2019 में बिट्वीन द लाइन्स से लेस्ली केर्न की किताब ‘ फ़ेमिनिस्ट सिटी: ए फ़ील्ड गाइड ’ का प्रकाशन हुआ । लेखिका ने किताब की शुरुआत 1980-81 में लंदन के एक चौराहे की तस्वीर से की है जिसमें वे कबूतरों को दाना खिला रही हैं । उस जमाने में लंदन में ऐसा करने का रिवाज था । अब कोई ऐसा नहीं करता। वे टोरोन्टो की रहने वाली थीं। बचपन में नगर के उनके अनुभव अपने भाई से अलग थे और इसकी एकमात्र वजह उन दोनों में लैंगिक अंतर था ।
आधुनिक शाहर में स्त्री को हमेशा समस्या की तरह देखा गया है। औद्योगिक क्रांति के समय शहरों का विकास तीव्र गति से हुआ जिनमें तमाम वर्गों के लोग देहात से उखड़कर चले आये थे। उस समय की विक्टोरियाई सामाजिक मान्यता के मुताबिक ऐसे में गोरी संभ्रान्त स्त्रियों की शुद्धता की रक्षा के लिए वर्ग आधारित बंदिशों का निर्माण किया गया। इन बंदिशों पर शहरी वातावरण के चलते निरंतर टूटने का खतरा बना रहता था। इन हालात में स्त्रियों के समक्ष खुद को जनता का हिस्सा समझने का अवसर पैदा हुआ। वे यौन हिंसा और सुरक्षा संबंधी बहसों में खुलकर भाग लेने लगीं।
बहरहाल संक्रमण के इस दौर में इस बात का खतरा लगातार बना रहता था कि रास्ते में किसी भी संभ्रान्त स्त्री को सामान्य स्त्री समझ लिया जाये और उसके साथ अपमानजनक बरताव हो। इसके चलते उस जमाने के बहुतेरे लोग शहरी जीवन को ही सभ्यता के लिए खतरा मानते थे। इससे हुआ यह कि जैसे-जैसे स्त्रियों की आजादी का विस्तार हुआ वैसे-वैसे सेक्स से लेकर साइकिल तक सब कुछ नैतिक पूर्वाग्रह का शिकार होता गया। प्रतिष्ठित लोग शहर छोड़कर देहात और उपनगरों को अपने लिए सुरक्षित समझकर वहां बसने लगे। दूसरी ओर कुछ ऐसी स्त्रियों की आमद शहरों में हुई थी जिन्हें जीवन यापन के लिए मजदूरी करनी थी। मजदूर वर्ग में उनकी शिरकत से थोड़ी आजादी तो हासिल हुई ही, घरेलू जिम्मेदारियों के लिए समय कम मिलने लगा। नतीजा कि मजदूर वर्ग के नैतिक पतन के लिए इन हालात को दोष दिया गया। यह नैतिक पतन उनके सार्वजनिक और निजी जीवन में दुर्व्यवहार के रूप में अभिव्यक्त होना शुरू हुआ। सबसे भारी समस्या तो स्वाभाविक तौर पर वेश्यावृत्ति थी। इससे परिवार की बरबादी और नतीजतन समाज की बुनियाद को खतरा पैदा हुआ। बहुतेरे लोगों ने इस समस्या का समाधान वेश्याओं को उपनिवेशों में भेजने का सुझाया।
उपनिवेशों में जो अंग्रेज गये थे उन्हें स्थानीय औरतों के सम्पर्क से बचाने की चिंता इस उपाय के मूल में थी। इसलिए उपनिवेशों में शहरों से स्थानीय लोगों को उजाड़ा गया । इस तरह वहां जा बसी गोरी स्त्रियों की शुचिता को बचा लिया जाना था। देसी औरतों को शहरों में इस बदलाव के लिए खतरनाक माना गया। इसी मकसद से तमाम भौगोलिक और कानूनी कदम उठाये गये । स्थानीय स्त्रियों का कलंकीकरण नगरीकरण की परिजोजना का अंग था ।
उपनिवेशों में आज तक जिस तरह की हिंसा होती है उससे इस नीति और आचरण की निरंतरता का पता चलता है। आज भी शहरों में खास किस्म के सुधार हेतु स्त्री शरीर को नियंत्रित करने की कोशिशों का अंत नहीं हुआ है। हाल हाल तक अश्वेत या देसी स्त्रियों की जबरन नसबंदी देखी जाती है। स्त्री के शरीर को अब भी समस्या के रूप में देखा जा रहा है। शहरों में सामाजिक सरोकार के केंद्र में स्त्री शरीर बना हुआ है। यह सही बात है कि शुचिता और स्वच्छता संबंधी विक्टोरियाई भय कुछ कम हुए हैं लेकिन आज भी शहर में स्त्री को तमाम किस्म की बाधाओं का सामना करना पड़ता है। तमाम समाजार्थिक और प्रतीकात्मक किस्म की ये बाधाएं उनके दैनन्दिन जीवन को आकार देती हैं। इनमें से अधिकतर बाधाओं को पुरुष देख नहीं पाते। कारण कि इनका सामना उन्हें करना नहीं पड़ता। सभी जानते हैं कि शहरों के मामलों में फैसले लेनेवाले लोग मुख्य रूप से पुरुष हैं और शहरी अर्थनीति से लेकर गृह निर्माण तक, स्कूलों की इमारत से लेकर सार्वजनिक यातायात तक, पुलिस के इंतजाम से लेकर बर्फ हटाने तक के फैसले बिना इस जानकारी के किये जा रहे हैं कि इनसे स्त्रियों पर क्या असर पड़ता है। स्त्री के शरीर को कलंकित करने के उपाय बहुतेरे हैं। अश्वेत स्त्रियों को सरकारी इमदाद का उपभोग करने में माहिर बताया जाता है। मोटापा विरोधी अभियानों में भी माताओं को निशाना बनाया जाता है । संक्षेप में कहें तो स्त्री शरीर को अब भी शहर की समस्याओं की जड़ माना जाता है।
नगरों के कुलीनीकरण के वकील अश्वेत माताओं और आप्रवासी स्त्रियों पर अपराधीकरण को बढ़ावा देने का आरोप लगाते हैं । इस तरह आधुनिक शहर भी पुरुषों की पारम्परिक भूमिका के पुनरुत्पादन और पुरुषों के ही अनुभव को सामान्य बना देने के उपकरण बन गये हैं। ये शहर स्त्री के लिए तरह तरह की बाधाएं खड़ी करते हैं और उनके अनुभवों की लगातार अनदेखी की जाती है । इसे ही लेखिका ने शहर पर पुरुष प्रभुत्व का नाम दिया है । लेखिका ने उदाहरण के बतौर टोरन्टो विश्वविद्यालय के पूर्व विद्यार्थियों की शहर पर केंद्रित एक पत्रिका का जिक्र किया है । इसमें नगर की बुनियादी जरूरतों में सस्ता जीवन, सेवाओं तक पहुंच, टिकाऊपन और मनोरंजन को गिनाया गया था । इन सभी जरूरी मुद्दों पर लेख अधेड़ गोरे पुरुषों ने ही लिखे थे। लेखों में जिन विशेषज्ञों का हवाला दिया गया था वे सभी पुरुष थे। लेखन के क्षेत्र में पुरुष प्राधान्य को बरकरार रखने का यह सुपरिचित तरीका है। गोरा पुरुष अपने लेख में गोरे पुरुष का ही हवाला देगा। बहुत लम्बे समय से यह सिलसिला चलता आ रहा है और समय बीतने के साथ इसमें कोई कमी आने की जगह बढ़ोत्तरी ही नजर आ रही है। इस पहलू को उजागर करने में लेखिका ने खुद को पहला नारीवादी मानने से इनकार किया है । लम्बे समय से औरतें शहरी जीवन के बारे में लिख रही हैं, शहरी स्त्रियों की जरूरतों की वकालत कर रही हैं तथा घर, शहर और पास पड़ोस की अपनी योजना भी प्रस्तुत कर रही हैं । नारीवादी वास्तुकारों, नगर निर्माताओं और भूगोलवेत्ताओं ने स्त्री अनुभवों के बारे में श्रमसाध्य शोध करके इस मामले में गम्भीर हस्तक्षेप किया है । कार्यकर्ताओं ने नगर योजना, पुलिस व्यवस्था तथा स्त्रियों की जरूरतों के मुताबिक सेवाओं के लिए कठिन संघर्ष किये हैं फिर भी रात में कोई स्त्री सड़क पर भयभीत हो जाती है अगर कोई अपरिचित पुरुष उसके पीछे पीछे आ रहा हो । जिन भी नारीवादी चिंतकों का जिक्र लेखिका ने किया है उनके चिंतन और लेखन को इस किताब की आधारभूत सामग्री बनाया गया है ।
लेखिका ने जब पहली बार नारीवादी भूगोल की बाबत सुना तो नारीवादी सिद्धांतों का नया आयाम उनके सामने खुल गया । सत्तातंत्र की कार्यपद्धति को उन्होंने नयी निगाह से देखना शुरू किया और शहरी जीवन के अपने अनुभवों को स्त्री की समझ से विश्लेषित करना शुरू किया । उसके बाद शहर उनके लिए नया हो गया । बाद में उन्होंने खुद को नारीवादी भूगोलवेत्ता के बतौर समझा । किताब में सिद्धांत की जगह उन्होंने सबसे करीबी चीज के विश्लेषण से शुरुआत की है । स्त्री के लिए सबसे करीबी चीज उसका शरीर होता है । स्त्री शरीर को केंद्र में रखकर उन्होंने औरतों के सवाल ही पूछे हैं । उनके ये सारे सवाल कोई अमूर्त नहीं, बल्कि ठोस व्यावहारिक दैनन्दिन के अनुभव से उपजे हैं। शहरी जीवन ने स्त्री के सामने बहुतेरे सवाल उठाये जिनका उत्तर अभी नहीं मिला है । स्त्री के शहरी अनुभव बहुत गहरे में लैंगिक आयाम लिये हुए होते हैं । उसकी लैंगिक पहचान से ही तय होता है कि वह शहर में कैसे चलेगी- फिरेगी तथा कौन सी चीजें उसे सुलभ होंगी । यह लैंगिकता उसके शरीर तक ही महदूद नहीं होती लेकिन उसके रोज ब रोज के अनुभव इस शरीर पर आधारित होते हैं। इससे उसकी पहचान बनती है। इसके कारण ही उसे दूरी अधिक होने के बावजूद बहुधा सुरक्षित राह अपनानी पड़ती है। विरोध प्रदर्शनों में भागीदारी की इच्छा के बावजूद उसे गिरफ़्तार होने पर संतान की देखरेख की फ़िक्र शामिल होने से रोक देती है। ये सवाल लेखिका को निजी नहीं लगते। इन्हीं छोटे महसूस होनेवाले उपायों से शहर स्त्री को उसकी जगह बताता है ।
संयोग कि किताब को लिखते समय ही मीटू आंदोलन फूट पड़ा। तमाम स्त्री और पुरुष अपने साथ हुई यौन हिंसा को बताने के लिए सामने आये। यह यौन उत्पीड़न और हिंसा कार्यस्थल, खेल, राजनीति और शिक्षा के क्षेत्र में हुई थी। इस विस्फोट के पहले मीडिया, संस्थान और नीति निर्माण के हलकों में इस उत्पीड़न की बात भी नहीं होती थी। हालांकि इस हिंसा के शिकारों और भेद खोलने वालों को बदनाम करने के मामले में कोई खास सुधार तो नहीं हुआ है लेकिन सबूतों के भारी पहाड़ ने नारीद्वेषी सांस्थानिक रुख में बदलाव की जरूरत पैदा कर दी है। यौन हिंसा के सभी शिकारों ने बताया कि उनके साथ घटित शारीरिक और मानसिक हिंसा ने उनके जीवन को बदल डाला और इसके तकलीफदेह असरात वे अब भी झेलती हैं। उनकी कहानियों से शहर में स्त्री को होनेवाले भय की समता महसूस होती है । हिंसा का निरंतर खतरा तथा रोज रोज का उत्पीड़न शहरों में रहनेवाली स्त्री की चाल और चेतना को रूपायित करता है। कार्यस्थल पर होनेवाला उत्पीड़न स्त्रियों को ऊंचे पदों पर पहुंचने से रोकता है और विज्ञान, राजनीति, कला और संस्कृति के क्षेत्र में उनके योगदान को ओझल कर देता है । इसी तरह शहरी हिंसा का खौफ़ भी उनकी पसंद, पहुंच, ताकत और आर्थिक सम्भावनाओं को सीमित कर देता है । जिस तरह कानून उत्पीड़क को बचाता है और उत्पीड़ित को परेशान करता है उसी तरह शहर का माहौल पितृसत्ताक परिवार को, श्रम बाजार के लैंगिक भेदभाव को और स्त्री पुरुष के पारम्परिक कार्य विभाजन को मजबूत बनाता है । पुराने बंधनों के कुछ ढीला होने के बावजूद शहरों में निर्मित सामाजिक कायदों ने स्त्रियों और हाशियों के अन्य समूहों के जीवन को प्रभावित किया है ।
मीटू के दौरान सामने आयी कहानियों ने बलात्कार के झूठे तर्कों की असलियत जाहिर कर दी । समाज में ऐसे झूठे विचार और गलत धारणाओं की व्याप्ति अब भी है जो यौन उत्पीड़न और हिंसा की जिम्मेदारी उसके शिकारों के सिर पर मढ़ देते हैं । इनसे ही बलात्कार की संस्कृति का जन्म होता है । इस हिंसा के शिकारों को दो सवालों का जवाब अक्सर देना पड़ता है । एक कि उसने क्या पहना था और दूसरे कि उसने शिकायत क्यों नहीं दर्ज करायी । इनके इर्द गिर्द सुरक्षा और खतरे का एक मानसिक भूगोल भी निर्मित होता है जो प्रत्येक स्त्री के दिमाग में हमेशा मौजूद रहता है । जगह और समय तथा रास्ते के बारे में सही और गलत की व्यवस्था स्त्री के लिए जानना बेहद जरूरी होता है । इन सब संकेतों के जरिए स्त्री को बता दिया जाता है कि शहर उसके लिए नहीं है ।
लेखिका ने किसी भी स्त्री की तरह सीख लिया कि शहर का खतरा, रोमांच, संस्कृति और आकर्षण जितना कल्पना में होता है उतना ही ठोस होता है । कल्पना का शहर अनुभव, मीडिया, कला, अफवाह, भय और आकांक्षा से निर्मित होता है । शहर का आकर्षण कुछ भी घटित होने की सम्भावना से पैदा होता है और यही उसकी ऊर्जा का भी स्रोत होता है । आजादी और भय, उत्तेजना और खतरा, अवसर और सावधानी के इसी मिश्रण के चलते शहरों के बारे में नारीवादियों ने इतना सोचा और लिखा है । नारीवादी कार्यकर्ताओं ने शहरी जीवन पर अक्सर दावा ठोंका है । स्त्री के विरुद्ध लक्षित सार्वजनिक हिंसा के विरोध में स्त्रियों ने यूरोप और अमेरिका के शहरों में रात्रिकालीन जीवन पर अपना हक जताया है । शहरी जीवन में समायी हिंसा के बावजूद स्त्रियों ने शहरी जीवन का मजा लिया है । शहर उनके लायक नहीं होते फिर भी शहरों में उन्होंने अपने लिए जगह बनायी है ।
विक्टोरियाई जमाने में भी कुछ स्त्रियों ने सार्वजनिक व्यक्तित्व के रूप में अपनी मौजूदगी दर्ज करायी । खतरों को दरकिनार किया जा सकता है । शहरों ने स्त्रियों के समक्ष जो अवसर पैदा किये वे कस्बे या देहात में अनसुने थे । काम करने का मौका हो या संकीर्ण पारम्परिक भूमिका को तोड़ देने की आजादी हो या फिर वैवाहिक और पारिवारिक जीवन से परहेज करने का अवसर हो, सार्वजनिक जीवन में हस्तक्षेप करने की सम्भावना हो या सामाजिक और राजनीतिक आदर्श को निजी जीवन में साकार करने की ताकत हो या फिर दोस्ती विकसित करने का सपना हो- शहरों की स्त्रियों के लिए ये सभी विकल्प किसी छोटी जगह के मुकाबले बहुत आसानी से खुल जाते हैं । शहर की मनोवैज्ञानिक खूबियां भी कुछ कम महत्व की नहीं होतीं । गुमनामी, ऊर्जा, स्वत:स्फूर्तता, अप्रत्याशित की सम्भावना और खतरा भी मजेदार अनुभव का स्रोत बन जाता है । लेखिका यह तो नहीं कहतीं कि स्त्रियों को भयभीत रहना पसंद है लेकिन शहरी जीवन का आनंद उसमें निहित अज्ञात को जान लेने के साहस में मौजूद होता है । असल में शहरी जीवन की अव्यवस्थाजन्य उत्तेजना आसान हो जाती है जब हमारे पास वापस लौट आने की जगह हो । वैसे भी अपराध का भय औरतों को घर के भीतर कैद रखने में सक्षम नहीं साबित हुआ है । किताब में शहर के बुरे और अच्छे दोनों ही पहलुओं पर विचार किया गया है । इसके जरिए शहरों के बारे में हमारी उपलब्ध जानकारी को हिलाया डुलाया गया है ताकि हम शहर के सामाजिक संबंधों को नयी नजर से देख सकें । लेखिका को उम्मीद है कि इससे नारीवादी शहर बनाने की रचनात्मक सोच की जगह बनेगी । नारीवादी भूगोल का संवाद शहर में जारी जीवन यापन के वास्तविक संघर्ष से होगा ।
नारीवादी भूगोल सुनने में विचित्र लगता है अगर हम भूगोल को केवल स्कूली दिनों में नक्शे बनाने तक सीमित समझते हैं । लेखिका को लगता है कि नारीवादी विश्लेषण में भूगोल की आमद से उसके कई नये आयाम खुलेंगे । भूगोल का अर्थ हमारे मानव निर्मित और प्राकृतिक परिवेश के साथ मनुष्य का रिश्ता है । इस नजरिये से देखने पर समझ आयेगा कि स्त्री पुरुष के बीच भेद जमीनी स्तर पर कैसे लागू होता है । स्त्री की दोयम दर्जे की हैसियत केवल धारणाओं के सहारे नहीं बनायी जाती । उसके लिए बहिष्करण का ठोस और वास्तविक भूगोल निर्मित किया जाता है । पुरुष की सत्ता और विशेषाधिकार को बरकरार रखने के लिए स्त्रियों की हदबंदी जरूरी होती है । सही बात यह है कि शहरों में पितृसत्ता पत्थर की लकीर हो जाती है । ईंट पत्थर से बनी इमारतें उन्हें बनाने वाले समाज को प्रतिबिम्बित करती हैं । टोरन्टो में हवा के असरात के बारे में जो निर्देश जारी किये गये उसमें सामान्य मनुष्य की परिभाषा बालिग पुरुष की मानी गयी । लिंग संबंधी पूर्वाग्रह इमारतों की ऊंचाई और स्थिति तथा हवा के निकास की टनेल को भी निर्धारित करती है ।
एक बार बन जाने के बाद यही शहर सामाजिक शक्ति संबंधों और विषमता का पुनरुत्पादन करने लगते हैं । उसकी इमारतों का रूपाकार व्यक्तियों और समूहों को उपलब्ध सम्भावनाओं को तय करना शुरू कर देता है । उनसे सामान्य और सही तथा बेढंगा और व्यर्थ का निर्धारण होने लगता है । इसलिए ही सामाजिक बदलाव के बारे में सोचते हुए शहर जैसी भौतिक जगहों का भी ध्यान रखना चाहिए ।