समकालीन जनमत
कविता

आलोक की कविताएँ यथार्थ के धरातल पर उम्मीद के फूल हैं

अच्युतानंद मिश्र


 

कविता लिखना, दुनिया को देखने जानने और समझने का एक संजीदा और जरूरी काम है। ऐसे में किसी युवा  कवि से यह उम्मीद बनती है कि वह हमारे देखने समझने और जानने की प्रक्रिया को अधिक प्रगाढ़, अधिक नवीन करे। इसी दृष्टि से अगर हम युवा कवि आलोक मिश्र की कविताओं को देखें तो यह पाते हैं कि उनकी कविताओं में जहां एक ओर हमारी पहले की देखी और पहचानी हुई दुनिया है, वहीं एक युवा कवि की निगाह से देखी हुई नई दुनिया भी है।

आलोक की कविताएँ पुराने और नए के बीच एक पुल बनाने का काम करती हैं। इसीलिए इन कविताओं को पढ़ते हुए आप पाएंगे कि यहां पिता, मां, बहन आदि तमाम संबंध नए और पुराने के बीच झूलते रहते हैं।

कवि एक सरल सी बात से शुरू करते हुए अपने दृष्टिकोण को फैलाता है. वह कल्पना और यथार्थ को, बाह्य गति और अन्दर के कोलाहल को एक दृश्य, एक भावभूमि में विन्यस्त करता है.
बेरोजगार पिता की बेटी
देखती है तारों भरे आकाश को
न जाने किस तरह से
कि आकाश बन जाता है एक बगीचा
तारे उसमें लटक रहे फल और खिलौने

यथार्थ के धरातल पर वह उम्मीद के फूल खिलाता है. वह एक फंतासी बुनता है. दृश्य में अदृश्य को शामिल करता है. हालाँकि कवि स्वयं यह नहीं जान पाता कि यह गझिन यथार्थ किस तरह उसकी दृष्टि में एक फंतासी में बदल जाता है.
स्वप्न देखना मनुष्य के लिए उसी तरह सहज और स्वाभाविक होता आया है, जिस तरह दुःख झेलना और संघर्ष करना.

अलोक की कविताओं में जो सरलता है, वह इसी सहजता से आती है. वहां दुःख झेलना, संघर्ष करना और स्वप्न देखना अलग-अलग न होकर एक ही प्रक्रिया के विविध आयाम बन जाते हैं.
बेरोजगार पिता का बेटा
देखता है रोज एक सपना
कि उसके पिता जा रहे हैं काम पर
और लौट रहे हैं वहाँ से
कंधे पर लटकाये एक भरा हुआ झोला

आलोक की कविताओं में एक वैचारिक तुर्शी, एक राजनीतिक प्रतिबद्धता नज़र आती है. वैचारिक परिपक्वता कवि के लिए जरुरी तो है. लेकिन कविताएँ सिर्फ विचार नहीं होती. अलोक की कविताओं में कहीं-कहीं काव्यानुभव की जगह बोझिल वैचारिकता नज़र आती है.
यह समय शोर का है
शोर भी जयकार का है
बाकी बोलना मना है
‘राष्ट्र के हम हैं और राष्ट्र हमारा है’

इस पंक्ति के अंत में एक प्रश्न वाचक चिन्ह
पूरे दमखम से तना है

कविताएँ जीवन अनुभव के संवेदनात्मक विस्तार से बनती हैं. ऐसे में राजनीतिक-बोध और काव्य-बोध में फर्क करने की सलाहियत किसी कवि में होना लाजमी है.
कविता के विषय चुनने में किसी कवि को आज़ाद ख्याल होना ही चाहिए.

अलोक की कविताएँ भी यह काम बखूबी करती हैं. उनकी कविताओं में आस-पास का समय समाज, बेरोजगारी, साम्प्रदायिकता, प्रेम, भूख, गरीबी, किसान, मजदूर आदि अनेक विषय हैं.
मुक्तिबोध ने कहा था कि आज के कवि के समक्ष विषयों की कमी नहीं सवाल यह है कि वह विषय से किस तरह का तादात्म्य स्थापित करता है?

जब हम कविता में प्रयुक्त विषयों की बात करते हैं, तो एक कवि से हम उम्मीद करते है कि विषय के साथ वह एक रागात्मक जुड़ाव, एक आत्मीय बोध भी प्रदर्शित करे, ताकि उसका जाना –पहचाना, देखा हुआ यथार्थ एक काव्यात्मक यथार्थ में तब्दील हो.

विषय विस्तार की जगह विषय के साथ एक आंतरिक जुड़ाव, एक आत्मीय ताप कविता की सख्त जरुरत होती है. एक नये कवि से यह उम्मीद की ही जानी चाहिए कि वह एक श्रष्टा की तरह दुनिया को देखेगा. वह दुनिया को देखने जानने और समझने के पुराने सारे नियमों से परे खुद की आँखों पर यकीन करेगा. वह हर बार अपनी असफलता को दुहरायेगा. लेकिन खुद पर यकीन करना नहीं छोड़ेगा.बकौल केदारनाथ सिंह
यह जानते हुए कि
लिखने से कुछ नहीं होगा
मैं लिखना चाहता हूँ।

लिखना अपने आप में ही एक प्रतिरोध है. अपने समय की तमाम साजिशों के विरुद्ध. हम यह उम्मीद कर सकते हैं कि आने वाले दिनों में आलोक मिश्र की कवितायें इसी उम्मीद और संघर्ष के द्वैत में तपकर अधिक प्रगाढ़, अधिक आत्मीय दुनिया का यथार्थ हमारे सामने रखेंगी.

 

अलोक मिश्र की कविताएँ

 

1. काम और स्त्री

मैंने देखा है
काम से लौटते हुए
अमूमन सबको

पर किसी स्त्री को नहीं

मैंने जब भी देखा उन्हें
काम पर लौटते देखा।

2. औरत

मैं औरत को फूल समझता रहा
पर जब-जब पास गया उसके
वह आग सी लगी

मैंने उसे घर में टंगे परदे की तरह बरता
और वह छत बनकर
तन गई मुझ पर

मैंने जब भी उसे दिया पृथ्वी की संज्ञा
वह आकाश के बादल की तरह उठी
और बरस पड़ी मुझ पर

मैंने उसे हमेशा एहसास कराया
कि वो मेरी अर्धांगनी है
और वह हाजिर होती रही लिए पूरा शरीर

मैं अक्सर उसे बाँधता रहा
पर वह अपनी ही शर्तों पर बंधी
और होती रही विमुक्त

अब मैं सोचता हूँ कि
उसे मैंने इंसान क्यों नहीं माना
औरत क्यों नहीं समझा?

 

3. पृथ्वी पर कविता

सोचा
लिखूँ पृथ्वी पर कविता

बहुत सोचने पर महज
पेड़
हवा
पानी
मिट्टी
जीवन
जैसे शब्द मिले लिखने को

छोटी होकर भी
कितनी बड़ी थी न
यह कविता

 

4. पौधा

लोहे से बुने तरह-तरह के जाल
और उन जालों से बनी आकृति में
कैद हैं अनेक पौधे
ऐसे की पौधे जाल से बन गये हैं
और जाल पौधे से
समझ नहीं आता कि जाल में पौधा है
या पौधे में जाल है

मगर पौधा कभी ऐसा होना नहीं चाहता
वह बार-बार तोड़ता है जाल की चौहद्दी
लांघता है अपनी सीमा
बावजूद की उतनी ही बार कतर दिया जाता है
लेकिन अपनी इसी आदत से
वह लोहा नहीं
पौधा कहलाता है ।

 

5. बेरोजगार पिता के बच्चे

(1)

बेरोजगार पिता की बेटी
देखती है तारों भरे आकाश को
न जाने किस तरह से
कि आकाश बन जाता है एक बगीचा
तारे उसमें लटक रहे फल और खिलौने

बेरोजगार पिता की बेटी
खुश होकर उछलती है
लपकती है एक टूटते तारे को पकड़ने
और गिरती है औंधे मुँह

उसके गिरते ही
धरती बन जाती है एक ब्लैक होल
जिसमें समा जाते हैं
सभी फल और खिलौने।

(2)

बेरोजगार पिता का बेटा
देखता है रोज एक सपना
कि उसके पिता जा रहे हैं काम पर
और लौट रहे हैं वहाँ से
कंधे पर लटकाये एक भरा हुआ झोला

बेरोजगार पिता का बेटा
लहककर लपकता है उस तक
पर वह झोला है या कोई झोल
कि लपकते ही वह और सपना
दोनों हो जाते हैं गोल।

(3)

बेरोजगार पिता के बच्चे
हालाँकि बच्चे ही होते हैं
पर उतने नहीं जितने दूसरे

वे खेलते हुए सिर्फ खेलते नहीं
बल्कि साधे रहते हैं एक अदृश्य संतुलन भी
भले उनके पास खिलौने नहीं होते
पर दूसरों के खिलौनों से भी नहीं खेलते ज्यादा
बहुत अच्छे लगने के बावजूद
क्योंकि वे डरते हैं कि कोई उन्हें
‘पिता की बेरोजगारी’ याद न दिला दे

इसीलिए वे खेलते हैं होकर बेखौफ़
इंसानी दखल से दूर
पूरी पृथ्वी को बनाकर गेंद
दिशाओं को मैदान
और बादलों को साथी

वे त्यौहार घर के अंदर मनाते हैं
बाहर सिर्फ खिड़की से उनकी आँखें आती हैं
देखती हैं नजारे, हुलसती हैं
कुछ देर नाचती-झूमती हैं
पर इससे पहले कि कोई देख ले उन्हें
कुछ याद कर सिमट जाती हैं
उनकी आँखें खिड़की से अंदर की ओर

वे जब जाते हैं बाजार
पिता के काँधे बैठ या पकड़े अंगुली
वे वहाँ चमक-दमक से भरी दुकानों से ज्यादा
देखते हैं पिता का चेहरा
और बघारते हुये चलने लगते हैं
बाजार की हर चीज़ की निस्सारता का गूढ़ दर्शन
तब वे बच्चे नहीं बाप बन जाते हैं
अपने ही बाप के

बेरोजगार पिता के बच्चे
अपनी माँ से सुनते हैं कहानियाँ
राजा-रानी और उनके ऐशो-आराम की
वे हंसते हैं यह सुनकर कि-
राजा-रानी भी परेशान रहते थे
और सोचते हैं कि- अगर वो होते राजा-रानी
तो ठीक कर देते सबकुछ
सोचते, योजना बनाते बहुत बार
वो सो जाते हैं भूखे पेट
और सपने में ही
करने लगते हैं दुनिया दुरुस्त।

6. शब्द

उसने उछाले एक से बढ़कर एक
अनोखे, नये और पुरातन शब्द
अपने ही गढ़े शब्दकोश से

शब्द जो चोट करते थे
शब्द जो ओट धरते थे
शब्द जो प्रमाणित करते थे
शब्द जो चुप करा देते थे
और उछलते ही हंगामा बरपा देते थे

उसके शब्दों को कुछ ने लपक लिया
अमृत कलश की तरह
कुछ ने पहन लिया अनमोल परिधान सा
कुछ ने पवित्र मान शिरोधार्य कर लिया

मगर कुछ की आत्मा से चिपट गये ये शब्द
विषैले सर्प की तरह
उनकी काट के लिये उन्होंने
आगे कर दिये संविधान के शब्द
मानवता के इतिहास में संघर्षों से तपकर निकले शब्द
लोकतंत्र के मस्तक पर लिखे चमकीले चटकदार शब्द

अब एक कदम पीछे हो
प्रतिरोध में उभर आये इन शब्दों को
उसने अपने शब्दों से किया नमन
फिर इन्हें रख अपने सर माथे
कर दिया स्थापित पूजाघर में

अब उसके शब्द करते हैं इनकी पूजा
गाते हैं आरती
और फिर उछल पड़ते हैं लोगों के बीच
पूर्ववत
अट्टहास करते हुये।

7. मैं और बच्चे

कक्षा में
जब मैं हो जाता हूँ पानी
बच्चे बन जाते हैं मछली
और तैर जाते हैं मुझमें
इस छोर से उस छोर तक

जब मैं बन जाता हूँ हवा
वो घुल जाते हैं मुझमें
बनकर खुशबू और
फैल जाते हैं हर ओर

जब मैं होता हूँ पेड़
वो हो जाते हैं चिड़िया
चहचहाते हैं मुझ पर
बनाकर बसेरा

और हाँ जब कभी मैं
होता हूँ पहाड़
झरने की तरह वो फूटते हैं मुझमें
और बना देते हैं
एक सुरम्य वादी
मेरे मन की तलहटी में

इस तरह
रहकर हमेशा साथ
करते हैं वो मुझे
पूर्ण
सुंदर और
लाजवाब ।

8. निर्जीव

‘निरी लकड़ी की कुर्सी है’
मुझे मालूम था… लेकिन

मैं कुछ देर में समझा

कि ‘वो अफसर भी है पत्थर
जो था पसरा हुआ उस पर।’

 

9. आत्महत्या से पहले

आत्महत्या से पहले मैं सोचूंगा
उस चिड़िया के बारे में
जिसे बचपन में मैंने ही नादानी में
गुलेल से मारकर नीचे गिरा दिया था
जिसकी चोंच खुली और आँखें फैली रह गईं थीं
वह मरना नहीं चाहती थी
जिंदगी की डोर पकड़ने को लड़ती रही
पैरों से धरती घिसटते हुये
पंखों को फड़फड़ाते हुए
देर तक तड़पते हुये

मैं भर गया था गहरे पश्चाताप से
लाकर कटोरा भर पानी, मुट्ठी भर दाना
रख दिया था उसके पास
पर मरने से पहले वह अपने शिकारी के आगे झुकना नहीं चाहती थी
वह दया से मिली हुई नहीं
खुद की गढ़ी जिंदगी जीना चाहती थी
वह जिंदगी के लिए जूझते हुए
समय गंवाना नहीं चाहती थी
प्रतिरोध वश उसने दाना-पानी नहीं लिया
वह जूझती रही और जूझते-लड़ते मर गई

जब भी मैं सोचूंगा आत्महत्या के बारे में
आत्महत्या से पहले सोचूंगा
उस चिड़िया के बारे में
और फिर अपने शिकारी के बारे में
जिसने मुझे यहाँ तक पहुँचाया
सोचूंगा कि क्या मैं उससे लड़ा
जिंदगी की खातिर क्या कभी हुआ खड़ा
क्या शिकारी के दानों को ठुकरा
कभी अपने सिद्धांतों पर मैं अड़ा
सोचूं तो शायद आत्महत्या ही न करूँ
शायद हर एक शिकारी से उम्र भर लड़ूं

10. यह समय

यह समय खेतों में काम का है
काम के लिए पैसे का है
पैसे के लिए कर्ज का
और फिर कर्ज से फाँसी का है

यह समय है उद्योग का
और उद्योग के लिए जंगल का
देखो कहीं जंगल धधका
धरती रोई पर कोई मन ही मन हंसा

यह समय शोर का है
शोर भी जयकार का है
बाकी बोलना मना है
‘राष्ट्र के हम हैं और राष्ट्र हमारा है’
इस पंक्ति के अंत में एक प्रश्न वाचक चिन्ह
पूरे दमखम से तना है

यह समय है मूर्खताओं का
तर्क विज्ञान की चिताओं का
अब काम करती हैं आँखें सिर्फ निहारने का
मुँह लार टपकाने का
हाथ गुलामी का
दिमाग बस अपनी नसें चटकाने का।

 

(कवि आलोक कुमार मिश्रा

जन्म तिथि:- 10 अगस्त 1984

जन्म स्थान:- ग्राम- लोहटा, पोस्ट- चौखड़ा, जिला- सिद्धार्थ नगर, उत्तर प्रदेश में एक गरीब किसान परिवार में

शिक्षा:- दिल्ली विश्वविद्यालय से एम ए (राजनीति विज्ञान), एम एड, एम फिल (शिक्षाशास्त्र)

वर्तमान निवास स्थान:- मकान नंबर 280, ग्राउंड फ्लोर, पॉकेट 9, सेक्टर 21, रोहिणी, दिल्ली 110086

व्यवसाय:- दिल्ली के सरकारी विद्यालय में शिक्षक (पी जी टी, राजनीतिक विज्ञान) के पद पर कार्यरत।

समसामयिक और शैक्षिक मुद्दों पर लेखन, कविता-कहानी लेखन, कुछ पत्र- पत्रिकाओं में समय-समय पर प्रकाशित भी हो चुकी हैं.
बोधि प्रकाशन से कविता संग्रह ‘मैं सीखता हूँ बच्चों से जीवन की भाषा’ प्रकाशित। तीन पुस्तकें अलग-अलग विधाओं में प्रकाशनाधीन।

मोबाइल नंबर- 9818455879
ईमेल- alokkumardu@gmail.com

कवि अच्युतानंद मिश्र युवा आलोचक और दिल्ली विश्वविद्यालय में प्राध्यापक हैं। कविता के लिए भारत भूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित हैं. सम्पर्क: anmishra27@gmail.com)

 

 

 

 

 

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