरा की हो लेकिन इस कविता के भीतर त्रिलोचन का वह दुःख समाया हुआ है, जिसमें देश की तमाम चम्पाओं को पढने-लिखने का अवसर नहीं मिल पाया है.

यह बोध ही उनको आधुनिक कवि बनाता है. अक्षर न पहचान पाने का दुःख दरअसल दुःख के कारणों को न पहचान पाने का दुःख है और यही बोध इस कविता को मानवीय संवेदना से भर देता है.

इस कविता में त्रिलोचन चंपा की जाति का स्पष्ट उल्लेख सायास करते दिखाई देते हैं. इस कारण से यह कविता बहुत महत्वपूर्ण हो जाती है.

चम्पा ग्वाला नहीं होती तो वह काले-काले अक्षर पहचान सकती थी. हालाँकि अन्य समाजों में भी स्त्री शिक्षा का स्तर कोई उल्लेखनीय नहीं था. इसलिए यह बहुत दूर का इशारा है. यही चीज प्रगतिशील कविता के बाकी परिदृश्य से गायब है.

जबकि त्रिलोचन के यहाँ सामाजिक अंतर्द्वंद्व को पकड़ने की बेचैनी दिखती है. लेकिन यह बेचैनी संवेदनात्मक आवेग के बावजूद भी गहरी नहीं हो पाती.

उनकी किसान चेतना उन पर आपना जादू चला ही देती है. यह उनकी सीमा भी बनने लगती है. उनकी कविताओं में पाठक को प्रेरणा के स्रोत तलाशने पड़ते हैं. इस मामले में नागार्जुन बहुत आगे निकल जाते हैं क्योंकि वह अपनी किसान चेतना से मुक्त हो जाते हैं.

सन्दर्भ-

[1] नामवर सिंह : कविता की जमीन और जमीन की कविता (संपा. आशीष त्रिपाठी), राजकमल प्रकाशन, पृ.183

[2] रेवती रमण : त्रिलोचन , साहित्य अकादमी , दिल्ली पृ. 18

 

[3]  वही पृ.19

[4] वही पृ.19

[5] त्रिलोचन : प्रतिनिधि कविताएँ , (संपा. केदार नाथ सिंह) प्रथम संस्करण , 1985 की भूमिका

[6]  धरती: त्रिलोचन ,

[7]  धरती: त्रिलोचन , 27

[8]  त्रिलोचन: धरती, 43

[9] नामवर सिंह : कविता की जमीन और जमीन की कविता ( संपा. आशीष त्रिपाठी) पृ. 185-186

(‘कथा’ अंक 22 से साभार)

Fearlessly expressing peoples opinion