समकालीन जनमत
सिनेमा

औरतों की बहुत सी कहानियाँ हमारा इंतज़ार कर रही हैं

(कोविड -19 की त्रासदी ने हमारे जीवन के सभी पहलुओं पर असर डाला है . हमारी सिनेमा बिरादरी के क्रियाकलाप पर भी इसका बहुत प्रभाव पड़ा है. समय की जरुरत को समझते हुए प्रतिरोध का सिनेमा अभियान ने ऑनलाइन सिनेमा स्क्रीनिंग की तरफ रुख किया है. इस सिलसिले में यह अभियान  हर सप्ताह जरुरी फ़िल्मों के लिंक अपने  दर्शकों को उपलब्ध करवा रहा है और उसके बाद हर शनिवार फ़िल्म से सम्बंधित निर्देशक और दूसरे जुड़े हुए लोगों के साथ फ़ेसबुक के लाइव प्लेटफ़ॉर्म पर अपने दर्शकों के साथ संवाद कायम करने की कोशिश की जा रही है.
इस सिलसिले में प्रतिरोध का सिनेमा ने अपनी नौवीं ऑनलाइन साप्ताहिक फ़िल्मस्क्रीनिंग के लिए 9से 15 अगस्त वाले सप्ताह के नारीवादी इतिहासकार और फ़िल्मकार उमा चक्रवर्ती की फ़िल्मों  ‘एक इंकलाब और आया’ और ‘प्रिज़न डायरीज़’  का चयन किया और 15 अगस्त को अपने फ़ेसबुक लाइव मंच पर उमा चक्रवर्ती के साथ लगभग 90 मिनट की विचारोत्तेजक बातचीत की. इस बातचीत में प्रतिरोध का सिनेमा अभियान से विनीता वर्मा और संजय जोशी जुड़े. इस बातचीत और इस सप्ताह की फ़िल्म स्क्रीनिंग का केन्द्रीय मुद्दा ‘आज़ादी के मायने’ था. पेश है इस बातचीत की रपट विनीता वर्मा द्वारा. सं.)

बातचीत की शुरूआत में ही उमा जी ने बताया की किस तरह से एक नारीवादी इतिहासकार ने दस्तावेजी फ़िल्मकार का रास्ता अपनाया। उन्होने बताया की एक इतिहासकार के लिए दस्तावेज़ और उनका संग्रह ही सब कुछ होता है और वो बहुत अरसे से दस्तावेज़ों का संग्रह कर रही है और लगातार आज़ादी और महिला आंदोलनों से जुड़ी महिलाओं का इंटरव्यू लेती रही हैं। इसी दौरान एक दस्तावेज़ उनके सामने आया जो उनकी दोस्त मैत्रेय की नानी का एक दस्तावेज़ों से भरा ट्रंक था। जिस बेहतरी के साथ वो दस्तावेज़ीकरण था वो उन्हे बहुत खास लगा और ख्याल आया कि इस पर एक फ़िल्म बन सकती है। अपने कई स्टूडेंट से फ़िल्म बनाने की बात भी कही लेकिन जब कोई नहीं बनाया तो खुद ही फ़िल्म बनाने का निर्णय लिया । इस तरह से पहली फिल्म छुपा हुआ इतिहास (A Quite Little Entry) 2008 में शुरू हुई और 2010 में पूरी हुई।

‘छुपा हुआ इतिहास’ का पोस्टर . साभार : उमा चक्रवर्ती 

ये पूछे जाने पर कि जब सिनेमा बनाना शुरू किया तो फिल्म के लोकप्रिय फ़ीचर फ़िल्म माध्यम  को छोड़ कर दस्तावेज़ी  फिल्मों का माध्यम ही क्यों अपनाया ? उमा जी ने कहा कि इस माध्यम से मेरा बहुत जुड़ाव है क्योंकि डाक्यूमेंटरी सिनेमा का भी क़िस्सागोई , इतिहास और दस्तावेज़ से गहरा रिश्ता है। ये इतिहास के साथ -साथ रोज़मर्रा के जीवन से भी जुड़ा है। इन सब के अलावा 4 साल की उम्र से मैं फिल्में देख रही हूँ। दस्तावेज़ी सिनेमा के जरिये लोगों और समाज को समझने का मौका मिला। इसलिए कभी व्यावसायिक सिनेमा के बारे में सोचा भी नहीं।

‘एक इंकलाब और आया’ को कब और कैसे सोचा। आप के पास दस्तावेज़ के नाम पर केवल डायरी, कुछ पन्ने और पत्र ही रहे । इतने कम साधनों में फ़िल्म को कैसे बनाया।

उमा जी ने बताया कि एक महिलावादी इतिहासकार होने के नाते मेरे लिए आज़ादी का मतलब सिर्फ़ देश की आज़ादी से नहीं है। औरतों के लिए आज़ादी क्या है? एक आम औरत को इतिहास के बड़े – बड़े आंदोलन कैसे प्रभावित करते है? इन्हीं सवालों  के साथ पहली फ़िल्म  शुरू की थी। औरतें अपने पीछे एक ऐतिहासिक धरोहर छोड़ जाती हैं । इसके बाद की फ़िल्म ‘फ्रेगमेंट्स ऑफ पास्ट’ एक तरह से पहली फ़िल्म से जुड़ी हुई थी। पहली फ़िल्म एक नानी की कहानी थी और दूसरी उनकी नतिनी की कहानी। मैं तो बस ये दो फ़िल्में बनाकर अपना दस्तावेज़ी सिनेमा के साथ एक रिश्ता पूरा कर लिया था। लेकिन इन फ़िल्मों के शो के दौरान नौजवान दर्शको के सवाल कि आपकी अगली फ़िल्म क्या होगी, ने अगली फ़िल्म के ख्याल को पैदा किया। इत्तफ़ाक से ख़दीजा से मुलाक़ात हुई और उनके इंटरव्यू के साथ महिला राजनैतिक बंदियो के विषय को अगली फ़िल्मों के लिए पुख्ता किया। एक इंकलाब पहले ख़दीजा  के इंटरव्यू तक ही था लेकिन जब उनके साथ लखनऊ गयी तो फ़िल्म 47 से पहले और 47 के बाद दो हिस्सों में विकसित हुआ। फ़िल्म के शुकरा वाले हिस्से के लिए हमारे पास उनकी किताब और खतों के अलावा कुछ नहीं था इसलिए रंजन पालित को कैमरे के लिए बुलाया और उस भाग को डॉक्यूड्रामा में पूरा किया। ठीक वैसे ही जैसे ‘छुपा हुआ इतिहास’ की मुख्य किरदार हमारे साथ नहीं थी उन्हे बनाने की कोशिश ड्रामा के जरिये किया गया।

‘एक इंकलाब और आया’ से जुड़ी  एक दस्तावेज़ी तस्वीर . साभार : उमा चक्रवर्ती 

आपकी सारी फ़िल्मों  के सहयोगी महिलाएं है ऐसा क्यों है ? आगे के फ़िल्मों  की क्या प्लानिंग है।

इस पर उमा जी ने कहा की फ़िल्म बनाने से पहले ही मैं बहुत सी ऐसी औरतों को जानती थी जो दस्तावेजी सिनेमा से जुड़ी थी। तो जब मैंने फ़िल्म बनाने का सोचा तो एक निर्देशक का काम तो मुझे पूरी तरह पता था लेकिन कैमरा, एडिटिंग के लिए स्वाभाविक रूप से औरतों की ही टीम बनी। चूंकि मैं औरतों के साथ ही साक्षात्कार कर रही थी और फिल्म बनाने के दौरान मुख्य किरदारो के साथ भी एक मजबूत रिश्ता बन जाता है इसलिए औरतों के टीम के साथ एक सहजता थी। कई बार कुछ सवालों के साथ इतने व्यक्तिगत और भावनात्मक अनुभव शेयर होते हैं कि मेरा कैमरा भी वहां बहुत व्यक्तिगत लगना चाहिए और ये केवल महिला कैमरावुमेन ही समझ कर कैद कर सकती है।

अंत मे उमा जी ने दर्शकों के सवालो का जवाब देते हुए कहा कि पहले और आज के राजनैतिक स्वरूप मे समानता भी है और अंतर भी। पहले के समय आपातकाल घोषित कर के लोगों को भारी संख्या मे जेल मे डाला गया। इसलिए एकजुट विरोध भी हुए। लेकिन आज अलग -अलग स्टेज पर आपातकाल लागू हो रहा है तो एक सामूहिक चेतना नहीं बन पा रही है। हमे इस प्रतिरोध को एकजुट करना होगा। निश्चय ही  जिस तरह से पिछले कुछ समय से लड़कियां  और औरतों स्टेट से सीधे लड़ाई लड़ रही हैं  उनको सलामी है। ये औरतें  राजनीति और आज़ादी के नए मायने बदल रही हैं । ये नौजवान लड़के – लड़कियां ही मेरे लिए नयी उम्मीद हैं ।

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