आलोक रंजन
अक्सर अपने फूहड़ और अश्लील स्वरूप को लेकर चर्चा में रहने वाले भोजपुरी गानों की दुनिया में पिछले दिनों एक अलग बात सामने आयी और उसने इस कला-रूप को अपनी परंपरा से जोड़ दिया । ‘बंबई में का बा’ नामक भोजपुरी रैप ने इस भाषा के गीतों में निहित जनसरोकारों की ओर सबका ध्यान दिलाया । इसने उस सांस्कृतिक विरासत की ओर सबका ध्यान खींचा जिसमें भिखारी ठाकुर, रसूल मियाँ, जैसे कलाकार आते हैं और उनकी जन पक्षधरता आती है ।
यह गीत काम के सिलसिले में अपने घर से बाहर पलायन कर जाने वालों की पीड़ा का लेखाजोखा है । इसकी लोकप्रियता ने काम के सिलसिले में होने वाले पलायन को नए सिरे से बहस के केंद्र में रखा है ।
पलायन पर जाने से पहले इस गीत में आयी बातों को देखना जरूरी जान पड़ता है । ऊपरी तौर पर देखें तो गीत उन लाखों लोगों की आवाज़ लगता है जो रोज़ ब रोज़ रोज़ीरोटी की तलाश में अपना घर छोड़ते हैं । थोड़ी पड़ताल करने पर उनके बीच के विभाजन की परतें भी उघड़ने लगती हैं जो गीत के मूल भाव और उसके साथ दिखाये गए दृश्यों से मेल नहीं खाते । साथ ही उस दर्शन के विपरीत ठहरते हैं जिसके दायरे में इसे देखा जा रहा है ।
यक़ीनन जिनका दो बीघा में घर है वे भी काम के सिलसिले में बाहर जाते हैं लेकिन ऐसे लोग बहुत कम हैं । दो बीघा में घर एक प्रतीक है जिसका अर्थ ठीकठाक जमीन रखने वाले परिवार से ले सकते हैं । गीत के साथ समस्या यहीं पर आकर खड़ी होती है ।
बिहार और उससे जुड़ा शब्द ‘बिहारी’ हिंदीभाषी श्रमिकों के लिए रूढ़ हो गया है साथ ही जिस भोजपुरी भाषा का यह गीत है उसे बोलने वाले सबसे ज्यादा लोग भी यहीं के हैं । भारत सरकार के कृषि मंत्रालय के अनुसार बिहार 82.9 प्रतिशत किसान छोटी जोत वाले किसान हैं जो हाशिये पर हैं ।
भूमि सुधार के अभाव में खेती ने बिहार में कृषि आधारित आधुनिक उद्योगों के लिए न तो कोई ज़मीन बनायी, न ही रास्ता । आज़ादी के पहले से ही राज्य के लोग रोज़गार की तलाश में बाहर जाते रहे हैं । स्वतन्त्रता मिलने के बाद भी इस स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया । बाद में स्थिति यहाँ तक आ गयी कि छोटी जोत वाले किसानों की खेती पूरी तरह से चरमरा गयी । बिहार से काम के लिए पलायन कर बाहर जाने वालों में इस वर्ग का एक बड़ा योगदान है । ज़ाहिर है बंबई या किसी भी अन्य जगह जाकर काम करने वालों में से ‘लमहर चाकर घर दू तलिया ’ कहने वाले बहुत कम हैं लेकिन ये भाव एक ऐसी मानसिक संरचना निर्मित करते हैं जो यह सोचने से रोकती है कि पलायन क्यों होता है उल्टे एक क्षणिक गर्व का आभास करवाते हैं । हालाँकि, गीत का एक बड़ा हिस्सा प्रवासियों की समस्याओं से जुड़ा हुआ है लेकिन वह अपने ही विरोधाभास में उलझा लेता है । इसे समझने के लिए बिहार से पलायन की पूरी प्रक्रिया को समझने की जरूरत पड़ेगी ।
औपनिवेशिक काल से ही बिहार के लोग काम के लिए पलायन करते रहे हैं । छोटी जोत और कम आमदनी वाली कृषि को हम ऊपर देख ही चुके हैं लेकिन इसके गहरे प्रभावों को देखने की आवश्यकता होगी ।
सामाजिक स्तर पर देखें तो भूमिहीन और लगभग भूमिहीन लोगों के पास कोई प्रभावी शक्ति नहीं है । जमींदार वर्ग के पास राजनीतिक से लेकर सामाजिक जीवन को नियंत्रित करने वाली सारी ताक़तें हैं । इसकी छाप भूमि आधारित ‘सेनाओं’ में देख सकते हैं ।
जमीन के असमान बटवारे ने ही इन निजी सेनाओं को खड़ा किया । इस लड़ाई ने एक रक्तरंजित इतिहास देखा है जिसमें भूमिहीन और दलितों को ज्यादा हानि उठानी पड़ी । समाज के इस स्वरूप ने बिहार में श्रमिकों की स्थिति को भी प्रभावित किया । श्रम संसाधन विभाग, बिहार सरकार की ताज़ा घोषणा के अनुसार अकुशल श्रमिक की न्यूनतम दैनिक मजदूरी 287 रूपय है जो अन्य राज्यों के मुक़ाबले कम है । केरल से तुलना करें तो यह मजदूरी आधे से भी कम है । बिहार में ‘अत्यंत कुशल’ श्रमिक के लिए सरकार द्वारा तय दिहाड़ी भी बस 444 रूपय ही है ।
हरित क्रांति के बाद से ही दैनिक मजदूरी के अंतर ने श्रमिकों को पलायन के लिए प्रेरित करना शुरू कर दिया । उन दिनों यह प्रवास एक राज्य के ग्रामीण इलाके से दूसरे राज्य के ग्रामीण इलाके तक ही सीमित रहा लेकिन हरित क्रांति के क्षीण पड़ने और 1991 के आर्थिक सुधारों के बाद से यह पलायन दिल्ली मुंबई जैसे शहरों की ओर हुआ ।
भूमि के गैरबराबरी वाले बँटवारे से उपजी सामंतवादी सामाजिक समझ ने बेरोज़गारी को देखने का चश्मा भी बदलकर रख दिया । जिन्हें कोई काम नहीं मिलता उनके बेकार रह जाने का दोष उनका अपना हो जाता है , वे ही अयोग्य ठहरा दिए जाते हैं । इससे समाज और व्यवस्था की असफलता को देखने का विकल्प ही नहीं रहने दिया जाता है ।
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन एकोनोमी (सीएमआईई) के ताज़ा आंकड़े बताते हैं कि बिहार की बेरोज़गारी दर 46.6 प्रतिशत है । यह दर , राष्ट्रीय बेरोज़गारी दर से दोगुनी है । रोज़गार के इस अभाव को देखने का सामंती नज़रिया इतनी भयावह स्थिति के बाद भी इसे आसन्न विधानसभा चुनाव का मुद्दा बनने नहीं दे रहा । ऐसा नहीं है कि यह दृष्टि यहीं आकर ठहर जाती है । ऐसा होता तो गनीमत थी । इसने दलितों और आदिवासियों के पलायन को बुरी तरह प्रभावित किया ।
सामाजिक संरचना में अपनी जगह तलाशते इन वर्गों के लिए कुछ भी नहीं हैं ऊपर से रोज़गार की ख़राब स्थिति । बिहार के दलित और आदिवासी समूह की रोज़गार और जमीन धरण करने स्थितियों की तुलना समाज के अन्य वर्गों से करें तो पूरी कहानी समझ में आती है ।
एनएसएसओ की एक रिपोर्ट बताती है कि अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के केवल 4 प्रतिशत लोगों के पास 1 हेक्टेयर से ज्यादा भूमि है । उद्योग धंधों की ख़राब स्थिति , कृषि के क्षेत्र में भूमि का असमान वितरण और उससे उपजी सामंती सोच आदि ने मिलकर बड़ी संख्या में बिहार के लोगों को पलायन के लिए विवश किया ।
श्रमिकों के पलायन के भावुक कर देने वाले दृश्यों और द्रवित कर देने वाले शब्दों के पीछे छिपे रह जाने वाले सच के माध्यम से इस गीत को समझने की दिशा में आगे बढ़ते हुए हम उस पड़ाव पर आ चुके हैं जहाँ मुंबई या किसी और जगह की वास्तविकताएँ प्रवासियों के सामने आती हैं । यह एक ऐसी स्थिति है जिसमें व्यक्ति न तो अपनी जड़ों से मुक्त हो पाता, न ही , नए समाज में स्थापित हो सकने वाली बात ही संभव है ।
स्थानीय समुदाय कभी भी प्रवासियों को स्वीकार नहीं करता । उनकी हैसियत एक नागरिक की भी नहीं रह जाती जो कभी भी अपने कार्यस्थल के निवासियों के बराबर नहीं माना जा सकता । उन्होने जब भी अपनी बराबरी साबित करनी चाही है झगड़े – फ़साद हुए हैं । बिहार से बाहर काम करने गए लोगों के संघर्ष को इस दृष्टि से भी देखने की जरूरत है । समय समय पर बिहारी कामगारों को महाराष्ट्र में मनसे और शिवसेना , पंजाब में खलिस्तानियों और उत्तरपूर्व में उल्फ़ा आदि समूहों के क्रोध का सामना करना पड़ा है । इन झड़पों की जड़ में वही सामान्य नागरिक अधिकार न देने वाली कहानी है ।
वर्ष 2007 के मुंबई की कहानी दोहराने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए लेकिन यहाँ लुधियाना की एक घटना का ज़िक्र ज़रूरी है । 2009 में पंजाब के इस औद्योगिक नगर में पुलिस और परवासी मजदूरों के बीच झड़प हुई । बड़ी तेज़ी से इसने स्थानीय जाट समुदाय और बाहरी की लड़ाई का रूप ग्रहण कर लिया । स्थानीय मीडिया और लोगों के हाथ मिला लेने से स्थिति बहुत गंभीर हो गयी । बाहरी लोगों के खिलाफ़ हुई हिंसा की कोई खबर ही बाहर नहीं आयी । बाद में घटना स्थल पर गयी ‘फ़ैक्ट फ़ाइंडिंग टीम’ के जाने के बाद ही नए तथ्य आ पाये ।
‘बंबई में का बा’ गाने में इसी सामाजिक बहिष्कार का दुख सामने आया है । देखने में आया है कि बाहर से गए श्रमिक जल्दी ही वहाँ की भाषा सीख लेते हैं चाहे वह भाषा कितनी ही कठिन क्यों न हों । यदि वे अपने परिवार के साथ जाते हैं तो उनके बच्चे स्थानीय भाषा में पढ़ाये जाने वाले विद्यालयों में भी पढ़ने लगते हैं । इन सबके बावजूद स्थानीय समाज उन्हें अपनाने से बचता है । इसकी झलक हमें हर जगह प्रवासी मजदूरों के लिए प्रयोग में आने वाले शब्दों में मिल जाती है । सभी हिन्दी भाषी श्रमिकों के लिए ‘बिहारी’ या ‘भैया’ शब्द गाली के रूप में प्रयोग किए जाते हैं । गीत में आए ‘घड़ी घड़ी पे डांटय लोगवा / ढंग से केहू बतावे ना’ को इसी अर्थ में समझना पड़ेगा । यहाँ रोचक बात यह भी है कि अन्य प्रदेश से आए श्रमिकों को ‘बिहारी’ कहलाने से चिढ़ होती है । इसके पीछे उनकी अपनी अस्मिता के बजाय बिहारी मजदूरों को हेय मानने की प्रवृत्ति ज्यादा काम करती है ।
आख़िर मुंबई में है क्या ? मुंबई या कोई अन्य स्थान जहाँ प्रवासी कामगार जाते हैं वे अपनी तमाम खामियों के बावजूद रोजगार देते हैं । यह एकमात्र कारण भी लोगों को अपना घर छोडने और साफ विपरीत परिस्थितियों में जीने के पर्याप्त है । इसके अतिरिक्त इसकी सामाजिक उपयोगिता भी है । इस प्रकार की जगहों ने सामाज में अपनी स्थिति सुदृढ़ करने में बड़ी मदद की है । आर्थिक रूप से सक्षम व्यक्ति ने रूढ हो चुके सामाजिक नियमों को भले ही धीमे धीमे लेकिन तोड़ना अवश्य शुरू कर दिया है । इससे सामूहिक गतिशीलता में और ग्रामीण संरचना में नए बदलाव देखे जा सकते हैं । उन समूहों को स्वर मिला है जो अब तक पिछड़े माने जाते थे । इस तरह के शहरों ने जाति संबंधी पहचान को तोड़ा है । इसका प्रभाव प्रवासी श्रमिकों पर भी पड़ा ।
बिहार जैसे राज्य जहाँ जातिवाद गहरी जड़ें जमाये हुए है वहाँ सवर्ण और दलित के एक साथ एक ही कमरे में रहने की कल्पना भी नहीं की जा सकती लेकिन इन शहरों ने खर्च बचाने की ज़रूरत के कारण एक साथ कर दिया । इस प्रकार के शहरों की इस भूमिका को ख़ारिज़ नहीं किया जा सकता ।
इस गीत का हासिल क्या रहा इस पर भी विचार करना ज़रूरी है । बिहार से निकलते ही बिहार को लेकर एक प्रेम अपने आप उमड़ता है । यह स्वाभाविक भी और हर जगह से जुड़े लोगों के लिए यह इसी तरह से काम करता होगा । तभी इतनी सारी पहचान है और उन पहचानो से जुड़ी राजनीति और व्यवहार हैं । अस्मिता सबकी उतनी ही जरूरी है और सब उसके प्रति उतने ही भावुक भी होते हैं । अलग – अलग संस्थाओं द्वारा आए दिन आंकड़े जारी होते रहते हैं , उनकी रिपोर्ट्स आती हैं । उन रिपोर्ट्स में बिहार का सकारात्मक स्थान खोजने पर नहीं मिलता । बेरोजगारी दर बहुत ज्यादा है , उद्योग धंधों का विनाश हो चुका है । शिक्षा और साक्षरता अलग अलग बातें हैं लेकिन बिहार की साक्षरता दर बहुत कम है तो शिक्षा की स्थिति भी दयनीय है । विश्वविद्यालयों में परीक्षाएँ समय पर नहीं होती । साधारण बी ए करने में पाँच से छह साल लग जाते हैं । परीक्षाओं में भरपूर कदाचार है । स्वास्थ्य सेवाओं की हालत दयनीय है । परिवहन की स्थिति को देखें तो सर पीट लेंगे । कुछ जगहों पर केवल रेल से ही संपर्क किया जा सकता है और कोई बड़ा पुल टूट गया तो नाव या चचरी पुल से काम चलता है । सारी व्यवस्था जुगाड़ के सहारे चलती है । हाल में एक रिपोर्ट आई है एनसीआरबी की । उसमें बिहार को सांप्रदायिक दंगों की राजधानी कहा गया है । ‘बंबई में का बा’ गीत अलग शब्दों में इन सब स्थितियों को सामने रखता है । यहीं से एक राह निकलती प्रतीत होती है । इस गीत ने जिस अस्मितामूलक संघर्ष को उभारा है उसके मद्देनज़र प्रवास वाली जगहों के मुक़ाबले स्थानीय स्तर पर स्थिति सुधारने के प्रयास ज़रूरी हो जाते हैं ।
भूमि सुधार से लेकर , न्यूनतम मजदूरी में वृद्धि , सामंती सोच से छुटकारा , शिक्षा – स्वास्थ्य और परिवहन के साधनों में बदलाव की बड़ी ज़रूरत महसूस की जा रही है । सरकारें आती और जाती रहती हैं लेकिन ये सारे पक्ष उपेक्षित ही रह जाते हैं । ज़रूरत अपनी आवश्यकताओं को समझकर उसकी पूर्ति के लिए सरकार पर दबाव बनाने की है । अन्यथा इस तरह के गीत आकर प्रसिद्ध भी होते रहेंगे लेकिन स्थिति वहीं की वहीं रहेगी , कोई बदलाव नहीं आएगा ।
आलोक रंजन, चर्चित यात्रा लेखक हैं, केरल में अध्यापन, यात्रा की किताब ‘सियाहत’ के लिए भरतीय ज्ञानपीठ का 2017 का नवलेखन पुरस्कार ।