आपको एलन कुर्दी याद है। नाम भूल गए होंगे शायद, लेकिन उसकी सूरत और वह हादसा कोई कैसे भूल सकता है। 2 सितंबर, 2015 की सुबह तुर्की के समंदर किनारे लाल रंग की टी-शर्ट में तीन साल का एक बच्चा रेत पर उल्टे मुंह पड़ा हुआ था। अब तक की इस दुनिया की यह क्रूरतम तस्वीर थी, जो खींच ली गई थी। ऐसी लाखों तस्वीरें हैं, जो खींची नहीं गईं और अच्छा है कि एक भरम बना हुआ है कि एक दुनिया अभी इतनी नाकाबिल-ए-बर्दाश्त नहीं हुई कि जहां खेल के मैदानों से बच्चे गायब हो चुके हैं, कि जहां औरतें अब हंसती नहीं हैं। कुरान में जिस कयामत का जिक्र है, पता नहीं वह कभी आएगी या नहीं, लेकिन एक कयामत उस रोज तुर्की के समंदर में आई थी और इसके अगले रोज पूरी दुनिया के अखबारों में उसका जिक्र था। दुनिया के सबसे अशांत मुल्कों में अब सीरिया भी शुमार है। पिछले एक दशक से सीरिया गृह युद्ध से जूझ रहा है। लोग यहां से यूरोप भाग जाना चाहते हैं। उस समय के दुनियाभर के अखबारों में एलन के पिता अब्दुल्ला कुर्दी के बयान छपे थे, जिनमें उन्होंने बताया था कि दो बार उन्होंने दलालों को पैसे दिए थे कि उनके परिवार को ग्रीस तक पहुंचा दिया जाए। जब कैसे भी संभव न हो सका तो कुछ लोगों ने मिलकर एक बोट को पैसे दिए और अब्दुल्ला अपने दो बेटों गालिब, एलन और पत्नी के साथ रात के अंधेरे में ग्रीस के लिए निकल पड़े थे। ओवरलोड बोट रास्ते में ही डूबने लगी और अब्दुल्ला ने अपना परिवार खो दिया। इनमें से एलन की लाश तुर्की के किनारे जा लगी थी।
ग्रीस या यूरोप के दूसरे देशों में अवैध रूप से जाने वाली ये कोई पहली और आखिरी बोट नहीं थी। सीरिया और बदहाली से जूझ रहे दूसरे देशों के लाखों-लाख लोग समंदर और जमीन के रास्ते से यूरोप और दूसरे मुल्कों में पहुंच रहे हैं। इससे परेशान होकर यूरोपियन यूनियन ने सीमा तय कर दी कि इससे ज्यादा शरणार्थियों को वे अपने यहां पनाह नहीं देंगे। लेकिन जब दुनिया के सामने एलन की तस्वीर पहुंची तो यूरोप ने शरणार्थियों के लिए नियमों में कुछ ढील दे दी। उस साल अकेले तुर्की ने 20 लाख लोगों को अपने यहां पनाह दी। इनमें से ज्यादातर सीरियन थे। जो सीरियन यूरोप नहीं पहुंच पाते, वे अपने पड़ोसी अरब देश लेबनान और तुर्की पहुंच जाते हैं।
लेबनान की आबादी करीब 68 लाख है, जिनमें करीब 17 लाख शरणार्थी हैं। इनमें से करीब 15 लाख सीरिया से आए हुए हैं। ऐसे ही एक शरणार्थी बच्चे के जीवन पर लेबनीज फिल्मकार नैडिन लैबकी ने एक अरबी फिल्म बनाई है- ‘कैफ़रनॉम’…
यह एक 12 साल के ऐसे बच्चे की कहानी है, जो अपने मां-बाप के खिलाफ मुकदमा दायर कर देता है कि उसे पैदा क्यों किया गया। एक ऐसे बच्चे की कहानी जो अपनी छोटी बहन को लेकर तुर्की भाग जाना चाहता है। उसने सुन रखा है कि तुर्की एक अच्छा देश है और वहां बच्चे पढ़ और खेल सकते हैं। लेकिन हालात उसे अपराधी बना देते हैं। उसे 5 साल कैद की सजा हुई है।
2018 में आई इस फिल्म ने अरब दुनिया में तहलका मचा दिया था। इस फिल्म को अरबी सिनेमा की अब तक की सबसे बेहतरीन फिल्मों में शुमार किया जाता है। लैबकी ऐसी पहली अरब महिला फिल्मकार हैं, जिनकी फिल्म को ऑस्कर नॉमिनेशन मिला है। लैबकी फिल्मकार के अलावा एक अदाकारा भी हैं। कैपरनॉम में भी लैबकी ने जेन के वकील की भूमिका निभाई है। अरब दुनिया में उनकी पहचान सोशल ऐक्टिविस्ट और फेमिनिस्ट के तौर पर भी है। वे ईरानी फिल्मकार माजिद मजीदी की तरह प्रयोगधर्मी हैं। इस फिल्म में भी लैबकी ने ऐसे कई प्रयोग किए हैं, जो बहुत साहसिक हैं। शरणार्थी की भूमिका निभा रहा इस फिल्म का मुख्य किरदार एक 12 साल का बच्चा जेन अल हज है, जो वास्तव में एक शरणार्थी है और जिसका वास्तविक नाम भी जेन अल रफीअ है। फिल्म के दूसरे बच्चे भी शरणार्थी हैं। इन सबको फुटपाथ से उठाकर लैबकी ने ऐक्टर बना दिया। इस फिल्म की कहानी तीन बच्चों के आसपास घूमती है। जेन, जेन की छोटी बहन सहर और एक इथोपियन शरणार्थी महिला राहिल उर्फ टिगेस्ट (योरदानोस शिफेरॉ) का एक-डेढ़ साल का बेटा योनास। टिगेस्ट भी एक वास्तविक शरणार्थी महिला है, जिसे जेल से छुड़ाकर फिल्म में लिया गया है।
दुनिया एक मुसलसल उदासी है
जहां बच्चों के चेहरों से मुस्कान गायब हो जाए, वहां दुनिया एक मुसलसल उदासी के सिवा कुछ नहीं। इस पूरी फिल्म में जेन शायद आखिरी सीन में मुस्कराता है, क्योंकि तब उससे मुस्कराने को कहा गया है। वरना तो उसका चेहरा सारे दुखों और एक सामूहिक गुस्से का प्रतीक है। वह पढ़ना चाहता था, खेलना चाहता था, लेकिन हर रोज वह अपनी पीठ पर सूरज लेकर घर से निकलता है तो रात कांधों पर चांद का बोझ लेकर ही लौटता है। उसका रास्ता कांटों से भरा है। वह सात भाई-बहनों और मां-बाप के साथ एक छोटे-से अंधियारे घर में रहता है, जहां सभी लोग ठीक से सांस लें तो एक-दूसरे की गंध ही महसूस कर सकेंगे। वह सड़क पर जूस बनाकर बेचता है, लोगों के घरों में गैस सिलिंडर पहुंचाता है और नशे का कारोबार भी करता है। एक बच्चा जो अपराधी नहीं है, लेकिन हालात ने उसे कुछ वैसा बना दिया है। फिल्म के शुरू में दिखाया गया है कि जेन दवाई का एक पर्चा लेकर मेडिकल स्टोर पर जाता है और ट्रेमाडोल गोलियां मांगता है। वह बताता है कि उसके पिता बहुत बीमार हैं और यह दवा जरूरी है। फिर वह दवा की कई दुकानों पर जाता है और बहुत सारी गोलियां लेकर घर लौटता था। अगले सीन में दिखाया जाता है कि जेन की मां एक बड़े बर्तन में गोलियों को घोल देती है और कुछ कपड़ों को उस पानी में भिगोकर सुखा लेती है। ये सूखे हुए कपड़े जेन जेल में ले जाता है और कैदियों को बेच देता है। कैदी इन कपड़ों में लगे ड्रग्स को पानी में घोलते हैं और नशा करते हैं। लेकिन जेन ऐसा है नहीं। फिल्म के अगले ही सीन में पता चलता है कि वह बहुत जिम्मेदार और प्यारा लड़का है। यह फिल्म उस धारणा को भी तोड़ती है, जो बताती है कि आपराधिक माहौल में पैदा होने वाले बच्चे अपराधी बनते हैं। याद कीजिए 1951 में आई राजकपूर की फिल्म ‘आवारा।’ आवारा में कहा गया था कि एक शरीफ आदमी का बेटा शरीफ और डाकू का बेटा डाकू बनता है। इस धारणा को तोड़ने के लिए जज (पृथ्वीराज कपूर) के बेटे को एक डाकू उठा ले जाता है। हालांकि तब भी वह डाकू नहीं बनता और कहीं न कहीं एक क्लास की भावना मजबूत होती है। ‘आवारा’ नेहरूबियन सोसलिज्म को पेश करने वाली एक बड़ी और जरूरी फिल्म थी, लेकिन परोक्ष तौर पर रक्त शुद्धता का मामला इसमें चला ही आता है। गुलाम भारत में अंग्रेजों ने घुमंतू जातियों को जरायमपेशा कहा था और यह कानून आजाद भारत में अब तक यूं चला आता है कि कहीं चोरियां होती हैं तो पुलिस सबसे पहले झुग्गी-झोपड़ी में रह रहे लोगों को जरायमपेशा समझकर उठाती है। बहरहाल, ‘कैफ़रनॉम’ सिर्फ इस धारणा को तोड़ती है, बल्कि जेंडर सेंसिटिविटी को भी बहुत मजबूती से दिखाती है। हालांकि आवारा की तुलना कैपरनॉम से करना इसलिए उचित नहीं है, क्योंकि दोनों के समय में 67 साल का फासला है।
एक लड़की की कीमत एक मुर्गी के बराबर
जेन अपनी छोटी बहन को तुर्की इसलिए ले जाना चाहता है, क्योंकि 11 साल की उसकी बहन को पहली बार पीरियड्स आए हैं और उसे पता है कि अब उसकी शादी कर दी जाएगी। वह बहन को सार्वजनिक शौचालय ले जाता है और वहां उसकी नेकर से खून साफ करके अपनी बनियान से उसके लिए पेड बनाता है, ताकि उसकी मां को पता न चल जाए कि वह पीरियड से हो गई है। दरअसल जेन का परिवार जिस घर में रहता है, वह एक लेबनीज दुकानदार असद ने दिया हुआ है और जेन की मां ने असद से वादा किया हुआ है कि जब सहर बड़ी हो जाएगी (पीरियड्स आने पर), तब वह उससे उसकी शादी करा देगी। सहर दुनियादारी नहीं समझती और उसे भी असर से शादी करने में कोई ऐतराज नहीं है, लेकिन जेन नहीं चाहता कि वह एक घर में कैद हो जाए और बच्चे पैदा करने की मशीन बन जाए। जेन उसे ऐसे समझाता है, जैसे कोई बुजुर्ग समझा रहा हो। वह कहता है कि असद तुमको चूहों से भरे कमरे में बंद कर देगा और खिड़की की सांकल चढ़ा देगा। तुमने देखा होगा कि उसके कान पर चूहे ने काटा हुआ है।
जेन की तमाम कोशिशें नाकाम होती हैं। अगले ही दिन एक मुर्गी के बदले सहर की शादी तय हो जाती है। इसके बावजूद जेन अपनी कोशिशें जारी रखता है। वह सहर को लेकर तुर्की जाना चाहता है, लेकिन इससे पहले ही सहर असद को सौंप दी जाती है। यहां जेन की बेबसी, उसका गुस्सा और उसकी नफरत भी दर्शकों के सीने में ऐसे धंस जाती है, जैसे धीरे-धीरे बर्फ जम रही हो। सिनेमा के इस हिस्से में जेन के मां-बाप किसी कीड़े की तरह जान पड़ते हैं। इसके बाद की कहानी यह है कि जेन घर छोड़कर चला जाता है। वह एक इथोपियन शरणार्थी राहिल और उसके एक-डेढ़ साल के बच्चे योहान के साथ रहने लगता है। राहिल की भी एक कहानी है। उसका बॉयफ्रेंड उसे छोड़कर चला जाता है और बेटे की जिम्मेदारी राहिल के पास आ जाती है। उसके पास लेबनान में रहने के लिए कागजात नहीं हैं। कागजात बनाने के लिए एक दलाल राहिल से जितनी रकम मांग रहा था, वह उसी को कमाने में लगी हुई है। लेकिन इस सबके बीच राहिल को जेल हो जाती है। इसके बाद कहानी में दो बच्चे हैं। एक बारह साल का और एक करीब डेढ़ साल का। सिनेमा का यह हिस्सा दर्शकों का सीना छलनी कर देगा। इस हिस्से में हम देखते हैं कि जेन पिता की भूमिका में आ जाता है और वह योहान के लिए खाने के इंतजाम में भटकता रहता है। फुटपाथ के बगल में जहां दोनों बैठे हैं, लगता है जैसे कारें उनके ऊपर से गुजर रही हैं। यहां दिल जोरों से धड़कता भी है और रोता भी है। जेन को लगता है कि अब योहान की मां लौटेगी नहीं तो वह योहान को लेकर तुर्की या स्वीडन चला जाना चाहता है। लेकिन एक मजबूरी के चलते वह योहान को बेच देता है। दर्शक इस बात से खीझ भी सकते हैं और उदास भी होते हैं कि जेन का स्ट्रगल कम ही नहीं होता। वह लगातार बढ़ता जाता है। दर्शकों को जब लगता है कि जेन अब इस चंगुल से निकल जाएगा और वह अपने सपनों के देश जा सकेगा, तभी कुछ ऐसे हालात बनते हैं कि जेन को पुलिस पकड़ लेती है और उसे 5 साल कैद की सजा मिलती है। हालांकि जेल से ही उसे आगे की उम्मीद बंधती है। यहीं से वह अपने मां-बाप पर केस दर्ज करता है। हम देखते हैं कि अदालत में जेन के मां-बाप हैं, असद है और राहिल भी है। सहर की मौत हो चुकी है। जज जेन से पूछता है कि तुमने अपने मां-बाप पर केस क्यों दर्ज किया। जेन कहता है कि इन्होंने मुझे पैदा किया इसलिए। जज पूछता है कि तुम क्या चाहते हो। वह कहता है कि मैं चाहता हूं कि मेरी मां अब कभी किसी बच्चे को जन्म न दे। जब वह यह बात कह रहा था, उसकी मां आठवीं बार प्रेग्नेंट थी। जज जेन से, उसके पिता से, मां से, असद से और राहिल से बहुत से सवाल पूछता है, लेकिन जिंदगी है कि हर सिलेबस से बाहर है। जेन का पिता एक नाकारा इंसान है, बावजूद इसके उप पर गुस्सा नहीं आता। उसने अपनी 11 साल की बेटी की शादी सिर्फ इसलिए कर दी क्योंकि वह कभी भी बेड पर नहीं सोई थी और उसने कभी टेलीविजन नहीं देखा था। शादी के बाद उसे ये दोनों चीजें मिल जानी थीं। बस इतनी-सी ख्वाहिश… दुनिया के एक बड़े हिस्से के पास देखने के लिए ख्वाब भी नहीं हैं।