समकालीन जनमत
जनमत

सरकार की गिद्धदृष्टि किसानों की जमीन पर

( सरकार के काले क़ानूनों के खिलाफ़ आज भारत बंद है . इस मौके पर किसानों के सवालों के साथ एकजुटता दिखाते हुए  हिंदी साहित्य के अध्यापक और आलोचक प्रो. कमलानंद झा का लेख.  सं. )

 

दुनिया भर के गिद्धों से क्षमा याचना सहित यह शीर्षक प्रेषित है, क्योंकि गिद्धों की दृष्टि मृतजीवों पर लगी होती है, किंतु देश की सरकार और पूंजीपतियों की दृष्टि दिन-रात जी-तोड़ परिश्रम कर अवाम के लिये अन्न उपजाने वाले किसानों पर लगी हुई है।

जिन किसानों की बदौलत हम सभी देशवासियों की पांचों उंगलियाँ मुंह में जा पाती हैं, आज वही किसान अपने को लुटापिटा महसूस कर रहे हैं। दिल्ली की सीमाओं पर पिछले दस दिनों से वे बदहाल हैं। दिल्ली पुलिस की रायफल से निकली रबर की गोलियों, पानी की बौछार और आंसू गैस के गोले से किसान घायल और बीमार हो रहे हैं। पुलिस की बेरहम लाठियाँ इन मेहनतकश किसानों पर पड़ रही हैं और सरकार है कि उसके कानों पर जूं  तक नहीं रेंग रही।

स्कूल के दिनों में किताबों में किसानों के बारे में, उनकी मेहनत के बारे में, उनकी बदहाली के बारे पढ़ता था, पाठ्यपुस्तक में उनपर कविताएं पढ़ता था, मैथिलीशरण गुप्त की कविता आज भी स्मृति में गूंजती हैं-

बाहर निकलना मौत है, आधी अंधेरी रात है

है शीत कैसा पड़ रहा, और थरथराता गात है

तो भी कृषक ईंधन जलाकर, खेत पर हैं जागते

यह लाभ कैसा है, न जिसका मोह अब भी त्यागते

इन्हीं साहित्य संस्कारों में पलते हुए गाँव में किसानों के दुसाध्य श्रम को देखते हुए किसानों के प्रति सम्मान का भाव अंकुरित हुआ। देश की रक्षा में जुटे सैनिकों की तरह सम्मान भाव। यही किसान हैं जो इन सैनिकों के लिए भी भोजन जुटाते हैं। आज ये किसान सड़कों पर हैं। आज इनके हाथ में फावड़े और ट्रेक्टर की स्टीयरिंग नहीं हैं, नारे भरे पोस्टर हैं, ओठों पर जनगीत हैं। ये आंदोलनधर्मी हो गए हैं। ऐसे में हमारा कर्तव्य बनता है कि हम उनके साथ खड़े हों। हम उनके भविष्य की चिंताओं से जुड़कर अपने भविष्य को समझने की कोशिश करें। क्योंकि जो कृषि संबंधी तीन नए कानून बने हैं, वे भयानक रूप से किसानों के साथ आम जनता को प्रभावित करने वाले हैं। आम जनता इससे इसलिए प्रभावित होनेवाली है, क्योंकि इसका संबंध अन्न से है और अन्न से इतर कुछ नहीं। कवि नागार्जुन ने अपनी एक कविता में कहा है

‘अन्न ब्रह्म ही ब्रह्म है, बाकी ब्रह्म पिशाच।’

अधिसंख्य लोग बगैर कानून को जाने, चाटुकार मीडिया और व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के बहकावे वाली खबरों की चपेट में इन विधेयकों को किसानों के लिए लाभदायी मान रहे हैं। सरल भाषा में इसे समझने की कोशिश करें। पहला विधेयक है किसान उपज व्‍यापार एवं वाणिज्‍य (संवर्धन एवं सुविधा) विधेयक, 2020। इस कानून के अनुसार निजी उद्योगपतियों को सरकारी खरीद की एपीएमसी मंडियों के समानांतर किसानों से उपज खरीदने का अधिकार मिल गया है। मंडी में अनाज बिक्री के लिए सरकार समर्थन मूल्य निर्धारित करती है, और इसी मूल्य पर उपज खरीदती है। यह मूल्य सरकार इस तरह तय करती है कि किसानों को ठीक-लाभ मिल जाए। कई बार किसान और जननेता समर्थन मूल्य बढ़ाने की मांग भी करते हैं, जिसे सरकार कई बार सुनती भी है और कई बार अनसुनी भी कर देती है। किसानों का सरकार पर भरोसा रहता है।

ये उद्योगपति शुरू में सरकार से अधिक कीमत पर अनाज खरीदेंगे। धीरे धीरे सरकारी (एपीएमसी) मंडी जब दम तोड़ देगी तो इस खरीदारी पर उनका एकछत्र राज हो जाएगा। तब ये औने-पौने में उपज खरीदेंगे। इतना ही नहीं ये चतुर-चालबाज कंपनियां किसानों को खेती के लिए मुक्त हस्त से ऋण देंगे। फसल न होने पर या अन्य कारणों से जब किसान ऋण चुकाने में असमर्थ होंगे, तो उनकी जमीन हड़प लेंगे। इसे एक दो उदाहरणों से समझ सकते हैं। पूर्व में केवल सरकारी स्कूल थे। कम से कम लागत में गरीब बच्चे भी अच्छी शिक्षा प्राप्त कर लेते थे। निजी स्कूल ने सरकारी स्कूल को ध्वस्त कर दिया। अब गरीब बच्चों के लिए गुणवत्तापूर्ण शिक्षा दिवास्वप्न हो गयी है। बी एस एन एल को निजी कंपनियों ने मृतप्राय कर दिया है। जब यह पूरी तरह समाप्त हो जाएगा तो निजी कंपनियां फ़ोन सुविधा  का मुंहमांगा पैसा वसूल करेंगे।

मजे की बात यह है कि यह छल मंडी में सुधार के नाम पर किया जा रहा है। कानून स्वयं पढ़ लें, मंडी सुधार के नाम पर अधिनियम की चुप्पी चमत्कारी है। यह भारतीय कृषि व्यवस्था में भारी बदलाव है और बदलाव कई बार घोर विनाशकारी भी होता है। जैसे हम लोगों ने देखा कि नोटबन्दी और जीएसटी ने भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ ही तोड़ दी। काला धन की उगाही या उसकी रोकथाम तो नहीं ही हुई इसके उलट देश की जीडीपी लुढ़क  गयी। छोटे और मझोले व्यापारी बर्बाद हो गए। उसी तरह ये कानून किसानों को बर्बाद करेंगे और सरकार के प्यारे-दुलारे उद्योगपतियों को मालामाल। सीधे-सीधे इस कानून का निहितार्थ यह है कि सरकार किसानों के प्रति अपने दायित्व से मुक्त होना चाहती है और उन्हें बाजार के हवाले कर देना चाहती है। मंडी में सुधार के नाम पर मंडी को ही खत्म करने की साजिश है, यह कानून। कहाँ तो मंडियों की संख्या बढ़नी थी,  बिचौलियों से मंडी को मुक्त करना था और कहाँ किसानों को मंडी से ही मुक्त किया जा रहा है। आवश्यकता से बहुत कम मंडियां देश में हैं। उसके बदले मंडियों के अस्तित्व को ही खतरे में डाल दिया गया है। दुष्यंत की ग़ज़ल इस तरह की सचाई से हमें सावधान करती रही है-

‘कहाँ तो तय था चरागाँ हर एक घर के लिए

कहाँ चराग मयस्सर नहीं शहर के लिए।’

सरकार इस कानून को किसानों के लिए बड़ी आज़ादी के रूप में प्रस्तुत कर रही है और कह रही है कि यह कानून किसानों के बुरे दिन समाप्त कर देंगे और अच्छे दिन ला देंगे। इस आधार पर बिहार के किसान 2006 में ही आज़ाद हो गए थे। 2006 में बची-खुची मंडियां समाप्त कर दी गईं। लेकिन किसानों की हालत बद से बदतर ही हुई है।

इतिहास भारतीय कृषि में इस विनाशकारी बदलाव को याद रखेगा, क्योंकि इतिहास अत्यंत निर्मम होता है। आज गोदी मीडिया के शोर और मोदी-शाह के झूठ से लोग भ्रमित हो सकते हैं, लेकिन इतिहास भ्रमित नहीं होगा। इतिहास जब इसका मूल्यांकन करेगा तो अगली पीढ़ी के पास  सरापा के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं रहेगा।

दूसरा कानून है किसान (सशक्तिकरण एवं संरक्षण) मूल्‍य आश्‍वासन अनुबंध एवं कृषि सेवाएं विधेयक, 2020 । इस नियम के तहत उद्योगपति किसानों से किराये पर जमीन लेंगे और उस पर अपने हिसाब से खेती करेंगे। आरम्भ में अतिरिक्त लोभ में किसान जमीन देंगे, लेकिन अंततः उनमें से अधिकांश को अपनी जमीन से हाथ धोना पड़ेगा। यह कॉंट्रेक्ट फार्मिंग किसानों को मजदूर बनाने की दूरगामी षडयंत्रपूर्ण रणनीति है। कॉंट्रेक्ट फार्मिंग में उद्योगपति और किसानों के बीच फंसे विवाद के निपटारे में जो पेंचीदगियाँ हैं, वह सामान्य किसानों की समझ से बाहर है। वैसे भी केस, मुकदमा में जीत उन्हीं की होती है, जिनके पास बड़े वकील करने के पैसे होते हैं, कानून की भाषा समझने की सलाहियत होती है। यहाँ भी किसान बुरी तरह पिटेंगे।

इकनोमिक टाइम्स के एक आलेख में इस विवाद की जटिलता को स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि “इस कानून के अनुसार पहले विवाद कॉन्‍ट्रैक्‍ट कंपनी के साथ 30 दिन के अंदर किसान निपटाए और अगर नहीं हुआ तो देश की ब्यूरोक्रेसी में न्याय के लिए जाए. नहीं हुआ तो फिर 30 दिन के लिए एक ट्रि‍ब्यूनल के सामने पेश हो. हर जगह एसडीएम अधिकारी मौजूद रहेंगे. धारा 19 में किसान को सिविल कोर्ट के अधिकार से भी वंचित रखा गया है. कौन किसान चाहेगा कि वह महीनों लग कर सही दाम हासिल करे? वह तहसील जाने से ही घबराते हैं. उन्हें तो अगली फसल की ही चिंता होगी.”

तीसरा कानून है ”आवश्यक वस्तु संशोधन विधेयक, 2020”. यह कानून आम जनों को भी अपने दायरे में लेता है। अब कृषि उपज जुटाने की कोई सीमा नहीं होगी. उपज जमा करने के लिए निजी कंपनियों को यह कानून खुली छूट देता है.  यह काला कानून जमाखोरी और कालाबाजारी को कानूनी वैधता प्रदान करता है।  कानून में साफ-साफ लिखा हुआ है कि  सरकार सिर्फ युद्ध या भुखमरी या किसी बहुत विषम परिस्थिति में रेगुलेट करेगी. यानी अन्य समयों में सरकार निजी कंपनियों को जमाखोरी का लाइसेंस दे रही है। सरकार का लोक लुभावन पक्ष यह है कि किसान भी अपनी उपज सुरक्षित रखेंगे और सही या अधिक दाम होने पर उसे बेच सकेंगे। एक पाँचवीं कक्षा का विद्यार्थी भी जानता है कि  कितने किसानों के पास भंडारण की सुविधा है। जब सरकार के पास ही यथोचित भंडारण की सुविधा नहीं है तो किसानों के पास कहाँ से होंगी? लेकिन उद्योगपतियों के लिए यह साधारण बात है। एक से एक  कोल्ड स्टोरेज ये बनवा सकते हैं, और उपज को जमा रख सकते हैं। इस तरह खुली बाजार में ये जब चाहें अपने हिसाब से अनाज का मूल्य तय कर सकते हैं। इस मूल्य का सीधा असर देश की आम जनता पर पड़ेगा। कोई आश्चर्य नहीं गेहूँ चावल के दाम भी आसमान छूने लगे।

इस काले कानून के विरोध में संस्कृतिकर्मी, खिलाड़ी,  सिनेमाकर्मी, राजनेता एकजुट ही नहीं हो रहे बल्कि  अपने-अपने पुरस्कार भी वापस कर रहे हैं। पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल  ने पद्मविभूषण पुरस्कार वापस कर दिया है. अवार्ड वापसी को लेकर गोल्डन गर्ल राजबीर कौर, ओलंपियन दविंदर सिंह गरचा और ओलंपियन गुरमेल सिंह ने कहा है कि वो अपने अवॉर्ड और मेडल वापस करने के लिए दिल्ली जा रहे हैं. खिलाड़ी जो अवार्ड वापस कर रहे हैं उनमें द्रोणाचार्य अवॉर्ड, अर्जुन अवॉर्ड, मेजर ध्यानचंद जैसे महत्वपूर्ण अवॉर्ड शामिल हैं.

8 दिसम्बर को किसानों ने भारत बंद का आह्वान किया है। जबर्दस्त घेराबंदी की सुनियोजित योजना है। सरकार की नींद उड़ी हुई है। यह आंदोलन न सिर्फ किसान और मेहनतकश अवाम बल्कि सरकार के भविष्य को निर्धारित करनेवाला साबित हो सकता है।

 

(मधुबनी, बिहार में जन्मे प्रोफ़ेसर कमलानंद झा की  हिन्दी और मैथिली आलोचना में गहरी अभिरुचि है । वे सौ से अधिक नुक्कड़ नाटकों की प्रस्तुति एवं निर्देशन कर चुके हैं |  तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादाबोध (वाणी प्रकाशन), पाठ्यपुस्तक की राजनीति (ग्रन्थशिल्पी), मस्ती की पाठशाला (प्रकाशन विभाग), राजाराधिकरमण प्रसाद सिंह की श्रेष्ठ कहानियां, सं0(नेशनल बुक ट्रस्ट), होतीं बस आँखें ही आँखें (यात्री-नागार्जुन का रचना-कर्म, विकल्प प्रकाशन) आदि इनकी प्रमुख प्रकाशित कृतियाँ हैं । वे अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय, अलीगढ़ के हिन्दी विभाग में प्रोफेसर के पद पर कार्यरत हैं। jhakn28@gmail.com)    

 

(फ़ीचर्ड तस्वीर के छायाकार सौरभ कुमार ‘प्रतिरोध का सिनेमा’ अभियान के मुंबई चैप्टर के संयोजक के साथ -साथ लाकडाउन के दौरान हुए  चर्चित हुए मीडिया अभियान ‘पब्लिक बोलती’ के  चार संस्थापकों में से एक हैं ।  saurabhverma4592@gmail.com)     

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